tag:blogger.com,1999:blog-41176307122535922672024-02-20T19:10:00.919+05:30चेतना प्रवाहमेरा यह ब्लॉग समर्पित है उन भारती पुत्रों के नाम जो हर समय जीवन का क्षण-क्षण और शरीर का कण-कण देश की सेवा में लगाकर भारत मां को परम वैभव तक ले जाने की ध्येय साधना में रत है। इस ब्लॉग में प्रकाशित सामग्री विभिन्न स्त्रोतों से साभार ली गई है।
रामदास सोनीरामदास सोनीhttp://www.blogger.com/profile/01823504717777508844noreply@blogger.comBlogger66125tag:blogger.com,1999:blog-4117630712253592267.post-65562562934135859092010-07-11T18:26:00.001+05:302010-07-11T18:26:32.522+05:30संघ की हत्या का प्रयास‘‘अजमेर में 2007 में हुए बम विस्फोटों के अभियुक्तों का कथित रूप से बचाव करने पर आरएसएस के दो नेता सीबीआई की जांच के घेरे में आ गए हैं। एक न्यूज चैनल ने सीबीआई सूत्रों के हवाले से बताया कि उत्तरप्रदेश में आरएसएस के दो वरिष्ठ नेता अशोक वाष्र्णेय व अशोक बेरी ने न केवल अभियुक्त देवेंदर गुप्ता को अपने यहां ठहराया बल्कि लखनऊव सीतापुर में उसके ठहरने की व्यवस्था भी की। सूत्रों ने यह भी बताया कि देवेंदर ने यह खुलासा वाष्र्णेय व बेरी की उपस्थिति में सीबीआई अधिकारियों के समक्ष किया। वहीं अभियुक्त के वकील उमर दान ने कहा कि इन लोगों को राजनीतिक तौर पर निशाना बनाया जा रहा है। उन्होंने कहा, सीबीआई का एक राजनीतिक एजेंडा है। वे एक निश्चित सोच के साथ लोगों को निशाने पर ले रही है। ये नेता किसी तरह की असामाजिक कार्रवाई में लिप्त नहीं हैं। इस बीच सीबीआई निदेशक ने इस बारे में कोई जानकारी देने से इनकार कर दिया। शनिवार को संवाददाता सम्मेलन में उन्होंने कहा कि सीबीआई जल्द ही इस मामले में हुई प्रगति की जानकारी कोर्ट के समक्ष रखेगी।’’ <br />
यह समाचार इन दिनों भारत के सेकुलर ब्रांड मीडिया की पंसदीदा खबरों में से एक है। 1925 से राष्ट्र साधना के पुनीत कार्य में लगे संघ और उसके प्रचारकों को इस प्रकार से सुनियोजित रूप से बदनाम करने के पीछे यूपीए सरकार के साथ-साथ उन विदेशी शक्तियों का हाथ होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता जो हिन्दूत्व के पुनरूत्थान को अपनी राह का सबसे बड़ा रोड़ा मानते है।<br />
एक बार फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हत्या का प्रयास किया जा रहा है। यह न तो पहली बार है और न अंतिम बार। संघ की स्थापना 1925 में हुई तब से लेकर अब तक संघ पर कई बार जानलेवा हमला किया गया है। संघ के इतिहास में सबसे पहला, ज्ञात और बड़ा हमला 1948 में हुआ था। तब देश अंग्रेजों के कब्जे से मुक्त हुआ ही था, लेकिन विभाजन और हिन्दू नरसंहार की विभीषिका भी झेल रहा था। कांग्रेस के सर्वेसर्वा नेहरू को गांधी हत्या के रूप में एक बड़ा हथियार मिल गया। नेहरू ने गांधी की हत्या को अपने राजनीतिक कैरियर के लिए एक सुअवसर के रूप में देखा। एक तरफ गांधी को सिरे से नकारने और दूसरी ओर अपने विरोधियों के खात्मे का इससे अच्छा मौका और क्या हो सकता था। नेहरू ने अंग्रेजों से हाथ मिलाया और गांधी हत्या में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आरोपित कर दिया।<br />
देश में गांधी के प्रति स्थापित असीम श्रद्धा और सम्मान का नेहरू ने दुरूपयोग करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवकसंघ के खिलाफ इस्तेमाल किया। आजादी के बाद गलत नीतियां अपनाए जाने और गांधी को नकारने के कारण नेहरू के खिलाफ जो माहौल बन रहा था, उसे बड़ी चतुराई से संघ की आरे मोड़ दिया गया। एक तीर से कई-कई निशाने। यह नेहरू का राजनीति कौशल था जो उन्होंने गांधी और अंग्रेजों से सीखा था। नेहरू इस राजनीतिक कौशल का सीमित इस्तेमाल अंग्रेजों के खिलाफ कर पाये, लेकिन गांधी और संघ के खिलाफ उन्होंने इसका भरपूर इस्तेमाल किया। संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। संघ को समाज से तिरस्कृत और बहिष्कृत कर उसपर कानूनी शिकंजा कसने की काशिश भी की गई। सबको पता है कि गांधी हत्या मामले से संघ को बाइज्जत बरी कर देने और संघ को निर्दोष बताने के बावजूद कांग्रेस के नेता आज भी गांधी हत्या में संघ का नाम घसीटने से बाज नहीं आते। यह अलग बात है कि संघ के लोगों ने कभी कांग्रेसियों को न्यायालय की अवमानना का नोटिस नहीं दिया। संघ पर दूसरा जानलेवा हमला इंदिरा गांधी ने आपातकाल के समय किया। संघ को लोभ-लालच और भय से निष्क्रिय या कांग्रेस के पक्ष में सक्रिय करने का प्रयत्न किया गया। कांग्रेस की शर्त न मानने पर संघ को नेस्तनाबूत कर देने की कोशिश हुईं। इस बार भी संघ को प्रतिबंधित किया गया। संघ इस हमले न सिर्फ बाल-बाल बच गया बल्कि देश ने कांग्रेस को करारा जवाब भी दिया। संघ पर तीसरा बड़ा हमला 1992 में किया गया जब अयोध्या में विवादित बाबरी ढांचा टूटा। तब केन्द्र में कांग्रेस की ही सरकार थी और नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे। प्रधानमंत्री राव ने नेहरू की ही तरह कुटिल राजनीतिक कौशल का परिचय दिया। उन्होंने भी एक तीर से कई-कई निशाने लगाए। एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत विवादित ढांचे को ढहने दिया गया। बाद में ढांचे के विध्वंस में संघ-भाजपा को आरोपित कर पहले तो भाजपा की चार राज्य सरकारों को बर्खास्त किया गया और बाद में संघ पर प्रतिबंध लगाया गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर यह तीसरा कांग्रेसी प्रतिबंध था। संघ की स्थापना और कार्य एक पवित्र उद्देश्य से है। संघ के स्वयंसेवक संघ कार्य को ईश्वरीय कार्य मानते हैं। संघ भारत राष्ट्र के परम वैभव के लिए प्रयत्नशील है। यही कारण है कि संघ पर बार-बार घातक और जानलेवा हमले होते रहे हैं, लेकिन संघ इस हमले से बार-बार सही सलामत बच निकला। कांग्रेस ने भले ही हमले किए हों, लेकिन समाज ने हमेशा संघ को स्वीकारा और सराहा। संघ हमेशा हिन्दू समाज की रक्षा करता आया है, इसीलिए कांग्रेसी हमलों से संघ को समाज बचाया है। संघ और हिन्दू शक्तियों पर ऐसे हमले न जाने कितनी बार हुए। उपर की गिनती तो सिर्फ बड़े हमलों की है। संघ के दुश्मनों ने कई बार रणनीति बदल कर हमले किए। पिछले लोकसभा चुनाव के पूर्व कांग्रेस की हालत पतली थी। आतंकवाद, आंतरिक सुरक्षा के खतरे, मंहगाई, अल्पसंख्यक तुष्टीकरण जैसे मुद्दों के कारण देश ने कांग्रेस को त्यागने का मन बना लिया था। भाजपा सहित अन्य राजनैतिक दल कांग्रेस को घेरने की पूरी तैयारी कर चुके थे। आर्थिक मुद्दों पर वामपंथी पार्टियों ने कांग्रेस की घेरेबंदी कर रखी थी। बढ़ती आतंकवादी घटनाओं ने कांग्रेस को कटघरे में ला खड़ा किया था। मुस्लिम तुष्टीकरण कांग्रेस की गले की हड्डी बन गया था। लेकिन इसी बीच ‘हिन्दू आतंकवाद’ का एक नया नारा गढ़ा गया। आतंकवाद और तुष्टीकरण की धार को हिन्दुओं और हिन्दू संगठनों की ओर मोड़ दिया गया। कांग्रेस के रणनीतिकारों ने फिर से कुटिल राजनीतिक कौशल का परिचय दिया। मालेगांव विस्फोट में हिन्दू संगठनों को लपेटने का कुत्सित प्रयास किया गया। पूरी तैयारी के साथ हिन्दू संगठनों, खासकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर आक्रमण किया गया। साध्वी प्रज्ञा समेत कुछ हिन्दू कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर ‘पुलिसिया हथकंडे’ अपना कर जुर्म और आरोप कबूलवाने कीकोशिश की गई। 8 अप्रैल को महाराष्ट्र विधानसभा में सरकार के गृहमंत्री ने एक खुलासा किया। उन्होंने कहा कि मालेगांव के आरोपी संघ प्रमुख को मारना चाहते थे। 9 अप्रैल को समाचार पत्रों में महाराष्ट्र के गृहमंत्री के हवाले से इस आशय की खबर छपी कि मालेगांव विस्फोट के आरोपी हिन्दूवादी संगठनों की नजर में आरएसएस प्रमुख मोहनभागवत संगठन कानेतृत्व करने में सक्षम नहीं हैं। इन संगठनों ने भागवत की हत्या की साजिश भी रची थी। फोन पर भागवत के खिलाफ की गई टिप्पणी सहित कई अपशब्दों की रिकार्डिंग वाला टेप महाराष्ट्र पुलिस के पास है। यह सब रहस्योदघाटन महाराष्ट्र के गृहमंत्री आरआर पाटिल ने विधानसभा में किया। एनसीपी विधायक जितेन्द्र आव्हाड के एक सवाल कि क्या मालेगांव विस्फोट प्रकरण में गिरफ्तार साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, कर्नल पुरोहित और अभिनव भारत संगठन से संबंधित लोगों ने भागवत की हत्या की साजिश रची थी? इसके जवाब में गृहमंत्री पाटिल ने सदन में कहा कि उनकी बातों में सच्चाई है। हालांकि बाद में विधान भवन परिसर में पत्रकारों से बातचीत में उन्होंने कहा कि भागवत कीहत्या की साजिश रचे जाने के बारे में ठोस ढंग से कुछ भी नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतना पक्का है कि गिरफ्तार हिन्दूवादी अभियुक्तों के मन में भागवत के प्रति कटुता है। इन लोगों ने फोन पर आपसी बातचीत के दौरान भागवत के खिलाफ अपशब्दों का इस्तेमाल किया था। गौरतलब है कि 29 सितंबर, 2008 को रमजान के महीने में मालेगांव में हुए बम धमाके में 6 लोग मारे गए थे और 20 जख्मी हुए थे। महाराष्ट आतंक निरोधक दस्ते ने इस कांड के आरोपियों के संबंध दक्षिपंथी संगठन अभिनव भारत से होने की बात कही थी। संघ पर जानलेवा हमला करने वाले हमेशा की तरह फिर सक्रिय हो गए हैं। फर्क बस इतना है कि उनकी रणनीति बदल गई है ताकि पकड़े जाने पर उनका नुकसान न होने पाए। कांग्रेस को संघ, संघ के स्वयंसेवक और संघ प्रमुख के जान की चिंता कब से होने लगी? हत्या के आरोपी और हमलावर ही अपने दुश्मन की परवाह करने लगें तो दाल में कुछ काला जरूर नजर आयेगा। क्या कांग्रेस और उनके हुक्मरानों को पता नहीं है कि अपने राजनीतिक फायदे के लिए गत लोकसभा चुनाव के पहले हिन्दू संगठनों पर सुनियोजित हमले किए गए। ये हमले कांग्रेस ने किए ओर कराए। इस हमले में कांग्रेस ने सरकारी, गैर सरकारी और राजनीतिक संगठनों का भरपूर इस्तेमाल किया। देश के खुफिया संगठन आईबी और महाराष्ट्र पोलिस को मोहरा बनाकर न सिर्फ हिन्दू संगठनों को आरेापित और कलंकित किया गया बल्कि ‘हिन्दू आंतंक’ का जुमला भी विकसित किया गया। ह्यमहाराष्ट्र कांग्रेस के गृहमंत्री सदन को गुमराह कर सकते हैं, देश को नहीं। कांग्रेस और उनकी सुप्रीमों सोनिया गांधी के बारे में करोड़ों हिन्दू कटुता का भाव रखते हैं, उन्हें देश और कांग्रेस का नेतृत्व करने के लायक नहीं मानते कई बार अपने संस्कारों को भूल आक्रोशवश अपशब्दों का भी इस्तेमाल करते हैं। अनेक भारतीय कांग्रेस और सोनिया के बारे में आमने-सामने और कई बार फोन पर भला-बुरा कहते हैं, संभव है खिन्नता और अवसाद में वे कांग्रेस और सोनिया के अंत का विचार भी करते हों। तो क्या इसे कांग्रेस और सोनिया के खिलाफ हिन्दुओं की साजिश मान ली जाए और करोड़ों हिन्दुओं को साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जाए? संघ पर हमला करने वाले बहुरूपिए फिर भेष बदल कर आए हैं। वे इस हिन्दू संगठनों की आड़ ले रहे हैं। हिन्दू संगठनों को बदनाम, कलंकित और तिरस्कृत करने की साजिश जारी है। हमलावरों को बेनकाब करने और समाज को सावधान रहने की जरूरत है। संघ प्रचारकों का नाम बम विस्फोट काण्ड या अन्य राष्ट विरोधी गतिविधियों में घसीटे जाने को न केवल इसी रूप में देखा जाना चाहिए बल्कि देश को हिन्दुत्ववादी शक्तियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर देशभक्तों की मजबूती के लिए काम करने को तैयार भी रहना चाहिए।रामदास सोनीhttp://www.blogger.com/profile/01823504717777508844noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4117630712253592267.post-12151723976642918332010-05-27T14:02:00.000+05:302010-05-27T14:02:30.112+05:30विभाजन-गाथा का एक विस्मृत पन्ना- १1935 के भारत एक्ट द्वारा प्रदत्त सीमित मताधिकार के आधार पर 1937 में प्रांतीय विधानसभा चुनावों और उसके तुरंत पश्चात् नेहरू जी के मुस्लिम जनसम्पर्क अभियान की विफलता ने प्रमाणित कर दिया कि 1920 और 1930 के दो देशव्यापी विशाल सत्याग्रहों के बावजूद मुस्लिम समाज कांग्रेस के साथ खड़ा नहीं हुआ। इस विषय पर हम पाञ्चजन्य में पहले ही विस्तार से लिख चुके हैं। इन सत्याग्रहों और चुनाव परिणामों ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि कांग्रेस के साथ न होकर भी मुस्लिम समाज अनेक मुस्लिम नेताओं के पीछे बिखरा हुआ था जबकि राष्ट्रभक्ति और स्वतंत्रता की कामना से अनुप्राणित हिन्दू समाज गांधी और नेहरू के पीछे एकजुट हो रहा था। राष्ट्रवाद के आधार पर हिन्दू समाज के भारी समर्थन के बल पर कांग्रेस को सात प्रांतों में सरकार बनाने का अवसर मिल सका था। इस दृश्य का ही जिन्ना ने लाभ उठाया। उन्होंने कांग्रेस राज को हिन्दू राज के रूप में चित्रित किया और मुसलमानों के सामने उस भय को खड़ा कर दिया जो सर सैयद अहमद ने कांग्रेस की स्थापना के समय से ही मुसलमानों के सामने खड़ा करना शुरू कर दिया था कि यदि भारत में लोकतंत्र आया तो जनसंख्या भेद के कारण अल्पसंख्यक मुसलमान बहुसंख्यक हिन्दुओं के गुलाम बन जाएंगे। यह स्थिति 700 साल तक हिन्दुओं पर राज करने वाले मुसलमानों को कदापि सहन नहीं है, क्योंकि उनकी रगों में मुस्लिम विजेताओं का रक्त बह रहा है। सत्ता किसके पास रहे, इसका फैसला वोटों से नहीं, तलवार से होगा। मि.जिन्ना ने 1937 से 1939 तक, कांग्रेस के दो वर्ष के शासनकाल को मुसलमानों के इसी भय का दोहन करने में लगाया। मुस्लिम मानस में गांधी और कांग्रेस की छवि हिन्दू संस्था से आगे नहीं बढ़ पायी। वे दो वर्ष लम्बे सतत् हिन्दू राज विरोधी प्रचार के द्वारा अनेक धड़ों में बिखरे मुस्लिम समाज को अपने और मुस्लिम लीग के पीछे एकजुट करने में काफी हद तक सफल हो गये। <br />
जिन्ना की चालाकी <br />
इसी समय 3 सितम्बर, 1939 को द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ गया और ब्रिटिश वायसराय लार्ड लिनलिथगो ने भारतीय नेतृत्व से सलाह-मशविरा किये बिना भारत को युद्ध में ब्रिाटेन का पक्षधर घोषित कर दिया। गांधी जी और कांग्रेस नेतृत्व ने वायसराय से कई मुलाकातें कर बहुत कोशिश की कि ब्रिाटेन युद्ध के पश्चात् भारत को स्वतंत्रता देने और लोकतांत्रिक सरकार बनाने की उनकी शर्त को स्वीकार कर ले, पर ब्रिाटिश सरकार टस से मस नहीं हुई। इस पर गांधी जी ने कांग्रेस सरकारों को त्यागपत्र देने की सलाह दी। इस निर्णय को सूचित करने के लिए उन्होंने ब्रिाटिश सरकार को पत्र लिखा कि कांग्रेस के नेतृत्व में भारत अहिंसाव्रत से बंधा हुआ है जबकि यह युद्ध हिंसा के द्वारा लड़ा जा रहा है अत: अहिंसक भारत हिंसक युद्ध प्रयासों में सहभागी नहीं बन सकता। अहिंसा का उपदेश देते हुए उन्होंने एक पत्र हिटलर को भी लिखा। गांधी जी के इस निर्णय के फलस्वरूप सभी कांग्रेस मंत्रिमंडलों ने 27 अक्तूबर से 15 नवम्बर 1939 तक एक-एक कर त्यागपत्र दे दिया। और कांग्रेस के हाथ से सत्ता निकल गयी। यह स्थिति जिन्ना के लिए वरदान बन गयी। उन्होंने तुरंत वायसराय और बम्बई के गर्वनर से गुप्त भेंट करके उन्हें आश्वासन दिया कि यदि ब्रिाटिश सरकार उन्हें व मुस्लिम लीग को मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि मान ले तो वह ब्रिटिश युद्ध प्रयासों में मुस्लिम समाज का पूर्ण सहयोग जुटाएंगे। ब्रिाटेन जीवन-मरण के युद्ध में फंसा था। उसने जिन्ना की शर्त को अपने लिए वरदान समझकर लपक लिया और जिन्ना ने मुस्लिम समाज का आह्वान किया कि वह 22 दिसंबर 1939 का दिन "हिन्दू राज से मुक्ति दिवस" के रूप में मनाए। देश भर में यह "मुक्ति दिवस" मनाए जाने से जिन्ना ने ब्रिाटिश सरकार को दिखा दिया कि कुछ अपवाद छोडक़र पूरा मुस्लिम समाज उनके नेतृत्व में एकजुट है। इस स्थिति में कांग्रेस के भीतर बहस शुरू हो गई कि क्या मंत्रिमंडलों का त्यागपत्र कांग्रेस और राष्ट्र के हित में रहा? राजगोपालाचारी जैसे नेता ही नहीं तो वी.पी.मेनन जैसे नौकरशाह को भी यह लगा कि मंत्रिमंडलों के त्यागपत्र देने से ब्रिाटिश सरकार पर कांग्रेस का रहा-सहा दबाव भी खत्म हो गया। उनके सरकार से हटने पर ब्रिाटेन के युद्ध प्रयत्नों में उनकी बाधा पूरी तरह समाप्त हो गयी। इधर, मि.जिन्ना ने ब्रिाटिश सरकार की शह पर मुस्लिम समाज को पाकिस्तान बनवाने के लिए शस्त्र संग्रह और हिंसा की तैयारी का इशारा कर दिया। लार्ड लिनलिथगो से गुप्त भेंट के बाद जिन्ना ने मार्च 1940 में द्विराष्ट्रवाद के आधार पर भारत विभाजन का प्रस्ताव लीग के लाहौर अधिवेशन में पारित कर दिया और लार्ड लिनलिथगो ने अगस्त 1940 में युद्ध के पश्चात् भारत के बारे में किसी भी ब्रिाटिश निर्णय पर लीग को वीटो का अधिकार घोषित कर दिया। क.मा.मुंशी ने लिखा है कि 1937-39 तक ब्रिाटेन और भारतीय राष्ट्रवाद का जो गठबंधन उभरा था उसकी जगह अब ब्रिाटिश-मुस्लिम गठबंधन ने ले ली। ब्रिाटेन पूरी तरह राष्ट्रवाद के विरुद्ध मुस्लिम पृथकतावाद के साथ खड़ा था। इस घटनाचक्र से चिंतित होकर राजगोपालाचारी ने पहले ही जुलाई 1940 में कांग्रेस कार्यसमिति की वर्धा बैठक में एक प्रस्ताव पेश कर कांग्रेस को गांधी जी की अहिंसा वाली शर्त से बाहर निकलने और गांधी जी को कांग्रेस के निर्णयों से मुक्त करने का प्रस्ताव पेश किया, जिसका सरदार पटेल और कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना आजाद ने समर्थन किया। कांग्रेस कार्यसमिति द्वारा समर्थित यह प्रस्ताव उन्होंने 27 जुलाई 1940 को पूना में आयोजित अ.भा.कांग्रेस समिति की बैठक में भी 47 के विरुद्ध 95 मतों से पारित करा लिया। इस प्रस्ताव के द्वारा ब्रिाटिश सरकार के हिंसा द्वारा लड़े जा रहे युद्ध में सहयोग का सशर्त वचन दिया गया। इस प्रस्ताव को गांधी जी की पराजय के रूप में देखा गया। नरहरि पारीख ने गुजरात प्रांतीय कांग्रेस कमेटी से अपील की कि वह इस प्रश्न पर गांधी जी का समर्थन करे न कि सरदार पटेल का। किंतु गुजरात कांग्रेस कमेटी ने भारी बहुमत से सरदार पटेल का समर्थन किया। 19 जुलाई 1940 को गुजरात प्रांतीय कमेटी के सामने अपनी स्थिति को स्पष्ट करते हुए सरदार पटेल ने कहा, "आज हमें यह निर्णय करना है कि हमें स्वतंत्रता मिल जाए, पूरी सत्ता मिल जाए तो क्या हम सेना के बिना काम चला सकेंगे? अगर हम यह कहें कि हमारे पास हुकूमत आ जाएगी, तो हम सेना को बिखेर देंगे, तब तो अंग्रेज कभी हमें सत्ता नहीं देंगे। ज्यादातर मुसलमान इसके (अहिंसा के) खिलाफ हैं। कांग्रेस के बाहर के मुसलमान तो हिंसा पर ही कायम हैं..." (बापू के पत्र वल्लभ भाई के नाम, नवजीवन प्रकाशन, अमदाबाद, 1952, प्रस्तावना, पृष्ठ 12) <br />
हिन्दुओं पर हिंसक हमले <br />
इस भाषण से स्पष्ट है कि सरदार को तभी मुसलमानों की हिंसक तैयारियों की गंध आने लगी थी। लाहौर में पाकिस्तान प्रस्ताव पारित होने के बाद से मुस्लिम नेताओं के भाषण बहुत उग्र और आक्रामक होने लगे। कांग्रेस नेतृत्व स्वयं को किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में पा रहा था। जड़ता से बाहर निकलने के लिए 13 अक्तूबर 1940 को चुने हुए कांग्रेसी कार्यकत्र्ताओं के द्वारा व्यक्तिगत सत्याग्रह का निर्णय लिया गया, जिसमें पहला सत्याग्रही विनोबा भावे को और दूसरा सत्याग्रही जवाहर लाल नेहरू को बनाया गया। इसी क्रम में कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी गांधी जी के आदेश पर 4 दिसंबर, 1940 को व्यक्तिगत सत्याग्रह करके यरवदा जेल में सरदार पटेल, भूलाभाई देसाई, बी.जी.खरे एवं मंगलदास पकवासा आदि के साथ बंद किये गये। और बड़ी बीमारी के कारण रिहा होकर नैनीताल में स्वास्थ्य लाभ के लिये गये। मुंशी बम्बई प्रांत में कांग्रेस सरकार में पहले कानून-व्यवस्था और फिर गृहमंत्री का दायित्व संभालते थे, भारतीय विद्या भवन नामक सांस्कृतिक-बौद्धिक संस्था की स्थापना कर चुके थे, सिद्धहस्त लेखक और इतिहासकर थे। उन्होंने मि.जिन्ना के सहयोगी के रूप में अपनी वकालत की यात्रा आरंभ की थी। 1930 में पूरे मनोयोग से गांधी जी की शरण में आ गये थे और नमक सत्याग्रह में कूद पड़े थे। देश के उत्कृष्ट विधिवेत्ताओं में उनकी गणना होती थी। जिन दिनों कांग्रेस व्यक्तिगत सत्याग्रह में व्यस्त थी, उन्हीं दिनों एक ओर मुस्लिम लीग ने दिसंबर 1940 में अपने लाहौर सम्मेलन में प्रस्ताव पारित किया कि विभाजन से कम कोई भी संवैधानिक व्यवस्था मुसलमानों को स्वीकार नहीं होगी, दूसरी ओर मुस्लिम नेतृत्व अपने जहरीले भाषणों से मुस्लिम समाज को असावधान हिन्दू समाज पर हिंसक हमलों के लिए भडक़ा रहा था। ढाका, बम्बई, अमदाबाद आदि नगरों में भयंकर दंगे हुए। अमदाबाद के दंगे की भयंकरता को स्वीकार करते हुए गांधी जी के निजी सचिव महादेव देसाई ने 15 मई 1941 को मुंशी को पत्र में लिखा, "निस्संदेह अमदाबाद में जो कुछ हुआ उससे भारी धक्का लगा है, विशेषकर जब वहां के लोगों ने जिस क्षुद्रता और कायरता का परिचय दिया उसकी याद आती है। वहां अभी भी डर समाया हुआ है। मुझे वहां दोबारा जाना होगा।" महादेव देसाई ने वहां शांति सेना का प्रयोग करना चाहा पर लोगों ने उसमें कोई रुचि नहीं दिखायी। सरदार पटेल ने यरवदा जेल से 22 जून 1941 को मुंशी को पत्र लिखा कि "अमदाबाद में जब दंगा शुरू हुआ तो लोग अचानक घिर गये। यदि वहां अधिक संख्या में लोगों ने उसके विरुद्ध मोर्चा लिया होता तो शायद सब कुछ बच जाता या भारी कत्लेआम होता।" बम्बई के दंगे पर सरदार की प्रतिक्रिया थी, "बम्बई में जो स्थिति पैदा हुई है वह भयंकर है। क्या तुम सोचते हो कि इसके विरुद्ध कोई संगठित मोर्चा संभव है? हिंसक आत्मरक्षा में विश्वास करने वाले कुछ नौजवान भी क्या उन लोगों का मुकाबला कर सकते हैं जो पीछे से पीठ में छुरा घोंपकर भाग जाते हैं? इस समस्या का कोई बिल्कुल भिन्न उपाय खोजना होगा।" <br />
दंगे की विभीषिका <br />
ढाका के दंगे के बारे में बंगाल की प्रांतीय कांग्रेस कमेटी ने विस्तृत रपट तैयार की, जिसमें मुस्लिम नेताओं के जहरीले भाषण और हिन्दुओं पर हुए अत्याचारों का तथ्यात्मक वर्णन था। अमदाबाद के दंगे की विभीषिका का वर्णन करते हुए क.मा.मुंशी लिखते हैं, "अमदाबाद का पाकिस्तान दंगा व्यभिचारपूर्ण और बेलगाम था। अमदाबाद के हिन्दू, जो एक बहुत शांतिपूर्ण समाज के नाते हमेशा गांधी जी और कांग्रेस नेतृत्व की ओर निहारते रहे, इस समय पूरी तरह दंगाइयों की कृपा पर निर्भर थे। इस स्थिति में अमदाबाद के एक प्रमुख कांग्रेसी भोगीलाल लाला ने गांधी जी की सलाह मांगी कि यहां के हिन्दू जिस विकट स्थिति में फंसे हुए हैं, उसमें कांग्रेसजनों को क्या करना चाहिए।" भोगीलाल ने गांधी जी को पत्र लिखा कि मुस्लिम हिंसा का मुकाबला कांग्रेसी अहिंसा के द्वारा नहीं किया जा सकता। हिन्दू समाज को भी सशस्त्र हिंसक प्रतिरोध की तैयारी करनी होगी। इसके लिए युवकों को अखाड़ों में जाने के लिए प्रोत्साहित करना होगा। इसके उत्तर में गांधी जी ने भोगीलाल को लिखा कि कांग्रेसजनों को आत्मरक्षा का प्रशिक्षण देने वाले अखाड़ों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध नहीं रखना चाहिए और जो कांग्रेसजन आत्मरक्षा के लिए हिंसा अपनाने के पक्ष में हैं, उन्हें कांग्रेस छोड़ देनी चाहिए। <br />
जब भोगीलाल लाला के नाम गांधी जी का पत्र अखबारों में छपा तब क.मा.मुंशी जेल से रिहा होकर नैनीताल में स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे। अखबार में गांधी जी का उत्तर पढक़र मुंशी ने 26 मई 1941 को गांधी जी को पत्र लिखा कि "मैं आपके दोनों निर्देशों से स्वयं को सहमत नहीं पा रहा हूं। ढाका, अमदाबाद और बम्बई और अन्य कई स्थानों पर पाकिस्तान सक्रिय हो गया है। यह संकेत है कि कुछ वर्षों के लिए हमें इन दंगों के साथ जीवित रहना होगा।...यदि जान, माल और महिलाओं की इज्जत को गुंडागर्दी से खतरा पैदा होता है तो मेरी दृष्टि में आत्मरक्षा के लिए संगठित प्रतिरोध- उसका रूप चाहे जो रहे-सर्वोच्च अनिवार्य कर्तव्य बन जाता है।" मुंशी ने अपने पत्र में लिखा कि "मैं पिछले पन्द्रह या उससे भी अधिक वर्षों से बम्बई प्रेसीडेंसी में अखाड़ा आंदोलन से प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ा रहा हूं। बम्बई और पूना में उनके दो सम्मेलनों की अध्यक्षता भी कर चुका हूं। मैं उन्हें हमारे समाज को आत्मरक्षा का प्रशिक्षण देने का आवश्यक तंत्र मानता हूं। पिछले कई वर्षों से उन्होंने गुंडागर्दी का सामना करने का आत्मविश्वास पैदा करने में भारी योगदान दिया है। 1930 से ही मैंने आपको पूरे ह्मदय से अपना नेता माना है।...किंतु मेरा मन इस समय बगावत कर रहा है...मैं हिंसा के विरुद्ध आत्मरक्षार्थ सब संभव उपायों से संगठित प्रतिरोध के प्रति सहानुभूति रखने या प्रचार न करने का वचन देने में स्वयं को असमर्थ पाता हूं।...आप ही बताइए कि इस स्थिति में मैं क्या करूं?" मुंशी ने गांधी जी का मार्गदर्शन पाने के लिए 12-13 जून 1941 को सेवाग्राम में प्रत्यक्ष भेंट में विस्तृत चर्चा का समय मांगा। तुरंत 29 मई को गांधी जी ने उत्तर भेजकर मुंशी को सेवाग्राम बुलाया। <br />
