रविवार, 11 जुलाई 2010

संघ की हत्या का प्रयास

‘‘अजमेर में 2007 में हुए बम विस्फोटों के अभियुक्तों का कथित रूप से बचाव करने पर आरएसएस के दो नेता सीबीआई की जांच के घेरे में आ गए हैं। एक न्यूज चैनल ने सीबीआई सूत्रों के हवाले से बताया कि उत्तरप्रदेश में आरएसएस के दो वरिष्ठ नेता अशोक वाष्र्णेय व अशोक बेरी ने न केवल अभियुक्त देवेंदर गुप्ता को अपने यहां ठहराया बल्कि लखनऊव सीतापुर में उसके ठहरने की व्यवस्था भी की। सूत्रों ने यह भी बताया कि देवेंदर ने यह खुलासा वाष्र्णेय व बेरी की उपस्थिति में सीबीआई अधिकारियों के समक्ष किया। वहीं अभियुक्त के वकील उमर दान ने कहा कि इन लोगों को राजनीतिक तौर पर निशाना बनाया जा रहा है। उन्होंने कहा, सीबीआई का एक राजनीतिक एजेंडा है। वे एक निश्चित सोच के साथ लोगों को निशाने पर ले रही है। ये नेता किसी तरह की असामाजिक कार्रवाई में लिप्त नहीं हैं। इस बीच सीबीआई निदेशक ने इस बारे में कोई जानकारी देने से इनकार कर दिया। शनिवार को संवाददाता सम्मेलन में उन्होंने कहा कि सीबीआई जल्द ही इस मामले में हुई प्रगति की जानकारी कोर्ट के समक्ष रखेगी।’’
यह समाचार इन दिनों भारत के सेकुलर ब्रांड मीडिया की पंसदीदा खबरों में से एक है। 1925 से राष्ट्र साधना के पुनीत कार्य में लगे संघ और उसके प्रचारकों को इस प्रकार से सुनियोजित रूप से बदनाम करने के पीछे यूपीए सरकार के साथ-साथ उन विदेशी शक्तियों का हाथ होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता जो हिन्दूत्व के पुनरूत्थान को अपनी राह का सबसे बड़ा रोड़ा मानते है।
एक बार फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हत्या का प्रयास किया जा रहा है। यह न तो पहली बार है और न अंतिम बार। संघ की स्थापना 1925 में हुई तब से लेकर अब तक संघ पर कई बार जानलेवा हमला किया गया है। संघ के इतिहास में सबसे पहला, ज्ञात और बड़ा हमला 1948 में हुआ था। तब देश अंग्रेजों के कब्जे से मुक्त हुआ ही था, लेकिन विभाजन और हिन्दू नरसंहार की विभीषिका भी झेल रहा था। कांग्रेस के सर्वेसर्वा नेहरू को गांधी हत्या के रूप में एक बड़ा हथियार मिल गया। नेहरू ने गांधी की हत्या को अपने राजनीतिक कैरियर के लिए एक सुअवसर के रूप में देखा। एक तरफ गांधी को सिरे से नकारने और दूसरी ओर अपने विरोधियों के खात्मे का इससे अच्छा मौका और क्या हो सकता था। नेहरू ने अंग्रेजों से हाथ मिलाया और गांधी हत्या में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आरोपित कर दिया।
देश में गांधी के प्रति स्थापित असीम श्रद्धा और सम्मान का नेहरू ने दुरूपयोग करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवकसंघ के खिलाफ इस्तेमाल किया। आजादी के बाद गलत नीतियां अपनाए जाने और गांधी को नकारने के कारण नेहरू के खिलाफ जो माहौल बन रहा था, उसे बड़ी चतुराई से संघ की आरे मोड़ दिया गया। एक तीर से कई-कई निशाने। यह नेहरू का राजनीति कौशल था जो उन्होंने गांधी और अंग्रेजों से सीखा था। नेहरू इस राजनीतिक कौशल का सीमित इस्तेमाल अंग्रेजों के खिलाफ कर पाये, लेकिन गांधी और संघ के खिलाफ उन्होंने इसका भरपूर इस्तेमाल किया। संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। संघ को समाज से तिरस्कृत और बहिष्कृत कर उसपर कानूनी शिकंजा कसने की काशिश भी की गई। सबको पता है कि गांधी हत्या मामले से संघ को बाइज्जत बरी कर देने और संघ को निर्दोष बताने के बावजूद कांग्रेस के नेता आज भी गांधी हत्या में संघ का नाम घसीटने से बाज नहीं आते। यह अलग बात है कि संघ के लोगों ने कभी कांग्रेसियों को न्यायालय की अवमानना का नोटिस नहीं दिया। संघ पर दूसरा जानलेवा हमला इंदिरा गांधी ने आपातकाल के समय किया। संघ को लोभ-लालच और भय से निष्क्रिय या कांग्रेस के पक्ष में सक्रिय करने का प्रयत्न किया गया। कांग्रेस की शर्त न मानने पर संघ को नेस्तनाबूत कर देने की कोशिश हुईं। इस बार भी संघ को प्रतिबंधित किया गया। संघ इस हमले न सिर्फ बाल-बाल बच गया बल्कि देश ने कांग्रेस को करारा जवाब भी दिया। संघ पर तीसरा बड़ा हमला 1992 में किया गया जब अयोध्या में विवादित बाबरी ढांचा टूटा। तब केन्द्र में कांग्रेस की ही सरकार थी और नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे। प्रधानमंत्री राव ने नेहरू की ही तरह कुटिल राजनीतिक कौशल का परिचय दिया। उन्होंने भी एक तीर से कई-कई निशाने लगाए। एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत विवादित ढांचे को ढहने दिया गया। बाद में ढांचे के विध्वंस में संघ-भाजपा को आरोपित कर पहले तो भाजपा की चार राज्य सरकारों को बर्खास्त किया गया और बाद में संघ पर प्रतिबंध लगाया गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर यह तीसरा कांग्रेसी प्रतिबंध था। संघ की स्थापना और कार्य एक पवित्र उद्देश्य से है। संघ के स्वयंसेवक संघ कार्य को ईश्वरीय कार्य मानते हैं। संघ भारत राष्ट्र के परम वैभव के लिए प्रयत्नशील है। यही कारण है कि संघ पर बार-बार घातक और जानलेवा हमले होते रहे हैं, लेकिन संघ इस हमले से बार-बार सही सलामत बच निकला। कांग्रेस ने भले ही हमले किए हों, लेकिन समाज ने हमेशा संघ को स्वीकारा और सराहा। संघ हमेशा हिन्दू समाज की रक्षा करता आया है, इसीलिए कांग्रेसी हमलों से संघ को समाज बचाया है। संघ और हिन्दू शक्तियों पर ऐसे हमले न जाने कितनी बार हुए। उपर की गिनती तो सिर्फ बड़े हमलों की है। संघ के दुश्मनों ने कई बार रणनीति बदल कर हमले किए। पिछले लोकसभा चुनाव के पूर्व कांग्रेस की हालत पतली थी। आतंकवाद, आंतरिक सुरक्षा के खतरे, मंहगाई, अल्पसंख्यक तुष्टीकरण जैसे मुद्दों के कारण देश ने कांग्रेस को त्यागने का मन बना लिया था। भाजपा सहित अन्य राजनैतिक दल कांग्रेस को घेरने की पूरी तैयारी कर चुके थे। आर्थिक मुद्दों पर वामपंथी पार्टियों ने कांग्रेस की घेरेबंदी कर रखी थी। बढ़ती आतंकवादी घटनाओं ने कांग्रेस को कटघरे में ला खड़ा किया था। मुस्लिम तुष्टीकरण कांग्रेस की गले की हड्डी बन गया था। लेकिन इसी बीच ‘हिन्दू आतंकवाद’ का एक नया नारा गढ़ा गया। आतंकवाद और तुष्टीकरण की धार को हिन्दुओं और हिन्दू संगठनों की ओर मोड़ दिया गया। कांग्रेस के रणनीतिकारों ने फिर से कुटिल राजनीतिक कौशल का परिचय दिया। मालेगांव विस्फोट में हिन्दू संगठनों को लपेटने का कुत्सित प्रयास किया गया। पूरी तैयारी के साथ हिन्दू संगठनों, खासकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर आक्रमण किया गया। साध्वी प्रज्ञा समेत कुछ हिन्दू कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर ‘पुलिसिया हथकंडे’ अपना कर जुर्म और आरोप कबूलवाने कीकोशिश की गई। 8 अप्रैल को महाराष्ट्र विधानसभा में सरकार के गृहमंत्री ने एक खुलासा किया। उन्होंने कहा कि मालेगांव के आरोपी संघ प्रमुख को मारना चाहते थे। 9 अप्रैल को समाचार पत्रों में महाराष्ट्र के गृहमंत्री के हवाले से इस आशय की खबर छपी कि मालेगांव विस्फोट के आरोपी हिन्दूवादी संगठनों की नजर में आरएसएस प्रमुख मोहनभागवत संगठन कानेतृत्व करने में सक्षम नहीं हैं। इन संगठनों ने भागवत की हत्या की साजिश भी रची थी। फोन पर भागवत के खिलाफ की गई टिप्पणी सहित कई अपशब्दों की रिकार्डिंग वाला टेप महाराष्ट्र पुलिस के पास है। यह सब रहस्योदघाटन महाराष्ट्र के गृहमंत्री आरआर पाटिल ने विधानसभा में किया। एनसीपी विधायक जितेन्द्र आव्हाड के एक सवाल कि क्या मालेगांव विस्फोट प्रकरण में गिरफ्तार साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, कर्नल पुरोहित और अभिनव भारत संगठन से संबंधित लोगों ने भागवत की हत्या की साजिश रची थी? इसके जवाब में गृहमंत्री पाटिल ने सदन में कहा कि उनकी बातों में सच्चाई है। हालांकि बाद में विधान भवन परिसर में पत्रकारों से बातचीत में उन्होंने कहा कि भागवत कीहत्या की साजिश रचे जाने के बारे में ठोस ढंग से कुछ भी नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतना पक्का है कि गिरफ्तार हिन्दूवादी अभियुक्तों के मन में भागवत के प्रति कटुता है। इन लोगों ने फोन पर आपसी बातचीत के दौरान भागवत के खिलाफ अपशब्दों का इस्तेमाल किया था। गौरतलब है कि 29 सितंबर, 2008 को रमजान के महीने में मालेगांव में हुए बम धमाके में 6 लोग मारे गए थे और 20 जख्मी हुए थे। महाराष्ट आतंक निरोधक दस्ते ने इस कांड के आरोपियों के संबंध दक्षिपंथी संगठन अभिनव भारत से होने की बात कही थी। संघ पर जानलेवा हमला करने वाले हमेशा की तरह फिर सक्रिय हो गए हैं। फर्क बस इतना है कि उनकी रणनीति बदल गई है ताकि पकड़े जाने पर उनका नुकसान न होने पाए। कांग्रेस को संघ, संघ के स्वयंसेवक और संघ प्रमुख के जान की चिंता कब से होने लगी? हत्या के आरोपी और हमलावर ही अपने दुश्मन की परवाह करने लगें तो दाल में कुछ काला जरूर नजर आयेगा। क्या कांग्रेस और उनके हुक्मरानों को पता नहीं है कि अपने राजनीतिक फायदे के लिए गत लोकसभा चुनाव के पहले हिन्दू संगठनों पर सुनियोजित हमले किए गए। ये हमले कांग्रेस ने किए ओर कराए। इस हमले में कांग्रेस ने सरकारी, गैर सरकारी और राजनीतिक संगठनों का भरपूर इस्तेमाल किया। देश के खुफिया संगठन आईबी और महाराष्ट्र पोलिस को मोहरा बनाकर न सिर्फ हिन्दू संगठनों को आरेापित और कलंकित किया गया बल्कि ‘हिन्दू आंतंक’ का जुमला भी विकसित किया गया। ह्यमहाराष्ट्र कांग्रेस के गृहमंत्री सदन को गुमराह कर सकते हैं, देश को नहीं। कांग्रेस और उनकी सुप्रीमों सोनिया गांधी के बारे में करोड़ों हिन्दू कटुता का भाव रखते हैं, उन्हें देश और कांग्रेस का नेतृत्व करने के लायक नहीं मानते कई बार अपने संस्कारों को भूल आक्रोशवश अपशब्दों का भी इस्तेमाल करते हैं। अनेक भारतीय कांग्रेस और सोनिया के बारे में आमने-सामने और कई बार फोन पर भला-बुरा कहते हैं, संभव है खिन्नता और अवसाद में वे कांग्रेस और सोनिया के अंत का विचार भी करते हों। तो क्या इसे कांग्रेस और सोनिया के खिलाफ हिन्दुओं की साजिश मान ली जाए और करोड़ों हिन्दुओं को साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जाए? संघ पर हमला करने वाले बहुरूपिए फिर भेष बदल कर आए हैं। वे इस हिन्दू संगठनों की आड़ ले रहे हैं। हिन्दू संगठनों को बदनाम, कलंकित और तिरस्कृत करने की साजिश जारी है। हमलावरों को बेनकाब करने और समाज को सावधान रहने की जरूरत है। संघ प्रचारकों का नाम बम विस्फोट काण्ड या अन्य राष्ट विरोधी गतिविधियों में घसीटे जाने को न केवल इसी रूप में देखा जाना चाहिए बल्कि देश को हिन्दुत्ववादी शक्तियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर देशभक्तों की मजबूती के लिए काम करने को तैयार भी रहना चाहिए।

गुरुवार, 27 मई 2010

विभाजन-गाथा का एक विस्मृत पन्ना- १

1935 के भारत एक्ट द्वारा प्रदत्त सीमित मताधिकार के आधार पर 1937 में प्रांतीय विधानसभा चुनावों और उसके तुरंत पश्चात् नेहरू जी के मुस्लिम जनसम्पर्क अभियान की विफलता ने प्रमाणित कर दिया कि 1920 और 1930 के दो देशव्यापी विशाल सत्याग्रहों के बावजूद मुस्लिम समाज कांग्रेस के साथ खड़ा नहीं हुआ। इस विषय पर हम पाञ्चजन्य में पहले ही विस्तार से लिख चुके हैं। इन सत्याग्रहों और चुनाव परिणामों ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि कांग्रेस के साथ न होकर भी मुस्लिम समाज अनेक मुस्लिम नेताओं के पीछे बिखरा हुआ था जबकि राष्ट्रभक्ति और स्वतंत्रता की कामना से अनुप्राणित हिन्दू समाज गांधी और नेहरू के पीछे एकजुट हो रहा था। राष्ट्रवाद के आधार पर हिन्दू समाज के भारी समर्थन के बल पर कांग्रेस को सात प्रांतों में सरकार बनाने का अवसर मिल सका था। इस दृश्य का ही जिन्ना ने लाभ उठाया। उन्होंने कांग्रेस राज को हिन्दू राज के रूप में चित्रित किया और मुसलमानों के सामने उस भय को खड़ा कर दिया जो सर सैयद अहमद ने कांग्रेस की स्थापना के समय से ही मुसलमानों के सामने खड़ा करना शुरू कर दिया था कि यदि भारत में लोकतंत्र आया तो जनसंख्या भेद के कारण अल्पसंख्यक मुसलमान बहुसंख्यक हिन्दुओं के गुलाम बन जाएंगे। यह स्थिति 700 साल तक हिन्दुओं पर राज करने वाले मुसलमानों को कदापि सहन नहीं है, क्योंकि उनकी रगों में मुस्लिम विजेताओं का रक्त बह रहा है। सत्ता किसके पास रहे, इसका फैसला वोटों से नहीं, तलवार से होगा। मि.जिन्ना ने 1937 से 1939 तक, कांग्रेस के दो वर्ष के शासनकाल को मुसलमानों के इसी भय का दोहन करने में लगाया। मुस्लिम मानस में गांधी और कांग्रेस की छवि हिन्दू संस्था से आगे नहीं बढ़ पायी। वे दो वर्ष लम्बे सतत् हिन्दू राज विरोधी प्रचार के द्वारा अनेक धड़ों में बिखरे मुस्लिम समाज को अपने और मुस्लिम लीग के पीछे एकजुट करने में काफी हद तक सफल हो गये।
जिन्ना की चालाकी
इसी समय 3 सितम्बर, 1939 को द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ गया और ब्रिटिश वायसराय लार्ड लिनलिथगो ने भारतीय नेतृत्व से सलाह-मशविरा किये बिना भारत को युद्ध में ब्रिाटेन का पक्षधर घोषित कर दिया। गांधी जी और कांग्रेस नेतृत्व ने वायसराय से कई मुलाकातें कर बहुत कोशिश की कि ब्रिाटेन युद्ध के पश्चात् भारत को स्वतंत्रता देने और लोकतांत्रिक सरकार बनाने की उनकी शर्त को स्वीकार कर ले, पर ब्रिाटिश सरकार टस से मस नहीं हुई। इस पर गांधी जी ने कांग्रेस सरकारों को त्यागपत्र देने की सलाह दी। इस निर्णय को सूचित करने के लिए उन्होंने ब्रिाटिश सरकार को पत्र लिखा कि कांग्रेस के नेतृत्व में भारत अहिंसाव्रत से बंधा हुआ है जबकि यह युद्ध हिंसा के द्वारा लड़ा जा रहा है अत: अहिंसक भारत हिंसक युद्ध प्रयासों में सहभागी नहीं बन सकता। अहिंसा का उपदेश देते हुए उन्होंने एक पत्र हिटलर को भी लिखा। गांधी जी के इस निर्णय के फलस्वरूप सभी कांग्रेस मंत्रिमंडलों ने 27 अक्तूबर से 15 नवम्बर 1939 तक एक-एक कर त्यागपत्र दे दिया। और कांग्रेस के हाथ से सत्ता निकल गयी। यह स्थिति जिन्ना के लिए वरदान बन गयी। उन्होंने तुरंत वायसराय और बम्बई के गर्वनर से गुप्त भेंट करके उन्हें आश्वासन दिया कि यदि ब्रिाटिश सरकार उन्हें व मुस्लिम लीग को मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि मान ले तो वह ब्रिटिश युद्ध प्रयासों में मुस्लिम समाज का पूर्ण सहयोग जुटाएंगे। ब्रिाटेन जीवन-मरण के युद्ध में फंसा था। उसने जिन्ना की शर्त को अपने लिए वरदान समझकर लपक लिया और जिन्ना ने मुस्लिम समाज का आह्वान किया कि वह 22 दिसंबर 1939 का दिन "हिन्दू राज से मुक्ति दिवस" के रूप में मनाए। देश भर में यह "मुक्ति दिवस" मनाए जाने से जिन्ना ने ब्रिाटिश सरकार को दिखा दिया कि कुछ अपवाद छोडक़र पूरा मुस्लिम समाज उनके नेतृत्व में एकजुट है। इस स्थिति में कांग्रेस के भीतर बहस शुरू हो गई कि क्या मंत्रिमंडलों का त्यागपत्र कांग्रेस और राष्ट्र के हित में रहा? राजगोपालाचारी जैसे नेता ही नहीं तो वी.पी.मेनन जैसे नौकरशाह को भी यह लगा कि मंत्रिमंडलों के त्यागपत्र देने से ब्रिाटिश सरकार पर कांग्रेस का रहा-सहा दबाव भी खत्म हो गया। उनके सरकार से हटने पर ब्रिाटेन के युद्ध प्रयत्नों में उनकी बाधा पूरी तरह समाप्त हो गयी। इधर, मि.जिन्ना ने ब्रिाटिश सरकार की शह पर मुस्लिम समाज को पाकिस्तान बनवाने के लिए शस्त्र संग्रह और हिंसा की तैयारी का इशारा कर दिया। लार्ड लिनलिथगो से गुप्त भेंट के बाद जिन्ना ने मार्च 1940 में द्विराष्ट्रवाद के आधार पर भारत विभाजन का प्रस्ताव लीग के लाहौर अधिवेशन में पारित कर दिया और लार्ड लिनलिथगो ने अगस्त 1940 में युद्ध के पश्चात् भारत के बारे में किसी भी ब्रिाटिश निर्णय पर लीग को वीटो का अधिकार घोषित कर दिया। क.मा.मुंशी ने लिखा है कि 1937-39 तक ब्रिाटेन और भारतीय राष्ट्रवाद का जो गठबंधन उभरा था उसकी जगह अब ब्रिाटिश-मुस्लिम गठबंधन ने ले ली। ब्रिाटेन पूरी तरह राष्ट्रवाद के विरुद्ध मुस्लिम पृथकतावाद के साथ खड़ा था। इस घटनाचक्र से चिंतित होकर राजगोपालाचारी ने पहले ही जुलाई 1940 में कांग्रेस कार्यसमिति की वर्धा बैठक में एक प्रस्ताव पेश कर कांग्रेस को गांधी जी की अहिंसा वाली शर्त से बाहर निकलने और गांधी जी को कांग्रेस के निर्णयों से मुक्त करने का प्रस्ताव पेश किया, जिसका सरदार पटेल और कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना आजाद ने समर्थन किया। कांग्रेस कार्यसमिति द्वारा समर्थित यह प्रस्ताव उन्होंने 27 जुलाई 1940 को पूना में आयोजित अ.भा.कांग्रेस समिति की बैठक में भी 47 के विरुद्ध 95 मतों से पारित करा लिया। इस प्रस्ताव के द्वारा ब्रिाटिश सरकार के हिंसा द्वारा लड़े जा रहे युद्ध में सहयोग का सशर्त वचन दिया गया। इस प्रस्ताव को गांधी जी की पराजय के रूप में देखा गया। नरहरि पारीख ने गुजरात प्रांतीय कांग्रेस कमेटी से अपील की कि वह इस प्रश्न पर गांधी जी का समर्थन करे न कि सरदार पटेल का। किंतु गुजरात कांग्रेस कमेटी ने भारी बहुमत से सरदार पटेल का समर्थन किया। 19 जुलाई 1940 को गुजरात प्रांतीय कमेटी के सामने अपनी स्थिति को स्पष्ट करते हुए सरदार पटेल ने कहा, "आज हमें यह निर्णय करना है कि हमें स्वतंत्रता मिल जाए, पूरी सत्ता मिल जाए तो क्या हम सेना के बिना काम चला सकेंगे? अगर हम यह कहें कि हमारे पास हुकूमत आ जाएगी, तो हम सेना को बिखेर देंगे, तब तो अंग्रेज कभी हमें सत्ता नहीं देंगे। ज्यादातर मुसलमान इसके (अहिंसा के) खिलाफ हैं। कांग्रेस के बाहर के मुसलमान तो हिंसा पर ही कायम हैं..." (बापू के पत्र वल्लभ भाई के नाम, नवजीवन प्रकाशन, अमदाबाद, 1952, प्रस्तावना, पृष्ठ 12)
हिन्दुओं पर हिंसक हमले
इस भाषण से स्पष्ट है कि सरदार को तभी मुसलमानों की हिंसक तैयारियों की गंध आने लगी थी। लाहौर में पाकिस्तान प्रस्ताव पारित होने के बाद से मुस्लिम नेताओं के भाषण बहुत उग्र और आक्रामक होने लगे। कांग्रेस नेतृत्व स्वयं को किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में पा रहा था। जड़ता से बाहर निकलने के लिए 13 अक्तूबर 1940 को चुने हुए कांग्रेसी कार्यकत्र्ताओं के द्वारा व्यक्तिगत सत्याग्रह का निर्णय लिया गया, जिसमें पहला सत्याग्रही विनोबा भावे को और दूसरा सत्याग्रही जवाहर लाल नेहरू को बनाया गया। इसी क्रम में कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी गांधी जी के आदेश पर 4 दिसंबर, 1940 को व्यक्तिगत सत्याग्रह करके यरवदा जेल में सरदार पटेल, भूलाभाई देसाई, बी.जी.खरे एवं मंगलदास पकवासा आदि के साथ बंद किये गये। और बड़ी बीमारी के कारण रिहा होकर नैनीताल में स्वास्थ्य लाभ के लिये गये। मुंशी बम्बई प्रांत में कांग्रेस सरकार में पहले कानून-व्यवस्था और फिर गृहमंत्री का दायित्व संभालते थे, भारतीय विद्या भवन नामक सांस्कृतिक-बौद्धिक संस्था की स्थापना कर चुके थे, सिद्धहस्त लेखक और इतिहासकर थे। उन्होंने मि.जिन्ना के सहयोगी के रूप में अपनी वकालत की यात्रा आरंभ की थी। 1930 में पूरे मनोयोग से गांधी जी की शरण में आ गये थे और नमक सत्याग्रह में कूद पड़े थे। देश के उत्कृष्ट विधिवेत्ताओं में उनकी गणना होती थी। जिन दिनों कांग्रेस व्यक्तिगत सत्याग्रह में व्यस्त थी, उन्हीं दिनों एक ओर मुस्लिम लीग ने दिसंबर 1940 में अपने लाहौर सम्मेलन में प्रस्ताव पारित किया कि विभाजन से कम कोई भी संवैधानिक व्यवस्था मुसलमानों को स्वीकार नहीं होगी, दूसरी ओर मुस्लिम नेतृत्व अपने जहरीले भाषणों से मुस्लिम समाज को असावधान हिन्दू समाज पर हिंसक हमलों के लिए भडक़ा रहा था। ढाका, बम्बई, अमदाबाद आदि नगरों में भयंकर दंगे हुए। अमदाबाद के दंगे की भयंकरता को स्वीकार करते हुए गांधी जी के निजी सचिव महादेव देसाई ने 15 मई 1941 को मुंशी को पत्र में लिखा, "निस्संदेह अमदाबाद में जो कुछ हुआ उससे भारी धक्का लगा है, विशेषकर जब वहां के लोगों ने जिस क्षुद्रता और कायरता का परिचय दिया उसकी याद आती है। वहां अभी भी डर समाया हुआ है। मुझे वहां दोबारा जाना होगा।" महादेव देसाई ने वहां शांति सेना का प्रयोग करना चाहा पर लोगों ने उसमें कोई रुचि नहीं दिखायी। सरदार पटेल ने यरवदा जेल से 22 जून 1941 को मुंशी को पत्र लिखा कि "अमदाबाद में जब दंगा शुरू हुआ तो लोग अचानक घिर गये। यदि वहां अधिक संख्या में लोगों ने उसके विरुद्ध मोर्चा लिया होता तो शायद सब कुछ बच जाता या भारी कत्लेआम होता।" बम्बई के दंगे पर सरदार की प्रतिक्रिया थी, "बम्बई में जो स्थिति पैदा हुई है वह भयंकर है। क्या तुम सोचते हो कि इसके विरुद्ध कोई संगठित मोर्चा संभव है? हिंसक आत्मरक्षा में विश्वास करने वाले कुछ नौजवान भी क्या उन लोगों का मुकाबला कर सकते हैं जो पीछे से पीठ में छुरा घोंपकर भाग जाते हैं? इस समस्या का कोई बिल्कुल भिन्न उपाय खोजना होगा।"
दंगे की विभीषिका
ढाका के दंगे के बारे में बंगाल की प्रांतीय कांग्रेस कमेटी ने विस्तृत रपट तैयार की, जिसमें मुस्लिम नेताओं के जहरीले भाषण और हिन्दुओं पर हुए अत्याचारों का तथ्यात्मक वर्णन था। अमदाबाद के दंगे की विभीषिका का वर्णन करते हुए क.मा.मुंशी लिखते हैं, "अमदाबाद का पाकिस्तान दंगा व्यभिचारपूर्ण और बेलगाम था। अमदाबाद के हिन्दू, जो एक बहुत शांतिपूर्ण समाज के नाते हमेशा गांधी जी और कांग्रेस नेतृत्व की ओर निहारते रहे, इस समय पूरी तरह दंगाइयों की कृपा पर निर्भर थे। इस स्थिति में अमदाबाद के एक प्रमुख कांग्रेसी भोगीलाल लाला ने गांधी जी की सलाह मांगी कि यहां के हिन्दू जिस विकट स्थिति में फंसे हुए हैं, उसमें कांग्रेसजनों को क्या करना चाहिए।" भोगीलाल ने गांधी जी को पत्र लिखा कि मुस्लिम हिंसा का मुकाबला कांग्रेसी अहिंसा के द्वारा नहीं किया जा सकता। हिन्दू समाज को भी सशस्त्र हिंसक प्रतिरोध की तैयारी करनी होगी। इसके लिए युवकों को अखाड़ों में जाने के लिए प्रोत्साहित करना होगा। इसके उत्तर में गांधी जी ने भोगीलाल को लिखा कि कांग्रेसजनों को आत्मरक्षा का प्रशिक्षण देने वाले अखाड़ों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध नहीं रखना चाहिए और जो कांग्रेसजन आत्मरक्षा के लिए हिंसा अपनाने के पक्ष में हैं, उन्हें कांग्रेस छोड़ देनी चाहिए।
जब भोगीलाल लाला के नाम गांधी जी का पत्र अखबारों में छपा तब क.मा.मुंशी जेल से रिहा होकर नैनीताल में स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे। अखबार में गांधी जी का उत्तर पढक़र मुंशी ने 26 मई 1941 को गांधी जी को पत्र लिखा कि "मैं आपके दोनों निर्देशों से स्वयं को सहमत नहीं पा रहा हूं। ढाका, अमदाबाद और बम्बई और अन्य कई स्थानों पर पाकिस्तान सक्रिय हो गया है। यह संकेत है कि कुछ वर्षों के लिए हमें इन दंगों के साथ जीवित रहना होगा।...यदि जान, माल और महिलाओं की इज्जत को गुंडागर्दी से खतरा पैदा होता है तो मेरी दृष्टि में आत्मरक्षा के लिए संगठित प्रतिरोध- उसका रूप चाहे जो रहे-सर्वोच्च अनिवार्य कर्तव्य बन जाता है।" मुंशी ने अपने पत्र में लिखा कि "मैं पिछले पन्द्रह या उससे भी अधिक वर्षों से बम्बई प्रेसीडेंसी में अखाड़ा आंदोलन से प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ा रहा हूं। बम्बई और पूना में उनके दो सम्मेलनों की अध्यक्षता भी कर चुका हूं। मैं उन्हें हमारे समाज को आत्मरक्षा का प्रशिक्षण देने का आवश्यक तंत्र मानता हूं। पिछले कई वर्षों से उन्होंने गुंडागर्दी का सामना करने का आत्मविश्वास पैदा करने में भारी योगदान दिया है। 1930 से ही मैंने आपको पूरे ह्मदय से अपना नेता माना है।...किंतु मेरा मन इस समय बगावत कर रहा है...मैं हिंसा के विरुद्ध आत्मरक्षार्थ सब संभव उपायों से संगठित प्रतिरोध के प्रति सहानुभूति रखने या प्रचार न करने का वचन देने में स्वयं को असमर्थ पाता हूं।...आप ही बताइए कि इस स्थिति में मैं क्या करूं?" मुंशी ने गांधी जी का मार्गदर्शन पाने के लिए 12-13 जून 1941 को सेवाग्राम में प्रत्यक्ष भेंट में विस्तृत चर्चा का समय मांगा। तुरंत 29 मई को गांधी जी ने उत्तर भेजकर मुंशी को सेवाग्राम बुलाया।
वर्धा बैठक के संकेत
12-13 जून 1941 को वर्धा में पूरे दो दिन महत्वपूर्ण बैठक हुई, जिसमें गांधी जी और मुंशी के अलावा डा.राजेन्द्र प्रसाद, आचार्य कृपलानी, पंजाब के डा.गोपीचंद भार्गव और बिहार के कोई कांग्रेसी नेता मि.माथुर भी उपस्थित रहे। दो दिन तक करीब 10 घंटे चली इस महत्वपूर्ण चर्चा के नोट्स भी मुंशी ने सुरक्षित रखे, जो आज हमें उपलब्ध हैं। इन नोट्स से विदित होता है कि देश विभाजन को लेकर उस समय कांग्रेस में कितना अधिक उद्वेलन था और मुस्लिम हिंसा व गुंडागर्दी से कांग्रेसजन कितने चिंतित थे। काफी बड़ी संख्या में कांग्रेसजन संगठित हिंसक प्रतिरोध को आवश्यक अनुभव करने लगे थे। मुंशी ने उनकी भावनाओं को मुखरित करने का साहस दिखलाया। इस महत्वपूर्ण द्वि दिवसीय चर्चा का वर्णन अगली बार। (जारी)