वर्धा बैठक के संकेत <br />
12-13 जून 1941 को वर्धा में पूरे दो दिन महत्वपूर्ण बैठक हुई, जिसमें गांधी जी और मुंशी के अलावा डा.राजेन्द्र प्रसाद, आचार्य कृपलानी, पंजाब के डा.गोपीचंद भार्गव और बिहार के कोई कांग्रेसी नेता मि.माथुर भी उपस्थित रहे। दो दिन तक करीब 10 घंटे चली इस महत्वपूर्ण चर्चा के नोट्स भी मुंशी ने सुरक्षित रखे, जो आज हमें उपलब्ध हैं। इन नोट्स से विदित होता है कि देश विभाजन को लेकर उस समय कांग्रेस में कितना अधिक उद्वेलन था और मुस्लिम हिंसा व गुंडागर्दी से कांग्रेसजन कितने चिंतित थे। काफी बड़ी संख्या में कांग्रेसजन संगठित हिंसक प्रतिरोध को आवश्यक अनुभव करने लगे थे। मुंशी ने उनकी भावनाओं को मुखरित करने का साहस दिखलाया। इस महत्वपूर्ण द्वि दिवसीय चर्चा का वर्णन अगली बार। (जारी)रामदास सोनीhttp://www.blogger.com/profile/01823504717777508844noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4117630712253592267.post-16551639567848309562010-05-27T13:57:00.000+05:302010-05-27T13:57:05.640+05:30विभाजन-गाथा का एक विस्मृत पन्ना-2हिंसक पृथकतावाद, अहिंसक राष्ट्रवाद<br />
12-13 जून, 1941 को गांधी जी के सेवाग्राम आश्रम में आयोजित अनौपचारिक बैठक का ऐतिहासिक महत्व है। इस बैठक में गांधी जी, डा.राजेन्द्र प्रसाद, आचार्य कृपलानी, क.मा.मुंशी और गोपीचंद भार्गव सहित कांग्रेस का शिखर नेतृत्व उपस्थित था। सरदार पटेल और नेहरू व्यक्तिगत सत्याग्रह करके जेल में बंद होने के कारण वहां नहीं थे। मुस्लिम लीग ने दिसम्बर 1940 में पाकिस्तान की मांग को लेकर एक उग्र प्रस्ताव पारित किया और दवाब पैदा करने के लिए खूनी दंगे शुरू कर दिये, जिन्हें मुंशी ने "पाकिस्तान दंगे" कहा। इन दंगों के राक्षसी चरित्र से व्यथित होकर गांधी जी ने 25,26,27 अप्रैल, 1941 को 72 घंटे का आत्मशुद्धि उपवास रखा और 4 मई 1941 को एक लम्बे प्रेस वक्तव्य में उन्होंने स्थिति की भयावहता पर अपनी अन्तव्र्यथा उड़ेली। इस वक्तव्य में गांधी जी ने माना कि "प्राप्त विवरणों से लगता है कि मुस्लिम कट्टरवादियों ने ढाका और अमदाबाद में हिन्दू सम्पत्ति को निश्चयपूर्वक लूट और आगजनी के द्वारा जितनी बुरी तरह क्षतिग्रस्त किया, उससे लगता है कि यह सब सुनियोजित था।" एक ओर यह राक्षसी लीला और दूसरी ओर गांधी जी लिखते हैं, "हिन्दू लोग इन शरारती तत्वों का मुकाबला करने और मैदान में साहसपूर्वक डटे रहने के बजाय खतरे के क्षेत्रों से हजारों की संख्या में भाग निकले।" <br />
कांग्रेसजन की परीक्षा <br />
गांधी जी को सबसे अधिक पीड़ा इस बात से थी कि "इन काले दिनों में कांग्रेस का कहीं कोई प्रभाव दिखाई नहीं दिखा। दंगा प्रभावित क्षेत्रों में कांग्रेस का प्रभाव न हिन्दुओं पर था, न मुसलमानों पर।...यदि ऐसे अवसरों पर कांग्रेस का जनता पर कोई नियंत्रण नहीं रह जाता तो कांग्रेस की अहिंसा की कोई कीमत नहीं है। अगर अंग्रेज अचानक चले जाते हैं तो कांग्रेस सरकार नहीं चला सकेगी।...अत: कांग्रेसजनों को अपनी अहिंसा की वास्तविकता की परीक्षा करनी चाहिए। मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी यदि अनेक नेताओं के जेल में बंद रहते हुए भी कांग्रेसजन अपनी विचारधारा को बदल दें या कांग्रेस को छोड़ दें। मैं पांच सच्चे आदमियों को लेकर कांग्रेस को फिर से खड़ा करूंगा।" गांधी जी का निष्कर्ष था कि "कायर लोग न शांति ला सकते हैं, न आजादी। गांधी जी का यह वक्तव्य 1924 के दंगों के बाद दिये गये उन वक्तव्यों की याद दिलाता है जब उन्होंने कहा था कि मैं अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि "यदि प्रत्येक मुसलमान गुंडा है तो प्रत्येक हिन्दू कायर और जहां कायर होंगे वहां गुंडे अवश्य होंगे।" बीस साल बाद भी स्थिति वहीं की वहीं थी। 6 मई 1941 को नरहरि पारीख को, जो अमदाबाद में महादेव देसाई के साथ शांति प्रयासों में लगे थे, गांधी जी ने लिखा कि, "यदि मुस्लिम समाज लडऩे पर उतारू है तो मैं बहिष्कार के विचार को नहीं ठुकराऊंगा। मैं छुरेबाजी और सम्पत्ति दहन की अपेक्षा बहिष्कार को अधिक शालीन समझता हूं।" दंगों की आग फैलती जा रही थी। 7 मई को गांधी जी ने एक प्रेस वक्तव्य में माना कि राजेन्द्र बाबू बिहार में दंगों की आग बुझाने के लिए भागे-भागे गये हैं। मुस्लिम लीग ने 23 मार्च को "पाकिस्तान दिवस" मनाया, जिसकी प्रतिक्रिया में हिन्दुओं ने "पाकिस्तान विरोधी दिवस" मनाया। उससे भडक़कर मुसलमानों ने दंगे शुरू कर दिए। गांधी जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि, "यह मानना पड़ेगा कि बिहार हिन्दू बहुल प्रांत है और कांग्रेस के अधिकांश सदस्य हिन्दू ही हैं, इसलिए वहां कांग्रेस के लिए पुलिस और सेना की मदद लिये बिना शांति स्थापना का काम आसान होना चाहिए। इस समय बिहार ही अकेला प्रांत है जो रास्ता दिखा सकता है और उदाहरण बन सकता है। राजेन्द्र बाबू की अपने प्रांत पर बहुत अनूठी और मृदु पकड़ है, जैसी किसी भी अन्य नेता की नहीं है। ईश्वर करे कि वे बिहार में शांति दूत बनकर बिहार के माध्यम से पूरे भारत में शांति दूत बनें।" <br />
हिंसक या अहिंसक मार्ग? <br />
21 मई को गांधी जी ने महादेव देसाई के हाथों गुजरात प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के सचिव भोगीलाल लाला के नाम एक लम्बा पत्र भेजा, जो चार दिन तक गांधी जी, मृदुला बहन, गुलजारी लाल नंदा और महादेव देसाई के बीच गहन मंत्रणा के बाद लिखा गया था। इस पत्र में कांग्रेसजनों के लिए अहिंसा पर आग्रह करते हुए गांधी जी ने लिखा कि "यदि कांग्रेसजनों का बहुमत यह मानता हो कि हिंसक मार्ग से किसी आक्रमणकारी का मुकाबला करना हमारा कर्तव्य है और यदि वे इसे कांग्रेस की विचारधारा से असंगत न समझते हों तो उन्हें अपने विश्वास की खुली घोषणा करनी चाहिए और तद्नुसार जनता का मार्गदर्शन करना चाहिए। यदि आगे चलकर यह रास्ता गलत लगे तो उस पर पुनर्विचार हो सकता है, मुझे विश्वास है कि यदि सभी कांग्रेसजनों ने अपना कर्तव्य निभाया होता तो हमें हाल की जैसी गुंडाशाही को न भोगना पड़ता। यह असह्र है कि लोग गुंडों के भय से अपनी जान बचाने के लिए भाग निकलें। उनमें हिंसक या अहिंसक मार्ग से गुंडाशाही का मुकाबला करने की ताकत होनी चाहिए। ...कांग्रेस जन स्वयं अहिंसक रहकर भी लोगों को स्पष्ट शब्दों में बता दें कि भय के कारण भागना कायरता है। यदि वे अहिंसा के द्वारा मुकाबला करने में असमर्थ हैं तो हिंसा के द्वारा मुकाबला करना उनका धर्म है।" इस पत्र से विदित होता है कि अमदाबाद के मध्यम वर्गीय व्यापारियों की ओर से जान-माल की रक्षा के लिए अन्य प्रांतों के"भैया, सिख या ठाकुर दा" लोगों को चौकीदार या सुरक्षाकर्मी नियुक्त करने का सुझाव आया था। इस सुझाव को ठुकराते हुए गांधी जी ने लिखा कि "मध्यम वर्गीय व्यापारी समुदाय में ऐसा एक भी युवक न रहे, जिसने आत्मरक्षा का पर्याप्त प्रशिक्षण- हिंसक या अहिंसक- प्राप्त न किया हो। दंगे की अफवाह सुनते ही दुकानों को बंद करने के बजाए हिंसक या अहिंसक प्रतिरोध के लिए प्रत्येक दुकानदार को तैयार रहना चाहिए।" अंत में गांधी जी ने लिखा कि "हमारे देश में दंगों का जो रूप होता है वैसा पश्चिमी देशों में नहीं होता, क्योंकि वहां संघर्षरत दोनों पक्ष बराबर ताकतवर होते हैं। इस दृष्टि से हम घोर वहशी और नपुंसक, दोनों हैं।" ऊपर दिये गये गांधी जी के पत्रों और वक्तव्यों से स्पष्ट है कि पाकिस्तान की मांग को लेकर सुनियोजित दंगों का रूप इतना भयंकर था कि गांधी जी को अहिंसा के साथ-साथ हिंसक प्रतिरोध की आवश्यकता को स्वीकार करना पड़ा था। वे एक गहरे अन्तद्र्वंद्व से गुजर रहे थे। एक ओर तो वे मध्यम वर्गीय युवकों के लिए हिंसक या अहिंसक प्रतिरोध का प्रशिक्षण अनिवार्य बता रहे थे, दूसरी ओर कांग्रेसजनों को ऐसा प्रशिक्षण देने वाले अखाड़ों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध न रखने का आदेश दे रहे थे। 12-13 जून की बैठक अन्तद्र्वंद्व की इस पृष्ठभूमि में बहुत महत्वपूर्ण बन जाती है। <br />
मुंशी का महत्वपूर्ण प्रश्न <br />
बैठक में चर्चा को आरंभ करते हुए मुंशी जी ने कहा, युद्ध भारत की सीमाओं पर आ पहुंचा है जिसके कारण आंतरिक व्यवस्था तंत्र दुर्बल हो रहा है। सुनियोजित दंगों के रूप में पाकिस्तान सक्रिय हो गया है और आगे भी रहेगा। पर पाकिस्तान का निर्माण हमारी लाशों पर ही हो सकता है। भारत की अखंडता की रक्षा के साथ-साथ दंगों के कारण जान-माल की रक्षा करने की समस्या हमारे सामने खड़ी हो गयी है। इने-गिने कांग्रेसजन ही आत्म बलिदान के लिए सिद्ध हैं। इससे कांग्रेस में ढोंग की प्रवृत्ति बढ़ रही है। और उपद्रवियों की ताकत बढ़ रही है। इस स्थिति में कांग्रेसजन क्या करें? डा.राजेन्द्र प्रसाद ने कहा कि बिहार में मुसलमान खुल्लम-खुल्ला आक्रामक हो गये हैं। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप हिन्दू भी उतने ही आक्रामक बन रहे हैं। बिहार पर मेरी पकड़ समाप्त हो रही है। शांति सेना का विचार कांग्रेसजनों के गले नहीं उतर रहा है। इस पर गांधी जी ने कहा कि मैं मानता हूं कि शांति सेना का विचार कांग्रेसियों को आकर्षित नहीं कर रहा है। महादेव भाई को अमदाबाद में इस दृष्टि से अब तक कोई सफलता नहीं मिली है। राजेन्द्र बाबू ने कहा कि मेरे विचार से अभी प्रारंभिक झड़पों के द्वारा मुस्लिम समाज की ताकत का अंदाजा लगाया जा रहा है। जल्दी ही पूरी ताकत से अभियान छेड़ा जाएगा। मुंशी जी ने कहा, यह गृहयुद्ध की स्थिति है। इसमें कांग्रेस को प्रभावी भूमिका निभानी होगी। राजेन्द्र बाबू ने चिंता प्रगट की कि एक भी मुसलमान नेता मुस्लिम अत्याचारों की भत्र्सना करने के लिए आगे नहीं आया, न वह अहिंसक आत्म बलिदान की बात करता है। इस पर चर्चा छिड़ गई कि अहिंसक प्रतिरोध के सिद्धांत में संशोधन पर प्रमुख मुस्लिम कांग्रेसी नेताओं की क्या प्रतिक्रिया है। पिछले लेख में हम बता चुके हैं कि पुणे में अ.भा.कांग्रेस समिति ने राजगोपालाचारी के प्रस्ताव को पास करके अहिंसा के सिद्धांत में संशोधन किया था कि (अ) अन्तरराष्ट्रीय संघर्ष में हिंसा का सहारा लिया जा सकता है पर, (आ) स्वराज्य के लिए लड़ाई में अहिंसा का सिद्धांत ही चलेगा। गांधी जी ने कहा कि मौलाना आजाद भी अन्तरराष्ट्रीय संघर्ष में हिंसा को जायज मानते हैं, पर देश के अंदरूनी संघर्षों में नहीं। इस पर गोपीचंद भार्गव ने कहा कि आसफ अली ने भोगीलाल लाला के नाम गांधी जी के पत्र की आलोचना करते हुए कहा कि यह पत्र कांग्रेस के सिद्धांत की सही व्याख्या नहीं करता, क्योंकि पूना संशोधन केवल स्वराज्य की लड़ाई के लिए था न कि अन्य आंतरिक संघर्षों के लिए। गांधी जी ने कहा, लेकिन आसफ अली अंदरूनी मामलों में हिंसक प्रतिरोध के विरोध में मौलाना के साथ थे। इस पर मुंशी जी की प्रतिक्रिया थी कि ये लोग मुसलमानों के हिंसक आक्रमणों को तो रोक नहीं पाते, पर चाहते हैं कि कांग्रेसी हिन्दू आत्मरक्षा के लिए भी हिंसा न अपनाएं। इसका परिणाम होगा कि हिन्दू समाज विभाजित हो जाएगा और गृहयुद्ध की स्थिति में मुसलमानों का मुकाबला करने में अक्षम रहेगा। दंगों के इस वातावरण में यह सवाल भी उठा कि कांग्रेस के मुस्लिम सदस्यों की संख्या कितनी है। महादेव देसाई ने 15 मई 1941 को मुंशी जी को लिखा कि कांग्रेस के मुख्यालय से प्राप्त सूचना के अनुसार, कांग्रेस के 30 लाख सदस्यों में मुस्लिम सदस्यों की संख्या लगभग डेढ़ लाख होगी। पर, सीमांत गांधी के एक लाख अनुयायियों को निकाल देने पर क्या बचता है? दो दिन लम्बे मुक्त चिंतन में गांधी जी का अन्तद्र्वंद्व देखने लायक है। मुंशी जी के प्रारंभिक कथन पर टिप्पणी करते हुए गांधी जी ने कहा, सरकार से समझौते के कोई आसार मुझे दिखाई नहीं देते। जिन्ना मानने वाले नहीं हैं और दंगे बढ़ते जाएंगे। इस स्थिति में कांग्रेस अपनी वर्तमान संरचना के कारण दंगों में कोई भूमिका नहीं निभा सकती, किंतु साथ ही अगर उसने दंगों का कोई हल नहीं निकाला तो वह समाप्त हो जाएगी। गांधी जी की मुख्य चिंता यह थी कि यदि कांग्रेस ने हिंसक आत्मरक्षा को संगठित करने का कोई भी प्रयास किया तो सरकार को कांग्रेस पर हमला करने का मौका मिल जाएगा। पर, यह पूरे भारत की समस्या है इसलिए इसकी उपेक्षा भी नहीं की जा सकती। गांधी जी ने पुन: दोहराया कि एक संस्था के नाते कांग्रेस हिंसक आत्मरक्षा का रास्ता नहीं अपना सकती। दंगों में हिंसक भूमिका अपनाना कांग्रेस के लिए खतरनाक होगा, क्योंकि इससे सरकार को उसे नष्ट करने का मौका मिल जाएगा। इसलिए कांग्रेस के सामने एक ही रास्ता रह जाता है कि वह ऐसे लोगों के प्रयासों को प्रोत्साहन दे जो ह्मदय से अनुभव करते हैं कि इस "युद्ध" को अन्य (हिंसक) रास्ते से ही रोका जा सकता है। अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए गांधी जी ने कहा कि कुछ लोगों को कर्म की स्वतंत्रता पाने के लिए कांग्रेस से बाहर जाना चाहिए। आचार्य कृपलानी ने अपनी सहमति जताते हुए कहा कि इस समय कुछ कांग्रेसजनों को कांग्रेस से बाहर जाकर वह काम करना चाहिए जो कांग्रेस संस्था के रूप में नहीं कर सकती। <br />
अन्तर्द्वंद के बीच <br />
इस बैठक का आयोजन तो मुंशी जी के अन्तद्र्वंद्व का हल निकालने के लिए हुआ था। गांधी जी ने कहा कि मुंशी जी के सामने तीन रास्ते हैं- (अ) वे शांति सेना के काम में पूरे मन से लग जाएं। (आ) वे कुछ समय के लिए हिमालय में एकांतवास करें। (ई) और यदि वे यह नहीं कर सकते तो कांग्रेस से बाहर निकलकर हिन्दुओं को हिंसक आत्मरक्षा के लिए संगठित करें। तुम जो भी रास्ता चुनो, हमारे व्यक्तिगत संबंध पहले जैसे ही रहेंगे और मैं तुम्हारी आज जैसी ही चिंता करता रहूंगा। यहां मुंशी जी भावुक हो गए, उनका गला रुंध आया। उन्होंने कहा कि पहले दो रास्ते तो मेरे लिए संभव नहीं हैं। मैं लम्बे समय से सार्वजनिक जीवन में हूं। उससे अलग होना मेरे लिए संभव नहीं है। और इस समय जब मेरा देश, मेरा समाज और मेरी संस्कृति खतरे में है, मैं पीछे नहीं हट सकता। यदि आप कांग्रेस के हित में आवश्यक समझते हों तो मैं कुछ समय के लिए कांग्रेस से हट कर जेल वापस जा सकता हूं या अपने वकालत के व्यवसाय में लग सकता हूं। गांधी जी ने कहा कि मैं इन दोनों रास्तों के पक्ष में नहीं हूं। इस पर मुंशी जी ने कहा कि मैं अन्त:करण में महसूस करता हूं कि मेरा देश और संस्कृति खतरे में हैं।...मुसलमानों के पास तो उनकी मस्जिदें हैं और उनके अपने संगठन हैं। इसलिए दंगों में शुरू में हिन्दुओं को ही हानि होती है। मैंने देखा है कि अनेक कांग्रेसजन ऐसी नई संस्थाओं की मदद करते रहे हैं और अभी भी करते हैं, जो हिंसक उपायों से अपनी बस्तियों की रक्षा करती हैं। अंत में गांधी जी ने कहा कि यदि मुंशी जी को शांति सेना का पहला रास्ता स्वीकार नहीं है तो यह कांग्रेस के हित में होगा कि वे कांग्रेस से बाहर जाएं और अपनी अंत:प्रेरणा से कार्य करें। मैं उनकी स्थिति को स्पष्ट करने के लिए स्वयं वक्तव्य जारी करूंगा। वे अपने कांग्रेस मित्रों से भी चर्चा करके देखें कि क्या वे भी उनके साथ बाहर जाकर आत्मरक्षा को संगठित करेंगे। बम्बई के कांग्रेसी कार्यकत्र्ताओं से भी विचार करें कि क्या वे हिंसक आत्मरक्षा का अधिकार चाहते हैं। इस पर राजेन्द्र बाबू ने कहा कि इससे कांग्रेस की एकता नष्ट हो जाएगी, पर गांधी जी ने मुंशी जी को कहा कि तुम बम्बई जाकर अपने मित्रों से मिलकर वापस आओ। तब हम अंतिम निर्णय लेंगे। मुंशी जी ने कहा कि "यह बिल्कुल नया विचार है। बाहर जाना मेरे लिए इतना आसान नहीं है, मुझे अपनी पत्नी (लीलावती) से भी परामर्श करना पड़ेगा।" उपरोक्त चर्चा से स्पष्ट है कि वह हिंसा-अहिंसा के अन्तद्र्वंद्व में फंस गये थे और यह प्रश्न उनके लिए अस्तित्व-रक्षा का प्रश्न बन गया था। (जारी)रामदास सोनीhttp://www.blogger.com/profile/01823504717777508844noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4117630712253592267.post-9407034041814202002010-05-27T13:52:00.000+05:302010-05-27T13:52:39.758+05:30विभाजन-गाथा का एक विस्मृत पन्ना-3यूं जन्मा अखंड हिन्दुस्थान मोर्चा <br />
दो दिन लम्बी वर्धा बैठक से स्पष्ट हो गया कि पाकिस्तान की मांग को पूरा कराने के लिए मुस्लिम लीग ने देश को गृहयुद्ध के कगार पर धकेलने का निर्णय कर लिया है, जो अमदाबाद, बम्बई, ढाका और बिहार के अनेक नगरों में राक्षसी दंगों के रूप में प्रगट हो रहा है। देश के सबसे बड़े राजनीतिक दल के नाते कांग्रेस भारी अन्तद्र्वंद्व में फंसी थी। वह सैद्धांतिक तौर पर अहिंसा के लिए प्रतिबद्ध थी, किंतु अधिकांश कांग्रेसजन अनुभव कर रहे थे कि मुस्लिम हिंसा का मुकाबला अहिंसा के द्वारा संभव नहीं है। गांधी जी भी स्थिति की गंभीरता को समझ रहे थे, किंतु उनकी चिंता थी कि यदि कांग्रेस संस्था के नाते हिंसा का रास्ता अपनाएगी तो वह बिखर जाएगी या ब्रिाटिश सरकार उस पर हमला करके उसे समाप्त कर देगी। इस तमाम चर्चा से निष्कर्ष निकला कि क.मा.मुंशी भारत और कांग्रेस के हित में कांग्रेस से त्यागपत्र देकर बाहर जाएं और हिन्दुओं को संगठित करने का प्रयास करें। गांधी जी के निर्देशानुसार मुंशी ने बम्बई जाकर अपनी पत्नी, अपने कांग्रेसी मित्रों और पूना में यरवदा जेल में बंद सरदार पटेल से परामर्श किया। वर्धा लौटकर उन्होंने कांग्रेस से त्यागपत्र दिया और गांधी जी ने 15 जून 1941 को उनके त्यागपत्र पर एक प्रेस वक्तव्य जारी किया। <br />
मुंशी का त्यागपत्र <br />
गांधी जी ने अपने लम्बे वक्तव्य में कांग्रेस कार्यसमिति के 21 जून 1940 के वर्धा प्रस्ताव की अ.भा.कांग्रेस कमेटी की व्याख्या को उद्धृत किया, जिसमें कहा गया था कि कांग्रेस स्वराज्य की लड़ाई तो अहिंसा से ही लड़ेगी, किंतु स्वाधीन भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अहिंसा के सिद्धांत पर नहीं अड़ेगी। यह स्वयं में एक विरोधाभासी तर्कजाल था। जैसा कि इस श्रृंखला के प्रथम लेख में हम स्पष्ट कर चुके हैं कि यह प्रस्ताव गांधी जी के अहिंसा पर अव्यावहारिक आग्रह की प्रतिक्रिया में से निकला था। गांधी जी ने मुंशी के त्यागपत्र का समर्थन करते हुए कहा कि "उनका त्यागपत्र देना उनके अपने, कांग्रेस और देश के हित में होगा। उनके इस कदम से अन्य कांग्रेसजनों के लिए भी त्यागपत्र का रास्ता खुलेगा। उनके कांग्रेस से त्यागपत्र का अर्थ यह कदापि नहीं है कि वे बदले की भावना से भरे हिंसक प्राणी बन गए हैं या राष्ट्रवाद विरोधी साम्प्रदायिक हो गये हैं। मुझे तनिक भी संदेह नहीं है कि उनकी दृष्टि में ऐसा प्रत्येक गैर हिन्दू, जो भारत को अपना घर मानता है, उतना ही भारतीय है, जितना भारत में जन्मा-पला कोई भी हिन्दू है। मैं आशा करता हूं कि वे बम्बई में स्थाई शांति स्थापित करने में सफल होंगे।" मुंशी जी लिखते हैं कि "जब मैंने कुछ प्रमुख कांग्रेसजनों से सम्पर्क किया तो उन्होंने कहा कि अब जब गांधी जी ने तुम्हें कांग्रेस से बाहर जाने की अनुमति दे दी है तो हम भी तुम्हारे साथ आने को तैयार हैं।" अनेक कांग्रेसजनों ने सुझाव दिया कि "स्वराज्य पार्टी" को पुन: जीवित किया जाए, ताकि वे उसमें जा सकें। मुंशी जी ने इसका उत्तर दिया कि आज का मुख्य प्रश्न संवैधानिक सुधार न होकर भारत की अखंडता की रक्षा है। कांग्रेस, हिन्दू महासभा, बम्बई कांफ्रेंस, आजाद कांफ्रेंस, मोमिन कांफ्रेंस, अखिल बंगाल कृषक प्रजा पार्टी, पृथकता विरोधी दक्षिण भारतीय कांफ्रेंस आदि अधिकांश दल और सिख, ईसाई, पारसी आदि सभी समुदाय अखंड भारत की निष्ठा रखते हैं। ये सब इकठृठा हो जाएं तो भारत को कौन खंडित कर सकता है। इसलिए आज की आवश्यकता है कि इस व्यापक जनभावना को उद्दीपित और संगठित करने के लिए अखंड हिन्दुस्थान मोर्चा बनाया जाए। यह मोर्चा कोई अनुशासनबद्ध संगठन नहीं होगा, बल्कि भारत की अखंडता और आंतरिक सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध दलों का एक साझा मंच मात्र होगा। इस स्थिति ने सरदार पटेल को विचलित कर दिया। उन्होंने गांधी जी को लिखा कि विभाजन और दंगों के प्रश्न पर बड़ी संख्या में कांग्रेसजन कांग्रेस को छोडक़र अपनी अलग पार्टी बना लेंगे। मुंशी कहते हैं कि गांधी जी पार्टी से ऊपर उठकर सोच सकते थे, पर सरदार नहीं। सरदार जैसे सहयोगियों का दबाव पडऩे के कारण गांधी जी ने अपने निजी सचिव महादेव देसाई के द्वारा एक स्पष्टीकरण जारी करवा दिया कि मुंशी ने कांग्रेस इसलिए छोड़ी, क्योंकि उनका अहिंसा पर से ही विश्वास उठ गया है। किंतु जो अभी भी अहिंसा पर विश्वास रखते हैं, भले ही उस पर अमल करना कठिन पाते हैं, उन्हें कांग्रेस में बने रहना चाहिए। मुंशी जी लिखते हैं कि महादेव देसाई के इस वक्तव्य के बाद जिन कांग्रेसियों ने मेरे साथ आने का वचन दिया था वे इस स्पष्टीकरण का तिनका पकडक़र कांग्रेस में ही रुके रह गए और मुझे अकेले ही अखंड हिन्दुस्थान का झंडा उठाना पड़ा। <br />
पाकिस्तान समर्थक मनोभूमिका की पहचान <br />
अखंड हिन्दुस्थान मोर्चे की पताका लेकर मुंशी जी ने पूरे भारत का भ्रमण किया। इस भारत यात्रा के पीछे मुंशी जी का उद्देश्य भारत और भारत विभाजन अर्थात् पाकिस्तान समर्थक शक्तियों की पहचान करना, उनकी मनोभूमिका और विचारधारा को समझना तथा अखंड भारत समर्थक शक्तियों का मनोबल बढ़ाना और उन्हें जोडऩा था। इस यात्रा से मुंशी जी का यह विश्वास दृढ़ हो गया कि यह संघर्ष भारतीय राष्ट्रवाद और मुस्लिम पृथकतावाद के बीच आठवीं शताब्दी से आरंभ हुए संघर्ष की अगली कड़ी मात्र है। उन्होंने मुस्लिम श्रोताओं को उनकी रगों में भारतीय पूर्वजों के रक्त का और समान सांस्कृतिक विरासत का स्मरण दिलाने का भरसक प्रयास किया, किंतु उन्हें जगह-जगह उग्र मुस्लिम विरोध का सामना करना पड़ा। भारत की सांस्कृतिक परंपरा से मुस्लिम समाज कितना कट चुका है इसका अंदाजा मुंशी जी को तब हुआ जब उदारता के लिए प्रसिद्ध और हिन्दू रियासत मैसूर के मुस्लिम प्रधानमंत्री सर मिर्जा इस्माईल ने मुंशी जी को कहा कि आपने अखंड जैसे संस्कृत शब्द की जगह उर्दू का कोई शब्द क्यों नहीं अपनाया? इससे तो मुसलमान नाराज हो जाएंगे। और तब मुंशी जी ने महसूस किया कि क्यों जिन्ना उर्दू को मुस्लिम राष्ट्रवाद का आधार कहते हैं। एक राष्ट्रवादी मुस्लिम नेता ने उन्हें लिखा कि आप मुसलमानों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर रहे हैं। जब मुंशी जी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रसंघ को सम्बोधित कर रहे थे तो चार-पांच मुस्लिम सभा से यह चिल्लाते हुए बाहर चले गए कि आप मुसलमानों को अपना गुलाम बनाना चाहते हैं। मुंशी जी लिखते हैं कि जब मैं लाहौर गया तो एक मुस्लिम नेता के उर्दू अखबार ने हिन्दुओं को धमकी दी कि यदि उन्होंने मेरी बात सुनी तो उनका वही हश्र दोबारा होगा जो 11वीं शताब्दी के आरंभ में महमूद गजनी ने किया था। उनकी दृष्टि में भारत की एकता का प्रचार करना, कायरता को छोडऩे का आह्वान करना और गुंडागर्दी का हिम्मत के साथ मुकाबला करने की बात करना अपराध था। <br />
विष-बुझे वक्तव्य <br />
इसके विपरीत महत्वपूर्ण और उत्तरदायी मुस्लिम नेताओं के जहरीले भाषणों के अनेक उद्धरण मुंशी जी ने ढाका दंगा जांच समिति को पेश की गयी बंगाल प्रांतीय कांग्रेस कमेटी की रपट में से दिए हैं। बंगाल के तत्कालीन मुस्लिम प्रधानमंत्री ने कहा, "यदि मुसलमान संगठित रहे तो वे दोबारा राज करेंगे। 22 करोड़ हिन्दुओं को मैं बिना उंगली हिलाए कुचल दूंगा। भविष्य केवल मुसलमानों का है, काफिरों का कोई भविष्य नहीं होता।" उसके मंत्रिमंडलीय सहयोगी सुहरावर्दी ने भैरव कांफ्रेंस में मुसलमानों को मुस्लिम लीग के झंडे तले संगठित होकर सवर्ण हिन्दुओं से सत्ता छीनने को कहा। गृहमंत्री ख्वाजा निजामुद्दीन ने एक हिन्दू की निजी सम्पत्ति पर बिना उससे पूछे "पाकिस्तान पार्क" का उद्घाटन कर दिया। मंत्रिमंडल के मुखपत्र "दि स्टार आफ इंडिया" ने लिखा, "बंगाल के कोने-कोने में मुसलमानों का धैर्य समाप्त हो चुका है। वक्त आ गया है कि इन चूहों को बताया जाए कि शेर मरा नहीं है, केवल सो रहा था। हम उन्हें दिखा देंगे कि बंगाल किसका है। उन्हें ऐसा सबक सिखाएंगे कि वे याद रखेंगे।" मंत्रिमंडल द्वारा पोषित पत्र "आजाद" में 10 मार्च 1941 को एक कविता छपी जिसमें मुस्लिम लीग के झंडे तले विजेता सिपाहियों को परास्त हिन्दुओं पर हमला करने और खून की नदियां बहाने, हिन्दू मंदिरों का ध्वंस करने और हिन्दू घरों में आग लगाने का आह्वान किया गया। उन्हीं दिनों सिंध में सुल्तानकोट में जी.एम.सैयद की अध्यक्षता में मुस्लिम लीग सम्मेलन में एक उर्दू शायरी में कहा गया, "हम पाकिस्तान में कोई गैर मुस्लिम चेहरा नहीं देखेंगे, वहां मूर्ति पूजा का नामोनिशान नहीं रहेगा, जो हिन्दू गुलाम रहने के लिए ही पैदा हुए हैं उन्हें सरकार में कोई हिस्सा पाने का हक नहीं है।" मुस्लिम मानसिकता के इन अनुभवों के आधार पर मुंशी जी ने गांधी जी के नाम 8 सितम्बर 1941 को एक बहुत लम्बे पत्र में लिखा, "मैं स्पष्ट देख रहा हूं कि मुसलमानों का बहुत बड़ा बहुमत राष्ट्रवाद के प्रति उदासीन है और देश पर हावी होने की नीति अपना रहा है। कमजोर दिल हिन्दू ऊंची बात कहकर संतोष कर लेते हैं कि "मैं राष्ट्रवादी हूं और मुझे मुसलमानों को नाराज नहीं करना चाहिए। इसका नतीजा यह हो रहा है कि राष्ट्रवाद, हिन्दू और अन्य गैर मुस्लिम समुदाय खतरे में हैं। यदि मैं अपनी सभाओं में मेरा भाषण सुनने या मेरे भाषणों की रपट पढक़र कुछ मुसलमानों की आहत भावनाओं या नाराजगी की चिंता करके सत्य न बोलूं तो मेरे बोलने की आवश्यकता ही क्या है?" उसी पत्र में मुंशी जी लिखते हैं, "यह सच है कि जो मैं बोलता हूं उससे मुसलमानों की भावनाएं आहत होती हैं। वे केवल एक ही दृष्टिकोण से देखना और सुनना चाहते हैं और उसके प्रति बड़े भावुक हैं। वे चाहे जो कहें या करें, किसी को उसकी आलोचना नहीं करनी चाहिए। लेकिन मैं जो साफ देखता हूं क्या उसे अपनी पूरी क्षमता से बताने का मुझे हक नहीं है? यहां (बम्बई में) कुछ ही दिन पहले मुस्लिम नेताओं के भाषणों में जो ईष्र्या, जहर और मतांधता भरी थी वह ध्यान देने लायक है। मुस्लिम पृथकतावादी देश का विभाजन करने पर तुले हुए हैं। वे भारत राष्ट्र के टुकड़े-टुकड़े करके हिन्दुओं को अल्पसंख्यक बना देना चाहते हैं। देश का भविष्य खतरे में है। क्या हिन्दुओं को इस डर से कि, कहीं आज के सच्चे हालात के वर्णन को सुन-पढक़र कहीं मुसलमान भाई नाराज न हो जाएं, अपने होंठ सी लेने चाहिएं?" पत्र के पहले पैरा में ही मुंशी जी लिखते हैं कि, "कट्टरवादी मुसलमान आपको सब समस्या की जड़ मानते हैं और मुझे केवल एक नन्हा सपोला। कोई आश्चर्य नहीं कि राष्ट्रवादी मुसलमान भी मुझे मुसलमानों की पराधीनता का औजार समझ रहे हैं। जबसे मैंने कांग्रेस छोड़ी है और मुस्लिम प्रेस ने आप पर आरोप लगाना शुरू किया है कि आपने ही बुरे इरादे से मुझे बाहर भेजा है, मैं पूरी सावधानी बरतता हूं कि आप पर मेरे कारण कोई लांछन न लगने पाए।" <br />
अखण्ड हिन्दुस्थान का उद्घोष <br />
मुसलमानों में व्याप्त पृथकतावादी और हिन्दू विरोधी मानसिकता से दुखी मुंशी जी लिखते हैं, "गांधी जी पिछले 25 साल से हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए भागीरथ प्रयास कर रहे हैं। इसके लिए वे हिन्दुओं के एक वर्ग का विश्वास भी खो बैठे हैं। यह वर्ग उन पर हिन्दुओं को नीचे गिराने का लांछन लगाता है। किंतु मुस्लिम समाज ने उनके इरादों को गलत समझा। पृथकतावादी अखबारों में उन्हें इस्लाम का सबसे बड़ा शत्रु कहा जा रहा है। उनको जान से मारने की धमकियां दी जा रही हैं। यही स्थिति मौलाना अबुल कलाम आजाद की है। वे इस्लाम के अधिकारी विद्वान हैं, देशभक्त हैं, बड़े राष्ट्रवादी हैं। पर उनका मखौल उड़ाया जा रहा है कि वे हिन्दू मुस्लिम एकता के द्वारा भारत को अखंड रखना चाहते हैं। मुंशी जी पूछते हैं कि, " जो अहिंसा का मसीहा और भारत का सबसे महान मुसलमान प्राप्त नहीं कर पाया, वह तुष्टीकरण के द्वारा प्राप्त हो सकेगा? जब भारत की अखंडता के उपासक निर्भीक वाणी में अखंड हिन्दुस्थान का उद्घोष करेंगे तभी वे पृथकतावादियों से सम्मान अर्जित कर पाएंगे, तभी दोस्ती और आपसी समझदारी का सवेरा प्रगट होगा।" ऐसा नहीं है कि मुंशी जी मुस्लिम समाज के भीतर से उठ रहे इक्के-दुक्के राष्ट्रवादी स्वरों के प्रति अनजान थे। उन्होंने मोमिन नेता अब्दुल कय्यूम अंसारी, अखिल बंग कृषक प्रजा पार्टी के नेता सैयद हबीबुर रहमान, मध्य प्रांत के पूर्व मंत्री मोहम्मद यूसुफ शरीफ और इस्मायली खोजा समुदाय के नेता मोहम्मद भाई रावजी के भाषणों को उद्धृत किया है, किंतु मजहबी जुनून की आंधी में वे तिनकों के समान उड़ गए। 100 वर्षों के इतिहास से विकसित हिन्दू विरोधी व विजेता शासक की मानसिकता मतांतरित मुसलमानों में इतनी व्यापक और गहरी फैल गयी थी कि भारतीय मुसलमानों ने मौलाना आजाद जैसे निष्ठावान मुसलमान को ठुकराकर कुरान और नमाज से दूर अंग्रेजियत में रंगे जिन्ना को सिर पर उठा लिया। मुसलमानों में व्याप्त हिन्दू विरोधी मानसिकता के उदाहरण देते हुए मुंशी जी कहते हैं, "मुस्लिम विभाजनवादी को राष्ट्रीय एकता को प्रतिबिम्बित करने वाले प्रत्येक प्रतीक और व्यवहार से चिढ़ है। यदि मैं वंदेमातरम् गाता हूं तो उसे बुरा लगता है। यदि मैं किसी विद्यालय को "विद्या मंदिर" जैसा संस्कृत नाम देता हूं तो उसकी भावना आहत होती है। अगर मैं राष्ट्रीय ध्वज का वंदन करता हूं तो वह परेशान हो जाता है। यदि मैं हम दोनों को समझ आने वाली "हिन्दुस्थानी" जैसी राष्ट्रभाषा का विकास करना चाहता हूं तो वह चाहता है कि हम केवल उर्दू बोलें, जिसे मैं समझ नहीं पाता। वह अपने को मजहबी अल्पसंख्यक के बजाय प्रतिद्वंद्वी राष्ट्र मानता है।" अखंड हिन्दुस्थान मोर्चा के मंच से मुंशी जी ने पूरे भारत में घूमकर अखंड भारत की अलख जगाने और पृथकतावाद के विरुद्ध राष्ट्रवादी शिविर में एकता पैदा करने का ऐतिहासिक प्रयास किया। किंतु राष्ट्रवादी शिविर की आंतरिक स्थिति और मानसिकता का उनकी आंखों देखा चित्र और अनुभव क्या है, वह भारत की आज की स्थिति में भी अत्यंत प्रासंगिक है। (जारी)...रामदास सोनीhttp://www.blogger.com/profile/01823504717777508844noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4117630712253592267.post-48856415947591798952010-05-27T13:46:00.000+05:302010-05-27T13:46:11.893+05:30विभाजन-गाथा का एक विस्मृत पन्ना-4एक बौद्धिक आस्था और विश्वास को लेकर मुंशी जी अकेले ही अखंड हिन्दुस्थान की पताका लेकर लोक जागरण और राष्ट्रीय मोर्चे के निर्माण के लिए भारत भ्रमण पर निकल पड़े। उन्होंने पूरे उत्तर भारत की यात्रा की। इस यात्रा में वे कांग्रेसजनों और गैर कांग्रेसियों, दोनों से मिले। उन्होंने अपनी आंखों से देखा कि किस प्रकार "पाकिस्तानी दंगों" के द्वारा राष्ट्रवाद को देश-विभाजन की मांग के सामने झुकने को मजबूर किया जा रहा है। सुनियोजित दंगों की आग क्रमश: नए-नए प्रांतों में फैलती जा रही थी। पंजाब में सरगोधा और सिंध में सक्कर शहर भी इन लपटों में घिर चुके थे। इन दंगों के कारण हिन्दू मन बहुत अधिक उद्वेलित था, किंतु अपने को नेतृत्व विहीन और असहाय पा रहा था। मातृभूमि की स्वतंत्रता की उत्कट आकांक्षा को लेकर वह गांधी जी के प्रभावशाली व्यक्तित्व के कारण कांग्रेस के झंडे तले इक_ा हो गया था। कांग्रेस संगठन का जाल पूरे भारत के ग्रामों और नगरों में फैला हुआ था। प्रत्येक जाति, प्रत्येक भाषा, प्रत्येक वर्ग और प्रत्येक प्रांत में सत्याग्रह आंदोलनों के माध्यम से ऐसा नेतृत्व उभर आया था जिसे लोग जानते और मानते थे। अत: पूरे देश की आशाएं इसी नेतृत्व पर टिकी थीं। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह नेतृत्व विभाजन कतई नहीं चाहता था। गांधी जी ने स्वयं मार्च 1940 के मुस्लिम लीग प्रस्ताव पर प्रतिक्रिया करते हुए 13 अप्रैल 1940 के हरिजन के अंक में द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को ठुकराते हुए लिखा था, "मैं इस विचार को कदापि स्वीकार नहीं कर सकता कि वे लाखों भारतीय जो कल तक हिन्दू थे, इस्लाम मजहब को कबूल करते ही अपनी राष्ट्रीयता को बदल बैठे।" उन्होंने कहा कि "भारत विभाजन मेरे शरीर के टुकड़े करने जैसा है।" <br />
कांग्रेस की चारित्रिक दुर्बलता <br />
पर प्रश्न था कि क्या मुस्लिम लीगी हिंसा का मुकाबला गांधी जी की अहिंसा से किया जा सकता है? कितने कांग्रेसजनों ने अहिंसा का आचरण करने लायक आत्मबल और चित्त-शुद्धि अर्जित की थी? क्या वे उसे अंग्रेज सरकार के विरुद्ध एक रणनीतिक हथियार के रूप में ही नहीं अपना रहे थे? दो वर्ष तक सत्ता के उपभोग ने उनकी मानसिकता को बहुत दुर्बल और दूषित कर दिया था। बम्बई प्रांत के गृहमंत्री के नाते और बाद में भारत-विभाजन के लिए "पाकिस्तानी दंगों" के दौरान मुंशी जी ने कांग्रेस की चारित्रिक दुर्बलता का प्रत्यक्ष साक्षात्कार किया। अपने अनुभव को उन्होंने गांधी जी को 8 सितम्बर 1941 के लम्बे पत्र में स्पष्ट शब्दों में लिखा- <br />
"आपने पूरे बीस साल तक हमें शक्ति देने का प्रयास किया। पर हम इतनी भी शक्ति उत्पन्न नहीं कर पाये कि हम प्रांतों में मिली सीमित सत्ता को भी सुरक्षित रख पाते। हम शक्तिहीन हैं। हम केवल वाक्-शूरता दिखा सकते हैं। अधिक से अधिक हम गिरफ्तारी दे सकते हैं, बशर्ते कि हमें कुछ ही महीनों के बाद छूटने का भरोसा हो।" पर, यह सब होते हुए भी मुंशी जी को विश्वास था कि प्रकृति ने भारत को अखंड बनाया है। केदारनाथ से कन्याकुमारी तक और कामाख्या से कराची तक भारत अखंड है। सहरुाों वर्षों के संस्कारों के कारण भारतीय मन उसे भारत माता के रूप में पूजता है। उसकी मुक्ति के लिए व्याकुल और संघर्षरत है। अत: उसके विभाजन की मांग उसे भीतर से झकझोर डालेगी और वह अपने सब मतभेदों को भुलाकर एकता के सूत्र में बंध जाएगा, मातृभूमि के विभाजन के षड्यंत्र को पूरी शक्ति से परास्त कर देगा। इसी विश्वास को लेकर मुंशी जी भारत यात्रा पर निकल पड़े। उन दिनों कांग्रेस के अलावा हिन्दू महासभा ही दूसरा संगठन थी जो विनायक दामोदर सावरकर के नेतृत्व में स्वयं को कांग्रेस के राष्ट्रवादी विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर रही थी और अखंड भारत के लिए प्रतिज्ञाबद्ध थी। सावरकर जी ने मुंशी को दिल्ली में होने वाली अपनी कार्यसमिति की बैठक में भाग लेकर अपने अखंड हिन्दुस्थान दौरे के अनुभव के आधार पर देश की वर्तमान स्थिति को प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया। मुंशी वहां गए और अपने अनुभव सुनाए। उन्होंने बताया कि हिन्दू मन इस समय बहुत उद्वेलित और चिंतित है। अनेक कांग्रेसजन भी मान रहे हैं कि "पाकिस्तानी दंगों" का हिंसक प्रतिरोध आवश्यक है, किंतु गांधी जी और कांग्रेस नेतृत्व इस रास्ते को अपनाने को तैयार नहीं है। अत: यदि मुस्लिम हिंसा की चुनौती का मुकाबला करना है तो ऐसे गैर गांधीवादी नेतृत्व की खोज करनी होगी जो जनता के बीच लोकप्रिय हो और जिसका अपना जनाधार भी हो। तभी हम मुस्लिम लीग पर से "विजेता जाति" मानसिकता का भूत उतार पाएंगे। मुंशी जी ने हिन्दू महासभा कार्यसमिति को स्पष्ट कहा कि ऐसा जनाधार युक्त लोकप्रिय नेतृत्व अभी उन्हें दिखाई नहीं दिया। मुंशी जी लिखते हैं कि गैर कांग्रेसी नेता ऐसा नेतृत्व बनाने के बजाय कांग्रेस और गांधी जी की आलोचना में ही अपनी पूरी शक्ति खर्च कर रहे थे। दूसरी ओर हिन्दू नेतृत्व भी जिन्ना से गुप्त मुलाकात करके उन्हें मनाने में जुट गया था। डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मुंशी जी से मित्रता थी। उन्होंने मुंशी जी की दिल्ली यात्रा के समय उन्हें बताया कि जिन्ना ने उन्हें कहा कि यदि हिन्दू विभाजन की मांग को सिद्धांतत: स्वीकार कर लें तो मैं सत्ता हस्तांतरण के लिए उनका साथ दूंगा, किंतु साथ ही शर्त लगा दी कि यदि डा. मुखर्जी ने मेरे इस प्रस्ताव को सार्वजनिक किया तो मैं मुकर जाऊंगा। <br />
डाक्टर जी का आह्वान <br />
हिन्दू महासभा की कार्यसमिति की बैठक से मुंशी जी को निराशा ही हाथ लगी। उन्हें लगा कि "सावरकर भी मुझे बुलावा देने से प्रसन्न नहीं लगे।" वे चाहते थे कि मुंशी हिन्दू महासभा में आ जाएं, जिसके लिए मुंशी तैयार नहीं हुए। उन्होंने गांधी जी को 8 सितम्बर वाले पत्र में लिखा कि, "मेरा हिन्दू महासभा में जाने का कोई विचार नहीं है, क्योंकि उसकी सब नीतियों और उद्देश्यों को मैं स्वीकार नहीं कर सकता।" उन दिनों यदि कांग्रेस और हिन्दू महासभा राजनीति के क्षेत्र में सक्रिय थे तो गैर राजनीतिक राष्ट्रवादी शक्ति के रूप में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तेजी से उभर रहा था। भारत की स्वतंत्रता और अखंडता के प्रति वह पूरी तरह जागरूक था। संघ के जन्मदाता डा. हेडगेवार के 21 जून 1940 को निधन के तुरंत पश्चात् प्रकाशित उनकी जीवनी में "जागतिक परिस्थिति और हिन्दुओं का भवितव्य" शीर्षक से अपने भाषण में डा. हेडगेवार ने चिंता प्रगट की थी कि, "पैंतीस करोड़ से घटते-घटते हम पच्चीस करोड़ रह गये हैं। हमारी क्षति कितनी द्रुत गति से होती जा रही है। इसके विपरीत मुसलमान लोग सबके सामने खुल्लम-खुल्ला पाकिस्तान की मांग ब्रिाटिश लोगों के सामने रख रहे हैं। इस दशा में हमें सतर्क होकर आत्म-संरक्षण के लिए संगठित हो जाना चाहिए।" जिस समय डाक्टर जी ने यह चेतावनी दी उस समय, उनके कथनानुसार, "संघ की केवल दो सौ शाखाएं हैं जिनमें बीस हजार स्वयंसेवक नित्य प्रति नियमित रूप से कार्य कर रहे हैं।" इसके कुछ समय बाद त्रयोदश वर्षीय (अर्थात् सन् 1938) सिंहावलोकन में डाक्टर हेडगेवार ने कहा, "आज तो हम 70,000 से अधिक संख्या में हैं। संघ कार्य के चौदह वर्ष पूर्ण होने पर 1939 में डा. हेडगेवार ने अपने "संदेश" में कहा, "इन चौदह वर्षों में हमने अपने कार्य का विस्तार भारतवर्ष के पंजाब, बंगाल, बिहार आदि प्राय: सभी दूर-दूर के प्रांतों में भी किया है तथा मध्य प्रांत और बम्बई प्रांत के प्रत्येक जिले और तहसील में हमारी शाखाएं सुचारू रूप से कार्य कर रही हैं।" इसी "संदेश" में डा. हेडगेवार ने माना कि अब तो हम जनता के सामने प्रकाश में आ चुके हैं। हमारे चारों ओर शत्रु और मित्र फैले हुए हैं।" उन्होंने कार्यकत्र्ताओं को अपनी गति बढ़ाने का आह्वान करते हुए कहा कि "संघ यह नहीं चाहता कि किसी क्लब या पाठशाला के समान वह भी सदियों तक जैसे-तैसे चलता रहे।...यदि उस परीक्षार्थी के समान, जो परीक्षा बिल्कुल समीप आने पर दौड़-धूप मचाता हो, कार्य करने की चेष्टा करोगे तो आखिर में खाली हाथ मलते रहना पड़ेगा। कौन कह सकता है आगे चलकर परिस्थिति कैसे पलटा खाने वाली है। पता नहीं आगामी काल के संकट के पहाड़ हमारे सिर पर कब टूट पड़ेंगे।" <br />
पुणे संघ शाखा में मुंशी <br />
बम्बई प्रांत के गृहमंत्री के नाते मुंशी जी को संघ की शक्ति, संगठनात्मक विस्तार और विचारधारा की जानकारी अवश्य रही होगी। अत: 6 अगस्त 1941 को वे पुणे में संघ की शाखा पर गये और वहां स्वयंसेवकों का इस संकट काल में आगे आने का आह्वान किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से मुंशी जी के मिलन का यह प्रसंग अनजाना ही रह जाता यदि मुंशी जी ने उसके तुरंत बाद जनवरी 1942 में बम्बई से प्रकाशित अपनी "अखंड हिन्दुस्थान" शीर्षक वाली अंग्रेजी पुस्तक में इस कार्यक्रम की तिथि और वह पूरा भाषण लिपिबद्ध न कर दिया होता। उन्होंने संघ शाखा पर अपना भाषण आरंभ करते हुए पहले अपनी स्थिति स्पष्ट की। उन्होंने कहा कि "मैंने कांग्रेस इसलिए छोड़ी कि मैं आत्मरक्षार्थ हिंसक बल प्रयोग को न अपनाने के कांग्रेस के सिद्धांत से स्वयं को सहमत नहीं पाता। हम एक मतभेद को छोड़ दें तो मैं अभी भी वैसा ही राष्ट्रवादी हूं जैसे मैं कांग्रेस में प्रवेश के पहले और बाद में था।" आगे उन्होंने कहा, "मेरी पक्की धारणा है कि भारत-विभाजन की मांग का एकमात्र उद्देश्य भारत में हिन्दुओं के अस्तित्व और प्रभाव को नष्ट करना है...हिन्दुओं का भविष्य बहुत संकटापन्न है। हम जातिवाद, प्रांतवाद और भाषावाद के भंवर में फंस गये हैं।...जब तक हिन्दू असंगठित और विभाजित रहेंगे तब तक वे इस कुटिल षड्यंत्र को परास्त नहीं कर पाएंगे। प्रखर राष्ट्रवाद ही हमें अन्य समुदायों का सहयोग लेते हुए शक्तिशाली बना सकता है।" उन्होंने कहा, "भारत विभाजन को रोकने में जितनी बाधा मुस्लिम कट्टरवाद की ओर से आ रही है उससे अधिक हिन्दुओं की भीरू वृत्ति की ओर से है। कठोर वास्तविकता का सामने करने के बजाय हम शब्द जाल बुनने लगते हैं। नौकरी या सूद के लालच में हम किसी भी हद तक गिरने को तैयार रहते हैं। यदि अंग्रेज हमारे सामने कुछ टुकड़े फेंक देता है तो उन्हें झपटने के लिए हम आपस में झगडऩे लगते हैं। यदि मुसलमान हमें आंखें दिखाता है तो हम अपनी भाषा, अपनी वेशभूषा, यहां तक कि संस्कृति को भी छोडऩे को तैयार हो जाते हैं। देश के सामने विभाजन का खतरा खड़ा है, पर हम उस खतरे का मुकाबला न करने के बहाने खोज रहे हैं। अपनी भीरुता को ढंकने के लिए कोई भी सहारा हमारे लिए काफी है। भयग्रस्त राष्ट्र अपना भविष्य कभी नहीं बना सकता।" हिन्दू समाज की दुर्बलताओं का वर्णन करने के बाद मुंशी जी ने संघ का आह्वान करते हुए कहा, "आपका संघ हिन्दुओं का व्यापक संगठन है। आपने हिन्दू समाज की सेवा करने और उसे बलशाली बनाने की प्रतिज्ञा ली है। इसलिए आपका पहला कर्तव्य है कि आप हिन्दुओं को निर्भयता का पाठ पढ़ाएं।" अपनी बात को बढ़ाते हुए उन्होंने कहा, "आप एक विशाल और प्रभावशाली संगठन हैं। भारत के कई भागों में आपकी बहुत अधिक शाखाएं फैली हुई हैं। आपने हिन्दू समाज को संगठित करके बलशाली बनाने का संकल्प लिया हुआ है। किंतु आप यह न भूलें कि इस समय एक नि:शस्त्र पराधीन समाज है। अखंड हिन्दुस्तान की जो लड़ाई हमारे सामने है उसमें विजय पाने के लिए समाज के सब वर्गों और भारत में रहने वाले उन सभी समाजों का, जो इस प्रश्न पर हमारे साथ हैं, सहयोग लेना होगा।" उन्होंने कहा, "अखंड हिन्दुस्थान एक यथार्थ था, है और रहेगा। हम तीस करोड़ हैं, हम एक महान संस्कृति और इतिहास के उत्तराधिकारी हैं। यदि हिन्दू धर्म खोखला होता तो हम सब मुसलमान बन गये होते। हमारे पास एक महान दर्शन और संदेश है। अखंड हिन्दुस्थान की जमीन से वह संदेश पूरे विश्व को देना है।" अपने भाषण का अंत उन्होंने इन शब्दों से किया, "भारत कभी नहीं मरेगा, क्योंकि आप उसे बचाएंगे।" <br />
"अखण्ड हिन्दुस्थान" की राह <br />
मुंशी जी के इस आह्वान पर संघ की क्या प्रतिक्रिया रही, इसकी कोई जानकारी हमें नहीं मिल पायी। इतना तो सत्य है कि 1939 से 1941 तक, संघ का संगठनात्मक विस्तार 70,000 की संख्या से बहुत आगे बढ़ गया होगा। जून 1940 में डाक्टर जी के असामयिक स्वर्गवास से व्यथित माधवराव मुल्ये एवं नानाजी देशमुख जैसे अनेक कार्यकत्र्ताओं ने अपना पूरा समय संघ कार्य को समर्पित करने का संकल्प लिया था। डाक्टर जी के उत्तराधिकारी श्रीगुरु जी के प्रभावशाली आध्यात्मिक नेतृत्व में महाराष्ट्र और विदर्भ के नगरों में तीन प्रतिशत और गांवों में एक प्रतिशत स्वयंसेवक खड़े करने की डाक्टर जी की अंतिम इच्छा की पूर्ति में सब प्राणपण से जुटे होंगे। पाकिस्तान के खतरे की चेतावनी डाक्टर जी ने बहुत पहले दे दी थी। अत: इस समय, जब वह खतरा सामने खड़ा था, तब संघ ने उस दिशा में क्या पहल की, इसकी कोई जानकारी कहीं से नहीं मिल पा रही। अगस्त में संघ शाखा पर उद्बोधन के पश्चात 1 नवम्बर 1941 को मुंशी जी ने कुछ उत्साही लोगों के निमंत्रण पर पंजाब के लुधियाना नगर में आयोजित अखंड हिन्दुस्थान सम्मेलन में अध्यक्षीय भाषण दिया। इस लम्बे भाषण में उन्होंने "मुस्लिम राष्ट्र" के विचार का खंडन करते हुए मुस्लिम पृथकतावाद का इतिहास प्रस्तुत किया। हिन्दू-सिख एकता का आह्वान करते हुए उन्होंने विश्वास प्रगट किया कि "अखंड हिन्दुस्थान कभी नहीं मरेगा।" पर उनका यह आशावाद पूर्ण क्यों नहीं हो पाया? यह तो सत्य है कि हिन्दू समाज की विकेन्द्रित रचना और मानसिकता को देखते हुए किसी एक संगठन के झंडे तले पूरे समाज को खड़ा करना तब संभव नहीं था। मुंशी जी की यह कल्पना ठीक थी कि "अखंड हिन्दुस्थान" जैसे किसी ढीले-ढाले मोर्चे के द्वारा ही सब राष्ट्रवादी शक्तियों का एकत्रीकरण ही व्यावहारिक होता। क्या इस दृष्टि से राष्ट्रवादी शिविर में कोई गहरा विचार-मंथन हुआ? (जारी)रामदास सोनीhttp://www.blogger.com/profile/01823504717777508844noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4117630712253592267.post-42436935112764057392010-05-27T13:40:00.000+05:302010-05-27T13:40:48.506+05:30विवाह पंजीकरण से बहु-विवाह तक कानून बना तो झुके मुल्ला-मौलवीइसमें संदेह नहीं है कि समय-समय पर होने वाले सामाजिक परिवर्तनों के लिए पुरानी मान्यताओं को जगह बनानी पड़ती है। समाज की गतिविधियां एक नदी के समान होती हैं, जिस पर कानून बहती धारा की भूमिका अदा करता है। पुराने कानून और परम्पराएं जब समाज के लिए दु:खद स्थिति पैदा कर देती हैं तो फिर उनमें बदलाव आना अनिवार्य हो जाता है। इसी तरह कुछ कट्टर सोच के लोगों के साथ जुड़ा वर्ग जब यह समझने लगता है कि उसके पुराने कायदे-कानून ही उसके लिए अंतिम हैं, तब समाज में विद्रोह पनपता है। समझदार सरकार वह है जो समय रहते उन पुराने कायदे-कानूनों में बदलाव की प्रक्रिया प्रारंभ कर दे। जो कानून समाज को दुखी करने लगते हैं उन्हें कितना ही अपने सीने से चिपकाए रखें, लेकिन समय के साथ उनमें बदलाव करना ही पड़ता है। मुस्लिम समाज निकाह के पंजीकरण के मामले में हमेशा अपना विरोध दर्ज कराता आ रहा था। उसके अगुआ मुल्ला-मौलवी यह कहा करते थे कि "यह तो हमारे समाज की पहचान है, इसे कयामत तक कोई नहीं बदल सकता।" दूसरी ओर, दुनिया में जिन भी देशों में मुस्लिम सरकारें हैं वहां लाख विरोध के बाद भी निकाह का पंजीकरण अनिवार्य कर दिया गया है। जब विदेश यात्रा के समय पति-पत्नी के लिए विवाह पंजीकृत कराने की अनिवार्यता प्रारंभ हुई तो फिर शनै: शनै: यह कहा जाने लगा कि पंजीकरण कराने में कोई हर्ज नहीं है। भारत में अब तक पारिवारिक अदालतों में ऐसे पंजीकरण का काम होता था, लेकिन पिछले दिनों मुम्बई जैसे महानगर में महापालिका ने विवाह पंजीकरण की सुविधा उपलब्ध करवा दी। गत 5 मार्च से मुम्बई महापालिका के अंतर्गत सभी वार्डों में विवाह पंजीकरण आरम्भ हो गया है। विवाहित युगल यदि तीन माह के भीतर विवाह का पंजीकरण कराते हैं तो उसका 250 रुपए शुल्क देना होता है। एक वर्ष के पश्चात् यह शुल्क 350 रुपए हो जाएगा। मुस्लिम युगल को पंजीकरण के अवसर पर अपने साथ निकाहनामा भी लाना पड़ेगा, जिस पर काजी का पंजीकरण क्रमांक और मुहर लगी होनी चाहिए। उन्हें साथ में तीन साक्षी भी लाने होंगे। तीन साक्षियों के चित्र एवं उनके निवास का सबूत भी देना पड़ेगा। पंजीकरण के लिए दूल्हा-दुल्हन का चित्र भी साथ में होना अनिवार्य है। यह व्यवस्था आरम्भ होने के बाद से मुस्लिम समाज के लोग भी नियमानुसार अपना पंजीकरण करवा रहे हैं। इस पंजीकरण से फर्जी विवाहों पर प्रभावी लगाम भी लगेगी। कल तक कट्टर मुल्ला-मौलवी निकाह पंजीकरण को गैर इस्लामी और "मुस्लिम पर्सनल लॉ" विरोधी कहते थे, लेकिन अब सभी को यह नियम स्वीकार करना पड़ा है। मतदाता पहचान पत्र पर महिलाओं के फोटो सम्बंधी एक घटना पिछले दिनों निर्वाचन आयोग के समक्ष भी आई थी। तब निर्वाचन आयोग ने सख्ती के साथ यह आदेश जारी किया कि महिला मतदाता का चेहरा फोटो में दिखना चाहिए। पर्दे के भीतर चेहरे वाले फोटो का कार्ड मान्य नहीं होगा। मुस्लिम नेताओं और मौलानाओं ने इस पर भी आपत्ति जताई। उनका कहना था कि पर्दा इस्लामी शरीयत का अनिवार्य अंग है। इसलिए मुस्लिम महिला अपना चेहरा खुला रख कर तस्वीर नहीं खिंचवाएगी। यह मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा। न्यायालय ने निर्वाचन आयोग की दलील मान्य की। उसने अपने फैसले में कहा कि हर महिला मतदाता का मतदाता पहचान पत्र पर चेहरा साफ दिखना जरूरी है। मुस्लिम नेताओं और मौलानाओं को घुटने टेक देने पड़े और बिना पर्दे के चेहरा दर्शाते हुए खींचे गए फोटो के नियम को स्वीकार कर लिया गया। इस अवसर पर भी "मुस्लिम पर्सनल लॉ" की दुहाई दी गई, लेकिन कट्टरवादियों को तकनीकी आवश्यकताओं और कानून के सामने अपनी इस अकड़ और कट्टरता को त्यागना पड़ा। इसलिए अब यह लगता है कि भारत में वह दिन दूर नहीं है जब संसद में समान नागरिक कानून का विधेयक पारित हो जाएगा। भारतीय संविधान में इसकी व्यवस्था है, लेकिन एक वर्ग विशेष को मजहब के नाम पर खुश करने के लिए लगभग सभी सरकारों ने इस सम्बंध में पहल नहीं की थी। लेकिन अब हालात बता रहे हैं कि "मुस्लिम पर्सनल लॉ" के कारण जो कठिनाई आती है और अन्याय होता है उसे समाज और सरकार बहुत दिनों तक बर्दाश्त नहीं कर सकती। <br />