विभाजन-गाथा का एक विस्मृत पन्ना-2

हिंसक पृथकतावाद, अहिंसक राष्ट्रवाद
12-13 जून, 1941 को गांधी जी के सेवाग्राम आश्रम में आयोजित अनौपचारिक बैठक का ऐतिहासिक महत्व है। इस बैठक में गांधी जी, डा.राजेन्द्र प्रसाद, आचार्य कृपलानी, क.मा.मुंशी और गोपीचंद भार्गव सहित कांग्रेस का शिखर नेतृत्व उपस्थित था। सरदार पटेल और नेहरू व्यक्तिगत सत्याग्रह करके जेल में बंद होने के कारण वहां नहीं थे। मुस्लिम लीग ने दिसम्बर 1940 में पाकिस्तान की मांग को लेकर एक उग्र प्रस्ताव पारित किया और दवाब पैदा करने के लिए खूनी दंगे शुरू कर दिये, जिन्हें मुंशी ने "पाकिस्तान दंगे" कहा। इन दंगों के राक्षसी चरित्र से व्यथित होकर गांधी जी ने 25,26,27 अप्रैल, 1941 को 72 घंटे का आत्मशुद्धि उपवास रखा और 4 मई 1941 को एक लम्बे प्रेस वक्तव्य में उन्होंने स्थिति की भयावहता पर अपनी अन्तव्र्यथा उड़ेली। इस वक्तव्य में गांधी जी ने माना कि "प्राप्त विवरणों से लगता है कि मुस्लिम कट्टरवादियों ने ढाका और अमदाबाद में हिन्दू सम्पत्ति को निश्चयपूर्वक लूट और आगजनी के द्वारा जितनी बुरी तरह क्षतिग्रस्त किया, उससे लगता है कि यह सब सुनियोजित था।" एक ओर यह राक्षसी लीला और दूसरी ओर गांधी जी लिखते हैं, "हिन्दू लोग इन शरारती तत्वों का मुकाबला करने और मैदान में साहसपूर्वक डटे रहने के बजाय खतरे के क्षेत्रों से हजारों की संख्या में भाग निकले।"
कांग्रेसजन की परीक्षा
गांधी जी को सबसे अधिक पीड़ा इस बात से थी कि "इन काले दिनों में कांग्रेस का कहीं कोई प्रभाव दिखाई नहीं दिखा। दंगा प्रभावित क्षेत्रों में कांग्रेस का प्रभाव न हिन्दुओं पर था, न मुसलमानों पर।...यदि ऐसे अवसरों पर कांग्रेस का जनता पर कोई नियंत्रण नहीं रह जाता तो कांग्रेस की अहिंसा की कोई कीमत नहीं है। अगर अंग्रेज अचानक चले जाते हैं तो कांग्रेस सरकार नहीं चला सकेगी।...अत: कांग्रेसजनों को अपनी अहिंसा की वास्तविकता की परीक्षा करनी चाहिए। मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी यदि अनेक नेताओं के जेल में बंद रहते हुए भी कांग्रेसजन अपनी विचारधारा को बदल दें या कांग्रेस को छोड़ दें। मैं पांच सच्चे आदमियों को लेकर कांग्रेस को फिर से खड़ा करूंगा।" गांधी जी का निष्कर्ष था कि "कायर लोग न शांति ला सकते हैं, न आजादी। गांधी जी का यह वक्तव्य 1924 के दंगों के बाद दिये गये उन वक्तव्यों की याद दिलाता है जब उन्होंने कहा था कि मैं अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि "यदि प्रत्येक मुसलमान गुंडा है तो प्रत्येक हिन्दू कायर और जहां कायर होंगे वहां गुंडे अवश्य होंगे।" बीस साल बाद भी स्थिति वहीं की वहीं थी। 6 मई 1941 को नरहरि पारीख को, जो अमदाबाद में महादेव देसाई के साथ शांति प्रयासों में लगे थे, गांधी जी ने लिखा कि, "यदि मुस्लिम समाज लडऩे पर उतारू है तो मैं बहिष्कार के विचार को नहीं ठुकराऊंगा। मैं छुरेबाजी और सम्पत्ति दहन की अपेक्षा बहिष्कार को अधिक शालीन समझता हूं।" दंगों की आग फैलती जा रही थी। 7 मई को गांधी जी ने एक प्रेस वक्तव्य में माना कि राजेन्द्र बाबू बिहार में दंगों की आग बुझाने के लिए भागे-भागे गये हैं। मुस्लिम लीग ने 23 मार्च को "पाकिस्तान दिवस" मनाया, जिसकी प्रतिक्रिया में हिन्दुओं ने "पाकिस्तान विरोधी दिवस" मनाया। उससे भडक़कर मुसलमानों ने दंगे शुरू कर दिए। गांधी जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि, "यह मानना पड़ेगा कि बिहार हिन्दू बहुल प्रांत है और कांग्रेस के अधिकांश सदस्य हिन्दू ही हैं, इसलिए वहां कांग्रेस के लिए पुलिस और सेना की मदद लिये बिना शांति स्थापना का काम आसान होना चाहिए। इस समय बिहार ही अकेला प्रांत है जो रास्ता दिखा सकता है और उदाहरण बन सकता है। राजेन्द्र बाबू की अपने प्रांत पर बहुत अनूठी और मृदु पकड़ है, जैसी किसी भी अन्य नेता की नहीं है। ईश्वर करे कि वे बिहार में शांति दूत बनकर बिहार के माध्यम से पूरे भारत में शांति दूत बनें।"
हिंसक या अहिंसक मार्ग?
21 मई को गांधी जी ने महादेव देसाई के हाथों गुजरात प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के सचिव भोगीलाल लाला के नाम एक लम्बा पत्र भेजा, जो चार दिन तक गांधी जी, मृदुला बहन, गुलजारी लाल नंदा और महादेव देसाई के बीच गहन मंत्रणा के बाद लिखा गया था। इस पत्र में कांग्रेसजनों के लिए अहिंसा पर आग्रह करते हुए गांधी जी ने लिखा कि "यदि कांग्रेसजनों का बहुमत यह मानता हो कि हिंसक मार्ग से किसी आक्रमणकारी का मुकाबला करना हमारा कर्तव्य है और यदि वे इसे कांग्रेस की विचारधारा से असंगत न समझते हों तो उन्हें अपने विश्वास की खुली घोषणा करनी चाहिए और तद्नुसार जनता का मार्गदर्शन करना चाहिए। यदि आगे चलकर यह रास्ता गलत लगे तो उस पर पुनर्विचार हो सकता है, मुझे विश्वास है कि यदि सभी कांग्रेसजनों ने अपना कर्तव्य निभाया होता तो हमें हाल की जैसी गुंडाशाही को न भोगना पड़ता। यह असह्र है कि लोग गुंडों के भय से अपनी जान बचाने के लिए भाग निकलें। उनमें हिंसक या अहिंसक मार्ग से गुंडाशाही का मुकाबला करने की ताकत होनी चाहिए। ...कांग्रेस जन स्वयं अहिंसक रहकर भी लोगों को स्पष्ट शब्दों में बता दें कि भय के कारण भागना कायरता है। यदि वे अहिंसा के द्वारा मुकाबला करने में असमर्थ हैं तो हिंसा के द्वारा मुकाबला करना उनका धर्म है।" इस पत्र से विदित होता है कि अमदाबाद के मध्यम वर्गीय व्यापारियों की ओर से जान-माल की रक्षा के लिए अन्य प्रांतों के"भैया, सिख या ठाकुर दा" लोगों को चौकीदार या सुरक्षाकर्मी नियुक्त करने का सुझाव आया था। इस सुझाव को ठुकराते हुए गांधी जी ने लिखा कि "मध्यम वर्गीय व्यापारी समुदाय में ऐसा एक भी युवक न रहे, जिसने आत्मरक्षा का पर्याप्त प्रशिक्षण- हिंसक या अहिंसक- प्राप्त न किया हो। दंगे की अफवाह सुनते ही दुकानों को बंद करने के बजाए हिंसक या अहिंसक प्रतिरोध के लिए प्रत्येक दुकानदार को तैयार रहना चाहिए।" अंत में गांधी जी ने लिखा कि "हमारे देश में दंगों का जो रूप होता है वैसा पश्चिमी देशों में नहीं होता, क्योंकि वहां संघर्षरत दोनों पक्ष बराबर ताकतवर होते हैं। इस दृष्टि से हम घोर वहशी और नपुंसक, दोनों हैं।" ऊपर दिये गये गांधी जी के पत्रों और वक्तव्यों से स्पष्ट है कि पाकिस्तान की मांग को लेकर सुनियोजित दंगों का रूप इतना भयंकर था कि गांधी जी को अहिंसा के साथ-साथ हिंसक प्रतिरोध की आवश्यकता को स्वीकार करना पड़ा था। वे एक गहरे अन्तद्र्वंद्व से गुजर रहे थे। एक ओर तो वे मध्यम वर्गीय युवकों के लिए हिंसक या अहिंसक प्रतिरोध का प्रशिक्षण अनिवार्य बता रहे थे, दूसरी ओर कांग्रेसजनों को ऐसा प्रशिक्षण देने वाले अखाड़ों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध न रखने का आदेश दे रहे थे। 12-13 जून की बैठक अन्तद्र्वंद्व की इस पृष्ठभूमि में बहुत महत्वपूर्ण बन जाती है।
मुंशी का महत्वपूर्ण प्रश्न
बैठक में चर्चा को आरंभ करते हुए मुंशी जी ने कहा, युद्ध भारत की सीमाओं पर आ पहुंचा है जिसके कारण आंतरिक व्यवस्था तंत्र दुर्बल हो रहा है। सुनियोजित दंगों के रूप में पाकिस्तान सक्रिय हो गया है और आगे भी रहेगा। पर पाकिस्तान का निर्माण हमारी लाशों पर ही हो सकता है। भारत की अखंडता की रक्षा के साथ-साथ दंगों के कारण जान-माल की रक्षा करने की समस्या हमारे सामने खड़ी हो गयी है। इने-गिने कांग्रेसजन ही आत्म बलिदान के लिए सिद्ध हैं। इससे कांग्रेस में ढोंग की प्रवृत्ति बढ़ रही है। और उपद्रवियों की ताकत बढ़ रही है। इस स्थिति में कांग्रेसजन क्या करें? डा.राजेन्द्र प्रसाद ने कहा कि बिहार में मुसलमान खुल्लम-खुल्ला आक्रामक हो गये हैं। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप हिन्दू भी उतने ही आक्रामक बन रहे हैं। बिहार पर मेरी पकड़ समाप्त हो रही है। शांति सेना का विचार कांग्रेसजनों के गले नहीं उतर रहा है। इस पर गांधी जी ने कहा कि मैं मानता हूं कि शांति सेना का विचार कांग्रेसियों को आकर्षित नहीं कर रहा है। महादेव भाई को अमदाबाद में इस दृष्टि से अब तक कोई सफलता नहीं मिली है। राजेन्द्र बाबू ने कहा कि मेरे विचार से अभी प्रारंभिक झड़पों के द्वारा मुस्लिम समाज की ताकत का अंदाजा लगाया जा रहा है। जल्दी ही पूरी ताकत से अभियान छेड़ा जाएगा। मुंशी जी ने कहा, यह गृहयुद्ध की स्थिति है। इसमें कांग्रेस को प्रभावी भूमिका निभानी होगी। राजेन्द्र बाबू ने चिंता प्रगट की कि एक भी मुसलमान नेता मुस्लिम अत्याचारों की भत्र्सना करने के लिए आगे नहीं आया, न वह अहिंसक आत्म बलिदान की बात करता है। इस पर चर्चा छिड़ गई कि अहिंसक प्रतिरोध के सिद्धांत में संशोधन पर प्रमुख मुस्लिम कांग्रेसी नेताओं की क्या प्रतिक्रिया है। पिछले लेख में हम बता चुके हैं कि पुणे में अ.भा.कांग्रेस समिति ने राजगोपालाचारी के प्रस्ताव को पास करके अहिंसा के सिद्धांत में संशोधन किया था कि (अ) अन्तरराष्ट्रीय संघर्ष में हिंसा का सहारा लिया जा सकता है पर, (आ) स्वराज्य के लिए लड़ाई में अहिंसा का सिद्धांत ही चलेगा। गांधी जी ने कहा कि मौलाना आजाद भी अन्तरराष्ट्रीय संघर्ष में हिंसा को जायज मानते हैं, पर देश के अंदरूनी संघर्षों में नहीं। इस पर गोपीचंद भार्गव ने कहा कि आसफ अली ने भोगीलाल लाला के नाम गांधी जी के पत्र की आलोचना करते हुए कहा कि यह पत्र कांग्रेस के सिद्धांत की सही व्याख्या नहीं करता, क्योंकि पूना संशोधन केवल स्वराज्य की लड़ाई के लिए था न कि अन्य आंतरिक संघर्षों के लिए। गांधी जी ने कहा, लेकिन आसफ अली अंदरूनी मामलों में हिंसक प्रतिरोध के विरोध में मौलाना के साथ थे। इस पर मुंशी जी की प्रतिक्रिया थी कि ये लोग मुसलमानों के हिंसक आक्रमणों को तो रोक नहीं पाते, पर चाहते हैं कि कांग्रेसी हिन्दू आत्मरक्षा के लिए भी हिंसा न अपनाएं। इसका परिणाम होगा कि हिन्दू समाज विभाजित हो जाएगा और गृहयुद्ध की स्थिति में मुसलमानों का मुकाबला करने में अक्षम रहेगा। दंगों के इस वातावरण में यह सवाल भी उठा कि कांग्रेस के मुस्लिम सदस्यों की संख्या कितनी है। महादेव देसाई ने 15 मई 1941 को मुंशी जी को लिखा कि कांग्रेस के मुख्यालय से प्राप्त सूचना के अनुसार, कांग्रेस के 30 लाख सदस्यों में मुस्लिम सदस्यों की संख्या लगभग डेढ़ लाख होगी। पर, सीमांत गांधी के एक लाख अनुयायियों को निकाल देने पर क्या बचता है? दो दिन लम्बे मुक्त चिंतन में गांधी जी का अन्तद्र्वंद्व देखने लायक है। मुंशी जी के प्रारंभिक कथन पर टिप्पणी करते हुए गांधी जी ने कहा, सरकार से समझौते के कोई आसार मुझे दिखाई नहीं देते। जिन्ना मानने वाले नहीं हैं और दंगे बढ़ते जाएंगे। इस स्थिति में कांग्रेस अपनी वर्तमान संरचना के कारण दंगों में कोई भूमिका नहीं निभा सकती, किंतु साथ ही अगर उसने दंगों का कोई हल नहीं निकाला तो वह समाप्त हो जाएगी। गांधी जी की मुख्य चिंता यह थी कि यदि कांग्रेस ने हिंसक आत्मरक्षा को संगठित करने का कोई भी प्रयास किया तो सरकार को कांग्रेस पर हमला करने का मौका मिल जाएगा। पर, यह पूरे भारत की समस्या है इसलिए इसकी उपेक्षा भी नहीं की जा सकती। गांधी जी ने पुन: दोहराया कि एक संस्था के नाते कांग्रेस हिंसक आत्मरक्षा का रास्ता नहीं अपना सकती। दंगों में हिंसक भूमिका अपनाना कांग्रेस के लिए खतरनाक होगा, क्योंकि इससे सरकार को उसे नष्ट करने का मौका मिल जाएगा। इसलिए कांग्रेस के सामने एक ही रास्ता रह जाता है कि वह ऐसे लोगों के प्रयासों को प्रोत्साहन दे जो ह्मदय से अनुभव करते हैं कि इस "युद्ध" को अन्य (हिंसक) रास्ते से ही रोका जा सकता है। अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए गांधी जी ने कहा कि कुछ लोगों को कर्म की स्वतंत्रता पाने के लिए कांग्रेस से बाहर जाना चाहिए। आचार्य कृपलानी ने अपनी सहमति जताते हुए कहा कि इस समय कुछ कांग्रेसजनों को कांग्रेस से बाहर जाकर वह काम करना चाहिए जो कांग्रेस संस्था के रूप में नहीं कर सकती।
अन्तर्द्वंद के बीच
इस बैठक का आयोजन तो मुंशी जी के अन्तद्र्वंद्व का हल निकालने के लिए हुआ था। गांधी जी ने कहा कि मुंशी जी के सामने तीन रास्ते हैं- (अ) वे शांति सेना के काम में पूरे मन से लग जाएं। (आ) वे कुछ समय के लिए हिमालय में एकांतवास करें। (ई) और यदि वे यह नहीं कर सकते तो कांग्रेस से बाहर निकलकर हिन्दुओं को हिंसक आत्मरक्षा के लिए संगठित करें। तुम जो भी रास्ता चुनो, हमारे व्यक्तिगत संबंध पहले जैसे ही रहेंगे और मैं तुम्हारी आज जैसी ही चिंता करता रहूंगा। यहां मुंशी जी भावुक हो गए, उनका गला रुंध आया। उन्होंने कहा कि पहले दो रास्ते तो मेरे लिए संभव नहीं हैं। मैं लम्बे समय से सार्वजनिक जीवन में हूं। उससे अलग होना मेरे लिए संभव नहीं है। और इस समय जब मेरा देश, मेरा समाज और मेरी संस्कृति खतरे में है, मैं पीछे नहीं हट सकता। यदि आप कांग्रेस के हित में आवश्यक समझते हों तो मैं कुछ समय के लिए कांग्रेस से हट कर जेल वापस जा सकता हूं या अपने वकालत के व्यवसाय में लग सकता हूं। गांधी जी ने कहा कि मैं इन दोनों रास्तों के पक्ष में नहीं हूं। इस पर मुंशी जी ने कहा कि मैं अन्त:करण में महसूस करता हूं कि मेरा देश और संस्कृति खतरे में हैं।...मुसलमानों के पास तो उनकी मस्जिदें हैं और उनके अपने संगठन हैं। इसलिए दंगों में शुरू में हिन्दुओं को ही हानि होती है। मैंने देखा है कि अनेक कांग्रेसजन ऐसी नई संस्थाओं की मदद करते रहे हैं और अभी भी करते हैं, जो हिंसक उपायों से अपनी बस्तियों की रक्षा करती हैं। अंत में गांधी जी ने कहा कि यदि मुंशी जी को शांति सेना का पहला रास्ता स्वीकार नहीं है तो यह कांग्रेस के हित में होगा कि वे कांग्रेस से बाहर जाएं और अपनी अंत:प्रेरणा से कार्य करें। मैं उनकी स्थिति को स्पष्ट करने के लिए स्वयं वक्तव्य जारी करूंगा। वे अपने कांग्रेस मित्रों से भी चर्चा करके देखें कि क्या वे भी उनके साथ बाहर जाकर आत्मरक्षा को संगठित करेंगे। बम्बई के कांग्रेसी कार्यकत्र्ताओं से भी विचार करें कि क्या वे हिंसक आत्मरक्षा का अधिकार चाहते हैं। इस पर राजेन्द्र बाबू ने कहा कि इससे कांग्रेस की एकता नष्ट हो जाएगी, पर गांधी जी ने मुंशी जी को कहा कि तुम बम्बई जाकर अपने मित्रों से मिलकर वापस आओ। तब हम अंतिम निर्णय लेंगे। मुंशी जी ने कहा कि "यह बिल्कुल नया विचार है। बाहर जाना मेरे लिए इतना आसान नहीं है, मुझे अपनी पत्नी (लीलावती) से भी परामर्श करना पड़ेगा।" उपरोक्त चर्चा से स्पष्ट है कि वह हिंसा-अहिंसा के अन्तद्र्वंद्व में फंस गये थे और यह प्रश्न उनके लिए अस्तित्व-रक्षा का प्रश्न बन गया था। (जारी)

विभाजन-गाथा का एक विस्मृत पन्ना-3

यूं जन्मा अखंड हिन्दुस्थान मोर्चा
दो दिन लम्बी वर्धा बैठक से स्पष्ट हो गया कि पाकिस्तान की मांग को पूरा कराने के लिए मुस्लिम लीग ने देश को गृहयुद्ध के कगार पर धकेलने का निर्णय कर लिया है, जो अमदाबाद, बम्बई, ढाका और बिहार के अनेक नगरों में राक्षसी दंगों के रूप में प्रगट हो रहा है। देश के सबसे बड़े राजनीतिक दल के नाते कांग्रेस भारी अन्तद्र्वंद्व में फंसी थी। वह सैद्धांतिक तौर पर अहिंसा के लिए प्रतिबद्ध थी, किंतु अधिकांश कांग्रेसजन अनुभव कर रहे थे कि मुस्लिम हिंसा का मुकाबला अहिंसा के द्वारा संभव नहीं है। गांधी जी भी स्थिति की गंभीरता को समझ रहे थे, किंतु उनकी चिंता थी कि यदि कांग्रेस संस्था के नाते हिंसा का रास्ता अपनाएगी तो वह बिखर जाएगी या ब्रिाटिश सरकार उस पर हमला करके उसे समाप्त कर देगी। इस तमाम चर्चा से निष्कर्ष निकला कि क.मा.मुंशी भारत और कांग्रेस के हित में कांग्रेस से त्यागपत्र देकर बाहर जाएं और हिन्दुओं को संगठित करने का प्रयास करें। गांधी जी के निर्देशानुसार मुंशी ने बम्बई जाकर अपनी पत्नी, अपने कांग्रेसी मित्रों और पूना में यरवदा जेल में बंद सरदार पटेल से परामर्श किया। वर्धा लौटकर उन्होंने कांग्रेस से त्यागपत्र दिया और गांधी जी ने 15 जून 1941 को उनके त्यागपत्र पर एक प्रेस वक्तव्य जारी किया।
मुंशी का त्यागपत्र
गांधी जी ने अपने लम्बे वक्तव्य में कांग्रेस कार्यसमिति के 21 जून 1940 के वर्धा प्रस्ताव की अ.भा.कांग्रेस कमेटी की व्याख्या को उद्धृत किया, जिसमें कहा गया था कि कांग्रेस स्वराज्य की लड़ाई तो अहिंसा से ही लड़ेगी, किंतु स्वाधीन भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अहिंसा के सिद्धांत पर नहीं अड़ेगी। यह स्वयं में एक विरोधाभासी तर्कजाल था। जैसा कि इस श्रृंखला के प्रथम लेख में हम स्पष्ट कर चुके हैं कि यह प्रस्ताव गांधी जी के अहिंसा पर अव्यावहारिक आग्रह की प्रतिक्रिया में से निकला था। गांधी जी ने मुंशी के त्यागपत्र का समर्थन करते हुए कहा कि "उनका त्यागपत्र देना उनके अपने, कांग्रेस और देश के हित में होगा। उनके इस कदम से अन्य कांग्रेसजनों के लिए भी त्यागपत्र का रास्ता खुलेगा। उनके कांग्रेस से त्यागपत्र का अर्थ यह कदापि नहीं है कि वे बदले की भावना से भरे हिंसक प्राणी बन गए हैं या राष्ट्रवाद विरोधी साम्प्रदायिक हो गये हैं। मुझे तनिक भी संदेह नहीं है कि उनकी दृष्टि में ऐसा प्रत्येक गैर हिन्दू, जो भारत को अपना घर मानता है, उतना ही भारतीय है, जितना भारत में जन्मा-पला कोई भी हिन्दू है। मैं आशा करता हूं कि वे बम्बई में स्थाई शांति स्थापित करने में सफल होंगे।" मुंशी जी लिखते हैं कि "जब मैंने कुछ प्रमुख कांग्रेसजनों से सम्पर्क किया तो उन्होंने कहा कि अब जब गांधी जी ने तुम्हें कांग्रेस से बाहर जाने की अनुमति दे दी है तो हम भी तुम्हारे साथ आने को तैयार हैं।" अनेक कांग्रेसजनों ने सुझाव दिया कि "स्वराज्य पार्टी" को पुन: जीवित किया जाए, ताकि वे उसमें जा सकें। मुंशी जी ने इसका उत्तर दिया कि आज का मुख्य प्रश्न संवैधानिक सुधार न होकर भारत की अखंडता की रक्षा है। कांग्रेस, हिन्दू महासभा, बम्बई कांफ्रेंस, आजाद कांफ्रेंस, मोमिन कांफ्रेंस, अखिल बंगाल कृषक प्रजा पार्टी, पृथकता विरोधी दक्षिण भारतीय कांफ्रेंस आदि अधिकांश दल और सिख, ईसाई, पारसी आदि सभी समुदाय अखंड भारत की निष्ठा रखते हैं। ये सब इकठृठा हो जाएं तो भारत को कौन खंडित कर सकता है। इसलिए आज की आवश्यकता है कि इस व्यापक जनभावना को उद्दीपित और संगठित करने के लिए अखंड हिन्दुस्थान मोर्चा बनाया जाए। यह मोर्चा कोई अनुशासनबद्ध संगठन नहीं होगा, बल्कि भारत की अखंडता और आंतरिक सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध दलों का एक साझा मंच मात्र होगा। इस स्थिति ने सरदार पटेल को विचलित कर दिया। उन्होंने गांधी जी को लिखा कि विभाजन और दंगों के प्रश्न पर बड़ी संख्या में कांग्रेसजन कांग्रेस को छोडक़र अपनी अलग पार्टी बना लेंगे। मुंशी कहते हैं कि गांधी जी पार्टी से ऊपर उठकर सोच सकते थे, पर सरदार नहीं। सरदार जैसे सहयोगियों का दबाव पडऩे के कारण गांधी जी ने अपने निजी सचिव महादेव देसाई के द्वारा एक स्पष्टीकरण जारी करवा दिया कि मुंशी ने कांग्रेस इसलिए छोड़ी, क्योंकि उनका अहिंसा पर से ही विश्वास उठ गया है। किंतु जो अभी भी अहिंसा पर विश्वास रखते हैं, भले ही उस पर अमल करना कठिन पाते हैं, उन्हें कांग्रेस में बने रहना चाहिए। मुंशी जी लिखते हैं कि महादेव देसाई के इस वक्तव्य के बाद जिन कांग्रेसियों ने मेरे साथ आने का वचन दिया था वे इस स्पष्टीकरण का तिनका पकडक़र कांग्रेस में ही रुके रह गए और मुझे अकेले ही अखंड हिन्दुस्थान का झंडा उठाना पड़ा।
पाकिस्तान समर्थक मनोभूमिका की पहचान
अखंड हिन्दुस्थान मोर्चे की पताका लेकर मुंशी जी ने पूरे भारत का भ्रमण किया। इस भारत यात्रा के पीछे मुंशी जी का उद्देश्य भारत और भारत विभाजन अर्थात् पाकिस्तान समर्थक शक्तियों की पहचान करना, उनकी मनोभूमिका और विचारधारा को समझना तथा अखंड भारत समर्थक शक्तियों का मनोबल बढ़ाना और उन्हें जोडऩा था। इस यात्रा से मुंशी जी का यह विश्वास दृढ़ हो गया कि यह संघर्ष भारतीय राष्ट्रवाद और मुस्लिम पृथकतावाद के बीच आठवीं शताब्दी से आरंभ हुए संघर्ष की अगली कड़ी मात्र है। उन्होंने मुस्लिम श्रोताओं को उनकी रगों में भारतीय पूर्वजों के रक्त का और समान सांस्कृतिक विरासत का स्मरण दिलाने का भरसक प्रयास किया, किंतु उन्हें जगह-जगह उग्र मुस्लिम विरोध का सामना करना पड़ा। भारत की सांस्कृतिक परंपरा से मुस्लिम समाज कितना कट चुका है इसका अंदाजा मुंशी जी को तब हुआ जब उदारता के लिए प्रसिद्ध और हिन्दू रियासत मैसूर के मुस्लिम प्रधानमंत्री सर मिर्जा इस्माईल ने मुंशी जी को कहा कि आपने अखंड जैसे संस्कृत शब्द की जगह उर्दू का कोई शब्द क्यों नहीं अपनाया? इससे तो मुसलमान नाराज हो जाएंगे। और तब मुंशी जी ने महसूस किया कि क्यों जिन्ना उर्दू को मुस्लिम राष्ट्रवाद का आधार कहते हैं। एक राष्ट्रवादी मुस्लिम नेता ने उन्हें लिखा कि आप मुसलमानों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर रहे हैं। जब मुंशी जी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रसंघ को सम्बोधित कर रहे थे तो चार-पांच मुस्लिम सभा से यह चिल्लाते हुए बाहर चले गए कि आप मुसलमानों को अपना गुलाम बनाना चाहते हैं। मुंशी जी लिखते हैं कि जब मैं लाहौर गया तो एक मुस्लिम नेता के उर्दू अखबार ने हिन्दुओं को धमकी दी कि यदि उन्होंने मेरी बात सुनी तो उनका वही हश्र दोबारा होगा जो 11वीं शताब्दी के आरंभ में महमूद गजनी ने किया था। उनकी दृष्टि में भारत की एकता का प्रचार करना, कायरता को छोडऩे का आह्वान करना और गुंडागर्दी का हिम्मत के साथ मुकाबला करने की बात करना अपराध था।
विष-बुझे वक्तव्य
इसके विपरीत महत्वपूर्ण और उत्तरदायी मुस्लिम नेताओं के जहरीले भाषणों के अनेक उद्धरण मुंशी जी ने ढाका दंगा जांच समिति को पेश की गयी बंगाल प्रांतीय कांग्रेस कमेटी की रपट में से दिए हैं। बंगाल के तत्कालीन मुस्लिम प्रधानमंत्री ने कहा, "यदि मुसलमान संगठित रहे तो वे दोबारा राज करेंगे। 22 करोड़ हिन्दुओं को मैं बिना उंगली हिलाए कुचल दूंगा। भविष्य केवल मुसलमानों का है, काफिरों का कोई भविष्य नहीं होता।" उसके मंत्रिमंडलीय सहयोगी सुहरावर्दी ने भैरव कांफ्रेंस में मुसलमानों को मुस्लिम लीग के झंडे तले संगठित होकर सवर्ण हिन्दुओं से सत्ता छीनने को कहा। गृहमंत्री ख्वाजा निजामुद्दीन ने एक हिन्दू की निजी सम्पत्ति पर बिना उससे पूछे "पाकिस्तान पार्क" का उद्घाटन कर दिया। मंत्रिमंडल के मुखपत्र "दि स्टार आफ इंडिया" ने लिखा, "बंगाल के कोने-कोने में मुसलमानों का धैर्य समाप्त हो चुका है। वक्त आ गया है कि इन चूहों को बताया जाए कि शेर मरा नहीं है, केवल सो रहा था। हम उन्हें दिखा देंगे कि बंगाल किसका है। उन्हें ऐसा सबक सिखाएंगे कि वे याद रखेंगे।" मंत्रिमंडल द्वारा पोषित पत्र "आजाद" में 10 मार्च 1941 को एक कविता छपी जिसमें मुस्लिम लीग के झंडे तले विजेता सिपाहियों को परास्त हिन्दुओं पर हमला करने और खून की नदियां बहाने, हिन्दू मंदिरों का ध्वंस करने और हिन्दू घरों में आग लगाने का आह्वान किया गया। उन्हीं दिनों सिंध में सुल्तानकोट में जी.एम.सैयद की अध्यक्षता में मुस्लिम लीग सम्मेलन में एक उर्दू शायरी में कहा गया, "हम पाकिस्तान में कोई गैर मुस्लिम चेहरा नहीं देखेंगे, वहां मूर्ति पूजा का नामोनिशान नहीं रहेगा, जो हिन्दू गुलाम रहने के लिए ही पैदा हुए हैं उन्हें सरकार में कोई हिस्सा पाने का हक नहीं है।" मुस्लिम मानसिकता के इन अनुभवों के आधार पर मुंशी जी ने गांधी जी के नाम 8 सितम्बर 1941 को एक बहुत लम्बे पत्र में लिखा, "मैं स्पष्ट देख रहा हूं कि मुसलमानों का बहुत बड़ा बहुमत राष्ट्रवाद के प्रति उदासीन है और देश पर हावी होने की नीति अपना रहा है। कमजोर दिल हिन्दू ऊंची बात कहकर संतोष कर लेते हैं कि "मैं राष्ट्रवादी हूं और मुझे मुसलमानों को नाराज नहीं करना चाहिए। इसका नतीजा यह हो रहा है कि राष्ट्रवाद, हिन्दू और अन्य गैर मुस्लिम समुदाय खतरे में हैं। यदि मैं अपनी सभाओं में मेरा भाषण सुनने या मेरे भाषणों की रपट पढक़र कुछ मुसलमानों की आहत भावनाओं या नाराजगी की चिंता करके सत्य न बोलूं तो मेरे बोलने की आवश्यकता ही क्या है?" उसी पत्र में मुंशी जी लिखते हैं, "यह सच है कि जो मैं बोलता हूं उससे मुसलमानों की भावनाएं आहत होती हैं। वे केवल एक ही दृष्टिकोण से देखना और सुनना चाहते हैं और उसके प्रति बड़े भावुक हैं। वे चाहे जो कहें या करें, किसी को उसकी आलोचना नहीं करनी चाहिए। लेकिन मैं जो साफ देखता हूं क्या उसे अपनी पूरी क्षमता से बताने का मुझे हक नहीं है? यहां (बम्बई में) कुछ ही दिन पहले मुस्लिम नेताओं के भाषणों में जो ईष्र्या, जहर और मतांधता भरी थी वह ध्यान देने लायक है। मुस्लिम पृथकतावादी देश का विभाजन करने पर तुले हुए हैं। वे भारत राष्ट्र के टुकड़े-टुकड़े करके हिन्दुओं को अल्पसंख्यक बना देना चाहते हैं। देश का भविष्य खतरे में है। क्या हिन्दुओं को इस डर से कि, कहीं आज के सच्चे हालात के वर्णन को सुन-पढक़र कहीं मुसलमान भाई नाराज न हो जाएं, अपने होंठ सी लेने चाहिएं?" पत्र के पहले पैरा में ही मुंशी जी लिखते हैं कि, "कट्टरवादी मुसलमान आपको सब समस्या की जड़ मानते हैं और मुझे केवल एक नन्हा सपोला। कोई आश्चर्य नहीं कि राष्ट्रवादी मुसलमान भी मुझे मुसलमानों की पराधीनता का औजार समझ रहे हैं। जबसे मैंने कांग्रेस छोड़ी है और मुस्लिम प्रेस ने आप पर आरोप लगाना शुरू किया है कि आपने ही बुरे इरादे से मुझे बाहर भेजा है, मैं पूरी सावधानी बरतता हूं कि आप पर मेरे कारण कोई लांछन न लगने पाए।"
अखण्ड हिन्दुस्थान का उद्घोष
मुसलमानों में व्याप्त पृथकतावादी और हिन्दू विरोधी मानसिकता से दुखी मुंशी जी लिखते हैं, "गांधी जी पिछले 25 साल से हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए भागीरथ प्रयास कर रहे हैं। इसके लिए वे हिन्दुओं के एक वर्ग का विश्वास भी खो बैठे हैं। यह वर्ग उन पर हिन्दुओं को नीचे गिराने का लांछन लगाता है। किंतु मुस्लिम समाज ने उनके इरादों को गलत समझा। पृथकतावादी अखबारों में उन्हें इस्लाम का सबसे बड़ा शत्रु कहा जा रहा है। उनको जान से मारने की धमकियां दी जा रही हैं। यही स्थिति मौलाना अबुल कलाम आजाद की है। वे इस्लाम के अधिकारी विद्वान हैं, देशभक्त हैं, बड़े राष्ट्रवादी हैं। पर उनका मखौल उड़ाया जा रहा है कि वे हिन्दू मुस्लिम एकता के द्वारा भारत को अखंड रखना चाहते हैं। मुंशी जी पूछते हैं कि, " जो अहिंसा का मसीहा और भारत का सबसे महान मुसलमान प्राप्त नहीं कर पाया, वह तुष्टीकरण के द्वारा प्राप्त हो सकेगा? जब भारत की अखंडता के उपासक निर्भीक वाणी में अखंड हिन्दुस्थान का उद्घोष करेंगे तभी वे पृथकतावादियों से सम्मान अर्जित कर पाएंगे, तभी दोस्ती और आपसी समझदारी का सवेरा प्रगट होगा।" ऐसा नहीं है कि मुंशी जी मुस्लिम समाज के भीतर से उठ रहे इक्के-दुक्के राष्ट्रवादी स्वरों के प्रति अनजान थे। उन्होंने मोमिन नेता अब्दुल कय्यूम अंसारी, अखिल बंग कृषक प्रजा पार्टी के नेता सैयद हबीबुर रहमान, मध्य प्रांत के पूर्व मंत्री मोहम्मद यूसुफ शरीफ और इस्मायली खोजा समुदाय के नेता मोहम्मद भाई रावजी के भाषणों को उद्धृत किया है, किंतु मजहबी जुनून की आंधी में वे तिनकों के समान उड़ गए। 100 वर्षों के इतिहास से विकसित हिन्दू विरोधी व विजेता शासक की मानसिकता मतांतरित मुसलमानों में इतनी व्यापक और गहरी फैल गयी थी कि भारतीय मुसलमानों ने मौलाना आजाद जैसे निष्ठावान मुसलमान को ठुकराकर कुरान और नमाज से दूर अंग्रेजियत में रंगे जिन्ना को सिर पर उठा लिया। मुसलमानों में व्याप्त हिन्दू विरोधी मानसिकता के उदाहरण देते हुए मुंशी जी कहते हैं, "मुस्लिम विभाजनवादी को राष्ट्रीय एकता को प्रतिबिम्बित करने वाले प्रत्येक प्रतीक और व्यवहार से चिढ़ है। यदि मैं वंदेमातरम् गाता हूं तो उसे बुरा लगता है। यदि मैं किसी विद्यालय को "विद्या मंदिर" जैसा संस्कृत नाम देता हूं तो उसकी भावना आहत होती है। अगर मैं राष्ट्रीय ध्वज का वंदन करता हूं तो वह परेशान हो जाता है। यदि मैं हम दोनों को समझ आने वाली "हिन्दुस्थानी" जैसी राष्ट्रभाषा का विकास करना चाहता हूं तो वह चाहता है कि हम केवल उर्दू बोलें, जिसे मैं समझ नहीं पाता। वह अपने को मजहबी अल्पसंख्यक के बजाय प्रतिद्वंद्वी राष्ट्र मानता है।" अखंड हिन्दुस्थान मोर्चा के मंच से मुंशी जी ने पूरे भारत में घूमकर अखंड भारत की अलख जगाने और पृथकतावाद के विरुद्ध राष्ट्रवादी शिविर में एकता पैदा करने का ऐतिहासिक प्रयास किया। किंतु राष्ट्रवादी शिविर की आंतरिक स्थिति और मानसिकता का उनकी आंखों देखा चित्र और अनुभव क्या है, वह भारत की आज की स्थिति में भी अत्यंत प्रासंगिक है। (जारी)...