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"मुस्लिम पर्सनल लॉ" की धज्जियां उड़ा देने वाली एक घटना राजस्थान में घटी। शरीयत भले ही किसी मुस्लिम पुरुष को चार पत्नियां रखने का अधिकार दे, लेकिन राजस्थान लोक सेवा (1971) के कानून के अनुसार, कोई मुस्लिम पुरुष एक पत्नी के रहते हुए दूसरा निकाह नहीं कर सकता है। वहां 22 वर्ष पूर्व लियाकत अली ने दूसरा निकाह किया था, जबकि उसकी पहली पत्नी जीवित थी। लियाकत ने उसे तलाक भी नहीं दिया था। दूसरा निकाह करने की वजह से उसे अपनी पुलिस की नौकरी गंवा देनी पड़ी। उसे पुलिस सेवा से बर्खास्त कर दिया गया, क्योंकि पहली पत्नी होने के बावजूद उसने दूसरा निकाह कर लिया था। लियाकत को लगता था कि मुस्लिम होने के नाते उसे शरीयत कानून एक से अधिक पत्नी रखने की आज्ञा देता है। किन्तु अदालत ने उसकी इस दलील को मान्य नहीं किया। लियाकत का कहना था कि भारत का संविधान "मुस्लिम पर्सनल लॉ" को मान्यता देता है, ऐसी स्थिति में दूसरा निकाह उसका अधिकार है। 22 वर्ष की लम्बी अवधि के पश्चात मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा। सर्वोच्च न्यायालय ने उसकी याचिका को ठुकरा दिया और अपने फैसले में यह कहा कि राजस्थान लोक सेवा नियम के अनुसार, लियाकत ऐसा नहीं कर सकता है। अब इस मामले को लेकर राजस्थान में "मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड" आन्दोलन चला रहा है। इसका परिणाम तो जो आना था, वह आ गया। लेकिन इससे एक बात सिद्ध हो गई कि लोक सेवा के कानून "मुस्लिम पर्सनल लॉ" से अधिक वजन रखते हैं। जिस बहु-विवाह के अधिकार पर मुस्लिम आग्रह करता है और उसे अपनी पहचान मानता है उसे सर्वोच्च न्यायालय मान्यता नहीं देता। पिछले दिनों सऊदी अरब की एक महिला नदीन ने इजिप्ट में यह सवाल उठाया कि यदि एक पति चार पत्नियां रख सकता है, तो एक पत्नी चार पति क्यों नहीं? (देखें, पाञ्चजन्य 14 फरवरी, 2010) इससे मिलता-जुलता मामला केरल उच्च न्यायालय में सामने आया। सामान्य धारणा यह है कि इस्लाम में तलाक देने का विशेषाधिकार पुरुषों के लिए सुरक्षित है। लेकिन केरल उच्च न्यायालय की एक खण्डपीठ ने "मुस्लिम पर्सनल लॉ" के मजहबी रुाोत कुरान शरीफ को आधार बनाते हुए फैसला सुनाया कि जिस तरह यह मजहबी ग्रंथ एक निकाह की स्थिति में मुस्लिम पुरुषों को अपने विवेक के आधार पर अपनी पत्नी को तलाक देने का अधिकार देता है वैसा ही अधिकार बहु-विवाह की स्थिति में पति के विरुद्ध उसकी पत्नी को भी देता है। बहु-विवाह का अधिकार देते समय यह कहा गया कि "एक पति अपनी सभी पत्नियों के साथ एक जैसा व्यवहार करे। यदि ऐसा नहीं कर सकते हो तो फिर तुम्हें एक से अधिक निकाह करने का अधिकार नहीं हो सकता।" बहुविवाह की स्थिति में यदि किसी पत्नी को ऐसा लगता है कि उसका पति उसके साथ न्याय और बराबरी के साथ पेश नहीं आ रहा है तो यह किसी के सामने सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। इस्लाम में पुरुषों के तलाक के अधिकार की तरह महिलाओं को भी "खुला" लेने का अधिकार दिया गया है। चूंकि महिला अधिक भावुक होती है, इसलिए उसे अदालत को सबूतों के साथ यह बताना पड़ता है कि अब उसके लिए अपने पति के साथ रहना असम्भव हो गया है। विवेक के मामले में महिला को पुरुषों की तुलना में कमतर आंकना कहां तक ठीक है, यह बहस मुसलमानों में तीव्रता से चल रही है। मौजूदा समय में "खुला" लेने की छूट इसलिए नहीं दी जा सकती है कि इससे एक पति और एक पत्नी के बीच भी यह शुरुआत होने का खतरा है। केरल उच्च न्यायालय ने उक्त फैसला बहु-विवाह के सम्बंध में दिया है। इसलिए लगता है, फिलहाल तो एक पति और एक पत्नी के बीच यह शुरुआत नहीं होगी। लेकिन इससे एक बात साफ है कि "खुला" का दायरा और उसका महत्व बढ़ा है। अब तक मुस्लिम महिला लाचार थी, लेकिन अब उसे यह अधिकार दे दिया गया है।रामदास सोनीhttp://www.blogger.com/profile/01823504717777508844noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4117630712253592267.post-77479112510572749772010-05-27T13:37:00.002+05:302010-05-27T13:37:28.970+05:30अरुणाचल का सच : मतांतरण में जुटे हैं आतंकी गुटभारत के कुछ राज्यों में मतांतरण पर प्रतिबंध है, इनमें पूर्वोत्तर का अरुणाचल प्रदेश भी है। बावजूद इसके अरुणाचल प्रदेश में चोरी-छिपे या कुछ जगहों पर सार्वजनिक रूप से जनजातियों का मतांतरण हो रहा है। अरुणाचल प्रदेश के बारे में शेष भारत में जो जानकारी लोगों को है उससे लोग यही जानते हैं कि अरुणाचल प्रदेश के ज्यादातर लोग ईसाई हैं। कुछ लोग सोचते हैं कि अरुणाचल प्रदेश के लोग बौद्ध हैं। हाल ही में बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा जब अरुणाचल प्रदेश के तवांग बौद्ध मठ के दौरे पर आए तब ऐसा लग रहा था कि यहां के सारे लोग बौद्ध हैं। पर वस्तुस्थिति यह है कि अरुणाचल प्रदेश के कुछ जिलों में चर्च प्रेरित आतंकवादी एवं अलगाववादी संगठन एन.एस.सी.एन (आई.एम.) तथा एन.एस.सी.एन. (खाफलांग) गुटों की राष्ट्रविरोधी गतिविधियां तेज हैं। इनका एक प्रमुख काम यह भी है कि आतंक का माहौल बनाकर स्वधर्मनिष्ठ, प्रकृतिपूजक सरल जनजातियों को ईसाई मत की ओर धकेलना। दूसरा प्रमुख काम है- छापामार लड़ाई के द्वारा नागालैण्ड एवं उससे सटे हुए असम (उत्तर कछार एवं कार्विआंग्लांग जिला) एवं मणिपुर प्रान्त के नागा जनजाति के क्षेत्रों को वृहत्तर नागालैण्ड या नागालिम में शामिल करना। यह 1947 से लगातार चल रहा है। 1987 से उत्तर पूर्व के सबसे ताकतवर आतंकी गुट एन.एस.सी.एन. (आई.एम.) का केन्द्र सरकार के साथ युद्धविराम समझौता है। एक बार समय सीमा खत्म होने के बाद दोबारा समय सीमा बढ़ाई जाती है। उधर इस गुट के शीर्ष नेता इसाक चीस्वू एवं थांग्लांग मिनाबा केवल शांति वार्ता के समय भारत सरकार के अतिथि के रूप में भारत आते हैं, बहुचर्चित नागा शांति-वार्ता में शामिल होते हैं एवं वार्ता के बाद उनके यूरोप के एमस्टर्डम वापस चले जाते हैं। इन दिनों भी केन्द्र सरकार के साथ उनकी शान्ति वार्ता चालू है। अब तक लगभग पचास बार शान्ति वार्ता हो चुकी है, पर परिणाम शून्य ही रहा है। लेकिन इस बीच जनता एवं सुरक्षा बलों को मिलाकर 25 हजार से अधिक लोग इन गुटों की हिंसा का शिकार बन चुके हैं। शांति वार्ता के चलते नागा आतंकी गुटों के बीच आपसी लड़ाई में भी 500 नागा युवकों को जान से हाथ धोना पड़ा। यह एक कड़वा सच है। इस बार "ऑल नागा स्टूडेंट्स यूनियन" एवं कुछ जनजाति समाज के नेताओं ने भी दबाव डाला है, ताकि नागा गुटों के बीच संघर्ष बंद हो। इस बार की वार्ता में क्या सफलता मिलती है, यह तो कुछ ही दिनों में साफ हो जायेगा। वार्ता के दौरान स्वयं गृहमंत्री पी. चिदम्बरम कुछ कहने से बचते रहे। इस बार श्री पाण्डे नए मध्यस्थ थे। इससे पूर्व केन्द्रीय गृहसचिव पद्मनाभैया कुछ समय के लिए शांति वार्ता के मध्यस्थ थे। मगर उस समय स्थिति और भी बिगड़ी थी। मणिपुर के लोगों ने इस डर से विरोध प्रदर्शन करके काफी हल्ला मचाया कि उनके कुछ क्षेत्रों को वृहत्तर नागालैण्ड में शामिल न कर दिया जाये। उधर जनजातियों के धर्म-संस्कृति की रक्षा के लिए अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम की प्रेरणा से बना "जनजाति संस्कृति सुरक्षा मंच" विक्रम बहादुर जमातिया के नेतृत्व में काफी सक्रिय है। अधिकतर जनजाति अपनी परम्परा के अनुसार उनकी भाषा में चन्द्र-सूर्य देवता को डोनी-पोलो बोलते हैं। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार अरुणाचल प्रदेश में हिन्दू 34.6 प्रतिशत व अन्य जनजाति 30.7 प्रतिशत हैं, जिनमें से अधिकतर लोग डोनी-पोलो के उपासक हैं ईसाई 18.7 प्रतिशत, मुसलमान 1.9 प्रतिशत, बौद्ध 13 प्रतिशत, सिख 0.1 प्रतिशत तथा जैन 0.1 प्रतिशत हैं। लेकिन यहां जिस तरह आतंकी गुटों की आड़ में ईसाई मिशनरियां मतांतरण में सक्रिय हैं, उससे अरुणाचल में तेजी से जनसांख्यिकी परिवर्तन का खतरा मंडरा रहा है।रामदास सोनीhttp://www.blogger.com/profile/01823504717777508844noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4117630712253592267.post-29224100961453837002010-05-27T13:34:00.002+05:302010-05-27T13:34:43.702+05:30मां तो ऐसी होनी चाहिएकहते हैं मनुष्य की सबसे पहली शिक्षक मां होती है। इसलिए जरूरी है कि उसका भी एक पाठ्यक्रम हो, ताकि वह एक आदर्श मां बन सके। यानी उसमें इतनी योग्यता हो कि वह अपने बच्चे का हर प्रकार से विकास कर एक सर्वगुण सम्पन्न मानव बना सके। जोकि भविष्य में एक आज्ञाकारी बेटा/बेटी होने के साथ-साथ सच्चा तथा ईमानदार देशभक्त भी बन सके। इस पाठ्यक्रम का सबसे पहला सबक है कि एक मां का उसके बच्चे के जीवन को संवारने में महत्वपूर्ण योगदान होता है। यदि वह चाहे तो उसे तराशकर सोना तक बना सकती है। एक पूर्ण मां वह है जो अपने बालक पर जैसा लिख दे वह वैसा ही हो जाए। यथा- मदालसा अपने तीन पुत्रों पर वैरागी लिखती है तो वे वैरागी और एक पर राजा लिखती है तो वह राजा बनता है। इसी प्रकार जीजाबाई अपने पुत्र पर शिवाजी, यशोदा कृष्ण और कौशल्या राम लिखती है, तो वे वही बन जाते हैं। एक महिला के मां बनते ही उसका शिक्षक जीवन शुरू हो जाता है, परन्तु याद रहे एक अच्छा शिक्षक वही होता है जो सदा शिक्षार्थी भी बना रहे। बालक के धरती पर जन्म लेते ही मां को उसका पाठ्यक्रम शुरू कर देना चाहिए। जैसे-जैसे बालक बड़ा होता जाए उसका परिचय उसके पिता, दादा-दादी, नाना-नानी आदि परिजनों से कराना। साथ ही उसके वंश से भी उसका परिचय कराना, फिर आगे बढक़र उसका परिचय चंदा, सूरज और ध्रुव से भी कराना। उसका परिचय हिमालय के संयम और अडिगता भी कराना। बालक को यह भी बताना कि वह गंगा की तरह चंचल और सागर की तरह गंभीर रहे। अत: बहुत जरूरी होने पर ही वह अपना संयम तोड़े। उसे यह भी बताना कि वह छायादार वृक्षों की तरह ऊपर की ओर बढ़े, मन में निराशा कभी न लाए। उसे यह भी जरूर बताइए कि वह जिस समाज में रह रहा है, वह क्या, कितना, कहां और कैसा है? उसे यह बताना भी जरूरी है कि हर आदमी का वास्तविक पिता एक ही है और वह परमात्मा है तथा सभी की असली मां यही धरती है। उसे यह भी बताइए कि वह जिन-जिन लोगों की गोद में खेला है, जिनके हाथों में झूला है, वह उन्हें बड़ा होकर भी न भूले। बालक को यह बताना भी जरूरी होगा कि कोई भी जाति अच्छी या बुरी नहीं होती, अच्छा या बुरा तो आदमी होता है। इसलिए जरूरी है कि वह एक अच्छा आदमी बने। उसे यह भी बताना होगा कि वह संसार का सबसे धनिक व्यक्ति होने पर भी संसार के सबसे न्यूनतम स्तर के आदमी जितना ही उपभोग करे। उसे यह भी बताना कि वह खाद्य वस्तुओं को सब में बांटकर खाए। उसे यह भी बताइए कि वह अच्छी और बुरी बातों में भेद करना शुरू करे, यह उसकी प्रगति के लिए अच्छा साबित होगा। उसे बताना होगा कि गलत आदमी को मारने के लिए ही नहीं, बल्कि समझाने के लिए भी शक्तिशाली होना जरूरी है। उसे बताइएगा कि वह जोश में होश कभी न खोए। जीवन में वह शक्ति के संतुलन को भी समझे। उसे यह बताना भी जरूरी है कि उसका सामना गलत रास्तों पर ले जाने वाले गलत लोगों से जरूर होगा और जब ऐसे लोगों से उसका सामना होगा तो उसके साथ कोई नहीं होगा। ऐसे में उसे अकेले ही अपना बचाव करना होगा। उसे जीवन के हर रहस्य को समझने के लिए प्रेरित करना होगा। उसे सम्पन्नता और विपन्नता में समान रूप से रहने के लिए बताएं। ध्यान रहे उसमें अहंकार के अकुंर कभी भी पैदा न हों। परन्तु सबसे पहले बालक इन सब बातों को अपनी मां में देखना शुरू करेगा। इसलिए मां इसे वास्तव में एक सर्वगुण सम्पन्न व्यक्ति बनाना चाहती है तो इन सब बातों पर अमल करने की उसे स्वयं शुरुआत करनी होगी।रामदास सोनीhttp://www.blogger.com/profile/01823504717777508844noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4117630712253592267.post-33304319243103919152010-05-24T16:13:00.001+05:302010-05-24T16:13:32.660+05:30नेताजी सुभाषचन्द्र बोस : आजादी के महानायकयद्यपि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में भारत माता ने ऐसे अनेक नर-पुंगवों को जन्म दिया था, जिनकी तुलना विश्व के किसी अन्य देश से नहीं की जा सकती। किन्तु इसके बावजूद इसे अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध संचालित राष्ट्रीय आन्दोलन की त्रासदीपूर्ण विडम्बना ही कहा जाएगा कि आवेदनकर्ता, उदारवादी, संविधानवादी, राष्ट्रवादी, क्रान्तिकारी, जनान्दोलनकारी धाराओं के पुरोधा एक-दूसरे के पूरक न बन सके। फलत: भारत माता को बन्धनमुक्त कराने में केवल एक सुदीर्घ कालखण्ड ही व्यतीत नहीं हुआ, अपितु स्वातंत्र्य देवी का पदार्पण भी मातृभूमि के पातकीय विभाजन के साथ हुआ। इस विषय में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की यह टिप्पणी अत्यंत महत्वपूर्ण है कि दुनिया के अन्यान्य देशों में 'अन्य नेतागण अपने-अपने देश को कम अनुयायियों के साथ और अल्प कालावधि में स्वतंत्र कराने में सफल रहे हैं। (देखिए, नेताजी-कलेक्टिड वर्क्स, खण्ड-2, 1981, पृष्ठ 329)। इस दुर्भाग्यपर्ण स्थिति का मुख्य कारण वर्ष 1920 में लोकमान्य तिलक के असामयिक निधन के उपरान्त राष्ट्रीय आन्दोलन का संचालन मूलत: पाश्चात्य राजनीतिक सिद्धान्तों और मनोरचना के आधार पर किया जाना है और उसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय आन्दोलन के मूर्धन्यतम नेता ने अपने से मत-भिन्नता रखने वाले प्रत्येक राजनेता और राजनीतिक समूह को अपना विरोधी मानकर उनको नेस्तोनाबूद करने में अपने प्रयासों की पराकाष्ठा कर दी। एक संक्षिप्त लेख के कलेवर में इस कुचक्र का शिकार बनने वाले महापुरुषों का नामोल्लेख तक कर पाना सम्भव नहीं है, फिर भी यह उल्लेखनीय है कि 23 जनवरी, 1897 को अवतरित हुए और अपने सम्पूर्ण जीवन की आहुति भारत माता के बन्धन काटने में चढ़ा देने वाले सुभाष बाबू उनमें से एक ऐसे अत्यन्त प्रमुख राजनेता हैं, जो 1916 में प्रेसीडेंसी कालेज, कोलकाता से उस वक्त निष्कासित कर दिए गए थे जब वे बी.ए. के विद्यार्थी थे। वर्ष 1919 में दर्शन शास्त्र विषय में प्रथम श्रेािी में बी.ए. (आनर्स) की उपाधि कलकत्ता विश्वविद्यालय से अर्जित करने के बाद इंग्लैण्ड में मात्र आठ मास के अध्ययन उपरान्त आई.सी.एस. की प्रतियोगात्मक परीक्षा उतीर्ण कर उन्होंने योग्यता सूची में चतुर्थ स्थान प्राप्त किया। किन्तु ब्रिटिश शासन की पराधीनता से घोर वितृष्णा के कारण अप्रैल, 1921 में इंग्लैण्ड में अपने निवास के दौरान ही उससे त्यागपत्र दे दिया। जुलाई, 1921 में भारत आने पर सर्वप्रथम वे गांधी जी से मिले, किन्तु उनसे हुए वार्तालाप से सन्तुष्ट न होने के कारण उन्होंने कलकत्ता जाकर देशबन्धु चित्तरंजनदास से भेंट की और उनके सम्पूर्ण जीवन-काल में वे उनके अत्यंत निष्ठावान अनुयायी बने रहे। महात्मा जी को सुभाष बाबू का यह कार्य रुचिकर नहीं लगा, क्योंकि 1923 में धारा सभाओं अथवा काउंसिल प्रवेश को लेकर इनके देशबन्धु के साथ इतने गम्भीर मतभेद हो गए थे कि 1924 से 1928 के दौरान गांधी जी ने अपने-आपको राजनीतिक गतिविधियों से पूरी तरह अलिप्त कर लिया था। सुभाष बाबू को भारतीय राजनीतिक क्षितिज से तिरोहित करने की पराकाष्ठा यद्यपि जनवरी, 1939 में उनके द्वारा डा. पट्टाभि सीतारमैय्या को पराजित करने की घटना से सम्बंधित है, क्योंकि उस समय महात्मा जी और उनके समर्थकों ने मार्च, 1939 के कांग्रेस अधिवेशन में अध्यक्ष के रूप में सुभाष बाबू द्वारा प्रस्तुत छह मास में भारत को स्वाधीनता देने से संबंधित अन्तिमेत्थम्-प्रस्ताव न केवल ठुकरा दिया था, अपितु उसके साथ ही कांग्रेस कार्यसमिति का गठन करना भी असम्भव बना दिया था। दुर्विपाक से कांग्रेस के अन्दर क्रियाशील समाजवादी समूह भी सुभाष बाबू के विरोध में आ डटा था। इसके पूर्व सितम्बर, 1938 में जर्मनी और ब्रिटेन के बीच हुए कथित म्यूनिख समझौते के तुरन्त बाद जब कांग्रेसाध्यक्ष के रूप में सुभाष बाबू ने सम्पूर्ण देश में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध खुला संघर्ष करने के उद्देश्य से देशवासियों में बड़े पैमाने पर अपना अभियान आरम्भ किया तब उसका भी खुला विरोध गांधी जी के अनुयायियों द्वारा किया गया, क्योंकि प्रान्तीय स्वायत्तता के अन्तर्गत सत्ता संभालने वाले कांग्रेस के राजनेता अपना मंत्री पद खतरे में डालने को सिद्ध नहीं थे। फलस्वरूप सुभाष बाबू ने 29 अप्रैल, 1939 को कांग्रेसाध्यक्ष पद और कांग्रेस से त्यागपत्र देकर फारवर्ड ब्लाक नामक संस्था की स्थापना की थी। (देखिए, वही, पृ. 371-373)। इसके पूर्व भी पूर्ण स्वाधीनता के प्रस्ताव को लेकर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के विरुद्ध एक जबरदस्त अभियान चलाया गया था। देश और विदेश में बहुत कम लोगों को इस सच्चाई की जानकारी होगी कि कांग्रेस के द्वारा पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव वर्ष 1929 के अन्त में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में सम्पन्न कांग्रेस अधिवेशन के पूर्व ही पारित किया जा चुका था। तथ्य यह है कि इस घटना के कई वर्ष पूर्व कांग्रेस में बढ़ती हुई युवा शक्ति के जबरदस्त आग्रह पर प्रान्तीय कांग्रेस समितियां पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव पारित कर अखिल भारतीय कांग्रेस महासमिति से उसे सार्वदेशिक स्तर पर स्वीकार करने का अनुरोध कर रही थीं। फलत: दिसम्बर, 1927 के अन्त में मद्रास में डा. एम.ए. अंसारी की अध्यक्षता में सम्पन्न कांग्रेस अधिवेशन में पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया गया था। किन्तु गांधी जी ने अधिवेशन समाप्ति के तुरन्त बाद एक सार्वजनिक वक्तव्य में यह घोषणा की कि उक्त प्रस्ताव 'जल्दबाजी में बिना गम्भीर विचार-विनिमय के पारित किया गया है।' यद्यपि महात्मा जी स्वयं मद्रास कांग्रेस में उपस्थित नहीं थे। तदुपरान्त 1928 में सर्वदलीय सम्मेलन में मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में बनी सांविधानिक समिति ने बहुमत से कांग्रेस का लक्ष्य पूर्ण स्वाधीनता के स्थान पर 'डोमिनियन स्टेटसÓ प्राप्त करने की सिफारिश की थी। किन्तु सुभाष बाबू और उनके समर्थकों को वह स्वीकार्य नहीं था। अत: दोनों पक्षों में सहमति बनाने के लिए नवम्बर, 1928 में मोतीलाल नेहरू ने एक फार्मूला प्रस्तुत किया, जिसे गांधीजी सहित सुभाष बाबू और दोनों के समर्थकों ने स्वीकार कर लिया। किन्तु दिसम्बर, 1928 में आयोजित कलकत्ता कांग्रेस ने महात्माजी ने मोतीलाल नेहरू के दिल्ली-फार्मूले को मानने से इनकार कर दिया। इसके परिणामस्वरूप पूर्ण स्वाधीनता और 'डोमिनियन स्टेटस' के प्रश्न को लेकर अधिवेशन में मतदान हुआ। गांधी जी के समर्थकों द्वारा जोर-शोर से यह प्रचार करने के कारण कि यदि 'डोमीनियन स्टेटस' को अस्वीकृत किया गया तो गांधी जी कांग्रेस की गतिविधियों से अपने आपको सर्वदा के लिए अलग कर लेंगे, मतदान में 'डोमीनियम स्टेटसÓ के पक्ष में 1350 मत और पूर्ण स्वाधीनता के समर्थन में 973 मत आए। (देखिए, वही, पृ. 161-175)। किन्तु इसके एक वर्ष बाद दिसम्बर 1929 में लाहौर में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में स्वयं गांधी जी ने पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव प्रस्तुत किया, जोकि मद्रास कांग्रेस की ही भांति सर्वसम्मति से पारित हुआ था। (देखिए, वही, पृ. 192)। सुभाष बाबू के विरुद्ध इससे भी बड़ा गुनाह देश की स्वाधीनता प्राप्ति का श्रेय उन्हें और उनके नेतृत्व में युद्ध-क्षेत्र के अन्दर अद्वितीय वीरता दिखाने वाले आजाद हिन्द फौज के जवानों को न देकर इस मिथ्या-प्रचार को जाता है कि भारत को स्वतंत्रता अहिंसा के मार्ग से गांधी जी के नेतृत्व में प्राप्त हुई है। इस पर टिप्पणी करते हुए सुप्रसिद्ध काकोरी काण्ड के एक अप्रतिम स्वतंत्रता सेनानी शचीन्द्रनाथ बख्शी ने वर्ष 1964 में एक लेख के माध्यम से कहा था कि 'अहिंसा से ही मुल्क आजाद हुआ', इस झूठे प्रचार के बाद, आज ऐसा समय आ गया है जब अहिंसा का प्रचार करना देशद्रोह समझा जाने लग गया है।' (देखिए, शचीन्द्रनाथ बख्शी- 'वतन पे मरने वालों का....Ó पृष्ठ 92)। इसी भांति क्रान्तिकारी आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी करने वाले मन्मथनाथ गुप्त और सुप्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफेसर आर.सी. मजूमदार ने स्वाधीनता-प्राप्ति का श्रेय नेताजी को दिए जाने की पुष्टि की है। प्रोफेसर मजूमदार ने अंग्रेजी भाषा के अपने ग्रन्थ 'भारत में स्वाधीनता का इतिहास-खण्ड 3 के पृष्ठ 609-610 पर लिखा है कि 1947 में स्वतंत्रता-प्राप्ति में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का योगदान महात्मा गांधी से किसी भी प्रकार कम नहीं था, सम्भवत: वह उससे अधिक महत्वपूर्ण था। ' इस सन्दर्भ में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कथन भारत को स्वतंत्रता प्राप्त होने के समय ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली के हैं, जिनके शासन काल में देश स्वतंत्र हुआ। फरवरी, 1947 में ब्रिटेन के हाउस आफ कामन्स में भारत को स्वाधीन करने के विषय में उन्होंने स्पष्ट शब्दों में घोषणा की थी कि ब्रिटेन भारतीयों को स्वतंत्रता दे रहा है, क्योंकि अब भारतीय सेना ब्रिटिश राजसत्ता के प्रति राजभक्त नहीं रही है और ब्रिटेन भारत को अपने अधीन बनाये रखने के लिए अंग्रेजों की बहुत बड़ी सेना को भारत में रखने की स्थिति में नहीं है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली की इस विवशता की पुष्टि आजाद हिन्द फौज के सेनाधिकारियों के विरुद्ध कोर्ट मार्शल की कार्रवाई का भारतीय सेनाधिकारियों द्वारा एक स्वर से विरोध करने-जिसके फलस्वरूप ब्रिटिश राज्य सत्ता को अपनी योजना रद्द करनी पड़ी, 20 जनवरी, 1947 को कराची में भारतीय वायुसेना के द्वारा प्रारम्भ की गई हड़ताल और उसके लाहौर, मुम्बई और दिल्ली में फैल जाने, 29 फरवरी, 1947 को मुम्बई में नौसेना के 5000 जवानों द्वारा आजाद हिन्द फौज के बिल्ले लगाकर हड़ताल करने तथा कलकत्ता, दिल्ली, मद्रास और कराची के उसकी चपेट में आने की आशंका, मुम्बई में हड़ताली नौसैनिकों द्वारा अंग्रेज सेनाधिकारियों की गोलियों का जवाब सात घंटे तक गोलियों से देने और अन्तत: लार्ड वेवेल द्वारा सरदार पटेल की मध्यस्थता से समझौता करने आदि की घटनाओं से हो जाता है। इतना ही नहीं, बीसवीं शताब्दी में साठ के दशक में जब क्लीमेंट एटली लार्ड के रूप में भारत यात्रा पर आए तब वे कलकत्ता के राजभवन में राज्यपाल के मान्य अतिथि बनकर 3 दिन रुके थे। उस समय राज्यपाल महोदय ने लार्ड एटली से जब यह जानकारी चाही कि 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के पूरी तरह विफल हो जाने और दूसरे महायुद्ध में ब्रिटेन और उसके मित्र-राष्ट्रों को निर्णायक विजय प्राप्त हो जाने पर भी ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने भारत को स्वतंत्र करने का निर्णय क्यों लिया? तब इस पर लार्ड एटली का उत्तर था कि इसके अनेक कारण थे जिनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की भूमिका थी जिसने भारत की थल और नौसेना की ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठा के आधार को ही पूरी तरह हिला दिया था। इस पर जब राज्यपाल ने उनसे आगे यह जानकारी प्राप्त करनी चाही कि इस महत्वपूर्ण परिवर्तन में गांधी जी का कितना योगदान था तब उसे सुनकर एटली के होंठ एक तिरस्कारपूर्ण मुस्कान के साथ फैल गए और उन्होंने धीरे-धीरे अपने एक-एक अक्षर पर जोर देते हुए कहा कि न्यूनतम। इससे स्पष्ट है कि भारत को राजनीतिक आजादी प्राप्त कराने में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और उनके नेतृत्व में सक्रिय आजाद हिन्द फौज की निर्णायक भूमिका रही है। इतिहास की इस सच्चाई को उनके 113 वें जन्म दिन के पावन अवसर पर पहचानने की सर्वाधिक आवश्यकता है।रामदास सोनीhttp://www.blogger.com/profile/01823504717777508844noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4117630712253592267.post-54428597232118699902010-05-24T16:04:00.000+05:302010-05-24T16:04:06.781+05:30फिर धमाके का दुस्साहसमुंबई हमलों के बाद शांति थी, लेकिन नए आतंककारी हमले ने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया है। आंतरिक सुरक्षा पर दिल्ली में हाल ही में सम्पन्न मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में आतंकवाद व नक्सली आंदोलन जैसी समस्याओं से निपटने के लिए केन्द्र और राज्यों के बीच सहयोग बढाने की जरू रत बताई गई। इससे पहले केन्द्रीय गृहमंत्री ने अपने उद्घाटन भाषण में कश्मीर के हालात का उल्लेख करते हुए कहा था कि वहां हिंसक घटनाएं कम हुई हैं, हालांकि घुसपैठ बढी है। सम्मेलन में इस बात पर संतोष जताया गया था कि 26/11 के बाद से कोई आतंककारी हमला नहीं हुआ है और सरकार ने आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए कई कदम उठाए हैं। लश्कर-ए-तैयबा व उसके सहयोगी संगठनों के संभावित आतंककारी हमलों की चेतावनी व संकेतों को ध्यान में रखकर इस पर औपचारिक चर्चा भी होनी चाहिए थी। हाल ही में आजमगढ से पकडे गए शहजाद अहमद से पूछताछ में मिली जानकारी भी स्पष्ट चेतावनी थी। उसने पूछताछ में कहा बताया कि जिन स्थानों पर विदेशी पर्यटकों का आवागमन ज्यादा होता है, वहां इंडियन मुजाहिदीन हमले की साजिश रच रहा है। इन स्थानों में गोवा और आगरा तो थे ही, कई प्रमुख होटल व रेस्टोरेंट भी संभावित लक्ष्यों में शामिल थे, जहां विदेशी पर्यटक अक्सर आते-जाते या ठहरते हैं। इन स्थानों में पुणे की जर्मन बेकरी भी शामिल थी, जिसके पास ही ओशो आश्रम स्थित है। अमरीकी गुप्तचर एजेंसियों ने भी आतंककारियों के ऐसे ही संभावित हमले की सूचना दी थी। अमरीका ने तो भारत आने वाले अमरीकी पर्यटकों को भीडभाड वाले स्थानों से बचने व बेहद सतर्कता बरतने की सलाह भी जारी कर रखी है। इस सबके बावजूद लगता है कि पर्याप्त सतर्कता नहीं बरती गई। पाकिस्तान आधारित आतंककारी गुटों के निशाने पर पुणे भी है, यह तो लश्कर के डेविड कोलमेन हेडली के दो बार पुणे आने और वहां अब हुए विस्फोट स्थल के पास के एक होटल में ठहरने की जानकारी से ही साफ था। ओशो आश्रम और यहूदियों का उपासना स्थल इस स्थान के निकट होने के कारण वहां विशेष रू प से असाधारण उपाय किए जाने चाहिए थे। अहमदाबाद में वर्ष 2008 में हुए बम विस्फोटों के बाद से ही पुणे को इस्लामी आतंककारी गुटों का एक बडा ठिकाना माना जाता है। तब वहां पुलिस ने स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) से जुडे आतंककारियों के मददगारों को गिरफ्तार किया था। गिरफ्तार लोगों ने पूछताछ में बताया था कि वे कुख्यात आतंककारी तौकीर को जानते हैं, जो पुणे के आजम परिसर में अक्सर आता रहता था। इस परिसर में कई कॉलेज हैं, जिनमें उक्त गिरफ्तार लोगों में से भी कुछ पढते थे। भारतीय गुप्तचर एजेंसियों के पास भी ऐसी सूचनाएं थीं कि भटकल बंधु रियाज व इकबाल और अब्दुस सुभान कुरैशी उर्फ तौकीर जैसे इंडियन मुजाहिदीन के मुखिया इस इलाके में सक्रिय हैं, हालांकि अब ऐसी सूचनाएं हैं कि ये तीनों अब पाकिस्तान में हैं। निश्चय ही पुणे में इंडियन मुजाहिदीन के ढांचे को पूरी तरह खत्म कर देना चाहिए। गुप्तचर एजेंसियों को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि इनके मददगार (स्लीपर सैल्स) बचने न पाएं। अहमदाबाद, दिल्ली व जयपुर में हुए बम विस्फोटों और सूरत में बरामद बिना फटे बमों के मामलों की जांच और विस्फोटों से पहले तथा बाद में भेजे गए ई-मेल के आधार पर पुलिस ने इंडियन मुजाहिदीन के 21 संदिग्ध लोगों को गिरफ्तार किया गया था। ऐसे 6 अन्य लोग फरार हैं। इन 21 में से कम से कम 7 या तो पुणे के रहने वाले हैं या वहां से गिरफ्तार हुए हैं। पांच अन्य गिरफ्तार लोग पुणे आ-जा चुके थे और हमलों की साजिश रचने वालों के सहयोगी थे। जांच एजेंसियों ने इंडियन मुजाहिदीन के सदस्यों के खिलाफ जो आरोप तय किए हैं, उनमें पुणे के अशोका म्यूज क्षेत्र में स्थित एक अपार्टमेंट में बम तैयार कर उन्हें लक्ष्य स्थलों तक पहुंचाने का आरोप भी शामिल है। निश्चित रू प से पूरे देश में नहीं, पुणे में भी इंडियन मुजाहिदीन को खत्म करने के लिए यह पर्याप्त नहीं है। सबसे अधिक विक्षुब्ध करने वाला तथ्य यह है कि इतनी सारी जानकारी और गुप्तचर सूचनाओं के बावजूद आतंककारियों के सबसे ज्यादा संभावित हमलों के स्थलों पर सामान्य एहतियाती उपाय तक नहीं किए गए। जनता में जागरूकता की कमी है और जो आम लोग अखबार नहीं पढते या टीवी के न्यूज चैनल नहीं देखते, उन्हें क्या सतर्कता बरतनी चाहिए, यह जानकारी उपलब्ध नहीं कराई जाती। यह इस बम विस्फोट का सबसे बडा कारण है। यदि आम आदमी को इस बारे में जागरूक और शिक्षित नहीं किया गया, तो ऐसे बम विस्फोट भविष्य में भी जारी रह सकते हैं। पुणे में इस शनिवार को हुए विस्फोट में वह सुपरिचित तरीका अपनाया गया, जैसा पहले भी कई बम विस्फोटों में अपनाया जा चुका था। लेकिन इस बार विस्फोट के निशाने पर विदेशी पर्यटक थे, इसलिए स्पष्ट है कि इसमें विदेशी हाथ ही होगा। लश्कर-ए-तैयबा भारतीयों का उपयोग कर विश्व को यह बताना चाहता है कि पाकिस्तान या अन्य कोई नहीं स्वयं भारतीय ही विस्फोटों के लिए जिम्मेदार हैं। यह विस्फोट इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि पाकिस्तान से बातचीत फिर शुरू करने की भारत की पेशकश के शीघ्र बाद यह किया गया है। इसका बातचीत पर क्या असर पडेगा, इस बारे में अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी, लेकिन इसके बाद भारत वार्ता में निश्चित रूप से अन्य मामलों की तुलना में आतंकवाद को अधिक ध्यान में रखेगा। वार्ता रद्द करना सही कदम नहीं होगा, क्योंकि ?सा करके तो हम आतंककारियों के हाथों में खेलेंगे, जो उपमहाद्वीप में शांति नहीं चाहते। देशवासियों की नजर इस ओर रहेगी कि सरकार विस्फोट के लिए जिम्मेदार लोगों को पकडने के लिए क्या कदम उठाती है। सरकार की ओर से सभी प्रयासों के बावजूद आतंककारी कुछ और विस्फोट या हमले करने में सफल हो सकते हैं। जनता को हर कीमत पर विभिन्न समुदायों में शांति सद्भाव कायम रखना चाहिए।रामदास सोनीhttp://www.blogger.com/profile/01823504717777508844noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4117630712253592267.post-46902825934923653052010-05-24T15:55:00.000+05:302010-05-24T15:55:34.547+05:30श्रीगुरूजी : एक अनजाना पहलू यह भी(यह लेख आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक श्रद्धेय श्री सुदर्शनजी द्वारा लिखित है।)<br />
पूजनीय गुरुजी के जून सन् 1973 में दिव्यलोकगमन के पश्चात् उस समय उपलब्ध उनके विचारों के संकलन एवं प्रकाशन का कार्य प्रारम्भ हुआ और 'श्री गुरुजी-समग्र दर्शनमाला का भाग-6 सर्वप्रथम मुद्रित हुआ। सन् 1974 के वर्षप्रतिपदा से प्रांत-प्रांतों में उसके विमोचन के कार्यक्रम आयोजित हुए। इंदौर के इस कार्यक्रम में पूजनीय गुरुजी के ज्येष्ठ गुरुभाई स्वामी अमूर्तानन्द जी के सान्निध्य-लाभ का सौभाग्य हम लोगों को प्राप्त हुआ। पुस्तक विमोचन के कार्यक्रम के उपरांत अनौपचारिक बातचीत में मैंने पूजनीय स्वामीजी से पूछा कि पूजनीय गुरुजी की आध्यात्मिक उपलब्धि क्या थी? पहले तो उन्होंने बताने से मना किया, किन्तु मेरे अधिक आग्रह करने पर कि पूजनीय गुरुजी की अध्यात्म साधाना के आप ही प्रेरक, कारक तथा दर्शक रहे हैं और इसलिए आप नहीं बतायेंगे तो पूजनीय गुरुजी का यह पहलू अनावृत ही रह जाएगा। क्या यह उचित होगा? चिकित्सकों की परेशानी मेरे इस आग्रह के पश्चात् उन्होंने कहा कि पूजनीय गुरुजी ने अपनी आत्मा को शरीर के किसी भाग से अलग कर लेने की क्षमता प्राप्त कर ली थी और इसलिए शरीर के किसी भाग में हुई व्याधि की पीड़ा इच्छा होने पर उन्हें सता नहीं पाती थी। तुरन्त मुझे महर्षि रमण का स्मरण हो आया। महर्षि रमण को भी कर्क-रोग हो गया था और वे तमिलनाडु स्थित अरुणाचलम् से बाहर नहीं जाते थे। अत: चेन्नै शासन ने वहीं अस्थायी शल्यक्रिया कक्ष खड़ा किया व चेन्नै से ख्यातनाम शल्य चिकित्सकों को वहाँ भेजा। जब शल्यक्रिया प्रारंभ करने का समय आया, तब चिकित्सकों ने महर्षि रमण को मूर्च्छावस्था में ले जाना चाहा, जिसे करने से उन्होंने मना कर दिया और बिना संज्ञा-हरक के ही शल्यक्रिया करने के लिए कहा। शल्य चिकित्सक शल्यक्रिया करने में जुट गए, किन्तु उनके सामने एक समस्या खड़ी हो गई। जब कर्क रोग की गांठ को काटते हैं, तब तो मृत कोशिकाएँ होती हैं, उन्हें काटने पर तो वेदना नहीं होती, किन्तु जब जीवित कोशिकाओं से शल्य स्पर्श करता है, तब वेदना से मुँह से सिसकारी या चीख निकलती है या मूर्च्छावस्था में शरीर में हलचल होती है जिससे चिकित्सकों को ज्ञात हो जाता है कि वहाँ जीवित कोशिका है। किन्तु महर्षि रमण के मुँह से सिसकारी भी नहीं निकल रही थी। अत: डाक्टरों की परेशानी यह थी कि पता कैसे लगे कि कौन-सी कोशिकाएँ मृत हैं और कौन सी जीवित? असंपृक्त चिकित्सकों ने अपनी परेशानी महर्षि रमण के सामने रखी तो उन्होंने कहा : 'जिस शरीर पर तुम शल्यक्रिया कर रहे हो, वह मैं नहीं हूँ। मैंने अपने आपको शरीर से असंपृक्त कर रखा है और वेदना तो शरीर को होती है।'चिकित्सकों के अनुनय करने पर यह समझौता हुआ कि जब जीवित कोशिकाओं को शल्य स्पर्श करे तो वे अंगुलि उठाकर संकेत कर दें। इस प्रकार करने पर ही शल्यक्रिया पूरी हो सकी थी। दूसरी घटना रामकृष्ण मिशन के स्वामी तुरीयानन्द जी की है। उनकी पीठ में दुष्ट व्रण (कारबंकल) हो गया था और उसकी शल्यक्रिया करने का निश्चय हुआ। दूसरे दिन जब उन्हें मूर्च्छावस्था में ले जाने की तैयारी हुई तब स्वामी जी ने कहा कि मूर्छित किए बिना ही शल्यचिकित्सा करो। सारी क्रिया ठीक तरह से सम्पन्न हुई। दूसरे दिन जब घाव को साफ करने के लिए डाक्टर गए तो पाया कि एक छोटा-सा टुकड़ा बच गया है। उन्होंने सोचा कि निकाल दें। पर ज्यों ही निकाला तो स्वामी जी के मुंह से जोर की चीख निकली। डाक्टर हतप्रभ हो गए। उन्होंने कहा : 'स्वामी जी कल सारा व्रण निकाला, तब तो आप शान्त रहे, आज छोटा-सा बचा टुकड़ा निकालने पर चीख क्यों पड़े?Óतब स्वामी जी ने उत्तर दिया कि 'पहले बताते तो मैं अपने-आप को शरीर के उस भाग से समेट लेता। कल मैंने वैसा ही किया था इसलिए वेदना नहीं हुई।'डा. परांजपे की भूल पूजनीय गुरुजी के कर्क की गठान पर जब शल्यक्रिया हुई तब उन्हें मूर्चि्छत तो अवश्य किया गया, किन्तु जैसे ही संज्ञा-हरक का प्रभाव समाप्त होकर वे होश में आए, त्यों ही कमरे से बाहर निकलकर आस-पास के कमरों में जाकर रोगियों का हालचाल पूछने लगे। शल्यचिकित्सा के पश्चात् पूजनीय गुरुजी ने नागपुर में मा. बाबासाहब घटाटे के यहाँ कुछ दिन विश्राम किया, जहाँ घाव की साफ-सफाई करने के लिए डा. रामदास परांजपे रोज जाया करते थे। डा. परांजपे साफ-सफाई करते और उधर पूजनीय गुरुजी के मुँह से हास्यविनोद की फुलझडिय़ाँ झड़तीं और चारों ओर प्रसन्नता का वातावरण बन जाता। एक दिन डा. परांजपे के हाथ से अनजाने में एक भूल हो गई। रक्त से सने कपास के टुकड़े को निकालते समय उस टुकड़े के स्थान पर मांस का खंड चिमटी की पकड़ में आ गया और रक्त बह चला। यह देखकर सभी के मुँह से सीत्कार फूट पड़ा। डा. परांजपे का मन भी ग्लानि से भर गया और वे अपनी प्रमाद के लिए पूजनीय गुरुजी से क्षमायाचना करने लगे। असहनीय पीड़ा में भी प्रफुल्लता डा. परांजपे की भावनाओं को सहलाते हुए श्री गुरुजी ने बड़े शांत चित्त से उत्तर दिया : 'आप व्यर्थ ही मन में कष्ट मान रहे हैं। कपास के टुकड़े और मांस में मेरे लिए कोई अंतर नहीं है। मेरे लिए दोनों समान हैं। जब आप घाव को साफ करते हैं, तब तक मेरा मन शरीर से अलग रहता है और जब मन शरीर से अलग रहता है तब शारीरिक पीड़ा का अनुभव नहीं होता। 'डा. श्रीधर भास्कर वर्णेकर लिखते हैं : 'यह सब जानते हैं कि कर्करोग की शल्यक्रिया के बाद भी गुरुजी के शरीर में बहुत जलन रहा करती थी और कष्ट भी अपार था, पर उनसे बात करते समय कोई भी अनुमान नहीं लगा पाता था कि उन्हें इतनी अधिक पीड़ा है। प्रफुल्ल मुखाकृति की छाप लेकर ही गुरुजी के पास से लोग लौटा करते। 'आगे चलकर अकड़ी बाँह की अग्निदग्धा चिकित्सा पुणे में कराई गई। उसे कराते समय उन्होंने संज्ञा-शून्य करने से मना कर दिया। जब अग्नि से दाग दिया जाता था तब मांस जलने की 'चर्रर्' की आवाज आती थी, पूजनीय गुरुजी के निजी सचिव डा. आबाजी थत्ते तक उस दृश्य को देख नहीं सके और कमरे से बाहर चले गए, किन्तु पूजनीय गुरुजी ने शांतचित्त से सब सहा। रोग का कारण पूजनीय गुरुजी को कर्करोग होने का क्या कारण रहा होगा? इस संबंध में पूजनीय गुरुजी के साथ एक वार्तालाप का स्मरण होता है। अनौपचारिक बातचीत में उनसे प्राणायाम के संबंध में चर्चा चल पड़ी। उन्होंने बताया कि 'प्राणायाम किसी योग्य गुरु के निर्देशन में ही किया जाना चाहिए। प्राणायाम की क्रिया में पूरक (श्वास अंदर लेना) और रेचक (श्वास बाहर छोडऩा) तो विशेष हानिकारक नहीं हैं किन्तु कुंभक (श्वास रोके रखना) अतीव सावधानी की अपेक्षा रखता है। ठीक विधि से प्राणायाम क्रिया करने पर प्राण नियंत्रित होता है, किन्तु यदि उसमें गड़बड़ हुई तो प्राण नियंत्रित होने के स्थान पर कुपित हो सकता है।Óऔर यह कहते हुए उन्होंने अपने खुद का अनुभव सुनाया। उन्होंने कहा : 'मैं रोज संध्या करते समय प्राणायाम भी किया करता था। एक दिन कक्ष का द्वार केवल भिड़ा हुआ था। मैं जब कुंभक की स्थिति में था तब शरीर किसी भी प्रकार का धक्का सहन करने की स्थिति में नहीं था। उसी समय मेरी चार वर्ष की नातिन अंदर आई और मेरी पीठ पर लद गई। उसके कारण छाती में बायीं ओर जो दर्द शुरू हुआ वह आज तक नहीं गया।Óआगे चलकर हमने देखा कि उसी स्थान पर कर्क की गठान उभरी। साक्षात्कार पूजनीय गुरुजी को साक्षात्कार हुआ था या नहीं, इस संबंधा में महाराष्ट्र के एक संत श्री दत्ता बाळ ने श्रध्दांजलि सभा में कहा था : 'मेरे व्याख्यानों का कार्यक्रम जब नागपुर में आयोजित हुआ, तब मैंने देखा कि एक दाढ़ी-मूँछ व लंबे केशवाले सज्जन कार्यक्रम में आए हैं। मैंने अपने साथियों से पूछा कि वे कौन हैं? तब बताया गया कि वे गुरुजी गोलवलकर हैं। मुझे आश्चर्य हुआ, क्योंकि मेरे मन में उनके प्रति कोई आदर का भाव नहीं था। किन्तु उन्हें अपने कार्यक्रम में देखकर मुझे कौतूहल हुआ और दूसरे दिन उनसे मिलने डा. हेडगेवार भवन चला गया। उनसे एकांत में वार्तालाप में मैंने योग संबंधी कुछ प्रश्न पूछे। मैंने अनुभव किया कि वे जो उत्तर देते थे, वे एक स्तर से आगे के रहते थे। इस प्रकार एक-एक सीढ़ी हम ऊपर उठते गए। अंत में मैंने उनसे एक प्रश्न पूछ लिया : 'गुरुजी, क्या आपको भगवान के दर्शन हुए हैं?'उन्होंने मेरी ओर कुछ देर तक देखा और मेरा हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा कि 'एक शर्त पर ही बताता हूँ कि किसी से कहोगे नहीं।Óमेरे हाँ कहने पर उन्होंने कहा : ''हाँ, हुआ है। संघ पर लगे प्रतिबंध के समय जब मैं सिवनी जेल में था और खाट पर बैठे हुए सारे घटनाक्रम के बारे में चिंतित हो रहा था, तब मुझे लगा कि कोई मेरे कंधो को दबा रहा है। जब पलटकर ऊपर देखा तो साक्षात् जगज्जननी-माँ सामने खड़ी थी। उसने आश्वस्त करते हुए कहा - 'सब ठीक होगा।'उसी बलबूते पर तो आगे के सारे संकटों का मैं दृढ़ता के साथ सामना कर सका।'और यह सुनाते हुए श्री दत्ता बाळ ने कहा : 'चूंकि अब वे दिवंगत हो गए हैं, इसलिए उनको दिए गए अभिवचन से मैं मुक्त हो गया हूँ और यह बात आप सबको बता रहा हूँ। ऐसे एक अध्यात्म-शक्तिसम्पन्न व्यक्ति के दर्शन, निर्देशन, सान्निध्य और नेतृत्व का लाभ हम सबको मिल सका, इसे अपने पूर्वजन्मों के सुकृत का ही परिणाम मानना होगा।रामदास सोनीhttp://www.blogger.com/profile/01823504717777508844noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4117630712253592267.post-81284983550869835822010-05-24T15:50:00.000+05:302010-05-24T15:50:10.439+05:30छत्रपति शिवाजी के पथ प्रदर्शक : समर्थ रामदाससमर्थ रामदास छत्रपति शिवाजी के गुरू थे। उन्होने दासबोध नामक एक ग्रन्थ की रचना की जो मराठी में है।<br />
जीवन चरित :- समर्थ रामदास का मूल नाम नारायण सूर्याजीपंत कुलकर्णी (ठोसर) था। इनका जन्म महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले के जांब नामक स्थान पर शके 1530 में हुआ। वे बचपन में बहुत शरारती थे। गाँव के लोग रोज उनकी शिकायत उनकी माता से करते थे। एक दिन माता राणुबाई ने नारायण (यह उनके बचपन का नाम था) से कहा, 'तुम दिनभर शरारत करते हो, कुछ काम किया करो। तुम्हारे बड़े भाई गंगाधर अपने परिवार की कितनी चिंता करते हैं!' यह बात नारायण के मन में घर कर गई। दो-तीन दिन बाद यह बालक अपनी शरारत छोड़कर एक कमरे में ध्यानमग्न बैठ गया। दिनभर में नारायण नहीं दिखा तो माता ने बड़े बेटे से पूछा कि नारायण कहाँ है।उसने भी कहा, 'मैंने उसे नहीं देखा।' दोनों को चिंता हुई और उन्हें ढूँढने निकले पर, उनका कोई पता नहीं चला। शाम के वक्त माता ने कमरे में उन्हें ध्यानस्थ देखा तो उनसे पूछा, 'नारायण, तुम यहाँ क्या कर रहे हो?' तब नारायण ने जवाब दिया, 'मैं पूरे विश्व की चिंता कर रहा 'इस घटना के बाद नारायण की दिनचर्या बदल गई। उन्होंने समाज के युवा वर्ग को यह समझाया कि स्वस्थ एवं सुगठित शरीर के द्वारा ही राष्ट्र की उन्नति संभव है। इसलिए उन्होंने व्यायाम एवं कसरत करने की सलाह दी एवं शक्ति के उपासक हनुमानजी की मूर्ति की स्थापना की। समस्त भारत का उन्होंने पद-भ्रमण किया। <br />
जगह-जगह पर हनुमानजी की मूर्ति स्थापित की, जगह-जगह मठ एवं मठाधीश बनाए ताकि पूरे राष्ट्र में नव-चेतना का निर्माण हो। आख्यायिका है कि 12 वर्ष की अवस्था में अपने विवाह के समय 'शुभमंगल सावधान' में 'सावधान' शब्द सुनकर वे विवाहमंडप से निकल गए और टाकली नामक स्थान पर श्रीरामचंद्र की उपासना में संलग्न हो गए। उपासना में 12 वर्ष तक वे लीन रहे। यहीं उनका नाम 'रामदास' पड़ा। इसके बाद 12 वर्ष तक वे भारतवर्ष का भ्रमण करते रहे। इस प्रवस में उन्होंने जनता की जो दुर्दशा देखी उससे उनका हृदय संतप्त हो उठा। उन्होंने मोक्षसाधना के स्थान पर अपने जीवन का लक्ष्य स्वराज्य की स्थापना द्वारा आततायी शासकों के अत्याचारों से जनता को मुक्ति दिलाना बनाया। शासन के विरुद्ध जनता को संघटित होने का उपदेश देते हुए वे घूमने लगे। कश्मीर से कन्याकुमारी तक उन्होंने 1100 मठ तथा अखाड़े स्थापित कर स्वराज्यस्थापना के लिए जनता को तैयार करने का प्रयत्न किया। इसी प्रयत्न में उन्हें छत्रपति श्रीशिवाजी महाराज जैसे योग्य शिष्य का लाभ हुआ और स्वराज्यस्थापना के स्वप्न को साकार होते हुए देखने का सौभाग्य उन्हें अपने जीवनकाल में ही प्राप्त हो सका। उन्होंने शके 1603 में 73 वर्ष की अवस्था में महाराष्ट्र में सज्जनगढ़ नामक स्थान पर समाधि ली।<br />
प्रभु दर्शन :- <br />
बचपन में ही उन्हें साक्षात प्रभु रामचंद्रजी के दर्शन हुए थे। इसलिए वे अपने आपको रामदास कहलाते थे। उस समय महाराष्ट्र में मराठों का शासन था। शिवाजी महाराज रामदासजी के कार्य से बहुत प्रभावित हुए तथा जब इनका मिलन हुआ तब शिवाजी महाराज ने अपना राज्य रामदासजी की झोली में डाल दिया। रामदासजी ने महाराज से कहा, 'यह राज्य न तुम्हारा है न मेरा। यह राज्य भगवान का है, हम सिर्फ न्यासी हैं।' शिवाजी समय-समय पर उनसे सलाह-मशविरा किया करते थे। रामदास स्वामी ने बहुत से ग्रंथ लिखे। इसमें 'दासबोध' प्रमुख है। इसी प्रकार उन्होंने हमारे मन को भी संस्कारित किया 'मनाचे श्लोक' द्वारा। <br />
अंतिम समय :- <br />
अपने जीवन का अंतिम समय उन्होंने सातारा के पास परळी के किले पर व्यतीत किया। इस किले का नाम सज्जनगढ़ पड़ा। वहीं उनकी समाधि स्थित है। यहाँ पर दास नवमी पर 2 से 3 लाख भक्त दर्शन के लिए आते हैं। प्रतिवर्ष समर्थ रामदास स्वामी के भक्त भारत के विभिन्न प्रांतों में 2 माह का दौरा निकालते हैं और दौरे में मिली भिक्षा से सज्जनगढ़ की व्यवस्था चलती है।रामदास सोनीhttp://www.blogger.com/profile/01823504717777508844noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4117630712253592267.post-70954622518822975242010-05-24T15:47:00.001+05:302010-05-24T15:47:22.770+05:30पंजाब केसरी लाला लाजपत रायभारत की आजादी के आन्दोलन के प्रखर नेता लाला लाजपथ राय का नाम ही देशवासियों में स्फूर्ति तथा प्रेरणा का संचार कराता है। अपने देश धर्म तथा संस्कृति के लिए उनमें जो प्रबल प्रेम तथा आदर था उसी के कारण वे स्वयं को राष्ट्र के लिए समर्पित कर अपना जीवन दे सके। भारत को स्वाधीनता दिलाने में उनका त्याग, बलिदान तथा देशभक्ति अद्वितीय और अनुपम थी। उनके बहुविधि क्रियाकलाप में साहित्य-लेखन एक महत्वपूर्ण आयाम है। वे ऊर्दू तथा अंग्रेजी के समर्थ रचनाकार थे। लालाजी का जन्म 28 जनवरी, 1865 को अपने ननिहाल के गाँव ढुंढिके (जिला फरीदकोट, पंजाब) में हुआ था। उनके पिता लाला राधाकृष्ण लुधियाना जिले के जगराँव कस्बे के निवासी अग्रवाल वैश्य थे। लाला राधाकृष्ण अध्यापक थे। लाजपतराय की शिक्षा पाँचवें वर्ष में आरम्भ हुई। 1880 में उन्होंने कलकत्ता तथा पंजाब विश्वविद्यायल से एंट्रेंस की परीक्षा एक वर्ष में पास की और आगे पढऩे के लिए लाहौर आये। यहाँ वे गर्वमेंट कालेज में प्रविष्ट हुए और 1982 में एफ0 ए0 की परीक्षा तथा मुख्यारी की परीक्षा साथ-साथ पास की। यहीं वे आर्यसमाज के सम्पर्क में आये और उसके सदस्य बन गये। लाला साँईदास आर्यसमाज के प्रति इतने अधिक समर्पित थे कि वे होनहार नवयुवकों को इस संस्था में प्रविष्ट करने के लिए सदा तत्पर रहते थे। स्वामी श्रद्धानन्द (तत्कालीन लाला मुंशीराम) को आर्यसमाज में लाने का श्रेय भी उन्हें ही है। 30 अक्टूबर, 1883 को जब अजमेर में ऋषि दयानन्द का देहान्त हो गया तो 9 नवम्बर, 1883 को लाहौर आर्यसमाज की ओर एक शोकसभा का आयोजन किया गया। इस सभा के अन्त में यह निश्चित हुआ कि स्वामी जी की स्मृति में एक ऐसे महाविद्यालय की स्थापना की जाये जिसमें वैदिक साहित्य, संस्कृति तथा हिन्दी की उच्च शिक्षा के साथ-साथ अंग्रेजी और पाश्चात्य ज्ञान -विज्ञान में भी छात्रों को दक्षता प्राप्त कराई जाये। 1886 में जब इस शिक्षण की स्थापना हुई तो आर्यसमाज के अन्य नेताओं के साथ लाला लाजपतराय का भी इसके संचालन में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा तथा वे कालान्तर में डी0ए0वी0 कालेज, लाहौर के महान स्तम्भ बने। <br />