विभाजन-गाथा का एक विस्मृत पन्ना-4

एक बौद्धिक आस्था और विश्वास को लेकर मुंशी जी अकेले ही अखंड हिन्दुस्थान की पताका लेकर लोक जागरण और राष्ट्रीय मोर्चे के निर्माण के लिए भारत भ्रमण पर निकल पड़े। उन्होंने पूरे उत्तर भारत की यात्रा की। इस यात्रा में वे कांग्रेसजनों और गैर कांग्रेसियों, दोनों से मिले। उन्होंने अपनी आंखों से देखा कि किस प्रकार "पाकिस्तानी दंगों" के द्वारा राष्ट्रवाद को देश-विभाजन की मांग के सामने झुकने को मजबूर किया जा रहा है। सुनियोजित दंगों की आग क्रमश: नए-नए प्रांतों में फैलती जा रही थी। पंजाब में सरगोधा और सिंध में सक्कर शहर भी इन लपटों में घिर चुके थे। इन दंगों के कारण हिन्दू मन बहुत अधिक उद्वेलित था, किंतु अपने को नेतृत्व विहीन और असहाय पा रहा था। मातृभूमि की स्वतंत्रता की उत्कट आकांक्षा को लेकर वह गांधी जी के प्रभावशाली व्यक्तित्व के कारण कांग्रेस के झंडे तले इक_ा हो गया था। कांग्रेस संगठन का जाल पूरे भारत के ग्रामों और नगरों में फैला हुआ था। प्रत्येक जाति, प्रत्येक भाषा, प्रत्येक वर्ग और प्रत्येक प्रांत में सत्याग्रह आंदोलनों के माध्यम से ऐसा नेतृत्व उभर आया था जिसे लोग जानते और मानते थे। अत: पूरे देश की आशाएं इसी नेतृत्व पर टिकी थीं। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह नेतृत्व विभाजन कतई नहीं चाहता था। गांधी जी ने स्वयं मार्च 1940 के मुस्लिम लीग प्रस्ताव पर प्रतिक्रिया करते हुए 13 अप्रैल 1940 के हरिजन के अंक में द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को ठुकराते हुए लिखा था, "मैं इस विचार को कदापि स्वीकार नहीं कर सकता कि वे लाखों भारतीय जो कल तक हिन्दू थे, इस्लाम मजहब को कबूल करते ही अपनी राष्ट्रीयता को बदल बैठे।" उन्होंने कहा कि "भारत विभाजन मेरे शरीर के टुकड़े करने जैसा है।"
कांग्रेस की चारित्रिक दुर्बलता
पर प्रश्न था कि क्या मुस्लिम लीगी हिंसा का मुकाबला गांधी जी की अहिंसा से किया जा सकता है? कितने कांग्रेसजनों ने अहिंसा का आचरण करने लायक आत्मबल और चित्त-शुद्धि अर्जित की थी? क्या वे उसे अंग्रेज सरकार के विरुद्ध एक रणनीतिक हथियार के रूप में ही नहीं अपना रहे थे? दो वर्ष तक सत्ता के उपभोग ने उनकी मानसिकता को बहुत दुर्बल और दूषित कर दिया था। बम्बई प्रांत के गृहमंत्री के नाते और बाद में भारत-विभाजन के लिए "पाकिस्तानी दंगों" के दौरान मुंशी जी ने कांग्रेस की चारित्रिक दुर्बलता का प्रत्यक्ष साक्षात्कार किया। अपने अनुभव को उन्होंने गांधी जी को 8 सितम्बर 1941 के लम्बे पत्र में स्पष्ट शब्दों में लिखा-
"आपने पूरे बीस साल तक हमें शक्ति देने का प्रयास किया। पर हम इतनी भी शक्ति उत्पन्न नहीं कर पाये कि हम प्रांतों में मिली सीमित सत्ता को भी सुरक्षित रख पाते। हम शक्तिहीन हैं। हम केवल वाक्-शूरता दिखा सकते हैं। अधिक से अधिक हम गिरफ्तारी दे सकते हैं, बशर्ते कि हमें कुछ ही महीनों के बाद छूटने का भरोसा हो।" पर, यह सब होते हुए भी मुंशी जी को विश्वास था कि प्रकृति ने भारत को अखंड बनाया है। केदारनाथ से कन्याकुमारी तक और कामाख्या से कराची तक भारत अखंड है। सहरुाों वर्षों के संस्कारों के कारण भारतीय मन उसे भारत माता के रूप में पूजता है। उसकी मुक्ति के लिए व्याकुल और संघर्षरत है। अत: उसके विभाजन की मांग उसे भीतर से झकझोर डालेगी और वह अपने सब मतभेदों को भुलाकर एकता के सूत्र में बंध जाएगा, मातृभूमि के विभाजन के षड्यंत्र को पूरी शक्ति से परास्त कर देगा। इसी विश्वास को लेकर मुंशी जी भारत यात्रा पर निकल पड़े। उन दिनों कांग्रेस के अलावा हिन्दू महासभा ही दूसरा संगठन थी जो विनायक दामोदर सावरकर के नेतृत्व में स्वयं को कांग्रेस के राष्ट्रवादी विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर रही थी और अखंड भारत के लिए प्रतिज्ञाबद्ध थी। सावरकर जी ने मुंशी को दिल्ली में होने वाली अपनी कार्यसमिति की बैठक में भाग लेकर अपने अखंड हिन्दुस्थान दौरे के अनुभव के आधार पर देश की वर्तमान स्थिति को प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया। मुंशी वहां गए और अपने अनुभव सुनाए। उन्होंने बताया कि हिन्दू मन इस समय बहुत उद्वेलित और चिंतित है। अनेक कांग्रेसजन भी मान रहे हैं कि "पाकिस्तानी दंगों" का हिंसक प्रतिरोध आवश्यक है, किंतु गांधी जी और कांग्रेस नेतृत्व इस रास्ते को अपनाने को तैयार नहीं है। अत: यदि मुस्लिम हिंसा की चुनौती का मुकाबला करना है तो ऐसे गैर गांधीवादी नेतृत्व की खोज करनी होगी जो जनता के बीच लोकप्रिय हो और जिसका अपना जनाधार भी हो। तभी हम मुस्लिम लीग पर से "विजेता जाति" मानसिकता का भूत उतार पाएंगे। मुंशी जी ने हिन्दू महासभा कार्यसमिति को स्पष्ट कहा कि ऐसा जनाधार युक्त लोकप्रिय नेतृत्व अभी उन्हें दिखाई नहीं दिया। मुंशी जी लिखते हैं कि गैर कांग्रेसी नेता ऐसा नेतृत्व बनाने के बजाय कांग्रेस और गांधी जी की आलोचना में ही अपनी पूरी शक्ति खर्च कर रहे थे। दूसरी ओर हिन्दू नेतृत्व भी जिन्ना से गुप्त मुलाकात करके उन्हें मनाने में जुट गया था। डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मुंशी जी से मित्रता थी। उन्होंने मुंशी जी की दिल्ली यात्रा के समय उन्हें बताया कि जिन्ना ने उन्हें कहा कि यदि हिन्दू विभाजन की मांग को सिद्धांतत: स्वीकार कर लें तो मैं सत्ता हस्तांतरण के लिए उनका साथ दूंगा, किंतु साथ ही शर्त लगा दी कि यदि डा. मुखर्जी ने मेरे इस प्रस्ताव को सार्वजनिक किया तो मैं मुकर जाऊंगा।
डाक्टर जी का आह्वान
हिन्दू महासभा की कार्यसमिति की बैठक से मुंशी जी को निराशा ही हाथ लगी। उन्हें लगा कि "सावरकर भी मुझे बुलावा देने से प्रसन्न नहीं लगे।" वे चाहते थे कि मुंशी हिन्दू महासभा में आ जाएं, जिसके लिए मुंशी तैयार नहीं हुए। उन्होंने गांधी जी को 8 सितम्बर वाले पत्र में लिखा कि, "मेरा हिन्दू महासभा में जाने का कोई विचार नहीं है, क्योंकि उसकी सब नीतियों और उद्देश्यों को मैं स्वीकार नहीं कर सकता।" उन दिनों यदि कांग्रेस और हिन्दू महासभा राजनीति के क्षेत्र में सक्रिय थे तो गैर राजनीतिक राष्ट्रवादी शक्ति के रूप में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तेजी से उभर रहा था। भारत की स्वतंत्रता और अखंडता के प्रति वह पूरी तरह जागरूक था। संघ के जन्मदाता डा. हेडगेवार के 21 जून 1940 को निधन के तुरंत पश्चात् प्रकाशित उनकी जीवनी में "जागतिक परिस्थिति और हिन्दुओं का भवितव्य" शीर्षक से अपने भाषण में डा. हेडगेवार ने चिंता प्रगट की थी कि, "पैंतीस करोड़ से घटते-घटते हम पच्चीस करोड़ रह गये हैं। हमारी क्षति कितनी द्रुत गति से होती जा रही है। इसके विपरीत मुसलमान लोग सबके सामने खुल्लम-खुल्ला पाकिस्तान की मांग ब्रिाटिश लोगों के सामने रख रहे हैं। इस दशा में हमें सतर्क होकर आत्म-संरक्षण के लिए संगठित हो जाना चाहिए।" जिस समय डाक्टर जी ने यह चेतावनी दी उस समय, उनके कथनानुसार, "संघ की केवल दो सौ शाखाएं हैं जिनमें बीस हजार स्वयंसेवक नित्य प्रति नियमित रूप से कार्य कर रहे हैं।" इसके कुछ समय बाद त्रयोदश वर्षीय (अर्थात् सन् 1938) सिंहावलोकन में डाक्टर हेडगेवार ने कहा, "आज तो हम 70,000 से अधिक संख्या में हैं। संघ कार्य के चौदह वर्ष पूर्ण होने पर 1939 में डा. हेडगेवार ने अपने "संदेश" में कहा, "इन चौदह वर्षों में हमने अपने कार्य का विस्तार भारतवर्ष के पंजाब, बंगाल, बिहार आदि प्राय: सभी दूर-दूर के प्रांतों में भी किया है तथा मध्य प्रांत और बम्बई प्रांत के प्रत्येक जिले और तहसील में हमारी शाखाएं सुचारू रूप से कार्य कर रही हैं।" इसी "संदेश" में डा. हेडगेवार ने माना कि अब तो हम जनता के सामने प्रकाश में आ चुके हैं। हमारे चारों ओर शत्रु और मित्र फैले हुए हैं।" उन्होंने कार्यकत्र्ताओं को अपनी गति बढ़ाने का आह्वान करते हुए कहा कि "संघ यह नहीं चाहता कि किसी क्लब या पाठशाला के समान वह भी सदियों तक जैसे-तैसे चलता रहे।...यदि उस परीक्षार्थी के समान, जो परीक्षा बिल्कुल समीप आने पर दौड़-धूप मचाता हो, कार्य करने की चेष्टा करोगे तो आखिर में खाली हाथ मलते रहना पड़ेगा। कौन कह सकता है आगे चलकर परिस्थिति कैसे पलटा खाने वाली है। पता नहीं आगामी काल के संकट के पहाड़ हमारे सिर पर कब टूट पड़ेंगे।"
पुणे संघ शाखा में मुंशी
बम्बई प्रांत के गृहमंत्री के नाते मुंशी जी को संघ की शक्ति, संगठनात्मक विस्तार और विचारधारा की जानकारी अवश्य रही होगी। अत: 6 अगस्त 1941 को वे पुणे में संघ की शाखा पर गये और वहां स्वयंसेवकों का इस संकट काल में आगे आने का आह्वान किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से मुंशी जी के मिलन का यह प्रसंग अनजाना ही रह जाता यदि मुंशी जी ने उसके तुरंत बाद जनवरी 1942 में बम्बई से प्रकाशित अपनी "अखंड हिन्दुस्थान" शीर्षक वाली अंग्रेजी पुस्तक में इस कार्यक्रम की तिथि और वह पूरा भाषण लिपिबद्ध न कर दिया होता। उन्होंने संघ शाखा पर अपना भाषण आरंभ करते हुए पहले अपनी स्थिति स्पष्ट की। उन्होंने कहा कि "मैंने कांग्रेस इसलिए छोड़ी कि मैं आत्मरक्षार्थ हिंसक बल प्रयोग को न अपनाने के कांग्रेस के सिद्धांत से स्वयं को सहमत नहीं पाता। हम एक मतभेद को छोड़ दें तो मैं अभी भी वैसा ही राष्ट्रवादी हूं जैसे मैं कांग्रेस में प्रवेश के पहले और बाद में था।" आगे उन्होंने कहा, "मेरी पक्की धारणा है कि भारत-विभाजन की मांग का एकमात्र उद्देश्य भारत में हिन्दुओं के अस्तित्व और प्रभाव को नष्ट करना है...हिन्दुओं का भविष्य बहुत संकटापन्न है। हम जातिवाद, प्रांतवाद और भाषावाद के भंवर में फंस गये हैं।...जब तक हिन्दू असंगठित और विभाजित रहेंगे तब तक वे इस कुटिल षड्यंत्र को परास्त नहीं कर पाएंगे। प्रखर राष्ट्रवाद ही हमें अन्य समुदायों का सहयोग लेते हुए शक्तिशाली बना सकता है।" उन्होंने कहा, "भारत विभाजन को रोकने में जितनी बाधा मुस्लिम कट्टरवाद की ओर से आ रही है उससे अधिक हिन्दुओं की भीरू वृत्ति की ओर से है। कठोर वास्तविकता का सामने करने के बजाय हम शब्द जाल बुनने लगते हैं। नौकरी या सूद के लालच में हम किसी भी हद तक गिरने को तैयार रहते हैं। यदि अंग्रेज हमारे सामने कुछ टुकड़े फेंक देता है तो उन्हें झपटने के लिए हम आपस में झगडऩे लगते हैं। यदि मुसलमान हमें आंखें दिखाता है तो हम अपनी भाषा, अपनी वेशभूषा, यहां तक कि संस्कृति को भी छोडऩे को तैयार हो जाते हैं। देश के सामने विभाजन का खतरा खड़ा है, पर हम उस खतरे का मुकाबला न करने के बहाने खोज रहे हैं। अपनी भीरुता को ढंकने के लिए कोई भी सहारा हमारे लिए काफी है। भयग्रस्त राष्ट्र अपना भविष्य कभी नहीं बना सकता।" हिन्दू समाज की दुर्बलताओं का वर्णन करने के बाद मुंशी जी ने संघ का आह्वान करते हुए कहा, "आपका संघ हिन्दुओं का व्यापक संगठन है। आपने हिन्दू समाज की सेवा करने और उसे बलशाली बनाने की प्रतिज्ञा ली है। इसलिए आपका पहला कर्तव्य है कि आप हिन्दुओं को निर्भयता का पाठ पढ़ाएं।" अपनी बात को बढ़ाते हुए उन्होंने कहा, "आप एक विशाल और प्रभावशाली संगठन हैं। भारत के कई भागों में आपकी बहुत अधिक शाखाएं फैली हुई हैं। आपने हिन्दू समाज को संगठित करके बलशाली बनाने का संकल्प लिया हुआ है। किंतु आप यह न भूलें कि इस समय एक नि:शस्त्र पराधीन समाज है। अखंड हिन्दुस्तान की जो लड़ाई हमारे सामने है उसमें विजय पाने के लिए समाज के सब वर्गों और भारत में रहने वाले उन सभी समाजों का, जो इस प्रश्न पर हमारे साथ हैं, सहयोग लेना होगा।" उन्होंने कहा, "अखंड हिन्दुस्थान एक यथार्थ था, है और रहेगा। हम तीस करोड़ हैं, हम एक महान संस्कृति और इतिहास के उत्तराधिकारी हैं। यदि हिन्दू धर्म खोखला होता तो हम सब मुसलमान बन गये होते। हमारे पास एक महान दर्शन और संदेश है। अखंड हिन्दुस्थान की जमीन से वह संदेश पूरे विश्व को देना है।" अपने भाषण का अंत उन्होंने इन शब्दों से किया, "भारत कभी नहीं मरेगा, क्योंकि आप उसे बचाएंगे।"
"अखण्ड हिन्दुस्थान" की राह
मुंशी जी के इस आह्वान पर संघ की क्या प्रतिक्रिया रही, इसकी कोई जानकारी हमें नहीं मिल पायी। इतना तो सत्य है कि 1939 से 1941 तक, संघ का संगठनात्मक विस्तार 70,000 की संख्या से बहुत आगे बढ़ गया होगा। जून 1940 में डाक्टर जी के असामयिक स्वर्गवास से व्यथित माधवराव मुल्ये एवं नानाजी देशमुख जैसे अनेक कार्यकत्र्ताओं ने अपना पूरा समय संघ कार्य को समर्पित करने का संकल्प लिया था। डाक्टर जी के उत्तराधिकारी श्रीगुरु जी के प्रभावशाली आध्यात्मिक नेतृत्व में महाराष्ट्र और विदर्भ के नगरों में तीन प्रतिशत और गांवों में एक प्रतिशत स्वयंसेवक खड़े करने की डाक्टर जी की अंतिम इच्छा की पूर्ति में सब प्राणपण से जुटे होंगे। पाकिस्तान के खतरे की चेतावनी डाक्टर जी ने बहुत पहले दे दी थी। अत: इस समय, जब वह खतरा सामने खड़ा था, तब संघ ने उस दिशा में क्या पहल की, इसकी कोई जानकारी कहीं से नहीं मिल पा रही। अगस्त में संघ शाखा पर उद्बोधन के पश्चात 1 नवम्बर 1941 को मुंशी जी ने कुछ उत्साही लोगों के निमंत्रण पर पंजाब के लुधियाना नगर में आयोजित अखंड हिन्दुस्थान सम्मेलन में अध्यक्षीय भाषण दिया। इस लम्बे भाषण में उन्होंने "मुस्लिम राष्ट्र" के विचार का खंडन करते हुए मुस्लिम पृथकतावाद का इतिहास प्रस्तुत किया। हिन्दू-सिख एकता का आह्वान करते हुए उन्होंने विश्वास प्रगट किया कि "अखंड हिन्दुस्थान कभी नहीं मरेगा।" पर उनका यह आशावाद पूर्ण क्यों नहीं हो पाया? यह तो सत्य है कि हिन्दू समाज की विकेन्द्रित रचना और मानसिकता को देखते हुए किसी एक संगठन के झंडे तले पूरे समाज को खड़ा करना तब संभव नहीं था। मुंशी जी की यह कल्पना ठीक थी कि "अखंड हिन्दुस्थान" जैसे किसी ढीले-ढाले मोर्चे के द्वारा ही सब राष्ट्रवादी शक्तियों का एकत्रीकरण ही व्यावहारिक होता। क्या इस दृष्टि से राष्ट्रवादी शिविर में कोई गहरा विचार-मंथन हुआ? (जारी)

विवाह पंजीकरण से बहु-विवाह तक कानून बना तो झुके मुल्ला-मौलवी

इसमें संदेह नहीं है कि समय-समय पर होने वाले सामाजिक परिवर्तनों के लिए पुरानी मान्यताओं को जगह बनानी पड़ती है। समाज की गतिविधियां एक नदी के समान होती हैं, जिस पर कानून बहती धारा की भूमिका अदा करता है। पुराने कानून और परम्पराएं जब समाज के लिए दु:खद स्थिति पैदा कर देती हैं तो फिर उनमें बदलाव आना अनिवार्य हो जाता है। इसी तरह कुछ कट्टर सोच के लोगों के साथ जुड़ा वर्ग जब यह समझने लगता है कि उसके पुराने कायदे-कानून ही उसके लिए अंतिम हैं, तब समाज में विद्रोह पनपता है। समझदार सरकार वह है जो समय रहते उन पुराने कायदे-कानूनों में बदलाव की प्रक्रिया प्रारंभ कर दे। जो कानून समाज को दुखी करने लगते हैं उन्हें कितना ही अपने सीने से चिपकाए रखें, लेकिन समय के साथ उनमें बदलाव करना ही पड़ता है। मुस्लिम समाज निकाह के पंजीकरण के मामले में हमेशा अपना विरोध दर्ज कराता आ रहा था। उसके अगुआ मुल्ला-मौलवी यह कहा करते थे कि "यह तो हमारे समाज की पहचान है, इसे कयामत तक कोई नहीं बदल सकता।" दूसरी ओर, दुनिया में जिन भी देशों में मुस्लिम सरकारें हैं वहां लाख विरोध के बाद भी निकाह का पंजीकरण अनिवार्य कर दिया गया है। जब विदेश यात्रा के समय पति-पत्नी के लिए विवाह पंजीकृत कराने की अनिवार्यता प्रारंभ हुई तो फिर शनै: शनै: यह कहा जाने लगा कि पंजीकरण कराने में कोई हर्ज नहीं है। भारत में अब तक पारिवारिक अदालतों में ऐसे पंजीकरण का काम होता था, लेकिन पिछले दिनों मुम्बई जैसे महानगर में महापालिका ने विवाह पंजीकरण की सुविधा उपलब्ध करवा दी। गत 5 मार्च से मुम्बई महापालिका के अंतर्गत सभी वार्डों में विवाह पंजीकरण आरम्भ हो गया है। विवाहित युगल यदि तीन माह के भीतर विवाह का पंजीकरण कराते हैं तो उसका 250 रुपए शुल्क देना होता है। एक वर्ष के पश्चात् यह शुल्क 350 रुपए हो जाएगा। मुस्लिम युगल को पंजीकरण के अवसर पर अपने साथ निकाहनामा भी लाना पड़ेगा, जिस पर काजी का पंजीकरण क्रमांक और मुहर लगी होनी चाहिए। उन्हें साथ में तीन साक्षी भी लाने होंगे। तीन साक्षियों के चित्र एवं उनके निवास का सबूत भी देना पड़ेगा। पंजीकरण के लिए दूल्हा-दुल्हन का चित्र भी साथ में होना अनिवार्य है। यह व्यवस्था आरम्भ होने के बाद से मुस्लिम समाज के लोग भी नियमानुसार अपना पंजीकरण करवा रहे हैं। इस पंजीकरण से फर्जी विवाहों पर प्रभावी लगाम भी लगेगी। कल तक कट्टर मुल्ला-मौलवी निकाह पंजीकरण को गैर इस्लामी और "मुस्लिम पर्सनल लॉ" विरोधी कहते थे, लेकिन अब सभी को यह नियम स्वीकार करना पड़ा है। मतदाता पहचान पत्र पर महिलाओं के फोटो सम्बंधी एक घटना पिछले दिनों निर्वाचन आयोग के समक्ष भी आई थी। तब निर्वाचन आयोग ने सख्ती के साथ यह आदेश जारी किया कि महिला मतदाता का चेहरा फोटो में दिखना चाहिए। पर्दे के भीतर चेहरे वाले फोटो का कार्ड मान्य नहीं होगा। मुस्लिम नेताओं और मौलानाओं ने इस पर भी आपत्ति जताई। उनका कहना था कि पर्दा इस्लामी शरीयत का अनिवार्य अंग है। इसलिए मुस्लिम महिला अपना चेहरा खुला रख कर तस्वीर नहीं खिंचवाएगी। यह मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा। न्यायालय ने निर्वाचन आयोग की दलील मान्य की। उसने अपने फैसले में कहा कि हर महिला मतदाता का मतदाता पहचान पत्र पर चेहरा साफ दिखना जरूरी है। मुस्लिम नेताओं और मौलानाओं को घुटने टेक देने पड़े और बिना पर्दे के चेहरा दर्शाते हुए खींचे गए फोटो के नियम को स्वीकार कर लिया गया। इस अवसर पर भी "मुस्लिम पर्सनल लॉ" की दुहाई दी गई, लेकिन कट्टरवादियों को तकनीकी आवश्यकताओं और कानून के सामने अपनी इस अकड़ और कट्टरता को त्यागना पड़ा। इसलिए अब यह लगता है कि भारत में वह दिन दूर नहीं है जब संसद में समान नागरिक कानून का विधेयक पारित हो जाएगा। भारतीय संविधान में इसकी व्यवस्था है, लेकिन एक वर्ग विशेष को मजहब के नाम पर खुश करने के लिए लगभग सभी सरकारों ने इस सम्बंध में पहल नहीं की थी। लेकिन अब हालात बता रहे हैं कि "मुस्लिम पर्सनल लॉ" के कारण जो कठिनाई आती है और अन्याय होता है उसे समाज और सरकार बहुत दिनों तक बर्दाश्त नहीं कर सकती।

"मुस्लिम पर्सनल लॉ" की धज्जियां उड़ा देने वाली एक घटना राजस्थान में घटी। शरीयत भले ही किसी मुस्लिम पुरुष को चार पत्नियां रखने का अधिकार दे, लेकिन राजस्थान लोक सेवा (1971) के कानून के अनुसार, कोई मुस्लिम पुरुष एक पत्नी के रहते हुए दूसरा निकाह नहीं कर सकता है। वहां 22 वर्ष पूर्व लियाकत अली ने दूसरा निकाह किया था, जबकि उसकी पहली पत्नी जीवित थी। लियाकत ने उसे तलाक भी नहीं दिया था। दूसरा निकाह करने की वजह से उसे अपनी पुलिस की नौकरी गंवा देनी पड़ी। उसे पुलिस सेवा से बर्खास्त कर दिया गया, क्योंकि पहली पत्नी होने के बावजूद उसने दूसरा निकाह कर लिया था। लियाकत को लगता था कि मुस्लिम होने के नाते उसे शरीयत कानून एक से अधिक पत्नी रखने की आज्ञा देता है। किन्तु अदालत ने उसकी इस दलील को मान्य नहीं किया। लियाकत का कहना था कि भारत का संविधान "मुस्लिम पर्सनल लॉ" को मान्यता देता है, ऐसी स्थिति में दूसरा निकाह उसका अधिकार है। 22 वर्ष की लम्बी अवधि के पश्चात मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा। सर्वोच्च न्यायालय ने उसकी याचिका को ठुकरा दिया और अपने फैसले में यह कहा कि राजस्थान लोक सेवा नियम के अनुसार, लियाकत ऐसा नहीं कर सकता है। अब इस मामले को लेकर राजस्थान में "मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड" आन्दोलन चला रहा है। इसका परिणाम तो जो आना था, वह आ गया। लेकिन इससे एक बात सिद्ध हो गई कि लोक सेवा के कानून "मुस्लिम पर्सनल लॉ" से अधिक वजन रखते हैं। जिस बहु-विवाह के अधिकार पर मुस्लिम आग्रह करता है और उसे अपनी पहचान मानता है उसे सर्वोच्च न्यायालय मान्यता नहीं देता। पिछले दिनों सऊदी अरब की एक महिला नदीन ने इजिप्ट में यह सवाल उठाया कि यदि एक पति चार पत्नियां रख सकता है, तो एक पत्नी चार पति क्यों नहीं? (देखें, पाञ्चजन्य 14 फरवरी, 2010) इससे मिलता-जुलता मामला केरल उच्च न्यायालय में सामने आया। सामान्य धारणा यह है कि इस्लाम में तलाक देने का विशेषाधिकार पुरुषों के लिए सुरक्षित है। लेकिन केरल उच्च न्यायालय की एक खण्डपीठ ने "मुस्लिम पर्सनल लॉ" के मजहबी रुाोत कुरान शरीफ को आधार बनाते हुए फैसला सुनाया कि जिस तरह यह मजहबी ग्रंथ एक निकाह की स्थिति में मुस्लिम पुरुषों को अपने विवेक के आधार पर अपनी पत्नी को तलाक देने का अधिकार देता है वैसा ही अधिकार बहु-विवाह की स्थिति में पति के विरुद्ध उसकी पत्नी को भी देता है। बहु-विवाह का अधिकार देते समय यह कहा गया कि "एक पति अपनी सभी पत्नियों के साथ एक जैसा व्यवहार करे। यदि ऐसा नहीं कर सकते हो तो फिर तुम्हें एक से अधिक निकाह करने का अधिकार नहीं हो सकता।" बहुविवाह की स्थिति में यदि किसी पत्नी को ऐसा लगता है कि उसका पति उसके साथ न्याय और बराबरी के साथ पेश नहीं आ रहा है तो यह किसी के सामने सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। इस्लाम में पुरुषों के तलाक के अधिकार की तरह महिलाओं को भी "खुला" लेने का अधिकार दिया गया है। चूंकि महिला अधिक भावुक होती है, इसलिए उसे अदालत को सबूतों के साथ यह बताना पड़ता है कि अब उसके लिए अपने पति के साथ रहना असम्भव हो गया है। विवेक के मामले में महिला को पुरुषों की तुलना में कमतर आंकना कहां तक ठीक है, यह बहस मुसलमानों में तीव्रता से चल रही है। मौजूदा समय में "खुला" लेने की छूट इसलिए नहीं दी जा सकती है कि इससे एक पति और एक पत्नी के बीच भी यह शुरुआत होने का खतरा है। केरल उच्च न्यायालय ने उक्त फैसला बहु-विवाह के सम्बंध में दिया है। इसलिए लगता है, फिलहाल तो एक पति और एक पत्नी के बीच यह शुरुआत नहीं होगी। लेकिन इससे एक बात साफ है कि "खुला" का दायरा और उसका महत्व बढ़ा है। अब तक मुस्लिम महिला लाचार थी, लेकिन अब उसे यह अधिकार दे दिया गया है।