वकालत के क्षेत्र में :- लाला लाजपतराय ने एक मुख्तार (छोटा वकील) के रूप में अपने मूल निवासस्थल जगराँव में ही वकालत आरम्भ कर दी थी; किन्तु यह कस्बा बहुत छोटा था, जहाँ उनके कार्य के बढऩे की अधिक सम्भावना नहीं थी, अत: वे रोहतक चले गये। रोहतक में 1885 में वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण की, 1886 में वे हिसार आ गये। एक सफल वकील के रूप में 1892 तक वे यहीं रहे और इसी वर्ष लाहौर आये। तब से लाहौर ही उनकी सार्वजनिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया। लालाजी ने अपने साथियों सहित सामाजिक हित की योजनाओं के कार्यान्वयन में योगदान किया किन्तु लाहौर आने पर वे आर्यसमाज के अतिरिक्त राजनैतिक आन्दोलन के साथ भी जुड़ गये। 1888 में वे प्रथम बार कांग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन में सम्मिलित हुए जिनकी अध्यक्षता मि0 जार्ज यूल ने की थी। 1906 में वे प0 गोपालकृष्ण गोखले के साथ कांग्रेस के एक शिष्टमण्डल के सदस्य के रूप में इंग्लैड गये। यहाँ से वे अमेरिका चले गये। उन्होंने कई बार विदेश यात्राएँ की और वहाँ रहकर पश्चिमी देशों के समक्ष भारत की राजनैतिक परिस्थिति की वास्तविकता से वहां के लोगों को परिचित कराया तथा उन्हें स्वाधीनता आन्दोलन की जानकारी दी। लाला लाजपतराय ने अपने सहयोगियों-लोकमान्य तिलक तथा विपिनचन्द्र पाल के साथ मिलकर कांग्रेस में उग्र विचारों का प्रवेश कराया। 1885 में अपनी स्थापना से लेकर लगभग बीस वर्षो तक कांग्रेस ने एक राजभवन संस्था का चरित्र बनाये रखा था। इसके नेतागण वर्ष में एक बार बड़े दिन की छुट्टियों में देश के किसी नगर में एकत्रित होने और विनम्रता पूर्वक शासनों के सूत्रधारों (अंग्रेजी) से सरकारी उच्च सेवाओं में भारतीयों को अधिकाधिक संख्या में प्रविष्ट युगराज के भारत-आगमन पर उनका स्वागत करने का प्रस्ताव आया तो लालाजी ने उनका डटकर विरोध किया। कांग्रेस के मंच ये यह अपनी किस्म का पहला तेजस्वी भाषण हुआ जिसमें देश की अस्मिता प्रकट हुई थी। 1907 में जब पंजाब के किसानों में अपने अधिकारों को लेकर चेतना उत्पन्न हुई तो सरकार का क्रोध लालाजी तथा सरदार अजीतसिंह (शहीद भगतसिंह के चाचा) पर उमड़ पड़ा और इन दोनों देशभक्त नेताओं को देश से निर्वासित कर उन्हें पड़ोसी देश बर्मा के मांडले नगर में नजरबंद कर दिया, किन्तु देशवासियों द्वारा सरकार के इस दमनपूर्ण कार्य का प्रबल विरोध किये जाने पर सरकार को अपना यह आदेश वापस लेना पड़ा। लालाजी पुन: स्वदेश आये और देशवासियों ने उनका भावभीना स्वागत किया। लालाजी के राजनैतिक जीवन की कहानी अत्यन्त रोमांचक तो है ही, भारतीयों को स्वदेश-हित के लिए बलिदान तथा महान् त्याग करने की प्रेरणा भी देती है। <br />
जन-सेवा के कार्य :- लालाजी केवल राजनैतिक नेता और कार्यकर्ता ही नहीं थे। उन्होंने जन सेवा का भी सच्चा पाठ पढ़ा था। जब 1896 तथा 1899 (इसे राजस्थान में छप्पन का अकाल कहते हैं, क्योंकि यह विक्रम का 1956 का वर्ष था) में उत्तर भारत में भयंकर दुष्काल पड़ा तो लालाजी ने अपने साथी लाला हंसराज के सहयोग से अकालपीडि़त लोगों को सहायता पहुँचाई। जिन अनाथ बच्चों को ईसाई पादरी अपनाने के लिए तैयार थे और अन्तत: जो उनका धर्म-परिवर्तन करने के इरादे रखते थे उन्हें इन मिशनरियों के चुंगुल से बचाकर फीरोजपुर तथा आगरा के आर्य अनाथलायों में भेजा। 1905 में कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) में भयंकर भूकम्प आया। उस समय भी लालाजी सेवा-कार्य में जुट गये और डी0ए0वी0 कालेज लाहौर के छात्रों के साथ भूकम्प-पीडि़तों को राहत प्रदान की।<br />
1907-08 में उड़ीसा मध्यप्रदेश तथा संयुक्त प्रान्त (वर्तमान उत्तर प्रदेश) से भी भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा और लालाजी को पीडितों की सहायता के लिए आगे आना पड़ा। पुन: राजनैतिक आन्दोलन में 1907 के सूरत के प्रसिद्ध कांग्रेस अधिवेशन में लाला लाजपतराय ने अपने सहयोगियों के द्वारा राजनीति में गरम दल की विचारधारा का सूत्रपात कर दिया था और जनता को यह विश्वास दिलाने में सफल हो गये थे कि केवल प्रस्ताव पास करने और गिड़गिड़ाने से स्वतंत्रता मिलने वाली नहीं है। हम यह देख चुके हैं कि जनभावना को देखते हुए अंग्रेजों को उनके देश-निर्वासन को रद्द करना पड़ा था। वे स्वदेश आये और पुन: स्वाधीनता के संघर्ष में जुट गये। प्रथम विश्वयुद्ध (1914-18) के दौरान वे एक प्रतिनिधि मण्डल के सदस्य के रूप में पुन: इंग्लैंड गये और देश की आजादी के लिए प्रबल जनमत जागृत किया। वहाँ से वे जापान होते हुए अमेरिका चले गये और स्वाधीनता-प्रेमी अमेरिकावासियों के समक्ष भारत की स्वाधीनता का पथ प्रबलता से प्रस्तुत किया। यहाँ इण्डियन होम रूल लीग की स्थापना की तथा कुछ ग्रन्थ भी लिखे। 20 फरवरी, 1920 को जब वे स्वदेश लौटे तो अमृतसर में जलियावाला बाग काण्ड हो चुका था और सारा राष्ट्र असन्तोष तथा क्षोभ की ज्वाला में जल रहा था। इसी बीच महात्मा गांधी ने सहयोग आन्दोलन आरम्भ किया तो लालाजी पूर्ण तत्परता के साथ इस संघर्ष में जुट गये। 1920 में ही वे कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस के विशेष अधिवेशन के अध्यक्ष बने। उन दिनों सरकारी शिक्षण संस्थानों के बहिस्कार विदेशी वस्त्रों के त्याग, अदालतों का बहिष्कार, शराब के विरुद्ध आन्दोलन, चरखा और खादी का प्रचार जैसे कार्यक्रमों को कांग्रेस ने अपने हाथ में ले रखा था, जिसके कारण जनता में एक नई चेतना का प्रादुर्भाव हो चला था। इसी समय लालाजी को कारावास का दण्ड मिला, किन्तु खराब स्वास्थ्य के कारण वे जल्दी ही रिहा कर दिये गये। 1924 में लालाजी कांग्रेस के अन्तर्गत ही बनी स्वराज्य पार्टी में शामिल हो गये और केन्द्रीय धारा सभा (सेंटल असेम्बली) के सदस्य चुन लिए गये। जब उनका पं0 मोतीलाल नेहरू से कतिपय राजनैतिक प्रश्नों पर मतभेद हो गया तो उन्होंने नेशनलिस्ट पार्टी का गठन किया और पुन: असेम्बली में पहुँच गये। अन्य विचारशील नेताओं की भाँति लालाजी भी कांग्रेस में दिन-प्रतिदिन बढऩे वाली मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति से अप्रसन्नता अनुभव करते थे, इसलिए स्वामी श्रद्धानन्द तथा पं0 मदनमोहन मालवीय के सहयोग से उन्होंने हिन्दू महासभा के कार्य को आगे बढ़ाया। 1925 में उन्हें हिन्दू महासभा के कलकत्ता अधिवेशन का अध्यक्ष भी बनाया गया। ध्यातव्य है कि उन दिनों हिन्दू महासभा का कोई स्पष्ट राजनैतिक कार्यक्रम नहीं था और वह मुख्य रूप से हिन्दू संगठन, अछूतोद्धार, शुद्धि जैसे सामाजिक कार्यक्रमों में ही दिलचस्पी लेती थी। इसी कारण कांग्रेस से उसे थोड़ा भी विरोध नहीं था। यद्यपि संकीर्ण दृष्टि से अनेक राजनैतिक कर्मी लालाजी के हिन्दू महासभा में रुचि लेने से नाराज भी हुए किन्तु उन्होंने इसकी कभी परवाह नहीं की और वे अपने कर्तव्यपालन में ही लगे रहे।<br />
जीवन संध्या 1928 में जब अंग्रेजों द्वारा नियुक्त साइमन भारत आया तो देश के नेताओं ने उसका बहिस्कार करने का निर्णय लिया। 30 अक्टूबर, 1928 को कमीशन लाहौर पहुँचा तो जनता के प्रबल प्रतिशोध को देखते हुए सरकार ने धारा 144 लगा दी। लालाजी के नेतृत्व में नगर के हजारों लोग कमीशन के सदस्यों को काले झण्डे दिखाने के लिए रेलवे स्टेशन पहुँचे और 'साइमन वापस जाओÓ के नारों से आकाश गुँजा दिया। इस पर पुलिस को लाठीचार्ज का आदेश मिला। उसी समय अंग्रेज सार्जेंट साण्डर्स ने लालाजी की छाती पर लाठी का प्रहार किया जिससे उन्हें सख्त चोट पहुँची। उसी सायं लाहौर की एक विशाल जनसभा में एकत्रित जनता को सम्बोधित करते हुए नरकेसरी लालाजी ने गर्जना करते हुए कहा-मेरे शरीर पर पडी़ लाठी की प्रत्येक चोट अंग्रेजी साम्राज्य के कफन की कील का काम करेगी। इस दारुण प्रहात से आहत लालाजी ने अठारह दिन तक विषम ज्वर पीड़ा भोगकर 17 नवम्बर 1928 को परलोक के लिए प्रस्थान किया।रामदास सोनीhttp://www.blogger.com/profile/01823504717777508844noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4117630712253592267.post-35837966124092475072010-05-24T15:44:00.000+05:302010-05-24T15:44:27.734+05:30महंगाई ने लगाई चहुंओर आगबढ़ती महंगाई और खाघान्न की समस्या से चहुंओर आग लगी हुई है। इस आग से सबसे प्रभावित है आम नागरिक जिसे दो वक्त की रोटी जुटाना भी अब भारी पड़ रहा है। हालांकि इस तथ्य को झुठलाया नहीं कहा जा सकता की बढ़ती महंगाई के नेपथ्य में सरकारी नीतियों के साथ-साथ संपूर्ण विश्व की गतिविधियां भी कहीं न कहीं कारक के रूप में उपस्थित रहीं हैं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि सरकार सारे मामले को वैश्विक घटनाओं पर थोपकर अपना पल्ला झाड़ ले। विकास का पहिया निरंतर घूमता रहे इसके लिए मजबूत अर्थव्यवस्था की आवश्यकता प्रथम अनिवार्य शर्त है, जिसकी अनदेखी करना महंगा पड़ सकता है। इस समस्या को दो विभिन्न आयामों से देखकर वैश्विक परिपेक्ष्य में सरकार की स्थिति को आंका जा सकता है। 18वीं शताब्दी की औद्योगिक क्रांति ने विश्व में एक नए युग का सूत्रपात कर दिया था। इस क्रांति की बदौलत न केवल यूरोप विकास के पथ पर अग्रसर हुआ, अपितु संपूर्ण विश्व ही उसके बनाए रोड मैप का अनुसरण कर प्रगति के पथ पर आगे बढऩे लगा। औद्योगिक क्रांति ने विकास की वो बुनियाद डाली जिस पर आज संपूर्ण संसार की अर्थव्यवस्था प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से टिकी हुई है। प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध भी इसी औद्योगिक क्रांति की देन माने जा सकते हंै। औद्योगिकीकरण की रफ्तार बनाए रखने के लिए जब कच्चे माल तथा औद्योगिकीकरण के कारण फैक्ट्रियो में बने बहुतायात उत्पादों को खपाने के लिए बस्तियों की आवश्यकता पड़ी तब उपनिवेशवाद का एक नया दौर भी जन्मा था।यह कहना अतिश्योक्ति पूर्ण नहीं है कि औद्योगिकीकरण की वजह से ही हरित एवं श्वेत क्रांति भी अस्तित्व में आ सकीं। बहरहाल, 19वीं शताब्दी की समाप्ति तक वैश्विक मंच और विभिन्न देशों की भौगोलिक सीमाओं में अनेक परिवर्तन आए और वैश्वीकरण की भावना को बढ़ावा मिलने लगा। आ£थक क्षेत्र में सहयोग की बढ़ती आवश्यकता ने सभी देशों की अर्थव्यवस्थाओं को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष:प से एक-दूसरे पर निर्भर बनाकर, स्वयं को सर्वेसर्वा मानने की भावना को रसातल में पहुंचा दिया। यही कारण है कि जब विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, अमेरिका पर सबप्राइम संकट छाया तो भारत सहित अनेक देशों की अर्थव्यवस्था पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ा और उससे बचने के उपाय ढूंढे जाने शु: हुए। इसी प्रकार खाड़ी देशों से विभिन्न देशों में निर्यात किए जाने वाले कच्चे तेल की कीमतों का प्रभाव वैश्विक अर्थव्यवस्था को प्ररोक्ष:प से प्रभावित करने में सक्षम है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों का बढऩा, महंगाई के बढऩे की दिशा तय करता है, ऐसे में यह कह पाना काफी कठिन है कि अंतर्राष्ट्रीय पटल पर होने वाली हलचलों से कोई देश अब अछूता भी रह सकता है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो महंगाई का मुद्दा एकमात्र सपं्रग सरकार को चिंता का कही विषय नहीं, अपितु इस प्राय: प्रत्येक देश की सरकार अपने-अपने स्तर पर जूझ रही है। वस्तुत: वैश्वीकरण के लाभ और हानि बॉलीवुड की उस अभिनेत्री की तरह हो चुके हैं जिसके ज्यादा एक्सपोजर से हाय-हाय तो अदाओं पर वाह-वाह करने से लोग नहीं चूकते। कुछ समय पूर्व कैरेबियाई देशों में जो खाधान्न समस्या को लेकर घटनाएं घटित हुई वह इसी प्रभाव का परिणाम मानी जा सकती हैं। इसको लेकर विश्व भर के देश चिंतित होकर अनेक उपाय कर रहे है। आंकड़ों के मुताबिक गत् ढाई दशकों में विश्व का अनाज भंडारण अपने निम्नतर स्तर पर पहुंच चुका है तथा खाद्यान्न की कीमतें रिकॉर्ड स्तर को पार कर रही हंै। इसको देखते हुए विश्व के कई देशों में अनाज के निर्यात पर प्रतिबंध लगाए जा रहे है। तो कहीं आयात पर से प्रतिबंध हटाएं जा रहें हैं। वस्तुत सारी स्थिति ही इस ओर इशारा कर रही हैं कि महंगाई का बढऩा एक मात्र सरकार की असफल नीतियों का परिणाम नहीं है। लेकिन इसका अर्थ यह भी नही लगाया जा सकता कि खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों को कम करने में सरकार द्वारा किसी पहल की जरूरत नहीं है। देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी खाद्यान्न की कमी और उनकी कीमतों में वृद्धि को सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती के रूप में देखते हंै। चूंकि खाद्यान्न की कीमतों पर अंकुश नहीं लगता, तो इसका सीधा प्रभाव आ£थक विकास और अर्थव्यवस्था पर पडऩा तय है। लेकिन देश में ऐसी स्थिति क्यों उत्पन्न हुई इसे समझना भी आवश्यक है। महंगाई बढऩे के दो प्रमुख कारणों सब प्राइम संकट और बढ़ती तेल की कीमतों को निकाल दें तो इसके इत्तर भी एक अत्यंत महत्वपूर्ण कारण है जो देश में खाद्यान्न कीमतों की बढ़ोत्तरी के लिए उत्तरदायी माना जा सकता है और इसका सबसे प्रमुख कारण कृषि क्षेत्र की उपेक्षा है। कृषि क्षेत्र के प्रति बरती जाने वाली इसी उपेक्षा के परिणाम स्वरूप कृषक वर्ग अपने परंपरागत् खेती-बाड़ी के व्यवसाय को छोड़कर अन्य उद्यमों के प्रति आकृष्ट हुआ। चूंकि आज भी भारतीय अर्थव्यवस्था का मूलाधार कृषि ही है, परंतु उसके प्रति बरती गई सरकारी उपेक्षा किसानों का इस दिशा से मोहभंग करने में काफी रही। समय पर सरकारी ऋण न मिलने से परेशान किसान जहां गैर परंपरा गत् उद्यमों की ओर कूच करने लगे वहीं ऋण के बोझ तले दबे किसान एक के बाद एक आत्महत्या करने को बाधित हुई। पिछले कुछ वर्षों का दौर कौन भुला सकता है जब किसानों की आत्महत्या से संबंधित खबरों में समाचार पत्र और टी-वी- चैनल अटे पड़े थे। सहायता के नाम पर नाम मात्र सरकारी धनराशि से किसानों का कितना भला हुआ, यह सहज ही समझा जा सकता है। समय से पूर्व संभावित खाद्यान्न समस्याओं का आंकलन करने में सभी पुरोधा भयंकर चूक कर बैठे। अन्यथा यह कैसे संभव है कि सेंसेक्स की उड़ान पर विकास दर की भविष्यवाणी करने वाले बढ़ती जनसंख्या के अनुरूप घटती फसल उत्पादकता पर मंथन नहीं कर सके। हां, इस संदर्भ में यह रियायत भले ही ली जा सकती है कि संपूर्ण विश्व में तमाम अर्थशास्त्री और कृषि वैज्ञानिकों के आंकड़ों से इत्तर यह स्थिति उत्पन्न हुई है।और इसका सबसे प्रमुख कारण कृषि क्षेत्र की उपेक्षा है। कृषि क्षेत्र के प्रति बरती जाने वाली इसी उपेक्षा के परिणाम स्वरूप कृषक वर्ग अपने परंपरागत् खेती-बाड़ी के व्यवसाय को छोड़कर अन्य उद्यमों के प्रति आकृष्ट हुआ। चूंकि आज भी भारतीय अर्थव्यवस्था का मूलाधार कृषि ही है, परंतु उसके प्रति बरती गई सरकारी उपेक्षा किसानों का इस दिशा से मोहभंग करने में काफी रही। समय पर सरकारी ऋण न मिलने से परेशान किसान जहां गैर परंपरा गत् उद्यमों की ओर कूच करने लगे वहीं ऋण के बोझ तले दबे किसान एक के बाद एक आत्महत्या करने को बाधित हुई। पिछले कुछ वर्षों का दौर कौन भुला सकता है जब किसानों की आत्महत्या से संबंधित खबरों में समाचार पत्र और टी-वी- चैनल अटे पड़े थे। सहायता के नाम पर नाम मात्र सरकारी धनराशि से किसानों का कितना भला हुआ, यह सहज ही समझा जा सकता है। समय से पूर्व संभावित खाद्यान्न समस्याओं का आंकलन करने में सभी पुरोधा भयंकर चूक कर बैठे। अन्यथा यह कैसे संभव है कि सेंसेक्स की उड़ान पर विकास दर की भविष्यवाणी करने वाले बढ़ती जनसंख्या के अनरूप घटती फसल उत्पादकता पर मंथन नहीं कर सके। हां, इस संदर्भ में यह रियायत भले ही ली जा सकती है कि संपूर्ण विश्व में तमाम अर्थशास्त्री और कृषि वैज्ञानिकों के आंकड़ों से इत्तर यह स्थिति उत्पन्न हुई है। जानकारों का मानना है कि देश में हरित क्रांति के उपरांत एक प्रकार से कृषि क्षेत्र की उपेक्षा प्रारंभ करनी शरू हो गई है। देश में लगातार औद्योगिकीकरण को बढ़ावा मिलता रहा, जबकि कृषि क्षेत्र अपेक्षाकृत सुविधाओं से जुझने के साथ-साथ अपने विस्तार के लिए तरसते रहें। जिसका परिणाम यह हुआ कि जनसंख्या के अनुरूप औसतन वार्षिक पैदावार में जो वृद्धि होनी चाहिए थी वह नहीं हो सकी।रामदास सोनीhttp://www.blogger.com/profile/01823504717777508844noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4117630712253592267.post-10927479985981761982010-05-24T14:06:00.000+05:302010-05-24T14:06:32.543+05:30आधुनिक विज्ञान ऋणी है देव संस्कृति काक्रान्तियों के अविराम दौर को देखने और समझने वाले कल के महापरिवतर्न के बारे में विश्वस्त है । इस विश्वसनीयता ने सोच विचार में रुचि रखने वालों के मन में जिस जिज्ञासा को जन्म दिया है, वह है कल के जीवन की रूपरेखा उसका स्वरूप और संस्कृति । एक तरफ तर्कों और प्रयोगों की कसौटी पर तथ्यों को परखने वाला विज्ञान है । दूसरी ओर विश्वासों की बैसाखी पर टिका हुए विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों का समूह है । संवेदनशील हो सोचने वाले मानववादियों, दार्शनिक का अपना वर्ग है, उनकी अपनी चिन्तन प्रणालियाँ हैं । कल की जिन्दगी इनमें से किसे चुनेगी? अथवा किसमें वह सामर्थ्य है जो स्वयं को भावी-समाज के योग्य ठहरा सके । कुछ भी हो सवाल नवयुग की नयी संस्कृति की खोज का है । शुरुआत से खोज जीवन की मूलवृत्ति रही है । आवश्यकता आविष्कार की जननी है के सर्व प्रचलित सिद्धान्त ने समय-समय पर अनेकों उभार लिए हैं । आवश्यकता सभी को होती है-पशु हो या मनुष्य पर इनके स्वरूप में भेद हैं । पशुओं ने अपनी जिन्दगी की जरूरतों को पूरा करने स्वयं की वंश-वेलि को बचाए रखने के लिए कम खोजें नहीं की । प्राणिशास्त्र इसी के अध्ययन का इतिहास है । प्रकृति की सूक्ष्म हलचलों को पढऩे में सक्षम-चीटीं, कुत्ते, संगठन करने वाली दीमक, मधुमक्खी आदि के प्रयासें को देखकर दंग रहना पड़ता है । उनमें से अनेकों की अतीन्द्रिय सामर्थ्य का लोहा मानने के लिए सभी विवश हैं । पर इतने पर भी पशु भी किसी संस्कृति का निमार्ण नहीं कर पाए, क्योंकि उन्होंने स्वयं की प्रकृति और प्रवृति में परिवतर्न करने की न जरूरत महसूस की और न स्वयं में इसे कर सकने की सामर्थ्य का ही अनुभव किया । खोजी मनुष्य ने अपनी इसी विशेषता के कारण सभ्यताएँ निमिर्त की, संस्कृतियाँ रचीं और जीवन को अनूठा सौन्दर्य प्रदान किया । मनीषी स्टिच-स्टीफेन के ग्रन्थ रिसर्च एण्ड प्रोसेज के शब्दों में कहें तो इस विराट ब्रह्माण्ड में शक्ति-चेतनता की अनेकों धाराएँ अनेकों स्तर हैं । इनमें से प्रत्येक स्तर का अपना वैभव अपनी उपलब्धियाँ हैं, खोज का अर्थ इनमें से किसी स्तर से अपना गहरा सामजस्य बिठाना उसे मूर्त रूप देना है । प्रत्येक खोज का जन्म आवश्यकता से उत्पन्न इच्छा में होता है । इच्छा अपनी परिपक्व दशा में विचार और जिज्ञासा का रूप लेती है । जिज्ञासा के उपलब्धि की ओर बढ़ते कदम प्रक्रिया को जन्म देते हैं । प्रक्रिया की परिपूणर्ता में सपना साकार हो उठता है । समय के प्रवाह में मनुष्य की अंत: प्रकृति और ब्रह्म प्रकृति में अनेकों परिवतर्न घटित होते रहते हैं । संसार का स्वरूप भी अपने में व्यापक फेर-बदल करता रहता है । इन सारी उलट-फेर में फँसकर प्रक्रियाओं में परिवतर्न आना स्वाभाविक है । लेकिन उपलब्धि का सिलसिला वही रहता है । उदाहरण के लिए आग को ले, अग्नि तत्व सृष्टि के उदय काल से विद्यमान है । शुरूआत के दिनों इसकी जरूरत पडऩे पर मानव ने पत्थर रगड़कर इसे हासिल किया । तब से आज तक अग्नि उत्पादक प्रक्रियाओं में भारी अन्तर आ चुका है पर अग्नि वही है । नृतत्व विज्ञानियों के अनुसार आज से हजारों साल पहले भी आदमी ने अपनी सभ्यता के गौरवपूर्ण शिखरों को छुआ है । जिन्दगी के व्यापक दायरे के हर बिन्दु पर उसने तरह-तरह के शोध अध्ययन किए । समग्र जीवन पद्धति को रचने वाली संस्कृति के निमार्ण में सफल हुआ । महायोगी अनिवार्ण के ग्रन्थ वेद मीमांसा के अनुसार उसने अन्त: और प्रकृति पर अनूठे प्रयोग किए । ऐसे प्रयोग जिनसे मनुष्य देवता बन गया और धरती स्वर्ग । समय के थपेड़ों और नई पीढ़ी की उत्तरदायित्वहीनता के कारण ढेर की ढेर प्रक्रियाएँ खो गई । उन प्रक्रियाएँ के खोने का परिणाम है कि मनुष्य आज न जाने कितनी उपलब्धियों से वंचित है? वतर्मान परिस्थियाँ इतनी बदली हुई है कि वेदों के आख्यान- पुराणों के विवरण, शास्रों के वचन सुनने वालों को नानी की कहानी मालूम पड़ते हैं, जब कभी कोई ऋषि दयानन्द परमहंस विशुद्धानन्द, उन तथ्यों को अपने जीवन में प्रमाणिक कर लोक-जीवन को झकझोरता है सभी थोड़े समय उसे कौतुक और अतिमानव का सम्मान दें अपने लिए असम्भव बता किसी गहरी नींद खोने लगते हैं । इस असम्भव और आश्चयर्जनक के पीछे झाँकने वाले तथ्यों को परखे तो प्रक्रियाओं का मौलिक अन्तर समझ पड़ता है । प्राच्य विद्या के विशेषज्ञ डा. गोपीनाथ कविराज के अध्ययन भारतीय संस्कृति साधना शब्दों में आज की शोध प्रक्रियाएँ जिन्हें विज्ञान की विभिन्न शाखा-उपशाखाओं का समूह कहले विश्लेषण करने में समर्थ बुद्धि की उपज है । देव संस्कृति के विभिन्न पक्षों की खोज के पीछे अन्तज्ञार्न सम्पन्न संवेदनशील मन को ढूँढ़ा जा सकता है । आज के जीवन में यदा-कदा ऐसे अवसर आ जाते हैं, जब पुरानी शोध को नवीन मूल्यांकन से गुजरना पड़ता है । परिणति आश्चयर्जनक ढंग से सुखद होती है । लेकिन पुरानी प्रक्रियाओं के खो जाने से आधुनिक प्रयोगकर्ताओं को इस विवशता का सामना करना पड़ता है कि ऋषि मुनि कहे जाने वाले शोध विज्ञानी यन्त्रों और बहुमूल्य प्रयोगशालाओं के अभाव में इन निष्कर्षों तक कैसे पहुँच सकें, समस्या का सुलझा सकने में अक्षम बुद्धि को एक ही बात समझ मे आती है कि इन सब तथ्यों को संयोग कहकर चुप्पी साध लें । पर संयोग एक-आध हो सकते हैं । मानवीय ज्ञान के विविध क्षेत्रों में इनका भरा-पूरा सिलसिला इस बात को प्रमाणित करता है कि कहीं न कहीं तथ्यांकन की कोई पुनमूर्ल्यांकन के अपने मौलिक अधिकार के लिए गुहार लगा रही है । चरक का आयुविर्ज्ञान, वराहमिहिर, आयर्भट्ट की खगोल गणनाएँ, पतंजलि का मानसशास्र, गोरक्षनाथ की हठयोग प्रणाली, विभिन्न दाशर्निक पद्धतियों के सृष्टि और मनुष्य सम्बन्धी गहरे सवेर्क्षण प्रयोगों की कसौटी पर कसने पर यह मानने के लिए विवश करते हैं कि यह सब कल्पना लोक की उड़ाने नहीं हैं । तब क्या इन सबके पास आज सी सुसज्जित प्रयोगशालाएँ थी जिनकी न तो उल्लेख मिलता है न अवशेष? इस प्रश्न का सुसंगत उत्तर इतना ही है कि प्रयोगों की प्रणाली तो थी पर आज से भिन्न । उन दिनों प्रारम्भ से ही अन्त: प्रकृति को तरह-तरह के गम्भीर प्रयोगों द्वारा इस लायक बना दिया जाता था कि वह सृष्टि के विभिन्न रचनाक्रमों और इसकी उपादेयता को सम्यक् ज्ञान अजिर्त कर सकें । ऐसे शोधार्थी के रूप में चरक और उनके सहयोगी किसी पौधे के प्राण स्पंदनों से अपने अन्तर्बोध सम्पन्न मन का एकाकार करके-पौधे की गुणवत्ता, उसके भाग विशेष की रोगनिवारण की विभिन्न क्षमताओं का ज्ञान अजिर्त कर लेते थे । परीक्षणों का व्यापक सिलसिला प्रयोगों की गुणवत्ता को शत-प्रतिशत ठीक ठहराता था । यही कारण है कि आयुवेर्द के प्राचीन ग्रन्थों में पौधों के गुण-स्वभाव उनके विभिन्न भागों की रोगनिवारण सामर्थ्य-प्रयोग विधि का ब्योरेवार विवरण तो मिलता है, पर पौधे के रासासनिक संगठन और सूक्ष्म विश्लेषण का अभाव है । यही बात ज्ञान की अन्य धाराओं के सन्दर्भ में है । प्राचीन ज्ञान की प्राय: सभी शाखाओं-उपशाखाओं की उपलब्धि में प्रक्रिया का यही स्वरूप दिखाई देता है । इसका एक ही कारण है इसकी सवर्तोजयी प्रामाणिकता प्राचीन शास्रों में ज्ञान की चार विधियों का उल्लेख मिलता है । इन्द्रियानुभूति द्वारा अन्तबोर्ध सम्पन्न मन से, विश्लेषण क्षमता सम्पन्न बुद्धि से और गहरे आत्मिक तादात्म्य द्वारा । आधुनिक समय में ऋषि अरविन्द लाइफ डिवाइन में इसी अन्तिम विधि को श्रेष्ठ बताया है । देव संस्कृति को जन्म देने वाले इस विधि में निष्णात् थे । यही कारण है उन्होंने इस उत्कृष्ट विधि के रहते निम्न विधियों का कम ही प्रयोग किया है ।रामदास सोनीhttp://www.blogger.com/profile/01823504717777508844noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4117630712253592267.post-44352324905764837322010-05-24T14:03:00.000+05:302010-05-24T14:03:09.083+05:30संस्कृति की केन्द्रिय धुरी नारी शक्तिभारतीय संस्कृति का प्रधान केन्द्रीय तत्व है-भाव-संवेदना । इस गुण की प्रचुरता जिसमें है, वह नारी शक्ति देव संस्कृति के विकासक्रम में एक धुरी की भूमिका निभाती आयी है । ऋषिगण आदि सत्ता महामाया, जिसके आधार पर सृष्टि की संरचना संभव हुई है, को विधाता भी कहते आये हैं व माता भी । प्राणियों का अस्तित्व ही यदि इस धरती पर है तो उसके मूल में मातृशक्ति की प्राणियों पर अनुकम्पा है । सृजन शक्ति के रूप में इस संसार में जो कुछ भी सशक्त सम्पन्न, विज्ञ और सुन्दर है, उसकी उत्पत्ति में नारी तत्व की ही अहम् भूमिका है । देवसंस्कृति में सरस्वती, लक्ष्मी और काली के रूप में विज्ञान प्रधान और गायत्री-सावित्री के रूप में ज्ञानप्रधान चेतना के बहुमुखीय पक्षों का विवेचन अनादि काल से होता आया है । परम पूज्य गुरुदेव ने नारी शक्ति के माध्यम से ही इक्कीसवीं सदी के आगमन की बात कही व घोषणा की है कि विश्व मानवता का भावी निर्धारण उन्हीं गुणों के आधार पर होने जा रहा है, जो आदि स्रजेता के रूप में नारीसत्ता के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं । पूज्य गुरुदेव ने लिखा है-देवत्त के प्रतीकों में प्रथम स्थान नारी का और दूसरा नर का है । लक्ष्मी-नारायण, उमा-महेश शची-पुरन्दर, सीता-राम, राधे-श्याम जैसे देव युग्मों में प्रथम नारी का और पश्चात् नर का उल्लेख होता है । वह मानुषी दीख पड़ते हुए भी वस्तुत: देवी है । श्रेष्ठ व वरिष्ठ उसी को मानना चाहिए । भाव संवेदना, धर्मधारणा और सेवा साधना के रूप में उसी की वरिष्ठता को चरितार्थ होते देखा जाता है ।ज्ज् वैदिक मान्याताओं के अनुसार नारी बिना, शक्ति के बिना यह सम्पूर्ण विश्व सार-शून्य है । सृष्टि विस्तार की दृष्टि से भी निस्संदेह पुरुष की अपेक्षा नारी की महत्ता अधिक है । वह पुरुषों की जननी है । उसकी सब कामना करें व उसके द्वारा पालित हों, ऐसा र्निदेश वैदिक ऋषि देते आये हैं । च्कन्याज् शब्द का अर्थ होता है सबके द्वारा वांछनीय सब उसकी कामना करें । ऐतरेयोपनिषद में स्पष्ट आता है- नारी हमारा पालन करती है, अत: उसकी पालन करना हमारा र्कत्तव्य है! अथर्ववेद में उसे सत्याचरण की अर्थात् धर्म की प्रतीक कहा गया है (सत्येनोत्रभित भूमि:) कोई भी धार्मिक कार्य उसके बिना अधूरा माना जाता रहा है । ऋग्वेद का ऋषि लिखता है- <br />