अरुणाचल का सच : मतांतरण में जुटे हैं आतंकी गुट

भारत के कुछ राज्यों में मतांतरण पर प्रतिबंध है, इनमें पूर्वोत्तर का अरुणाचल प्रदेश भी है। बावजूद इसके अरुणाचल प्रदेश में चोरी-छिपे या कुछ जगहों पर सार्वजनिक रूप से जनजातियों का मतांतरण हो रहा है। अरुणाचल प्रदेश के बारे में शेष भारत में जो जानकारी लोगों को है उससे लोग यही जानते हैं कि अरुणाचल प्रदेश के ज्यादातर लोग ईसाई हैं। कुछ लोग सोचते हैं कि अरुणाचल प्रदेश के लोग बौद्ध हैं। हाल ही में बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा जब अरुणाचल प्रदेश के तवांग बौद्ध मठ के दौरे पर आए तब ऐसा लग रहा था कि यहां के सारे लोग बौद्ध हैं। पर वस्तुस्थिति यह है कि अरुणाचल प्रदेश के कुछ जिलों में चर्च प्रेरित आतंकवादी एवं अलगाववादी संगठन एन.एस.सी.एन (आई.एम.) तथा एन.एस.सी.एन. (खाफलांग) गुटों की राष्ट्रविरोधी गतिविधियां तेज हैं। इनका एक प्रमुख काम यह भी है कि आतंक का माहौल बनाकर स्वधर्मनिष्ठ, प्रकृतिपूजक सरल जनजातियों को ईसाई मत की ओर धकेलना। दूसरा प्रमुख काम है- छापामार लड़ाई के द्वारा नागालैण्ड एवं उससे सटे हुए असम (उत्तर कछार एवं कार्विआंग्लांग जिला) एवं मणिपुर प्रान्त के नागा जनजाति के क्षेत्रों को वृहत्तर नागालैण्ड या नागालिम में शामिल करना। यह 1947 से लगातार चल रहा है। 1987 से उत्तर पूर्व के सबसे ताकतवर आतंकी गुट एन.एस.सी.एन. (आई.एम.) का केन्द्र सरकार के साथ युद्धविराम समझौता है। एक बार समय सीमा खत्म होने के बाद दोबारा समय सीमा बढ़ाई जाती है। उधर इस गुट के शीर्ष नेता इसाक चीस्वू एवं थांग्लांग मिनाबा केवल शांति वार्ता के समय भारत सरकार के अतिथि के रूप में भारत आते हैं, बहुचर्चित नागा शांति-वार्ता में शामिल होते हैं एवं वार्ता के बाद उनके यूरोप के एमस्टर्डम वापस चले जाते हैं। इन दिनों भी केन्द्र सरकार के साथ उनकी शान्ति वार्ता चालू है। अब तक लगभग पचास बार शान्ति वार्ता हो चुकी है, पर परिणाम शून्य ही रहा है। लेकिन इस बीच जनता एवं सुरक्षा बलों को मिलाकर 25 हजार से अधिक लोग इन गुटों की हिंसा का शिकार बन चुके हैं। शांति वार्ता के चलते नागा आतंकी गुटों के बीच आपसी लड़ाई में भी 500 नागा युवकों को जान से हाथ धोना पड़ा। यह एक कड़वा सच है। इस बार "ऑल नागा स्टूडेंट्स यूनियन" एवं कुछ जनजाति समाज के नेताओं ने भी दबाव डाला है, ताकि नागा गुटों के बीच संघर्ष बंद हो। इस बार की वार्ता में क्या सफलता मिलती है, यह तो कुछ ही दिनों में साफ हो जायेगा। वार्ता के दौरान स्वयं गृहमंत्री पी. चिदम्बरम कुछ कहने से बचते रहे। इस बार श्री पाण्डे नए मध्यस्थ थे। इससे पूर्व केन्द्रीय गृहसचिव पद्मनाभैया कुछ समय के लिए शांति वार्ता के मध्यस्थ थे। मगर उस समय स्थिति और भी बिगड़ी थी। मणिपुर के लोगों ने इस डर से विरोध प्रदर्शन करके काफी हल्ला मचाया कि उनके कुछ क्षेत्रों को वृहत्तर नागालैण्ड में शामिल न कर दिया जाये। उधर जनजातियों के धर्म-संस्कृति की रक्षा के लिए अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम की प्रेरणा से बना "जनजाति संस्कृति सुरक्षा मंच" विक्रम बहादुर जमातिया के नेतृत्व में काफी सक्रिय है। अधिकतर जनजाति अपनी परम्परा के अनुसार उनकी भाषा में चन्द्र-सूर्य देवता को डोनी-पोलो बोलते हैं। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार अरुणाचल प्रदेश में हिन्दू 34.6 प्रतिशत व अन्य जनजाति 30.7 प्रतिशत हैं, जिनमें से अधिकतर लोग डोनी-पोलो के उपासक हैं ईसाई 18.7 प्रतिशत, मुसलमान 1.9 प्रतिशत, बौद्ध 13 प्रतिशत, सिख 0.1 प्रतिशत तथा जैन 0.1 प्रतिशत हैं। लेकिन यहां जिस तरह आतंकी गुटों की आड़ में ईसाई मिशनरियां मतांतरण में सक्रिय हैं, उससे अरुणाचल में तेजी से जनसांख्यिकी परिवर्तन का खतरा मंडरा रहा है।

मां तो ऐसी होनी चाहिए

कहते हैं मनुष्य की सबसे पहली शिक्षक मां होती है। इसलिए जरूरी है कि उसका भी एक पाठ्यक्रम हो, ताकि वह एक आदर्श मां बन सके। यानी उसमें इतनी योग्यता हो कि वह अपने बच्चे का हर प्रकार से विकास कर एक सर्वगुण सम्पन्न मानव बना सके। जोकि भविष्य में एक आज्ञाकारी बेटा/बेटी होने के साथ-साथ सच्चा तथा ईमानदार देशभक्त भी बन सके। इस पाठ्यक्रम का सबसे पहला सबक है कि एक मां का उसके बच्चे के जीवन को संवारने में महत्वपूर्ण योगदान होता है। यदि वह चाहे तो उसे तराशकर सोना तक बना सकती है। एक पूर्ण मां वह है जो अपने बालक पर जैसा लिख दे वह वैसा ही हो जाए। यथा- मदालसा अपने तीन पुत्रों पर वैरागी लिखती है तो वे वैरागी और एक पर राजा लिखती है तो वह राजा बनता है। इसी प्रकार जीजाबाई अपने पुत्र पर शिवाजी, यशोदा कृष्ण और कौशल्या राम लिखती है, तो वे वही बन जाते हैं। एक महिला के मां बनते ही उसका शिक्षक जीवन शुरू हो जाता है, परन्तु याद रहे एक अच्छा शिक्षक वही होता है जो सदा शिक्षार्थी भी बना रहे। बालक के धरती पर जन्म लेते ही मां को उसका पाठ्यक्रम शुरू कर देना चाहिए। जैसे-जैसे बालक बड़ा होता जाए उसका परिचय उसके पिता, दादा-दादी, नाना-नानी आदि परिजनों से कराना। साथ ही उसके वंश से भी उसका परिचय कराना, फिर आगे बढक़र उसका परिचय चंदा, सूरज और ध्रुव से भी कराना। उसका परिचय हिमालय के संयम और अडिगता भी कराना। बालक को यह भी बताना कि वह गंगा की तरह चंचल और सागर की तरह गंभीर रहे। अत: बहुत जरूरी होने पर ही वह अपना संयम तोड़े। उसे यह भी बताना कि वह छायादार वृक्षों की तरह ऊपर की ओर बढ़े, मन में निराशा कभी न लाए। उसे यह भी जरूर बताइए कि वह जिस समाज में रह रहा है, वह क्या, कितना, कहां और कैसा है? उसे यह बताना भी जरूरी है कि हर आदमी का वास्तविक पिता एक ही है और वह परमात्मा है तथा सभी की असली मां यही धरती है। उसे यह भी बताइए कि वह जिन-जिन लोगों की गोद में खेला है, जिनके हाथों में झूला है, वह उन्हें बड़ा होकर भी न भूले। बालक को यह बताना भी जरूरी होगा कि कोई भी जाति अच्छी या बुरी नहीं होती, अच्छा या बुरा तो आदमी होता है। इसलिए जरूरी है कि वह एक अच्छा आदमी बने। उसे यह भी बताना होगा कि वह संसार का सबसे धनिक व्यक्ति होने पर भी संसार के सबसे न्यूनतम स्तर के आदमी जितना ही उपभोग करे। उसे यह भी बताना कि वह खाद्य वस्तुओं को सब में बांटकर खाए। उसे यह भी बताइए कि वह अच्छी और बुरी बातों में भेद करना शुरू करे, यह उसकी प्रगति के लिए अच्छा साबित होगा। उसे बताना होगा कि गलत आदमी को मारने के लिए ही नहीं, बल्कि समझाने के लिए भी शक्तिशाली होना जरूरी है। उसे बताइएगा कि वह जोश में होश कभी न खोए। जीवन में वह शक्ति के संतुलन को भी समझे। उसे यह बताना भी जरूरी है कि उसका सामना गलत रास्तों पर ले जाने वाले गलत लोगों से जरूर होगा और जब ऐसे लोगों से उसका सामना होगा तो उसके साथ कोई नहीं होगा। ऐसे में उसे अकेले ही अपना बचाव करना होगा। उसे जीवन के हर रहस्य को समझने के लिए प्रेरित करना होगा। उसे सम्पन्नता और विपन्नता में समान रूप से रहने के लिए बताएं। ध्यान रहे उसमें अहंकार के अकुंर कभी भी पैदा न हों। परन्तु सबसे पहले बालक इन सब बातों को अपनी मां में देखना शुरू करेगा। इसलिए मां इसे वास्तव में एक सर्वगुण सम्पन्न व्यक्ति बनाना चाहती है तो इन सब बातों पर अमल करने की उसे स्वयं शुरुआत करनी होगी।

सोमवार, 24 मई 2010

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस : आजादी के महानायक

यद्यपि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में भारत माता ने ऐसे अनेक नर-पुंगवों को जन्म दिया था, जिनकी तुलना विश्व के किसी अन्य देश से नहीं की जा सकती। किन्तु इसके बावजूद इसे अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध संचालित राष्ट्रीय आन्दोलन की त्रासदीपूर्ण विडम्बना ही कहा जाएगा कि आवेदनकर्ता, उदारवादी, संविधानवादी, राष्ट्रवादी, क्रान्तिकारी, जनान्दोलनकारी धाराओं के पुरोधा एक-दूसरे के पूरक न बन सके। फलत: भारत माता को बन्धनमुक्त कराने में केवल एक सुदीर्घ कालखण्ड ही व्यतीत नहीं हुआ, अपितु स्वातंत्र्य देवी का पदार्पण भी मातृभूमि के पातकीय विभाजन के साथ हुआ। इस विषय में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की यह टिप्पणी अत्यंत महत्वपूर्ण है कि दुनिया के अन्यान्य देशों में 'अन्य नेतागण अपने-अपने देश को कम अनुयायियों के साथ और अल्प कालावधि में स्वतंत्र कराने में सफल रहे हैं। (देखिए, नेताजी-कलेक्टिड वर्क्स, खण्ड-2, 1981, पृष्ठ 329)। इस दुर्भाग्यपर्ण स्थिति का मुख्य कारण वर्ष 1920 में लोकमान्य तिलक के असामयिक निधन के उपरान्त राष्ट्रीय आन्दोलन का संचालन मूलत: पाश्चात्य राजनीतिक सिद्धान्तों और मनोरचना के आधार पर किया जाना है और उसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय आन्दोलन के मूर्धन्यतम नेता ने अपने से मत-भिन्नता रखने वाले प्रत्येक राजनेता और राजनीतिक समूह को अपना विरोधी मानकर उनको नेस्तोनाबूद करने में अपने प्रयासों की पराकाष्ठा कर दी। एक संक्षिप्त लेख के कलेवर में इस कुचक्र का शिकार बनने वाले महापुरुषों का नामोल्लेख तक कर पाना सम्भव नहीं है, फिर भी यह उल्लेखनीय है कि 23 जनवरी, 1897 को अवतरित हुए और अपने सम्पूर्ण जीवन की आहुति भारत माता के बन्धन काटने में चढ़ा देने वाले सुभाष बाबू उनमें से एक ऐसे अत्यन्त प्रमुख राजनेता हैं, जो 1916 में प्रेसीडेंसी कालेज, कोलकाता से उस वक्त निष्कासित कर दिए गए थे जब वे बी.ए. के विद्यार्थी थे। वर्ष 1919 में दर्शन शास्त्र विषय में प्रथम श्रेािी में बी.ए. (आनर्स) की उपाधि कलकत्ता विश्वविद्यालय से अर्जित करने के बाद इंग्लैण्ड में मात्र आठ मास के अध्ययन उपरान्त आई.सी.एस. की प्रतियोगात्मक परीक्षा उतीर्ण कर उन्होंने योग्यता सूची में चतुर्थ स्थान प्राप्त किया। किन्तु ब्रिटिश शासन की पराधीनता से घोर वितृष्णा के कारण अप्रैल, 1921 में इंग्लैण्ड में अपने निवास के दौरान ही उससे त्यागपत्र दे दिया। जुलाई, 1921 में भारत आने पर सर्वप्रथम वे गांधी जी से मिले, किन्तु उनसे हुए वार्तालाप से सन्तुष्ट न होने के कारण उन्होंने कलकत्ता जाकर देशबन्धु चित्तरंजनदास से भेंट की और उनके सम्पूर्ण जीवन-काल में वे उनके अत्यंत निष्ठावान अनुयायी बने रहे। महात्मा जी को सुभाष बाबू का यह कार्य रुचिकर नहीं लगा, क्योंकि 1923 में धारा सभाओं अथवा काउंसिल प्रवेश को लेकर इनके देशबन्धु के साथ इतने गम्भीर मतभेद हो गए थे कि 1924 से 1928 के दौरान गांधी जी ने अपने-आपको राजनीतिक गतिविधियों से पूरी तरह अलिप्त कर लिया था। सुभाष बाबू को भारतीय राजनीतिक क्षितिज से तिरोहित करने की पराकाष्ठा यद्यपि जनवरी, 1939 में उनके द्वारा डा. पट्टाभि सीतारमैय्या को पराजित करने की घटना से सम्बंधित है, क्योंकि उस समय महात्मा जी और उनके समर्थकों ने मार्च, 1939 के कांग्रेस अधिवेशन में अध्यक्ष के रूप में सुभाष बाबू द्वारा प्रस्तुत छह मास में भारत को स्वाधीनता देने से संबंधित अन्तिमेत्थम्-प्रस्ताव न केवल ठुकरा दिया था, अपितु उसके साथ ही कांग्रेस कार्यसमिति का गठन करना भी असम्भव बना दिया था। दुर्विपाक से कांग्रेस के अन्दर क्रियाशील समाजवादी समूह भी सुभाष बाबू के विरोध में आ डटा था। इसके पूर्व सितम्बर, 1938 में जर्मनी और ब्रिटेन के बीच हुए कथित म्यूनिख समझौते के तुरन्त बाद जब कांग्रेसाध्यक्ष के रूप में सुभाष बाबू ने सम्पूर्ण देश में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध खुला संघर्ष करने के उद्देश्य से देशवासियों में बड़े पैमाने पर अपना अभियान आरम्भ किया तब उसका भी खुला विरोध गांधी जी के अनुयायियों द्वारा किया गया, क्योंकि प्रान्तीय स्वायत्तता के अन्तर्गत सत्ता संभालने वाले कांग्रेस के राजनेता अपना मंत्री पद खतरे में डालने को सिद्ध नहीं थे। फलस्वरूप सुभाष बाबू ने 29 अप्रैल, 1939 को कांग्रेसाध्यक्ष पद और कांग्रेस से त्यागपत्र देकर फारवर्ड ब्लाक नामक संस्था की स्थापना की थी। (देखिए, वही, पृ. 371-373)। इसके पूर्व भी पूर्ण स्वाधीनता के प्रस्ताव को लेकर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के विरुद्ध एक जबरदस्त अभियान चलाया गया था। देश और विदेश में बहुत कम लोगों को इस सच्चाई की जानकारी होगी कि कांग्रेस के द्वारा पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव वर्ष 1929 के अन्त में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में सम्पन्न कांग्रेस अधिवेशन के पूर्व ही पारित किया जा चुका था। तथ्य यह है कि इस घटना के कई वर्ष पूर्व कांग्रेस में बढ़ती हुई युवा शक्ति के जबरदस्त आग्रह पर प्रान्तीय कांग्रेस समितियां पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव पारित कर अखिल भारतीय कांग्रेस महासमिति से उसे सार्वदेशिक स्तर पर स्वीकार करने का अनुरोध कर रही थीं। फलत: दिसम्बर, 1927 के अन्त में मद्रास में डा. एम.ए. अंसारी की अध्यक्षता में सम्पन्न कांग्रेस अधिवेशन में पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया गया था। किन्तु गांधी जी ने अधिवेशन समाप्ति के तुरन्त बाद एक सार्वजनिक वक्तव्य में यह घोषणा की कि उक्त प्रस्ताव 'जल्दबाजी में बिना गम्भीर विचार-विनिमय के पारित किया गया है।' यद्यपि महात्मा जी स्वयं मद्रास कांग्रेस में उपस्थित नहीं थे। तदुपरान्त 1928 में सर्वदलीय सम्मेलन में मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में बनी सांविधानिक समिति ने बहुमत से कांग्रेस का लक्ष्य पूर्ण स्वाधीनता के स्थान पर 'डोमिनियन स्टेटसÓ प्राप्त करने की सिफारिश की थी। किन्तु सुभाष बाबू और उनके समर्थकों को वह स्वीकार्य नहीं था। अत: दोनों पक्षों में सहमति बनाने के लिए नवम्बर, 1928 में मोतीलाल नेहरू ने एक फार्मूला प्रस्तुत किया, जिसे गांधीजी सहित सुभाष बाबू और दोनों के समर्थकों ने स्वीकार कर लिया। किन्तु दिसम्बर, 1928 में आयोजित कलकत्ता कांग्रेस ने महात्माजी ने मोतीलाल नेहरू के दिल्ली-फार्मूले को मानने से इनकार कर दिया। इसके परिणामस्वरूप पूर्ण स्वाधीनता और 'डोमिनियन स्टेटस' के प्रश्न को लेकर अधिवेशन में मतदान हुआ। गांधी जी के समर्थकों द्वारा जोर-शोर से यह प्रचार करने के कारण कि यदि 'डोमीनियन स्टेटस' को अस्वीकृत किया गया तो गांधी जी कांग्रेस की गतिविधियों से अपने आपको सर्वदा के लिए अलग कर लेंगे, मतदान में 'डोमीनियम स्टेटसÓ के पक्ष में 1350 मत और पूर्ण स्वाधीनता के समर्थन में 973 मत आए। (देखिए, वही, पृ. 161-175)। किन्तु इसके एक वर्ष बाद दिसम्बर 1929 में लाहौर में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में स्वयं गांधी जी ने पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव प्रस्तुत किया, जोकि मद्रास कांग्रेस की ही भांति सर्वसम्मति से पारित हुआ था। (देखिए, वही, पृ. 192)। सुभाष बाबू के विरुद्ध इससे भी बड़ा गुनाह देश की स्वाधीनता प्राप्ति का श्रेय उन्हें और उनके नेतृत्व में युद्ध-क्षेत्र के अन्दर अद्वितीय वीरता दिखाने वाले आजाद हिन्द फौज के जवानों को न देकर इस मिथ्या-प्रचार को जाता है कि भारत को स्वतंत्रता अहिंसा के मार्ग से गांधी जी के नेतृत्व में प्राप्त हुई है। इस पर टिप्पणी करते हुए सुप्रसिद्ध काकोरी काण्ड के एक अप्रतिम स्वतंत्रता सेनानी शचीन्द्रनाथ बख्शी ने वर्ष 1964 में एक लेख के माध्यम से कहा था कि 'अहिंसा से ही मुल्क आजाद हुआ', इस झूठे प्रचार के बाद, आज ऐसा समय आ गया है जब अहिंसा का प्रचार करना देशद्रोह समझा जाने लग गया है।' (देखिए, शचीन्द्रनाथ बख्शी- 'वतन पे मरने वालों का....Ó पृष्ठ 92)। इसी भांति क्रान्तिकारी आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी करने वाले मन्मथनाथ गुप्त और सुप्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफेसर आर.सी. मजूमदार ने स्वाधीनता-प्राप्ति का श्रेय नेताजी को दिए जाने की पुष्टि की है। प्रोफेसर मजूमदार ने अंग्रेजी भाषा के अपने ग्रन्थ 'भारत में स्वाधीनता का इतिहास-खण्ड 3 के पृष्ठ 609-610 पर लिखा है कि 1947 में स्वतंत्रता-प्राप्ति में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का योगदान महात्मा गांधी से किसी भी प्रकार कम नहीं था, सम्भवत: वह उससे अधिक महत्वपूर्ण था। ' इस सन्दर्भ में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कथन भारत को स्वतंत्रता प्राप्त होने के समय ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली के हैं, जिनके शासन काल में देश स्वतंत्र हुआ। फरवरी, 1947 में ब्रिटेन के हाउस आफ कामन्स में भारत को स्वाधीन करने के विषय में उन्होंने स्पष्ट शब्दों में घोषणा की थी कि ब्रिटेन भारतीयों को स्वतंत्रता दे रहा है, क्योंकि अब भारतीय सेना ब्रिटिश राजसत्ता के प्रति राजभक्त नहीं रही है और ब्रिटेन भारत को अपने अधीन बनाये रखने के लिए अंग्रेजों की बहुत बड़ी सेना को भारत में रखने की स्थिति में नहीं है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली की इस विवशता की पुष्टि आजाद हिन्द फौज के सेनाधिकारियों के विरुद्ध कोर्ट मार्शल की कार्रवाई का भारतीय सेनाधिकारियों द्वारा एक स्वर से विरोध करने-जिसके फलस्वरूप ब्रिटिश राज्य सत्ता को अपनी योजना रद्द करनी पड़ी, 20 जनवरी, 1947 को कराची में भारतीय वायुसेना के द्वारा प्रारम्भ की गई हड़ताल और उसके लाहौर, मुम्बई और दिल्ली में फैल जाने, 29 फरवरी, 1947 को मुम्बई में नौसेना के 5000 जवानों द्वारा आजाद हिन्द फौज के बिल्ले लगाकर हड़ताल करने तथा कलकत्ता, दिल्ली, मद्रास और कराची के उसकी चपेट में आने की आशंका, मुम्बई में हड़ताली नौसैनिकों द्वारा अंग्रेज सेनाधिकारियों की गोलियों का जवाब सात घंटे तक गोलियों से देने और अन्तत: लार्ड वेवेल द्वारा सरदार पटेल की मध्यस्थता से समझौता करने आदि की घटनाओं से हो जाता है। इतना ही नहीं, बीसवीं शताब्दी में साठ के दशक में जब क्लीमेंट एटली लार्ड के रूप में भारत यात्रा पर आए तब वे कलकत्ता के राजभवन में राज्यपाल के मान्य अतिथि बनकर 3 दिन रुके थे। उस समय राज्यपाल महोदय ने लार्ड एटली से जब यह जानकारी चाही कि 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के पूरी तरह विफल हो जाने और दूसरे महायुद्ध में ब्रिटेन और उसके मित्र-राष्ट्रों को निर्णायक विजय प्राप्त हो जाने पर भी ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने भारत को स्वतंत्र करने का निर्णय क्यों लिया? तब इस पर लार्ड एटली का उत्तर था कि इसके अनेक कारण थे जिनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की भूमिका थी जिसने भारत की थल और नौसेना की ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठा के आधार को ही पूरी तरह हिला दिया था। इस पर जब राज्यपाल ने उनसे आगे यह जानकारी प्राप्त करनी चाही कि इस महत्वपूर्ण परिवर्तन में गांधी जी का कितना योगदान था तब उसे सुनकर एटली के होंठ एक तिरस्कारपूर्ण मुस्कान के साथ फैल गए और उन्होंने धीरे-धीरे अपने एक-एक अक्षर पर जोर देते हुए कहा कि न्यूनतम। इससे स्पष्ट है कि भारत को राजनीतिक आजादी प्राप्त कराने में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और उनके नेतृत्व में सक्रिय आजाद हिन्द फौज की निर्णायक भूमिका रही है। इतिहास की इस सच्चाई को उनके 113 वें जन्म दिन के पावन अवसर पर पहचानने की सर्वाधिक आवश्यकता है।