च्ज्शुचिभ्राजा उषसो नवेद, यशस्वतीरपस्युवो नसत्या: ।ज्ज् (ऋग् 1/79/1) <br />
अर्थात्-श्रद्धा, प्रेम, भक्ति, सेवा, समानता का प्रतीक नारी पवित्र, निष्कलंक, आचार के प्रकाश से सुशोभित, प्रात:काल के समान हृदय को पवित्र करने वाली, लौकिक कुटिलताओं से अनभिज्ञ, निष्पाप, उत्तमयश युक्त, नित्य उत्तम कर्म करने की इच्छा करने वाली, सकर्मण्य और सत्य व्यवहार करने वाली देवी है । एक भ्रान्तिपूर्ण मान्यता, कि कन्या का जन्म अमंगलकारी है, हमारी देश में मध्यकाल में पनपी व इसी कारण आधीजन शक्ति दोयमर्दजे की मानी जाने लगी । नारीशक्ति की अवमानना, तिरस्कार, होने लगा, जबकि संस्कृति के स्वर आदि काल से कुछ और ही कहते आए हैं । ऋग्वेद (6/75/5) में कहा गया है कि च्ज्वह पुरुष धन्य है, जिसके कई पुत्रियाँ हों तथा पुत्र से पिता को आनंद मिलता है, वहीं पुत्री से माता को बल्कि उससे भी अधिक (3/31-1-2) । उपनिषदों में भी यही बात स्पष्टत: सामने आई है । बृहदारण्यकेपनिषद् में विदुषी और आयुष्मती पुत्री पाने के लिए घी और तेल में चावल पकाकर खाने की विधि कही गयी है (6/4.17) । मनुस्मृति (9/13)में कहा गया है कि पुत्री को पुत्र के समान समझना चाहिए क्योंकि जिस प्रकार आत्मा पुत्र रूप से उत्पन्न होता है, उसी प्रकार वह पुत्री के रूप में भी जन्म लेती है । महाभारत में सन्यास लेने की पात्रता उसी गृहस्थ को प्राप्त है, जिसने गृहस्थधर्म का पालन करते हुए सभी र्कत्तव्यों को पूरा कर लिया है । इन र्कत्तव्यों में अपनी पुत्रियों का विवाह कर देना प्रमुख है (महाभारत उद्योगपर्व 36-39) । मनुस्मृति में पिता के उत्तराधिकार को जो भाग पुत्री को देने का विधान है, उसका हेतु ध्यान देने योग्य है ।ज्ज् विवाह की चिन्ता और सार्मथ्य से बाहर दहेज के कारण लोकगीत मध्य काल में ऐसे रचे जाने लगे कि पुत्री जन्म ही अशुभ माना जाने लगा पंचतंत्र के कुछ आख्यानों में भी यह बात आयी । कालान्तर में मध्यकाल में यह यह धारणा खूब फली-फूली व स्त्रीधन की उपेक्षा शास्त्र वचनों की दुहाई देकर अधिक से अधिक की जाने लग । वस्तुत: यह कालक्रम के अनुसार पैदा हुई विकृति है । नहीं तो पिता के वात्सल्य का आदर्श तो हर युग की एक मान्य आस्था रही है । इसी आस्था के कारण रामायण में जनक कहते हें । च्ज्जिस सीता को मैं प्राणों से बढ़कर चाहता हूँ, उसे राम को सौंपकर मेरी वीर्यशुल्क की प्रतिज्ञा पूरी हो जाएगीज्ज् (वा.रा.बालकाण्ड 67/23) । यह भारतीय संस्कृति की ही चिर पुरातन मान्यता है कि जैसे पुत्र अपने पिता, पितामह इत्यादि पितरों को नरकों से तारता है, इसी प्रकार दौहित्र अपने नाना को । महाभारतकाल में एक चक्रनगर का निर्धन, विचारशील ब्राह्मण बकासुर की भेंट चढ़ाए जाने से अपनी कन्या को रोकता है व स्वयं जाने को तत्पर हो जाता है, तब भीम उसके स्थान पर जाते हैं । कुन्ती को पुत्री रूप में शूरसेन तथा किन्तुभोज ने पुत्र से अधिक प्यार देकर स्नेहपूर्वक पाला था । महर्षि कण्व शकुन्तला को दुष्यन्त के पास विदाई हेतु भेजते समय भावार्द्र हो उठते हैं वे कहते हैं, तो फिर कन्या बिछोह सामान्य गृहस्थों के लिए कितना असह्य होगा? (शाकुन्तल 2/6) इसेस समाज की सही अवस्था का परिचय मिलता हैरामदास सोनीhttp://www.blogger.com/profile/01823504717777508844noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4117630712253592267.post-50360798503225466002010-05-24T13:56:00.000+05:302010-05-24T13:56:09.269+05:30गाथा इस देश की गायी विदेशीयों नेभारतवर्ष की शक्ति और समृद्धि ज्ञान और गुरुत्व विश्वविख्यात है । प्राचीन काल की श्रेष्ठतम उपलब्धियों से भरपूर साहित्य और इतिहास हमें प्रतिक्षण उस गौरवपूर्ण अतीत की याद दिलाता है । पूर्वजों की आत्माओं का प्रकाश अब इस देश के कण-कण को जागृति का संदेश दे रहा है । यह बात हर एक नागरिक के हृदय में समाई हुई है, वह आत्माभिमान अभी तक मरा नहीं । किन्तु काल के दूषित प्रभाव के कारण आज आर्य जाति सब तरह से दीन-हीन बन चुकी है । अब उसका कदम केवल विनाश की ओर ही बढ़ रहा है । जानते हुए भी हम अपनी पूर्व प्रतिष्ठा को भुलाये बैठै हैं । हमारी गाथायें विदेशों में बिक गई । हमारे ज्ञान की एक छोटी सी किरण पाकर पाश्चात्य देश अभिमान से सिर उठाये खड़े हैं और हम अपने पूर्वजों की शान को भी मिट्टी में मिलाने को तैयार हैं । कठोर बनने का कोई उद्देश्य नहीं है । कटु बात कहकर अपने ही आत्मा के कणों का जी दुखाना नहीं चाहते किन्तु जो दुर्गति हमारी संस्कृति की इन दिनों हो रही है, उसे देखकर हृदय में सौ-सौ बरछों का-सा प्रहार लग रहा है । आत्मा की इस आवाज को कोई धर्मभिमानी, राष्ट्र हितैषी तथा जाति के गौरव के लिये प्राण अर्पण करने वाला ही समझ सकता है । आर्य संस्कृति का या हिन्दू धर्म का नाम उल्लेख करने में साम्प्रदायिक संकीर्णता का भाव नहीं आना चाहिए । हमारी संस्कृति दिव्य-संस्कृति है । उसमें प्राणिमात्र के हित की व्यवस्था है । यह उद्बोधन केवल इसलिये है कि उस चिर-सत्य का प्रादुर्भाव केवल इसी भूमि में हुआ है, इसी से हम उसे एक विशेष सम्बोधन से विभूषित करते हैं, अन्यथा हिन्दू-धर्म को क्षेत्र सम्पूर्ण विश्व है । काउन्ट जोन्स जेनी ने इस बात को स्पष्ट करते हुए बताया है- भारतवर्ष केवल हिन्दू धर्म का ही घर नहीं है वरन् वह संसार की सभ्यता का आदि भण्डार है ।ज्ज् संसार में भारतवर्ष के प्रति लोगों का प्रेम और आदर उसकी बौद्धिक, नैतिक और आध्यात्मिक सम्पत्ति के कारण हैं । यह शब्द प्रो.लुई रिनाड ने व्यक्त किये है । इन शब्दों से भी यही तथ्य प्रकाशित होता है कि भारत समग्र विश्व का है और सम्पूर्ण वसुन्धरा इसके प्रेमपाश में आबद्ध है । अनादि काल से धर्म की, संस्कृति और मानवता की ज्योति यह विकीर्ण कर रहा है । धरती की अनुपम कृति यह देश भला किसे प्यारा ने होगा? भारतवर्ष ने जो आध्यात्मिक विचार इस संसार में प्रसारित किये हैं । वे युग-युगान्तरों तक अक्षुण्ण रहने वाले हैं । उनसे अनेक सुषुप्त आत्माओं को अनन्त काल तक प्रकाश मिलता रहेगा । भारतीय संस्कृति के प्रवाह का उद्गम वे चिन्तन शाश्वत और सनातन सत्य रहे है, जिनकी अनुभूति ऋषियों ने प्रबल तपश्चर्याओं के द्वारा अर्जित की थी, वह प्रवाह धूमिल भले ही हो गया हो किन्तु अभी तक भी लुप्त नहीं हुआ है । धार्मिक आध्यात्मिक एवं नैतिक क्षेत्र में ही हम सर्वसम्पन्न नहीं रहे वरन् कोई ऐसा नहीं छूटा जहाँ हमारी पहुँच न रही हो । आध्यात्मिक तत्व ज्ञान के अतिरिक्त सामाजिक, व्यावहारिक तथा अन्य विद्याओं के ज्ञान-विज्ञान में भी हम अग्रणी रहे हैं । अपनी एक शोध में डा. थीवों ने लिखा है च्ज्संसार, रेखागणित के लिये भारत का ऋणी है यूनान का नहीं ।' प्रसिद्ध इतिहासज्ञ प्रो. बेबर का कथन है-'अरब में ज्योतिष विद्या का विकास भारतवर्ष से हुआ 'कोलब्रुक ने बताया है कि कोई अन्य देश नहीं, चीन और अरब को अकंगणित का पाठ पढ़ाने वाला देश भारतवर्ष ही है ।'यूनान के प्राचीन इतिहास का दावा है कि 'भारत के निवासी, यूनान में आकर बसे । वे बड़े बुद्धिमान, विद्वान और कला-कुशल थे । उन्होंने विद्या और वैद्यक का खूब प्रचार किया । यहाँ के निवासियों को सभ्य बनाया ।ज्ज् निसंदेह इतना सारा ज्ञान अगाध श्रम, शोध और लगन के द्वारा पैदा किया गया होगा । तब के पुरुष आलस्य, अरुचि, आसक्ति, अहंकार आदि से दूर रहें होंगे तभी तो वह तन्यता बन पाई होगी, जिसके बूते पर इतनी सारी खोज की जा सकी होगी । दुर्भाग्य की बात है कि आज वही भारतवर्ष विदेशियों के अनुकरण को ही अपनी शान समझता है । इस कार्य में जो जितना अधिक निपुण है, उसे उतनी ही सामाजिक प्रतिष्ठा मिलती है । विश्व के विविध विषयों के जब आँकड़े प्रस्तुत किये जाते हैं तो देखकर तीव्र वेदना होती है कि उनमें भारतवर्ष पिछड़ी श्रेणी में आता है । शिक्षा के क्षेत्र में हम सबसे कमजोर, भारतीय की औसत आय संसार में सबसे कम, आरोग्य के नाम पर सबसे दु:खी दुर्बल और रोगग्रस्त, आहार में सबसे कम कैलोरी वाला, निर्धनता में सबसे पहले दर्जे का । अवनति की कोई हद नहीं । कोई क्षेत्र नहीं छूटा जहाँ मात न खाई हो । क्या वह समृद्धि हम फिर से देख सकेंगे, जिसका वर्णन प्रसिद्ध यूनानी विद्वान एरियन ने इस तरह किया है- च्ज्जो लोग भारत से आकर यहाँ बसे थे वे कैसे थे? वे देवताओं के वंशज थे, उनके पास विपुल सोना था । वे रेशम के कामदार ऊनी दुशाले ओड़ते थे । हाथी दाँत की वस्तुयें व्यवहार में लाते थे और बहुमूज्य रत्नों के हार पहनते थे ।ज्ज् जो विध्वंसक विज्ञान और एटमी हथियार इन दिनों बन रहे हैं, उनसे भी बड़ी शक्ति वाले आयुध यहाँ वैदिक युग में प्रयुक्त हुये हैं । सरस्वती की उपासना के साथ-साथ शक्ति की भी समवेत उपासना इस देशें में हुई है । अथर्ववेद में उनके स्थानों पर जो च्ज्अशनिज्ज् शब्द का प्रयोग हुआ है, उसका अर्थ आजकल की भीमकाय तेपों जैसा ही है प्रोफेसर विल्सन का कथन है-ज्ज्गोलों का अविष्कार सबसे पहले भारत में हुआ था । योरोप के सम्पर्क में आने के बहुत समय पहले उनका प्रयोग भारत में होता था ।ज्ज् कर्नल रशब्रुक विलियम ने एक स्थान पर लिखा है-ज्ज्शीशे की गोलियाँ और बन्दूकों के प्रयोग का हाल विस्तार से यर्जुवेद में मिलता है । भारतवर्ष में तोपों और बन्दूकों का प्रयोग वैदिक काल से ही होता था ।रामदास सोनीhttp://www.blogger.com/profile/01823504717777508844noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4117630712253592267.post-35178472717984183002010-05-24T13:52:00.000+05:302010-05-24T13:52:40.411+05:30सृष्टि का प्रथम मानव आर्यार्वत्त में जन्माछान्दोग्योपनिषद में एक कथा आती है । इन्द्र तथा विरोचन दोनों ज्ञान प्राप्ति के लिए स्रष्टा के पास गए । दोनों आत्मतत्व जानना चाहते थे । ब्रह्माजी ने कहा दोनों सज-धजकर अपना प्रतिबिम्ब जल में देखो । जो जल में दिखाई पड़े, वही आत्मा है । विरोचन संतुष्ट होकर लौट आए । उसने शरीर को सजाधजा व अपनी मुखाकृति देखी उसी से उन्हें संतोष मिल गया । किन्तु इन्द्र ने बारम्बार मनन किया-आत्म चिन्तन किया । पुन: बार-बार लौटकर प्रजापिता ब्रह्मा से प्रश्न किया । उन्हें समाधान मिला कि शरीर नहीं, यह स्थूल काया नहीं, वरन् आत्मसत्ता ही परमसत्य है । सजाना-सँवारना उसे चाहिए । उन्हें आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई । विरोचन ने लौटकर दैहात्मवाद का प्रचार किया । उनने प्रतिपादन किया कि देह ही आत्मा है । इसी की सेवा-श्रृंगार साधना की जानी चाहिए । मरने पर शरीर को सुरक्षित, सुसज्जित किया जाना चाहिए । प्रलय तक आत्मा उसी में रहती है । जब अंतत: सृष्टि प्रलय के समय उसी नष्ट होगी तब कर्मों का निर्णय होगा, जबकि इन्द्र ने आत्मसत्ता के उत्कर्ष का प्रतिपादन किया व इसके लिए मानवधर्म का निर्धारण किया । साधना पद्धतियाँ बनीं जिसमें भोगों से त्याग की प्रधानता थी । यह कथा कितनी सत्य है, यह ज्ञात नहीं पर इस अलंकारिक प्रतिपादन से एक सत्य उभरकर आता है कि दो प्रकार की जातियाँ उपनिषद्कालीन समाज में थी एक आर्य जिसके प्रतिनिधि थे इन्द्र देवसत्ताओं के प्रतिनिधि, संस्कारी पुरुष । दूसरी दस्यु जातियाँ अथवा आनार्य जातियाँ । इन्हीं को सुर व असुर कहा गया । सुर वे जिनने भारत को अपनी कर्मभूमि बनाया तथा असुर वे जिनने धर्मधारणा के प्रति प्रमाद था देहसुख जिन्हें अधिक प्रिय था । विरोचन इन्हीं सत्तओं का प्रतीक है व इन्हें देहात्मवाद के संस्कारों के साथ आर्यार्वत्त से बहिष्कृत कर दिया गया । इनने ही शवों को च्ममीज् की तरह सुरक्षित रखने का प्रावधान बनाया, जिसमें राजा-प्रजा सभी को एक साथ सजा-धजा कर दफना दिया जाता था । यह कथा मनोरंजन हेतु नहीं, आदि संस्कृति भारतीय संस्कृति के विकास के विभिन्न आयामों को समझाने हेतु प्रस्तुत की गयी है । वस्तुत: प्रथम मानव इस क्षेत्र में भारतवर्ष में जन्मा व प्रचलित पाश्चात्य विकासवाद के विरुद्ध वह आदिम जाति का नहीं, अनगढ़ नरमानुष नहीं अपितु एक श्रेष्ठ मनुष्य था, सभ्य था, पूर्णत: संयमशील था तथा ज्ञानवान था, उसी से समग्र मानव जाति की उत्पत्ति व विकास का क्रम चला । महाभारत ही एक आख्या के अनुसार - <br />
अभगच्छत राजेन्द्र देविकां विश्रुताम् । प्रसूर्तित्र विप्राणां श्रूयते भरतर्षभ॥ <br />
अर्थात्-सप्तचरुतीर्थ के पास वितस्ता नदी की शाखा देविका नदी के तट पर मनुष्य जाति की उत्पत्ति हुई । प्रमाण यही बताते हैं कि आदि सृष्टि की उत्पत्ति भारत के उत्तराखण्ड अर्थात् इस ब्रह्मावर्त क्षेत्र में ही हुई । <br />
संसार भर में गोरे, पीले, लाल और श्याम (काले) ये चार रंगो के लोग विभिन्न क्षेत्रों में पाए जाते हैं । एक भारत ही ऐसा देश है, जहाँ, इन चार रंगो का भरपूर मिश्रण एक साथ देखने को मिलता है । वस्तुत: श्वेत-काकेशस, पीले-मंगोलियन, काले-नीग्रो तथा लाल रेड इंडियन इन चार प्रकार के रंगविभाजनों के बाद वाँचवी मूल एवं पुख्य नस्ल है, जो भारतीय कहलाती है । इस जाति में उर्पयुक्त चारों का सम्मिश्रण है । ऐसा कहीं सिद्ध नहीं होता कि भारतीय मानव जाति उर्पयुक्त चारों जातियों की वर्ण संकरता से उत्पन्न हुई । उलटे नृतत्व विज्ञानी यह कहते हैं कि भारतीय सम्मिश्रण वर्ण ही यहाँ से विस्तरित होकर दीर्घकाल में जलवायु आदि के भेद से चार मुख्य रूप लेता चला गया । न केवल रंग यहाँ चारों के सम्मिश्रण पाए जाते हैं, वरन् भारतीयों का शारीरिक गठन भी एक विलक्षणता लिए है । ऊँची दबी, गोल-लम्बी मस्तकाकृति उठी या चपटी नाक लम्बी-ठगनी, पतली मोटी शरीराकृत, एक्जों व एण्डोमॉर्फिक (एकहरी या दुहरी गठन वाली) आकृतियाँ भारत में पाई जाती हैं । यहाँ से अन्यत्र बस जाने पर इनके जो गुण सूत्र उस जलवायु में प्रभावी रहे, वे काकेशस, मंगोलियन, नीग्रॉइड व रेडइंडियन्स के रूप में विकसित होते चले गए । अत: मूल आर्य जाति की उत्पत्ति स्थली भारत ही है, बाहर कहीं नहीं, यह स्पष्ट तथ्य एक हाथ लगता है । पाश्चात्य विद्वानों ने एक प्रचार किया कि आर्य भारत से कहीं बाहर विदेश से आकर यहाँ बसे थे । संभवत: इसके साथ दूसरी निम्न जातियों को जनजाति-आदिवासी वर्ग का बताकर, वे उन्हें उच्च वर्ग के विरुद्ध उभारना चाहते थे । द्रविड़ तथा कोल, ये जो दो जातियाँ भारत में बाहर से आईं बतायी जाती हैं, वस्तुत: आर्य जाति से ही उत्पन्न हुई थीं, इनकी एक शाखा जो बाहर गयी थी पुन: भारत वापस आकर यहाँ बस गयी । भारतीय जातियों पर शोध करने वाले नतृत्व विज्ञानी श्रीनैफील्ड लिखते हैं कि भारत में बाहर से आए आर्य विजेता और मूल आदिम मानव (अरबोरिजिन) जैसे कोई विभाजन नही है । ये विभाग सर्वथा आधुनिक हैं । यहाँ तो समस्त भारतीयों में एक विलक्षण स्तर की एकता है । ब्राह्मणों से लेकर सड़क साफ करने वाले भंगियों तक की आकृति और रक्त समान हैं ।<br />
मनुसंहिता(1(/43-44)का एक उदाहरण है <br />
शनकैस्तु क्रियालोपदिना: क्षत्रिय जातय: । वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणा दर्शनेन च॥ <br />
पौण्ड्रकाशचौण्ड्रद्रविडा: काम्बोजा: भवना: शका: । पारदा: पहल्वाश्चीना: किरता: दरदा: खशा:॥ <br />
अर्थात् ब्राह्मणत्व की उपलब्धि को प्राप्त न होने के कारण उस क्रिया का लोप होने से पोण्ड्र, चौण्ड्र, द्रविड़ काम्बोज, भवन, शक पारद, पहल्व, चीनी किरात, दरद व खश ये क्षत्रिय जातियाँ धीरे-धीरे शूद्रत्व को प्राप्त हो गयीं । स्मरण रहे यहाँ ब्राह्मणत्व से तात्पर्य है श्रेष्ठ चिन्तन, ज्ञान का उपार्जन व श्रेष्ठ कर्म तथा शूद्रत्व से अर्थ है निकृष्ट चिंतन व निकृष्ट कर्म । क्षत्रिय वे जो पुरुषार्थी थे व बाहुबल से क्षेत्रों की विजय करके राज्य स्थापना हेतु बाहर जाते रहे । मूल आर्य जाति ने उत्तराखण्ड से नीचे की भूमि में वनों को काटकर, जलाकर उन्हें रहने योग्य बनाया । वहाँ नगर बसाये । इससे पूर्व वहाँ कोई निवास नहीं करता था । इस प्रकार मूल निवासी के रूप में एक ही उत्पत्ति आर्यों के रूप में हिमालय के उत्तराखण्ड क्षेत्र में हुई । वहीं से मनुष्य जाति का सारे विश्व में विस्तार हुआ । आदि मानव हिन्दू समाज था । इस प्रकार शेष सभी धर्म-मत-जातियाँ-रेस-वर्ण कालान्तर में समय प्रवाह के साथ विकसित होते चले गए भारतीय आर्षग्रन्थ ऋग्वेद केवल भारतीय आर्यों की ही नहीं बल्कि विश्वभर के आर्यों (श्रेष्ठ मानवों) की सबसे प्राचीन पुस्तक है । मनुसंहिता यही बात कहती है- <br />
एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन: । स्वं-स्वं चरित्रं शिक्षरेन् पृथिव्यां सर्वमानव:॥ <br />
किन्तु भारत से बाहर जाने के बावजूद अपने धर्म आचरण के प्रति अनुराग के उनने अपने सम्बन्ध भारतवर्ष से बनाए रखे । महाभारत काल तक भारतीय नरेशों से उनके वैवाहिक सम्बन्ध हुए । उनकी कन्याएँ भारत आयीं । सत्याभामा व शैव्या के प्रसंग यही बताते है । इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि सारी धरित्री पर बसे विश्व के सारे मानव आज से पाँच सहस्र वर्ष पूर्व तक भारतीय संस्कृति के ही अनुयायी इसी की संतति थे । भारतीय दृष्टि से वे संस्कारच्युत थे किन्तु बहुसंख्य सतत् प्रयत्नशील रहते थे कि वे भारतीय आचारधारा के संपर्क में रहें । भारतीय नृतत्वविज्ञान के अन्वेषणकर्ता श्रीटेलर कहते हैं कि विश्व में ईरान की पारसी जाती और भारतवासी हिन्दू यही प्राचीनतम संस्कृतियों के उपासक मूलत: हैं । दोनों अपना निवास मूलत: हिमालय को मानते हैं । पारसी धर्म से ही क्रमश: यहूदी, ईसाई, मुसलमान धर्म विकसित हुए । बौद्धधर्म हिन्दू धर्म की ही एक शाखा है और जैन धर्म की भाँति हिन्दू धर्म से ही वह उत्पन्न हुआ है । इन सभी को मत-सम्प्रदाय कहा जाय तो उचित होगा । मूलतह एक ही है वैदिक धर्म-हिन्दू धर्म । पारसी धर्म इस वैदिक धर्म से ही निकला है, इस पर सभी अन्वेषक सहमत हैं । भारत से बाहर जाकर बसी एक आर्यों की शाखा पारस्य देश (फारस) में बस गयी व पारसी बनकर भारत व अन्यान्य-क्षेत्रों को गयी । फारसी में च्सज् का उच्चारण च्हज् होता है अत: उन्होंने सिंधु देश को हिन्दू कहा, स्वयं को पश्चिमी हिन्दू तथा भारतीयों को पूर्वी हिन्दू कहा । अपनी नदी-नगरों के नाम भी उन्होंने संस्कृतनिष्ठ रखे । सरस्वती वहाँ हरहवती कहलायी, सरयू हरयू तथा भारत यूफरत (यूफ्रेटिस) भूपालन बेबिलोन तथा काशी कास्सी बन गए । अथर्ववेद की पैप्पलाद शाखा ही पारसी धर्म की मूल है इस तथ्य पर सभी वैदिक साहित्यकार व अन्वेषक एकमत हैं । गोपथ ब्राह्मण में शन्नो देवी इस मंत्र से अथर्ववेद पढऩा चाहिए यह बात 1.19 मंत्र बतायी गयी है । पारसी धर्मग्रन्थ होमयस्त के 1.24 मंत्र में यही बात कही गयी है । इस प्रकार ईसाई इस्लाम सभी धर्म वैदिक धर्म से जन्मे, ही प्रमाणित है । यहाँ उद्देश्य किसी प्रकार का साम्प्रदायिक विद्वेष खड़ा करना व अपने धर्म की श्रेष्ठता बताने का नहीं, वरन् देवसंस्कृति के विराट सामयिक रूप का परिचय देना है, जिसका मूल खोजने पर हुई शोध हमें च्ज्एकं सद्विप्र बहुधा वदन्तिज्ज् का संदेश देकर एक ही सत्ता को परमसत्ता मानने की प्रेरणा देती है । नृतत्व विज्ञान से लेकर चिरपुरातन इतिहास का आमूलचूल सवेर्क्षण एक ही तथ्य प्रामणित करता है कि आदिकालीन मानव आर्य था,वैदिक धर्म को मानता था व चिंतन चरित्र व व्यवहार की दृष्टि से श्रेष्ठ था । शक , हूण, मिस्त्री, यवन आदि सब हिन्दू ही थे । कालान्तर में संस्कार विहीन होने के कारण ये जातियाँ आयार्वत्त से बाहर जाती रहीं, निवार्सित होती रहीं, पुन: मातृदेश लौटती रहीं । पुरातन काल में जातिच्युत व्यक्ति को पुन: आर्य-मानव जाति का अंग बना लेना ही शुद्ध का प्रतीक था । जाति की मिथ्या परिभाषा, वर्ण जातिभेद की गलत व्याख्याएँ तथा व्यापक पैमाने पर बहिष्कार की परम्परा ने हिन्दू संस्कृति का कालान्तर में कितना नुकसान किया व आज भी विश्व मानवता के पथ पर एक अवरोध बनकर खड़ा है, इस पर सभी मानवतावादियों का मत एक है । हमारें प्राचीन संतों-मनीषियों ने हिन्दू संस्कृति को देवसंस्कृति कहकर उसके चिरपुरातन गौरव की ओर ध्यान दिए जाने को तो हम सबसे कहा पर साथ ही यह भी निदेर्श दिया कि हमारी संस्कृति में कालक्रम के अनुसार कई विकृतियां का समावेश होता रहा है । हमें युगानुकूल संस्कृति विकसित करना है व इसे विज्ञान सम्मत, पुन: इसके शाश्वत सावर्जनीन रूप में लाकर इसके द्वारा विश्वमानवता का मागर्दशर्न करना है ।