फिर धमाके का दुस्साहस

मुंबई हमलों के बाद शांति थी, लेकिन नए आतंककारी हमले ने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया है। आंतरिक सुरक्षा पर दिल्ली में हाल ही में सम्पन्न मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में आतंकवाद व नक्सली आंदोलन जैसी समस्याओं से निपटने के लिए केन्द्र और राज्यों के बीच सहयोग बढाने की जरू रत बताई गई। इससे पहले केन्द्रीय गृहमंत्री ने अपने उद्घाटन भाषण में कश्मीर के हालात का उल्लेख करते हुए कहा था कि वहां हिंसक घटनाएं कम हुई हैं, हालांकि घुसपैठ बढी है। सम्मेलन में इस बात पर संतोष जताया गया था कि 26/11 के बाद से कोई आतंककारी हमला नहीं हुआ है और सरकार ने आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए कई कदम उठाए हैं। लश्कर-ए-तैयबा व उसके सहयोगी संगठनों के संभावित आतंककारी हमलों की चेतावनी व संकेतों को ध्यान में रखकर इस पर औपचारिक चर्चा भी होनी चाहिए थी। हाल ही में आजमगढ से पकडे गए शहजाद अहमद से पूछताछ में मिली जानकारी भी स्पष्ट चेतावनी थी। उसने पूछताछ में कहा बताया कि जिन स्थानों पर विदेशी पर्यटकों का आवागमन ज्यादा होता है, वहां इंडियन मुजाहिदीन हमले की साजिश रच रहा है। इन स्थानों में गोवा और आगरा तो थे ही, कई प्रमुख होटल व रेस्टोरेंट भी संभावित लक्ष्यों में शामिल थे, जहां विदेशी पर्यटक अक्सर आते-जाते या ठहरते हैं। इन स्थानों में पुणे की जर्मन बेकरी भी शामिल थी, जिसके पास ही ओशो आश्रम स्थित है। अमरीकी गुप्तचर एजेंसियों ने भी आतंककारियों के ऐसे ही संभावित हमले की सूचना दी थी। अमरीका ने तो भारत आने वाले अमरीकी पर्यटकों को भीडभाड वाले स्थानों से बचने व बेहद सतर्कता बरतने की सलाह भी जारी कर रखी है। इस सबके बावजूद लगता है कि पर्याप्त सतर्कता नहीं बरती गई। पाकिस्तान आधारित आतंककारी गुटों के निशाने पर पुणे भी है, यह तो लश्कर के डेविड कोलमेन हेडली के दो बार पुणे आने और वहां अब हुए विस्फोट स्थल के पास के एक होटल में ठहरने की जानकारी से ही साफ था। ओशो आश्रम और यहूदियों का उपासना स्थल इस स्थान के निकट होने के कारण वहां विशेष रू प से असाधारण उपाय किए जाने चाहिए थे। अहमदाबाद में वर्ष 2008 में हुए बम विस्फोटों के बाद से ही पुणे को इस्लामी आतंककारी गुटों का एक बडा ठिकाना माना जाता है। तब वहां पुलिस ने स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) से जुडे आतंककारियों के मददगारों को गिरफ्तार किया था। गिरफ्तार लोगों ने पूछताछ में बताया था कि वे कुख्यात आतंककारी तौकीर को जानते हैं, जो पुणे के आजम परिसर में अक्सर आता रहता था। इस परिसर में कई कॉलेज हैं, जिनमें उक्त गिरफ्तार लोगों में से भी कुछ पढते थे। भारतीय गुप्तचर एजेंसियों के पास भी ऐसी सूचनाएं थीं कि भटकल बंधु रियाज व इकबाल और अब्दुस सुभान कुरैशी उर्फ तौकीर जैसे इंडियन मुजाहिदीन के मुखिया इस इलाके में सक्रिय हैं, हालांकि अब ऐसी सूचनाएं हैं कि ये तीनों अब पाकिस्तान में हैं। निश्चय ही पुणे में इंडियन मुजाहिदीन के ढांचे को पूरी तरह खत्म कर देना चाहिए। गुप्तचर एजेंसियों को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि इनके मददगार (स्लीपर सैल्स) बचने न पाएं। अहमदाबाद, दिल्ली व जयपुर में हुए बम विस्फोटों और सूरत में बरामद बिना फटे बमों के मामलों की जांच और विस्फोटों से पहले तथा बाद में भेजे गए ई-मेल के आधार पर पुलिस ने इंडियन मुजाहिदीन के 21 संदिग्ध लोगों को गिरफ्तार किया गया था। ऐसे 6 अन्य लोग फरार हैं। इन 21 में से कम से कम 7 या तो पुणे के रहने वाले हैं या वहां से गिरफ्तार हुए हैं। पांच अन्य गिरफ्तार लोग पुणे आ-जा चुके थे और हमलों की साजिश रचने वालों के सहयोगी थे। जांच एजेंसियों ने इंडियन मुजाहिदीन के सदस्यों के खिलाफ जो आरोप तय किए हैं, उनमें पुणे के अशोका म्यूज क्षेत्र में स्थित एक अपार्टमेंट में बम तैयार कर उन्हें लक्ष्य स्थलों तक पहुंचाने का आरोप भी शामिल है। निश्चित रू प से पूरे देश में नहीं, पुणे में भी इंडियन मुजाहिदीन को खत्म करने के लिए यह पर्याप्त नहीं है। सबसे अधिक विक्षुब्ध करने वाला तथ्य यह है कि इतनी सारी जानकारी और गुप्तचर सूचनाओं के बावजूद आतंककारियों के सबसे ज्यादा संभावित हमलों के स्थलों पर सामान्य एहतियाती उपाय तक नहीं किए गए। जनता में जागरूकता की कमी है और जो आम लोग अखबार नहीं पढते या टीवी के न्यूज चैनल नहीं देखते, उन्हें क्या सतर्कता बरतनी चाहिए, यह जानकारी उपलब्ध नहीं कराई जाती। यह इस बम विस्फोट का सबसे बडा कारण है। यदि आम आदमी को इस बारे में जागरूक और शिक्षित नहीं किया गया, तो ऐसे बम विस्फोट भविष्य में भी जारी रह सकते हैं। पुणे में इस शनिवार को हुए विस्फोट में वह सुपरिचित तरीका अपनाया गया, जैसा पहले भी कई बम विस्फोटों में अपनाया जा चुका था। लेकिन इस बार विस्फोट के निशाने पर विदेशी पर्यटक थे, इसलिए स्पष्ट है कि इसमें विदेशी हाथ ही होगा। लश्कर-ए-तैयबा भारतीयों का उपयोग कर विश्व को यह बताना चाहता है कि पाकिस्तान या अन्य कोई नहीं स्वयं भारतीय ही विस्फोटों के लिए जिम्मेदार हैं। यह विस्फोट इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि पाकिस्तान से बातचीत फिर शुरू करने की भारत की पेशकश के शीघ्र बाद यह किया गया है। इसका बातचीत पर क्या असर पडेगा, इस बारे में अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी, लेकिन इसके बाद भारत वार्ता में निश्चित रूप से अन्य मामलों की तुलना में आतंकवाद को अधिक ध्यान में रखेगा। वार्ता रद्द करना सही कदम नहीं होगा, क्योंकि ?सा करके तो हम आतंककारियों के हाथों में खेलेंगे, जो उपमहाद्वीप में शांति नहीं चाहते। देशवासियों की नजर इस ओर रहेगी कि सरकार विस्फोट के लिए जिम्मेदार लोगों को पकडने के लिए क्या कदम उठाती है। सरकार की ओर से सभी प्रयासों के बावजूद आतंककारी कुछ और विस्फोट या हमले करने में सफल हो सकते हैं। जनता को हर कीमत पर विभिन्न समुदायों में शांति सद्भाव कायम रखना चाहिए।

श्रीगुरूजी : एक अनजाना पहलू यह भी

(यह लेख आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक श्रद्धेय श्री सुदर्शनजी द्वारा लिखित है।)
पूजनीय गुरुजी के जून सन् 1973 में दिव्यलोकगमन के पश्चात् उस समय उपलब्ध उनके विचारों के संकलन एवं प्रकाशन का कार्य प्रारम्भ हुआ और 'श्री गुरुजी-समग्र दर्शनमाला का भाग-6 सर्वप्रथम मुद्रित हुआ। सन् 1974 के वर्षप्रतिपदा से प्रांत-प्रांतों में उसके विमोचन के कार्यक्रम आयोजित हुए। इंदौर के इस कार्यक्रम में पूजनीय गुरुजी के ज्येष्ठ गुरुभाई स्वामी अमूर्तानन्द जी के सान्निध्य-लाभ का सौभाग्य हम लोगों को प्राप्त हुआ। पुस्तक विमोचन के कार्यक्रम के उपरांत अनौपचारिक बातचीत में मैंने पूजनीय स्वामीजी से पूछा कि पूजनीय गुरुजी की आध्यात्मिक उपलब्धि क्या थी? पहले तो उन्होंने बताने से मना किया, किन्तु मेरे अधिक आग्रह करने पर कि पूजनीय गुरुजी की अध्यात्म साधाना के आप ही प्रेरक, कारक तथा दर्शक रहे हैं और इसलिए आप नहीं बतायेंगे तो पूजनीय गुरुजी का यह पहलू अनावृत ही रह जाएगा। क्या यह उचित होगा? चिकित्सकों की परेशानी मेरे इस आग्रह के पश्चात् उन्होंने कहा कि पूजनीय गुरुजी ने अपनी आत्मा को शरीर के किसी भाग से अलग कर लेने की क्षमता प्राप्त कर ली थी और इसलिए शरीर के किसी भाग में हुई व्याधि की पीड़ा इच्छा होने पर उन्हें सता नहीं पाती थी। तुरन्त मुझे महर्षि रमण का स्मरण हो आया। महर्षि रमण को भी कर्क-रोग हो गया था और वे तमिलनाडु स्थित अरुणाचलम् से बाहर नहीं जाते थे। अत: चेन्नै शासन ने वहीं अस्थायी शल्यक्रिया कक्ष खड़ा किया व चेन्नै से ख्यातनाम शल्य चिकित्सकों को वहाँ भेजा। जब शल्यक्रिया प्रारंभ करने का समय आया, तब चिकित्सकों ने महर्षि रमण को मूर्च्छावस्था में ले जाना चाहा, जिसे करने से उन्होंने मना कर दिया और बिना संज्ञा-हरक के ही शल्यक्रिया करने के लिए कहा। शल्य चिकित्सक शल्यक्रिया करने में जुट गए, किन्तु उनके सामने एक समस्या खड़ी हो गई। जब कर्क रोग की गांठ को काटते हैं, तब तो मृत कोशिकाएँ होती हैं, उन्हें काटने पर तो वेदना नहीं होती, किन्तु जब जीवित कोशिकाओं से शल्य स्पर्श करता है, तब वेदना से मुँह से सिसकारी या चीख निकलती है या मूर्च्छावस्था में शरीर में हलचल होती है जिससे चिकित्सकों को ज्ञात हो जाता है कि वहाँ जीवित कोशिका है। किन्तु महर्षि रमण के मुँह से सिसकारी भी नहीं निकल रही थी। अत: डाक्टरों की परेशानी यह थी कि पता कैसे लगे कि कौन-सी कोशिकाएँ मृत हैं और कौन सी जीवित? असंपृक्त चिकित्सकों ने अपनी परेशानी महर्षि रमण के सामने रखी तो उन्होंने कहा : 'जिस शरीर पर तुम शल्यक्रिया कर रहे हो, वह मैं नहीं हूँ। मैंने अपने आपको शरीर से असंपृक्त कर रखा है और वेदना तो शरीर को होती है।'चिकित्सकों के अनुनय करने पर यह समझौता हुआ कि जब जीवित कोशिकाओं को शल्य स्पर्श करे तो वे अंगुलि उठाकर संकेत कर दें। इस प्रकार करने पर ही शल्यक्रिया पूरी हो सकी थी। दूसरी घटना रामकृष्ण मिशन के स्वामी तुरीयानन्द जी की है। उनकी पीठ में दुष्ट व्रण (कारबंकल) हो गया था और उसकी शल्यक्रिया करने का निश्चय हुआ। दूसरे दिन जब उन्हें मूर्च्छावस्था में ले जाने की तैयारी हुई तब स्वामी जी ने कहा कि मूर्छित किए बिना ही शल्यचिकित्सा करो। सारी क्रिया ठीक तरह से सम्पन्न हुई। दूसरे दिन जब घाव को साफ करने के लिए डाक्टर गए तो पाया कि एक छोटा-सा टुकड़ा बच गया है। उन्होंने सोचा कि निकाल दें। पर ज्यों ही निकाला तो स्वामी जी के मुंह से जोर की चीख निकली। डाक्टर हतप्रभ हो गए। उन्होंने कहा : 'स्वामी जी कल सारा व्रण निकाला, तब तो आप शान्त रहे, आज छोटा-सा बचा टुकड़ा निकालने पर चीख क्यों पड़े?Óतब स्वामी जी ने उत्तर दिया कि 'पहले बताते तो मैं अपने-आप को शरीर के उस भाग से समेट लेता। कल मैंने वैसा ही किया था इसलिए वेदना नहीं हुई।'डा. परांजपे की भूल पूजनीय गुरुजी के कर्क की गठान पर जब शल्यक्रिया हुई तब उन्हें मूर्चि्छत तो अवश्य किया गया, किन्तु जैसे ही संज्ञा-हरक का प्रभाव समाप्त होकर वे होश में आए, त्यों ही कमरे से बाहर निकलकर आस-पास के कमरों में जाकर रोगियों का हालचाल पूछने लगे। शल्यचिकित्सा के पश्चात् पूजनीय गुरुजी ने नागपुर में मा. बाबासाहब घटाटे के यहाँ कुछ दिन विश्राम किया, जहाँ घाव की साफ-सफाई करने के लिए डा. रामदास परांजपे रोज जाया करते थे। डा. परांजपे साफ-सफाई करते और उधर पूजनीय गुरुजी के मुँह से हास्यविनोद की फुलझडिय़ाँ झड़तीं और चारों ओर प्रसन्नता का वातावरण बन जाता। एक दिन डा. परांजपे के हाथ से अनजाने में एक भूल हो गई। रक्त से सने कपास के टुकड़े को निकालते समय उस टुकड़े के स्थान पर मांस का खंड चिमटी की पकड़ में आ गया और रक्त बह चला। यह देखकर सभी के मुँह से सीत्कार फूट पड़ा। डा. परांजपे का मन भी ग्लानि से भर गया और वे अपनी प्रमाद के लिए पूजनीय गुरुजी से क्षमायाचना करने लगे। असहनीय पीड़ा में भी प्रफुल्लता डा. परांजपे की भावनाओं को सहलाते हुए श्री गुरुजी ने बड़े शांत चित्त से उत्तर दिया : 'आप व्यर्थ ही मन में कष्ट मान रहे हैं। कपास के टुकड़े और मांस में मेरे लिए कोई अंतर नहीं है। मेरे लिए दोनों समान हैं। जब आप घाव को साफ करते हैं, तब तक मेरा मन शरीर से अलग रहता है और जब मन शरीर से अलग रहता है तब शारीरिक पीड़ा का अनुभव नहीं होता। 'डा. श्रीधर भास्कर वर्णेकर लिखते हैं : 'यह सब जानते हैं कि कर्करोग की शल्यक्रिया के बाद भी गुरुजी के शरीर में बहुत जलन रहा करती थी और कष्ट भी अपार था, पर उनसे बात करते समय कोई भी अनुमान नहीं लगा पाता था कि उन्हें इतनी अधिक पीड़ा है। प्रफुल्ल मुखाकृति की छाप लेकर ही गुरुजी के पास से लोग लौटा करते। 'आगे चलकर अकड़ी बाँह की अग्निदग्धा चिकित्सा पुणे में कराई गई। उसे कराते समय उन्होंने संज्ञा-शून्य करने से मना कर दिया। जब अग्नि से दाग दिया जाता था तब मांस जलने की 'चर्रर्' की आवाज आती थी, पूजनीय गुरुजी के निजी सचिव डा. आबाजी थत्ते तक उस दृश्य को देख नहीं सके और कमरे से बाहर चले गए, किन्तु पूजनीय गुरुजी ने शांतचित्त से सब सहा। रोग का कारण पूजनीय गुरुजी को कर्करोग होने का क्या कारण रहा होगा? इस संबंध में पूजनीय गुरुजी के साथ एक वार्तालाप का स्मरण होता है। अनौपचारिक बातचीत में उनसे प्राणायाम के संबंध में चर्चा चल पड़ी। उन्होंने बताया कि 'प्राणायाम किसी योग्य गुरु के निर्देशन में ही किया जाना चाहिए। प्राणायाम की क्रिया में पूरक (श्वास अंदर लेना) और रेचक (श्वास बाहर छोडऩा) तो विशेष हानिकारक नहीं हैं किन्तु कुंभक (श्वास रोके रखना) अतीव सावधानी की अपेक्षा रखता है। ठीक विधि से प्राणायाम क्रिया करने पर प्राण नियंत्रित होता है, किन्तु यदि उसमें गड़बड़ हुई तो प्राण नियंत्रित होने के स्थान पर कुपित हो सकता है।Óऔर यह कहते हुए उन्होंने अपने खुद का अनुभव सुनाया। उन्होंने कहा : 'मैं रोज संध्या करते समय प्राणायाम भी किया करता था। एक दिन कक्ष का द्वार केवल भिड़ा हुआ था। मैं जब कुंभक की स्थिति में था तब शरीर किसी भी प्रकार का धक्का सहन करने की स्थिति में नहीं था। उसी समय मेरी चार वर्ष की नातिन अंदर आई और मेरी पीठ पर लद गई। उसके कारण छाती में बायीं ओर जो दर्द शुरू हुआ वह आज तक नहीं गया।Óआगे चलकर हमने देखा कि उसी स्थान पर कर्क की गठान उभरी। साक्षात्कार पूजनीय गुरुजी को साक्षात्कार हुआ था या नहीं, इस संबंधा में महाराष्ट्र के एक संत श्री दत्ता बाळ ने श्रध्दांजलि सभा में कहा था : 'मेरे व्याख्यानों का कार्यक्रम जब नागपुर में आयोजित हुआ, तब मैंने देखा कि एक दाढ़ी-मूँछ व लंबे केशवाले सज्जन कार्यक्रम में आए हैं। मैंने अपने साथियों से पूछा कि वे कौन हैं? तब बताया गया कि वे गुरुजी गोलवलकर हैं। मुझे आश्चर्य हुआ, क्योंकि मेरे मन में उनके प्रति कोई आदर का भाव नहीं था। किन्तु उन्हें अपने कार्यक्रम में देखकर मुझे कौतूहल हुआ और दूसरे दिन उनसे मिलने डा. हेडगेवार भवन चला गया। उनसे एकांत में वार्तालाप में मैंने योग संबंधी कुछ प्रश्न पूछे। मैंने अनुभव किया कि वे जो उत्तर देते थे, वे एक स्तर से आगे के रहते थे। इस प्रकार एक-एक सीढ़ी हम ऊपर उठते गए। अंत में मैंने उनसे एक प्रश्न पूछ लिया : 'गुरुजी, क्या आपको भगवान के दर्शन हुए हैं?'उन्होंने मेरी ओर कुछ देर तक देखा और मेरा हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा कि 'एक शर्त पर ही बताता हूँ कि किसी से कहोगे नहीं।Óमेरे हाँ कहने पर उन्होंने कहा : ''हाँ, हुआ है। संघ पर लगे प्रतिबंध के समय जब मैं सिवनी जेल में था और खाट पर बैठे हुए सारे घटनाक्रम के बारे में चिंतित हो रहा था, तब मुझे लगा कि कोई मेरे कंधो को दबा रहा है। जब पलटकर ऊपर देखा तो साक्षात् जगज्जननी-माँ सामने खड़ी थी। उसने आश्वस्त करते हुए कहा - 'सब ठीक होगा।'उसी बलबूते पर तो आगे के सारे संकटों का मैं दृढ़ता के साथ सामना कर सका।'और यह सुनाते हुए श्री दत्ता बाळ ने कहा : 'चूंकि अब वे दिवंगत हो गए हैं, इसलिए उनको दिए गए अभिवचन से मैं मुक्त हो गया हूँ और यह बात आप सबको बता रहा हूँ। ऐसे एक अध्यात्म-शक्तिसम्पन्न व्यक्ति के दर्शन, निर्देशन, सान्निध्य और नेतृत्व का लाभ हम सबको मिल सका, इसे अपने पूर्वजन्मों के सुकृत का ही परिणाम मानना होगा।

छत्रपति शिवाजी के पथ प्रदर्शक : समर्थ रामदास

समर्थ रामदास छत्रपति शिवाजी के गुरू थे। उन्होने दासबोध नामक एक ग्रन्थ की रचना की जो मराठी में है।
जीवन चरित :- समर्थ रामदास का मूल नाम नारायण सूर्याजीपंत कुलकर्णी (ठोसर) था। इनका जन्म महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले के जांब नामक स्थान पर शके 1530 में हुआ। वे बचपन में बहुत शरारती थे। गाँव के लोग रोज उनकी शिकायत उनकी माता से करते थे। एक दिन माता राणुबाई ने नारायण (यह उनके बचपन का नाम था) से कहा, 'तुम दिनभर शरारत करते हो, कुछ काम किया करो। तुम्हारे बड़े भाई गंगाधर अपने परिवार की कितनी चिंता करते हैं!' यह बात नारायण के मन में घर कर गई। दो-तीन दिन बाद यह बालक अपनी शरारत छोड़कर एक कमरे में ध्यानमग्न बैठ गया। दिनभर में नारायण नहीं दिखा तो माता ने बड़े बेटे से पूछा कि नारायण कहाँ है।उसने भी कहा, 'मैंने उसे नहीं देखा।' दोनों को चिंता हुई और उन्हें ढूँढने निकले पर, उनका कोई पता नहीं चला। शाम के वक्त माता ने कमरे में उन्हें ध्यानस्थ देखा तो उनसे पूछा, 'नारायण, तुम यहाँ क्या कर रहे हो?' तब नारायण ने जवाब दिया, 'मैं पूरे विश्व की चिंता कर रहा 'इस घटना के बाद नारायण की दिनचर्या बदल गई। उन्होंने समाज के युवा वर्ग को यह समझाया कि स्वस्थ एवं सुगठित शरीर के द्वारा ही राष्ट्र की उन्नति संभव है। इसलिए उन्होंने व्यायाम एवं कसरत करने की सलाह दी एवं शक्ति के उपासक हनुमानजी की मूर्ति की स्थापना की। समस्त भारत का उन्होंने पद-भ्रमण किया।
जगह-जगह पर हनुमानजी की मूर्ति स्थापित की, जगह-जगह मठ एवं मठाधीश बनाए ताकि पूरे राष्ट्र में नव-चेतना का निर्माण हो। आख्यायिका है कि 12 वर्ष की अवस्था में अपने विवाह के समय 'शुभमंगल सावधान' में 'सावधान' शब्द सुनकर वे विवाहमंडप से निकल गए और टाकली नामक स्थान पर श्रीरामचंद्र की उपासना में संलग्न हो गए। उपासना में 12 वर्ष तक वे लीन रहे। यहीं उनका नाम 'रामदास' पड़ा। इसके बाद 12 वर्ष तक वे भारतवर्ष का भ्रमण करते रहे। इस प्रवस में उन्होंने जनता की जो दुर्दशा देखी उससे उनका हृदय संतप्त हो उठा। उन्होंने मोक्षसाधना के स्थान पर अपने जीवन का लक्ष्य स्वराज्य की स्थापना द्वारा आततायी शासकों के अत्याचारों से जनता को मुक्ति दिलाना बनाया। शासन के विरुद्ध जनता को संघटित होने का उपदेश देते हुए वे घूमने लगे। कश्मीर से कन्याकुमारी तक उन्होंने 1100 मठ तथा अखाड़े स्थापित कर स्वराज्यस्थापना के लिए जनता को तैयार करने का प्रयत्न किया। इसी प्रयत्न में उन्हें छत्रपति श्रीशिवाजी महाराज जैसे योग्य शिष्य का लाभ हुआ और स्वराज्यस्थापना के स्वप्न को साकार होते हुए देखने का सौभाग्य उन्हें अपने जीवनकाल में ही प्राप्त हो सका। उन्होंने शके 1603 में 73 वर्ष की अवस्था में महाराष्ट्र में सज्जनगढ़ नामक स्थान पर समाधि ली।
प्रभु दर्शन :-
बचपन में ही उन्हें साक्षात प्रभु रामचंद्रजी के दर्शन हुए थे। इसलिए वे अपने आपको रामदास कहलाते थे। उस समय महाराष्ट्र में मराठों का शासन था। शिवाजी महाराज रामदासजी के कार्य से बहुत प्रभावित हुए तथा जब इनका मिलन हुआ तब शिवाजी महाराज ने अपना राज्य रामदासजी की झोली में डाल दिया। रामदासजी ने महाराज से कहा, 'यह राज्य न तुम्हारा है न मेरा। यह राज्य भगवान का है, हम सिर्फ न्यासी हैं।' शिवाजी समय-समय पर उनसे सलाह-मशविरा किया करते थे। रामदास स्वामी ने बहुत से ग्रंथ लिखे। इसमें 'दासबोध' प्रमुख है। इसी प्रकार उन्होंने हमारे मन को भी संस्कारित किया 'मनाचे श्लोक' द्वारा।
अंतिम समय :-
अपने जीवन का अंतिम समय उन्होंने सातारा के पास परळी के किले पर व्यतीत किया। इस किले का नाम सज्जनगढ़ पड़ा। वहीं उनकी समाधि स्थित है। यहाँ पर दास नवमी पर 2 से 3 लाख भक्त दर्शन के लिए आते हैं। प्रतिवर्ष समर्थ रामदास स्वामी के भक्त भारत के विभिन्न प्रांतों में 2 माह का दौरा निकालते हैं और दौरे में मिली भिक्षा से सज्जनगढ़ की व्यवस्था चलती है।

पंजाब केसरी लाला लाजपत राय

भारत की आजादी के आन्दोलन के प्रखर नेता लाला लाजपथ राय का नाम ही देशवासियों में स्फूर्ति तथा प्रेरणा का संचार कराता है। अपने देश धर्म तथा संस्कृति के लिए उनमें जो प्रबल प्रेम तथा आदर था उसी के कारण वे स्वयं को राष्ट्र के लिए समर्पित कर अपना जीवन दे सके। भारत को स्वाधीनता दिलाने में उनका त्याग, बलिदान तथा देशभक्ति अद्वितीय और अनुपम थी। उनके बहुविधि क्रियाकलाप में साहित्य-लेखन एक महत्वपूर्ण आयाम है। वे ऊर्दू तथा अंग्रेजी के समर्थ रचनाकार थे। लालाजी का जन्म 28 जनवरी, 1865 को अपने ननिहाल के गाँव ढुंढिके (जिला फरीदकोट, पंजाब) में हुआ था। उनके पिता लाला राधाकृष्ण लुधियाना जिले के जगराँव कस्बे के निवासी अग्रवाल वैश्य थे। लाला राधाकृष्ण अध्यापक थे। लाजपतराय की शिक्षा पाँचवें वर्ष में आरम्भ हुई। 1880 में उन्होंने कलकत्ता तथा पंजाब विश्वविद्यायल से एंट्रेंस की परीक्षा एक वर्ष में पास की और आगे पढऩे के लिए लाहौर आये। यहाँ वे गर्वमेंट कालेज में प्रविष्ट हुए और 1982 में एफ0 ए0 की परीक्षा तथा मुख्यारी की परीक्षा साथ-साथ पास की। यहीं वे आर्यसमाज के सम्पर्क में आये और उसके सदस्य बन गये। लाला साँईदास आर्यसमाज के प्रति इतने अधिक समर्पित थे कि वे होनहार नवयुवकों को इस संस्था में प्रविष्ट करने के लिए सदा तत्पर रहते थे। स्वामी श्रद्धानन्द (तत्कालीन लाला मुंशीराम) को आर्यसमाज में लाने का श्रेय भी उन्हें ही है। 30 अक्टूबर, 1883 को जब अजमेर में ऋषि दयानन्द का देहान्त हो गया तो 9 नवम्बर, 1883 को लाहौर आर्यसमाज की ओर एक शोकसभा का आयोजन किया गया। इस सभा के अन्त में यह निश्चित हुआ कि स्वामी जी की स्मृति में एक ऐसे महाविद्यालय की स्थापना की जाये जिसमें वैदिक साहित्य, संस्कृति तथा हिन्दी की उच्च शिक्षा के साथ-साथ अंग्रेजी और पाश्चात्य ज्ञान -विज्ञान में भी छात्रों को दक्षता प्राप्त कराई जाये। 1886 में जब इस शिक्षण की स्थापना हुई तो आर्यसमाज के अन्य नेताओं के साथ लाला लाजपतराय का भी इसके संचालन में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा तथा वे कालान्तर में डी0ए0वी0 कालेज, लाहौर के महान स्तम्भ बने।
वकालत के क्षेत्र में :- लाला लाजपतराय ने एक मुख्तार (छोटा वकील) के रूप में अपने मूल निवासस्थल जगराँव में ही वकालत आरम्भ कर दी थी; किन्तु यह कस्बा बहुत छोटा था, जहाँ उनके कार्य के बढऩे की अधिक सम्भावना नहीं थी, अत: वे रोहतक चले गये। रोहतक में 1885 में वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण की, 1886 में वे हिसार आ गये। एक सफल वकील के रूप में 1892 तक वे यहीं रहे और इसी वर्ष लाहौर आये। तब से लाहौर ही उनकी सार्वजनिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया। लालाजी ने अपने साथियों सहित सामाजिक हित की योजनाओं के कार्यान्वयन में योगदान किया किन्तु लाहौर आने पर वे आर्यसमाज के अतिरिक्त राजनैतिक आन्दोलन के साथ भी जुड़ गये। 1888 में वे प्रथम बार कांग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन में सम्मिलित हुए जिनकी अध्यक्षता मि0 जार्ज यूल ने की थी। 1906 में वे प0 गोपालकृष्ण गोखले के साथ कांग्रेस के एक शिष्टमण्डल के सदस्य के रूप में इंग्लैड गये। यहाँ से वे अमेरिका चले गये। उन्होंने कई बार विदेश यात्राएँ की और वहाँ रहकर पश्चिमी देशों के समक्ष भारत की राजनैतिक परिस्थिति की वास्तविकता से वहां के लोगों को परिचित कराया तथा उन्हें स्वाधीनता आन्दोलन की जानकारी दी। लाला लाजपतराय ने अपने सहयोगियों-लोकमान्य तिलक तथा विपिनचन्द्र पाल के साथ मिलकर कांग्रेस में उग्र विचारों का प्रवेश कराया। 1885 में अपनी स्थापना से लेकर लगभग बीस वर्षो तक कांग्रेस ने एक राजभवन संस्था का चरित्र बनाये रखा था। इसके नेतागण वर्ष में एक बार बड़े दिन की छुट्टियों में देश के किसी नगर में एकत्रित होने और विनम्रता पूर्वक शासनों के सूत्रधारों (अंग्रेजी) से सरकारी उच्च सेवाओं में भारतीयों को अधिकाधिक संख्या में प्रविष्ट युगराज के भारत-आगमन पर उनका स्वागत करने का प्रस्ताव आया तो लालाजी ने उनका डटकर विरोध किया। कांग्रेस के मंच ये यह अपनी किस्म का पहला तेजस्वी भाषण हुआ जिसमें देश की अस्मिता प्रकट हुई थी। 1907 में जब पंजाब के किसानों में अपने अधिकारों को लेकर चेतना उत्पन्न हुई तो सरकार का क्रोध लालाजी तथा सरदार अजीतसिंह (शहीद भगतसिंह के चाचा) पर उमड़ पड़ा और इन दोनों देशभक्त नेताओं को देश से निर्वासित कर उन्हें पड़ोसी देश बर्मा के मांडले नगर में नजरबंद कर दिया, किन्तु देशवासियों द्वारा सरकार के इस दमनपूर्ण कार्य का प्रबल विरोध किये जाने पर सरकार को अपना यह आदेश वापस लेना पड़ा। लालाजी पुन: स्वदेश आये और देशवासियों ने उनका भावभीना स्वागत किया। लालाजी के राजनैतिक जीवन की कहानी अत्यन्त रोमांचक तो है ही, भारतीयों को स्वदेश-हित के लिए बलिदान तथा महान् त्याग करने की प्रेरणा भी देती है।
जन-सेवा के कार्य :- लालाजी केवल राजनैतिक नेता और कार्यकर्ता ही नहीं थे। उन्होंने जन सेवा का भी सच्चा पाठ पढ़ा था। जब 1896 तथा 1899 (इसे राजस्थान में छप्पन का अकाल कहते हैं, क्योंकि यह विक्रम का 1956 का वर्ष था) में उत्तर भारत में भयंकर दुष्काल पड़ा तो लालाजी ने अपने साथी लाला हंसराज के सहयोग से अकालपीडि़त लोगों को सहायता पहुँचाई। जिन अनाथ बच्चों को ईसाई पादरी अपनाने के लिए तैयार थे और अन्तत: जो उनका धर्म-परिवर्तन करने के इरादे रखते थे उन्हें इन मिशनरियों के चुंगुल से बचाकर फीरोजपुर तथा आगरा के आर्य अनाथलायों में भेजा। 1905 में कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) में भयंकर भूकम्प आया। उस समय भी लालाजी सेवा-कार्य में जुट गये और डी0ए0वी0 कालेज लाहौर के छात्रों के साथ भूकम्प-पीडि़तों को राहत प्रदान की।
1907-08 में उड़ीसा मध्यप्रदेश तथा संयुक्त प्रान्त (वर्तमान उत्तर प्रदेश) से भी भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा और लालाजी को पीडितों की सहायता के लिए आगे आना पड़ा। पुन: राजनैतिक आन्दोलन में 1907 के सूरत के प्रसिद्ध कांग्रेस अधिवेशन में लाला लाजपतराय ने अपने सहयोगियों के द्वारा राजनीति में गरम दल की विचारधारा का सूत्रपात कर दिया था और जनता को यह विश्वास दिलाने में सफल हो गये थे कि केवल प्रस्ताव पास करने और गिड़गिड़ाने से स्वतंत्रता मिलने वाली नहीं है। हम यह देख चुके हैं कि जनभावना को देखते हुए अंग्रेजों को उनके देश-निर्वासन को रद्द करना पड़ा था। वे स्वदेश आये और पुन: स्वाधीनता के संघर्ष में जुट गये। प्रथम विश्वयुद्ध (1914-18) के दौरान वे एक प्रतिनिधि मण्डल के सदस्य के रूप में पुन: इंग्लैंड गये और देश की आजादी के लिए प्रबल जनमत जागृत किया। वहाँ से वे जापान होते हुए अमेरिका चले गये और स्वाधीनता-प्रेमी अमेरिकावासियों के समक्ष भारत की स्वाधीनता का पथ प्रबलता से प्रस्तुत किया। यहाँ इण्डियन होम रूल लीग की स्थापना की तथा कुछ ग्रन्थ भी लिखे। 20 फरवरी, 1920 को जब वे स्वदेश लौटे तो अमृतसर में जलियावाला बाग काण्ड हो चुका था और सारा राष्ट्र असन्तोष तथा क्षोभ की ज्वाला में जल रहा था। इसी बीच महात्मा गांधी ने सहयोग आन्दोलन आरम्भ किया तो लालाजी पूर्ण तत्परता के साथ इस संघर्ष में जुट गये। 1920 में ही वे कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस के विशेष अधिवेशन के अध्यक्ष बने। उन दिनों सरकारी शिक्षण संस्थानों के बहिस्कार विदेशी वस्त्रों के त्याग, अदालतों का बहिष्कार, शराब के विरुद्ध आन्दोलन, चरखा और खादी का प्रचार जैसे कार्यक्रमों को कांग्रेस ने अपने हाथ में ले रखा था, जिसके कारण जनता में एक नई चेतना का प्रादुर्भाव हो चला था। इसी समय लालाजी को कारावास का दण्ड मिला, किन्तु खराब स्वास्थ्य के कारण वे जल्दी ही रिहा कर दिये गये। 1924 में लालाजी कांग्रेस के अन्तर्गत ही बनी स्वराज्य पार्टी में शामिल हो गये और केन्द्रीय धारा सभा (सेंटल असेम्बली) के सदस्य चुन लिए गये। जब उनका पं0 मोतीलाल नेहरू से कतिपय राजनैतिक प्रश्नों पर मतभेद हो गया तो उन्होंने नेशनलिस्ट पार्टी का गठन किया और पुन: असेम्बली में पहुँच गये। अन्य विचारशील नेताओं की भाँति लालाजी भी कांग्रेस में दिन-प्रतिदिन बढऩे वाली मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति से अप्रसन्नता अनुभव करते थे, इसलिए स्वामी श्रद्धानन्द तथा पं0 मदनमोहन मालवीय के सहयोग से उन्होंने हिन्दू महासभा के कार्य को आगे बढ़ाया। 1925 में उन्हें हिन्दू महासभा के कलकत्ता अधिवेशन का अध्यक्ष भी बनाया गया। ध्यातव्य है कि उन दिनों हिन्दू महासभा का कोई स्पष्ट राजनैतिक कार्यक्रम नहीं था और वह मुख्य रूप से हिन्दू संगठन, अछूतोद्धार, शुद्धि जैसे सामाजिक कार्यक्रमों में ही दिलचस्पी लेती थी। इसी कारण कांग्रेस से उसे थोड़ा भी विरोध नहीं था। यद्यपि संकीर्ण दृष्टि से अनेक राजनैतिक कर्मी लालाजी के हिन्दू महासभा में रुचि लेने से नाराज भी हुए किन्तु उन्होंने इसकी कभी परवाह नहीं की और वे अपने कर्तव्यपालन में ही लगे रहे।
जीवन संध्या 1928 में जब अंग्रेजों द्वारा नियुक्त साइमन भारत आया तो देश के नेताओं ने उसका बहिस्कार करने का निर्णय लिया। 30 अक्टूबर, 1928 को कमीशन लाहौर पहुँचा तो जनता के प्रबल प्रतिशोध को देखते हुए सरकार ने धारा 144 लगा दी। लालाजी के नेतृत्व में नगर के हजारों लोग कमीशन के सदस्यों को काले झण्डे दिखाने के लिए रेलवे स्टेशन पहुँचे और 'साइमन वापस जाओÓ के नारों से आकाश गुँजा दिया। इस पर पुलिस को लाठीचार्ज का आदेश मिला। उसी समय अंग्रेज सार्जेंट साण्डर्स ने लालाजी की छाती पर लाठी का प्रहार किया जिससे उन्हें सख्त चोट पहुँची। उसी सायं लाहौर की एक विशाल जनसभा में एकत्रित जनता को सम्बोधित करते हुए नरकेसरी लालाजी ने गर्जना करते हुए कहा-मेरे शरीर पर पडी़ लाठी की प्रत्येक चोट अंग्रेजी साम्राज्य के कफन की कील का काम करेगी। इस दारुण प्रहात से आहत लालाजी ने अठारह दिन तक विषम ज्वर पीड़ा भोगकर 17 नवम्बर 1928 को परलोक के लिए प्रस्थान किया।