रामदास सोनीhttp://www.blogger.com/profile/01823504717777508844noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4117630712253592267.post-73681319251936816752010-05-24T13:47:00.002+05:302010-05-24T13:47:49.266+05:30समस्त विश्व को भारत के अजस्र अनुदानभारत जिसमें कभी तैंतीस कोटि देवता निवास करते थे, जिसे कभी स्वर्गादपि गरीयसी कहा जाता था, एक स्वर्णिम अतीत वाला चिर पुरातन देश है जिसके अनुदानों से विश्व-वसुधा का चप्पा-चप्पा लाभान्वित हुआ है । भारत ने ही अनादि काल से समस्त संसार का मार्ग-दर्शन किया हैं ज्ञान और विज्ञान की समस्त धाराओं का उदय, अवतरण भी सर्वप्रथम इसी धरती पर हुआ पर यह यहीं तक सीमित नहीं रहा-यह सारे विश्व में यहाँ से फैल गया । सोने की चिडिय़ा कहा जाने वाला हमारा भारतवर्ष जिसकी परिधि कभी सारी विश्व-वसुधा थी, आज अपने दो सहस्र वर्षीय अंधकार युग के बाद पुन: उसी गौरव की प्राप्ति की ओर अग्रसर है । ह्यज्ज्सा प्रथमा संस्कृति विश्ववाराज्ज् यह उक्ति बताती है कि हमारी संस्कृति, हिन्दू संस्कृति देव संस्कृति, ही सर्व प्रथम वह संस्कृति थी जो सभी विश्वभर में फैल गयी । अपनी संस्कृति पर गौरव जिन्हें होना चाहिए वे ही भारतीय यदि इस तथ्य से विमुख होकर पाश्चात्य सभ्यता की ओर उन्मुख होने लगें तो इसे एक विडम्बना ही कहा जायगा । इसी तथ्य पर सर्वाधिकार जोर देते हुए पूज्यवर ने लिखा है कि जिस देश का अतीत इतना गौरवमय रहा हो, जिसकी इतनी महत्वपूर्ण सांस्कृतिक पुण्य परम्पराएँ रहीं हों, उसे अपने पूर्वजों को न भुलाकर अपना चिन्तन और कर्तृत्त्व वैसा ही बनाकर देवोपम स्तर का जीवन जीना चाहिए । वसतुत: सांस्कृतिक मूल्य ही किसी राष्ट की प्रगति अवगति का आधार बनते हैं । जब इनकी अवमानना होती है तो राष्ट पतन की ओर जाने लगता है । संस्कृति के उत्थान में रहा है । जब-जब यह परिष्कृति रहा है, तब-तब इसने राष्ट ही नहीं, विश्व भर की समस्त सभ्यताओं को विकास मार्ग दिखाया है । आज भी ऐसे परिष्कृति धर्मतंत्र विज्ञान सम्भव उन प्रतिपादनों पर टिका है जो संस्कृति के प्रत्येक निर्धारण की उपयोगिता प्रतिपादित करते हैं । इन्हीं सब का विवेचन इस खण्ड में हैं । पुरातन भारत का ज्ञान-विज्ञान आज के वैज्ञानिक युग की उपलब्धियों को भी चुनौती देने में सक्षम हैं । हमारी वैदिक संस्कृति में वह सब है जो आज का अणु विज्ञान हमें बताता है । इस धरोवर को भले ही हमने भुला दिया हो किन्तु वह हमें सतत याद दिलाती रहती है वेदों की अपनी विज्ञान सम्मत सूत्र शैली के माध्यम से । हमारी संस्कृति की जितनी मान्यताएँ हैं उन्हें पूज्यवर ने विज्ञान की कसौटी पर कस कर प्रमाणों के साथ उनको आज के विज्ञान समुदाय के समक्ष रखा है । ताकि पाश्चात्य प्रभाव में पनप रही पीढ़ी कहीं उन्हें एक दम भुला न दे । हमारे स्वर्णिम अतीत पर एक दृष्टि डालते हुए इस खण्ड में यह सब विस्तार में लिखा गया है कि प्रवज्या-तीर्थ यात्रा के माध्यम से हमारी संस्कृति का विस्तार प्राचीन काल में कहाँ-कहाँ तक हुआ था । अमेरिका, लातिनी अमेरिका, मेक्सिको, जर्मनी, जिसे यूरोप का आर्यावर्त कहा जाता है, मिश्र से लेकर दक्षिण अफ्रीका तक, कम्पूचिया, लाओस, चीन, जापान आदि देशों में स्थान-स्थान पर ऐसे अवशेष विद्यमान हैं जो बताते हैं कि आदिकाल में वहाँ भारतीय संस्कृति का ही साम्राज्य था । इसके लिए परमपूज्य गुरुदेव ने विभन्न पाश्चात्य विद्वानों का हवाला देकर हमारे पुराने-शास्त्र ग्रन्थों के उद्धरण के साथ विस्तृत विवेचन किया है । यह विस्तार मात्र धार्मिक ही नहीं था अपितु, विश्व राष्ट की आर्य-व्यवस्था, शासन संचालन-व्यवस्था, कला उद्योग, शिल्प आदि सभी में भारतीय-संस्कृति का योगदान रहा है । मॉरीशस, आस्टे्रलिया, फिजी व अन्य प्रशांत महासागर के छोटे-छोटे द्वीप, रूस, कोरिया, मंगोलिया, इण्डोनेशिया, श्याम देश आदि के विस्तृत उदाहरणों से हमें भारतीय संस्कृति के विश्व संस्कृति होने की एक झलक मिलती है । अन्यान्य सभी देशों में भारतीय संस्कृति के अस्तित्व का परिचय देते हुए यह खण्ड प्रवासी भारतीयों के संगठनों की जानकारी हमें विस्तार से देता है जो विदेश में भारत की एक बहुमूल्य पूँजी के रूप में बैठे सांस्कृतिक दूत का कार्य कर रहे हैं । भारतीय संस्कृति इन्हीं के माध्यम से कभी विश्वभर में फैली थी, आज भी विश्व में इन्हीं के द्वारा फैलेगी । भारतीय संस्कृति के विराट विस्तार एवं वृहत्तर भारत जो कभी था व कभी आगे चलकर बनेगा, उसकी जानकारी पाने पर प्रत्येक को अपने देश की एतिहासिक परम्परा व सांस्कृतिक विरासत पर गौरव होता है व अपने र्कत्तव्य का ज्ञान भी कि हम कैसे इसे अक्षुण्ण बनाए रख सकते हैं । निश्चित ही देव संस्कृति के विश्व संस्कृति के रूप में विस्तार की जानकारी देने में यह खण्ड महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगा, ऐसा हमारा विश्वास हैं ।रामदास सोनीhttp://www.blogger.com/profile/01823504717777508844noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4117630712253592267.post-50956736531607604352010-05-24T13:44:00.000+05:302010-05-24T13:44:14.953+05:30भारत के प्राचीन शिक्षा केन्द्रप्राचीन काल से ही हमारे देश में शिक्षा का बहुत महत्व रहा है। प्राचीन भारत के नालंदा और तक्षशिला आदि विश्वविद्यालय संपूर्ण संसार में सुविख्यात थे। इन विश्वविद्यालयों में देश ही नहीं विदेश के विद्यार्थी भी अध्ययन के लिए आते थे। इन शिक्षा केन्द्रों की अपनी विशेषताएं थीं जिनका वर्णन प्रस्तुत है-<br />
तक्षशिला विश्वविद्यालय — तक्षशिला विश्वविद्यालय वर्तमान पश्चिमी पाकिस्तान की राजधानी रावलपिण्डी से 18 मील उत्तर की ओर स्थित था। जिस नगर में यह विश्वविद्यालय था उसके बारे में कहा जाता है कि श्री राम के भाई भरत के पुत्र तक्ष ने उस नगर की स्थापना की थी। यह विश्व का प्रथम विश्विद्यालय था जिसकी स्थापना 700 वर्ष ईसा पूर्व में की गई थी। तक्षशिला विश्वविद्यालय में पूरे विश्व के 10,500 से अधिक छात्र अध्ययन करते थे। यहां 60 से भी अधिक विषयों को पढ़ाया जाता था। 326 ईस्वी पूर्व में विदेशी आक्रमणकारी सिकन्दर के आक्रमण के समय यह संसार का सबसे प्रसिद्ध विश्वविद्यालय ही नहीं था, अपितु उस समय के चिकित्सा शास्त्र का एकमात्र सर्वोपरि केन्द्र था। तक्षशिला विश्वविद्यालय का विकास विभिन्न रूपों में हुआ था। इसका कोई एक केन्द्रीय स्थान नहीं था, अपितु यह विस्तृत भू भाग में फैला हुआ था। विविध विद्याओं के विद्वान आचार्यो ने यहां अपने विद्यालय तथा आश्रम बना रखे थे। छात्र रुचिनुसार अध्ययन हेतु विभिन्न आचार्यों के पास जाते थे। महत्वपूर्ण पाठयक्रमों में यहां वेद-वेदान्त, अष्टादश विद्याएं, दर्शन, व्याकरण, अर्थशास्त्र, राजनीति, युद्धविद्या, शस्त्र-संचालन, ज्योतिष, आयुर्वेद, ललित कला, हस्त विद्या, अश्व-विद्या, मन्त्र-विद्या, विविद्य भाषाएं, शिल्प आदि की शिक्षा विद्यार्थी प्राप्त करते थे। प्राचीन भारतीय साहित्य के अनुसार पाणिनी, कौटिल्य, चन्द्रगुप्त, जीवक, कौशलराज, प्रसेनजित आदि महापुरुषों ने इसी विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की। तक्षशिला विश्वविद्यालय में वेतनभोगी शिक्षक नहीं थे और न ही कोई निर्दिष्ट पाठयक्रम था। आज कल की तरह पाठयक्रम की अवधि भी निर्धारित नहीं थी और न कोई विशिष्ट प्रमाणपत्र या उपाधि दी जाती थी। शिष्य की योग्यता और रुचि देखकर आचार्य उनके लिए अध्ययन की अवधि स्वयं निश्चित करते थे। परंतु कहीं-कहीं कुछ पाठयक्रमों की समय सीमा निर्धारित थी। चिकित्सा के कुछ पाठयक्रम सात वर्ष के थे तथा पढ़ाई पूरी हो जाने के बाद प्रत्येक छात्र को छ: माह का शोध कार्य करना पड़ता था। इस शोध कार्य में वह कोई औषधि की जड़ी-बूटी पता लगाता तब जाकर उसे डिग्री मिलती थी। अनेक शोधों से यह अनुमान लगाया गया है कि यहां बारह वर्ष तक अध्ययन के पश्चात दीक्षा मिलती थी। 500 ई. पू. जब संसार में चिकित्सा शास्त्र की परंपरा भी नहीं थी तब तक्षशिला आयुर्वेद विज्ञान का सबसे बड़ा केन्द्र था। जातक कथाओं एवं विदेशी पर्यटकों के लेख से पता चलता है कि यहां के स्नातक मस्तिष्क के भीतर तथा अंतडिय़ों तक का आपरेशन बड़ी सुगमता से कर लेते थे। अनेक असाध्य रोगों के उपचार सरल एवं सुलभ जड़ी बूटियों से करते थे। इसके अतिरिक्त अनेक दुर्लभ जड़ी-बूटियों का भी उन्हें ज्ञान था। शिष्य आचार्य के आश्रम में रहकर विद्याध्ययन करते थे। एक आचार्य के पास अनेक विद्यार्थी रहते थे। इनकी संख्या प्राय: सौ से अधिक होती थी और अनेक बार 500 तक पहुंच जाती थी। अध्ययन में क्रियात्मक कार्य को बहुत महत्व दिया जाता था। छात्रों को देशाटन भी कराया जाता था। शिक्षा पूर्ण होने पर परीक्षा ली जाती थी। तक्षशिला विश्वविद्यालय से स्नातक होना उस समय अत्यंत गौरवपूर्ण माना जाता था। यहां धनी तथा निर्धन दोनों तरह के छात्रों के अध्ययन की व्यवस्था थी। धनी छात्रा आचार्य को भोजन, निवास और अध्ययन का शुल्क देते थे तथा निर्धन छात्र अध्ययन करते हुए आश्रम के कार्य करते थे। शिक्षा पूरी होने पर वे शुल्क देने की प्रतिज्ञा करते थे। प्राचीन साहित्य से विदित होता है कि तक्षशिला विश्वविद्यालय में पढऩे वाले उच्च वर्ण के ही छात्र होते थे। सुप्रसिद्ध विद्वान, चिंतक, कूटनीतिज्ञ, अर्थशास्त्री चाणक्य ने भी अपनी शिक्षा यहीं पूर्ण की थी। उसके बाद यहीं शिक्षण कार्य करने लगे। यहीं उन्होंने अपने अनेक ग्रंथों की रचना की। इस विश्वविद्यालय की स्थिति ऐसे स्थान पर थी, जहां पूर्व और पश्चिम से आने वाले मार्ग मिलते थे। चतुर्थ शताब्दी ई. पू. से ही इस मार्ग से भारत वर्ष पर विदेशी आक्रमण होने लगे। विदेशी आक्रांताओं ने इस विश्वविद्यालय को काफी क्षति पहुंचाई। अंतत: छठवीं शताब्दी में यह आक्रमणकारियों द्वारा पूरी तरह नष्ट कर दिया।<br />
नालन्दा विश्वविद्यालय — नालन्दा विश्वविद्यालय बिहार में राजगीर के निकट रहा है और उसके अवशेष बडगांव नामक गांव व आस-पास तक बिखरे हुए हैं। पहले इस जगह बौद्ध विहार थे। इनमें बौद्ध साहित्य और दर्शन का विशेष अध्ययन होता था। बौद्ध ग्रन्थों में इस बात का उल्लेख है कि नालन्दा के क्षेत्र को पांच सौ सेठों ने एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं में खरीदकर भगवान बुद्ध को अर्पित किया था। महाराज शकादित्य (सम्भवत: गुप्तवंशीय सम्राट कुमार गुप्त, 415-455 ई.) ने इस जगह को विश्वविद्यालय के रूप में विकसित किया। उसके बाद उनके उत्तराधिकारी अन्य राजाओं ने यहां अनेक विहारों और विश्वविद्यालय के भवनों का निर्माण करवाया। इनमें से गुप्त सम्राट बालादित्य ने 470 ई. में यहां एक सुंदर मंदिर बनवाकर भगवान बुद्ध की 80 फीट की प्रतिमा स्थापित की थी। देश के विद्यार्थियों के अलावा कोरिया, चीन, तिब्बत, मंगोलिया आदि देशों के विद्यार्थी शिक्षा लेने यहां आते थे। विदेशी यात्रियों के वर्णन के अनुसार नालन्दा विश्वविद्यालय में छात्रों के रहने की उत्तम व्यवस्था थी। उल्लेख मिलता है कि यहां आठ शालाएं और 300 कमरे थे। कई खंडों में विद्यालय तथा छात्रावास थे। प्रत्येक खंड में छात्रों के स्नान लिए सुंदर तरणताल थे जिनमें नीचे से ऊपर जल लाने का प्रबंध था। शयनस्थान पत्थरों के बने थे। जब नालन्दा विश्वविद्यालय की खुदाई की गई तब उसकी विशालता और भव्यता का ज्ञान हुआ। यहां के भवन विशाल, भव्य और सुंदर थे। कलात्मकता तो इनमें भरी पड़ी थी। यहां तांबे एवं पीतल की बुद्ध की मूर्तियों के प्रमाण मिलते हैं। नालन्दा विश्वविद्यालय के शिक्षक अपने ज्ञान एवं विद्या के लिए विश्व में प्रसिद्ध थे। इनका चरित्र सर्वथा उज्जवल और दोषरहित था। छात्रों के लिए कठोर नियम था। जिनका पालन करना आवश्यक था। चीनी यात्री हेनसांग ने नालंदा विश्वविद्यालय में बौद्ध दर्शन, धर्म और साहित्य का अध्ययन किया था। उसने दस वर्षों तक यहां अध्ययन किया। उसके अनुसार इस विश्वविद्यालय में प्रवेश पाना सरल नहीं था। यहां केवल उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र ही प्रवेश पा सकते थे। प्रवेश के लिए पहले छात्र को परीक्षा देनी होती थी। इसमें उत्तीर्ण होने पर ही प्रवेश संभव था। विश्वविद्यालय के छ: द्वार थे। प्रत्येक द्वार पर एक द्वार पण्डित होता था। प्रवेश से पहले वो छात्रों की वहीं परीक्षा लेता था। इस परीक्षा में 20 से 30 प्रतिशत छात्र ही उत्तीर्ण हो पाते थे। विश्वविद्यालय में प्रवेश के बाद भी छात्रों को कठोर परिश्रम करना पड़ता था तथा अनेक परीक्षाओं में उत्तीर्ण होना अनिवार्य था। यहां से स्नातक करने वाले छात्र का हर जगह सम्मान होता था। हर्ष के शासनकाल में इस विश्वविद्यालय में दस हजार छात्र पढ़ते थे। हेनसांग के अनुसार यहां अनेक भवन बने हुए थे। इनमें मानमंदिर सबसे ऊंचा था। यह मेघों से भी ऊपर उठा हुआ था। इसकी कारीगरी अद्भुत थी। नालन्दा विश्वविद्यालय के तीन भवन मुख्य थे- रत्नसागर, रत्नोदधि और रत्नरंजक। नालन्दा का केन्द्रीय पुस्तकालय इन्हीं भवनों में स्थित था। इनमें रत्नोदधि सबसे विशाल था। इसमें धर्म-ग्रंथों का विशेष संग्रह था। अन्य भवनों में विविध विषयों के दुर्लभ-ग्रंथों का संग्रह था। नालन्दा विश्वविद्यालय में शिक्षा, आवास, भोजन आदि का कोई शुल्क छात्रों से नहीं लिया जाता था। सभी सुविधाएं नि:शुल्क थीं। राजाओं और धनी सेठों द्वारा दिये गये दान से इस विश्वविद्यालय का व्यय चलता था। इस विश्वविद्यालय को 200 ग्रामों की आय प्राप्त होती थी। नालंदा विश्वविद्यालय के आचार्यों की कीर्ति विदेशों में विख्यात थी और उनको वहां बुलाया जाता था। आठवीं शताब्दी में शान्तरक्षित नाम के आचार्य को तिब्बत बुलाया गया था। उसके बाद कमलशील और अतिशा नाम के विद्वान भी वहां गये। नालन्दा विश्वविद्यालय 12वीं शताब्दी तक यानि लगभग 800 वर्षों तक विश्व में ज्ञान का प्रमुख केन्द्र बना रहा। इसी समय यवनों के आक्रमण शुरु हो गये। इतिहास बताता है कि खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय पर आक्रमण कर यहां के हजारों छात्रों और अधयापकों को कत्ल करवा दिया। इसके पुस्तकालय में आग लगा दी गई। छ: महीनों तक पुस्तकालयों की पुस्तकें जलती रहीं जिससे दस हजार की सेना का मांसाहारी भोजन बनता रहा। इस घटना से भारत ने ही नहीं संसार ने भी ज्ञान का भंडार खो दिया।<br />
विक्रमशील विश्वविद्यालय — विक्रमशील विश्विद्यालय की स्थापना 8-9वीं शताब्दी ई. में बंगाल के पालवंशी राजा धर्मपाल ने की थी। वह बौद्ध था। प्रारंभ इस विश्वविद्यालय का विकास भी नालंदा विश्विद्यालय की तरह बौद्ध विहार के रूप में ही हुआ था। यह वर्तमान भागलपुर से 24 मील दूर पर निर्मित था। इस विश्वविद्यालय के छात्रों को भी सारी सुविधाएं नि:शुल्क दी जाती थीं। धर्मपाल ने इस विश्वविद्यालय में उस समय के विख्यात दस आचार्यों की नियुक्ति की थी। कालान्तर में इसकी संख्या में वृद्धि हुई। यहां छ: विद्यालय बनाये गये थे। प्रत्येक विद्यालय का एक पण्डित होता था, जो प्रवेश परीक्षा लेता था। परीक्षा में उत्तीर्ण छात्रों को ही प्रवेश मिलता था। प्रत्येक विद्यालय में 108 शिक्षक थे। इस प्रकार कुल शिक्षकों की संख्या 648 बताई जाती है। दसवीं शताब्दी ई. में तिब्बती लेखक तारानाथ के वर्णन के अनुसार प्रत्येक द्वार के पण्डित थे। पूर्वी द्वार के द्वार पण्डित रत्नाकर शान्ति, पश्चिमी द्वार के वर्गाश्वर कीर्ति, उत्तरी द्वार के नारोपन्त, दक्षिणी द्वार के प्रज्ञाकरमित्रा थे। आचार्य दीपक विक्रमशील विश्वविद्यालय के सर्वाधिक प्रसिद्ध आचार्य हुये हैं। विश्वविद्यालयों के छात्रों की संख्या का सही अनुमान प्राप्त नहीं हो पाया है। 12वीं शताब्दी में यहां 3000 छात्रों के होने का विवरण प्राप्त होता है। लेकिन यहां के सभागार के जो खण्डहर मिले हैं उनसे पता चलता है कि सभागार में 8000 व्यक्तियों को बिठाने की व्यवस्था थी। विदेशी छात्रों में तिब्वती छात्रों की संख्या अधिक थी। एक छात्रावास तो केवल तिब्बती छात्रों के लिए ही था। विक्रमशील विश्वविद्यालय में मुख्यत: बौद्ध साहित्य के अध्ययन के साथ-साथ वैदिक साहित्य के अध्ययन का भी प्रबंध था। इनके अलावा विद्या के अन्य विषय भी पढ़ाये जाते थे। बौद्धों के वज्रयान सम्प्रदाय के अध्ययन का यह प्रामाणिक केन्द्र रहा। 12वीं शताब्दी तक विक्रमशील विश्विद्यालय अपने ज्ञान के आलोक से संपूर्ण विश्व को जगमगाता रहा। नालन्दा विश्वविद्यालय को नष्ट करके मुहम्मद खिलजी ने इस विश्वविद्यालय को भी पूर्णत: नष्ट कर दिया।<br />
उड्डयन्तपुर विश्वविद्यालय —<br />
इस विश्वविद्यालय की स्थापना पाल वंश के प्रवर्तक तथा प्रथम राजा गोपाल ने की थी। इसकी स्थापना भी बौद्ध विहार के रूप में हुई थी। आज यहां बिहार नगर है। पहले यह क्षेत्र मगध के नाम से जाना जाता है। 12वीं शताब्दी में यह शिक्षा का अच्छा केन्द्र था। यहां हजारों अध्यापक और छात्र निवास करते थे। अनंत एवं समुचित सुविधाएं एवं व्यवस्थाएं थीं। इसके विशाल भवनों को देखकर खिलजी ने समझा कि यह कोई दुर्ग है। उसने इस पर आक्रमण कर दिया। राजाओं ने तथा उनकी सेनाओं ने इसकी रक्षा के लिए कुछ नहीं किया। विश्वविद्यालय के छात्रों और आचार्यों ने आक्रमणकारियों से मुकाबला किया। परंतु खिलजी की विशालकाय सेना के आगे वे ज्यादा देर तक टिक नहीं पाये। खिलजी ने सभी की क्रूरतापूर्ण हत्या कर दी। जब सभी आचार्य एवं छात्र मारे गये तब जाकर अफगानों का इस पर अधिकार हो पाया। नालंदा विश्वविद्यालय की तरह खिजली की सेना ने इस विश्वविद्यालय के पुस्तकालय को भी जला दिया।<br />
इन विश्वविद्यालयों के अतिरिक्त सौराष्ट्र बलभी विश्वविद्यालय भी काफी प्रसिद्ध रहा है। अन्य असंख्य शिक्षा केन्द्र भारतवर्ष के कोने-कोने में स्थित थे। 317 ई. पू. तमिलनाडु में मदुराई विद्या एवं शिक्षण संस्थानों का केन्द्र रहा है। सुप्रसिद्ध तमिल कवि तिरुवल्लुवर यहां के छात्र थे। उलवेरूनी के अनुसार 11वीं शताब्दी ई. में कश्मीर विद्या का केन्द्र रहा था। इसी शताब्दी के अंतिम भाग में बंगाल के राजा रामपाल ने रामावती नगरी में जगद्धर विहार की स्थापना की थी। उस समय प्राय: प्रत्येक मठ और विहार शिक्षा के केन्द्र होते थे। शंकराचार्य ने वैदिक विषयों के अध्ययन के लिए अनेक विद्यालयों की स्थापना की। ये मठों के नाम से प्रसिद्ध हुए। काशी, कांची, मथुरा, पुरी आदि तीर्थस्थान भी विद्या के प्रसिद्ध केन्द्र रहे हैं।रामदास सोनीhttp://www.blogger.com/profile/01823504717777508844noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4117630712253592267.post-69268732971613481882010-05-24T13:35:00.001+05:302010-05-24T13:37:23.687+05:30पहल करने वालों में ‘‘प्रथम’’ थे सावरकरस्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर की पुण्य तिथि पर विशेष - 26 फरवरी 1966<br />
अप्रितम क्रांतिकारी, दृढ राजनेता, समर्पित समाज सुधारक, दार्शनिक, द्रष्टा, महान कवि और महान इतिहासकार आदि अनेकोनेक गुणों के धनी वीर सावरकर हमेशा नये कामों में पहल करते थे। उनके इस गुण ने उन्हें महानतम लोगों की श्रेणी में उच्च पायदान पर लाकर खड़ा कर दिया। वीर सावरकर के नाम के साथ इतने प्रथम जुडे हैं इन्हें नये कामों का पुरोधा कहना कुछ गलत न होगा। सावरकर ऐसे महानतम हुतात्मा थी जिसने भारतवासियों के लिए सदैव नई मिशाल कायम की, लोगों की अगुवाई करते हुए उनके लिए नये मार्गों की खोज की। कई ऐसे काम किये जो उस समय के शीर्ष भारतीय राजनीतिक, सामाजिक और क्रांतिकारी लोग नहीं सोच पाये थे। <br />
वीर सावरकर द्वारा किये गए कुछ प्रमुख कार्य जो किसी भी भारतीय द्वारा प्रथम बार किए गए -<br />
वे प्रथम नागरिक थे जिसने ब्रिटिश साम्राज्य के केन्द्र लंदन में उसके विरूद्ध क्रांतिकारी आंदोलन संगठितकिया।<br />
वे पहले भारतीय थे जिसने सन् 1906 में ‘स्वदेशी’ का नारा दे, विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी।<br />
सावरकर पहले भारतीय थे जिन्हें अपने विचारों के कारण बैरिस्टर की डिग्री खोनी पड़ी।<br />
वे पहले भारतीय थे जिन्होंने पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की।<br />
वे पहले भारतीय थे जिन्होंने सन् 1857 की लड़ाई को भारत का ‘स्वाधीनता संग्राम’ बताते हुए लगभग एकहजार पृष्ठों का इतिहास 1907 में लिखा।<br />
वे पहले और दुनिया के एकमात्र लेखक थे जिनकी किताब को प्रकाशित होने के पहले ही ब्रिटिश और ब्रिटिशसाम्राज्यकी सरकारों ने प्रतिबंधित कर दिया।<br />
वे दुनिया के पहले राजनीतिक कैदी थे, जिनका मामला हेग के अंतराष्ट्रीय न्यायालय में चला था।<br />
वे पहले भारतीय राजनीतिक कैदी थे, जिसने एक अछूत को मंदिर का पुजारी बनाया था। <br />
सावरकर ने ही वह पहला भारतीय झंडा बनाया था, जिसे जर्मनी में 1907 की अंतर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट कंाग्रेस मेंमैडम कामा ने फहराया था।<br />
सावरकर ही वे पहले कवि थे, जिसने कलम-कागज के बिना जेल की दीवारों पर पत्थर के टुकड़ों से कवितायेंलिखीं। कहा जाता है उन्होंने अपनी रची दस हजार से भी अधिक पंक्तियों को प्राचीन वैदिक साधना के अनुरूप वर्षोंस्मृति में सुरक्षित रखा, जब तक वह किसी न किसी तरह देशवासियों तक नहीं पहुच गई।<br />
सन् 1947 में विभाजन के बाद आज भारत का जो मानचित्र है, उसके लिए भी हम सावरकर के ऋणी हैं। जबकांग्रेस ने मुस्लिम लीग के ‘डायरेक्ट एक्शन’ और बेहिसाब हिंसा से घबराकर देश का विभाजन स्वीकार कर लिया, तो पहली ब्रिटिश योजना के अनुसार पूरा पंजाब और पूरा बंगाल पाकिस्तान में जाने वाला था - क्योंकि उन प्रांतोंमें मुस्लिम बहुमत था। तब सावरकर ने अभियान चलाया कि इन प्रांतो के भारत से लगने वाले हिंदू बहुल इलाकोंको भारत में रहना चाहिए। लार्ड मांउटबेटन को इसका औचित्य मानना पड़ा। तब जाकर पंजाब और बंगाल कोविभाजित किया गया। आज यदि कलकत्ता और अमृतसर भारत में हैं तो इसका श्रेय वीर सावरकर को ही जाता है भारत की स्वतंत्रता के लिए किए गए संघर्षों के इतिहास में वीर सावरकर का नाम बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रखताहै। वीर सावरकर का पूरा नाम विनायक दामोदर सावरकर था। महान देशभक्त और क्रांतिकारी सावरकर ने अपनासंपूर्ण जीवन देश की सेवा में समर्पित कर दिया। अपने राष्ट्रवादी विचारों के कारण जहाँ सावरकर देश को स्वतंत्रकराने के लिए निरन्तर संघर्ष करते रहे, वहीं देश की स्वतंत्रता के बाद भी उनका जीवन संघर्षों से घिरा रहा। ऐसे महान व्यक्तित्व को हमारा सादन नमन।रामदास सोनीhttp://www.blogger.com/profile/01823504717777508844noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4117630712253592267.post-31706078897145098982010-05-24T13:34:00.000+05:302010-05-24T13:34:15.262+05:30क्यों मनाएं 1 जनवरी को नया साल?31 दिसम्बर के नजदीक आते ही जगह-जगह जश्न मनाने की तैयारियां प्रारम्भ हो जाती हैं। होटेल, रेस्तरां, पब इत्यादि अपने-अपने ढंग से इसके आगमन की तैयारियां करने लगते हैं। हैपी न्यू ईयर के बैनर, होर्डिंग, पोस्टर व कार्डों के साथ अल्कोहल की दुकानों की भी चांदी कटने लगती है। कहीं कहीं तो जाम से जाम इतने टकराते हैं कि घटनाएं दुर्घटनाओं में बदल जाती हैं और मनुष्य मनुष्यों से तथा गाडिय़ां गाडिय़ों से भिडऩे लगती हैं। रात-रात भर जागकर नया साल मनाने से ऐसा प्रतीत होता है मानो सारी खुशियां एक साथ आज ही मिल जाएंगी। हम भारतीय भी पश्चिमी अंधानुकरण में इतने सराबोर हो जाते हैं कि उचित अनुचित का बोध त्याग अपनी सभी सांस्कृतिक मर्यादाओं को तिलांजलि दे बैठते हैं। पता ही नहीं लगता कि कौन अपना है और कौन पराया। एक जनवरी से प्रारम्भ होने वाली काल गणना को हम ईस्वी सन् के नाम से जानते हैं जिसका सम्बन्ध ईसाई जगत् व ईसा मसीह से है। इसे रोम के सम्राट जूलियस सीजर द्वारा ईसा के जन्म के तीन साल बाद प्रचलन में लाया गया। भारत में ईस्वी सम्वत् का प्रचलन अग्रेंजी शासकों ने 1752 में किया। अधिकांश राष्ट्रों के ईसाई होने और अग्रेंजों के विश्वव्यापी प्रभुत्व के कारण ही इसे विश्व के अनेक देशों ने अपनाया। 1752 से पहले ईस्वी सन् 25 मार्च से शुरू होता था किन्तु 18वीं सदी से इसकी शुरुआत एक जनवरी से होने लगी। ईस्वी कैलेंडर के महीनों के नामों में प्रथम छ: माह यानि जनवरी से जून रोमन देवताओं (जोनस, मार्स व मया इत्यादि) के नाम पर हैं। जुलाई और अगस्त रोम के सम्राट जूलियस सीजर तथा उनके पौत्र ऑगस्टस के नाम पर और सितम्बर से दिसम्बर तक रोमन संवत् के मासों के आधार पर रखे गए। जुलाई और अगस्त, क्योंकि सम्राटों के नाम पर थे इसलिए, दोनों ही इकत्तीस दिनों के माने गए अन्यथा कोई भी दो मास 31 दिनों या लगातार बराबर दिनों की संख्या वाले नहीं हैं। ईसा से 753 वर्ष पहले रोम नगर की स्थापना के समय रोमन संवत् प्रारम्भ हुआ जिसके मात्र दस माह व 304 दिन होते थे। इसके 53 साल बाद वहां के सम्राट नूमा पाम्पीसियस ने जनवरी और फरवरी दो माह और जोड़कर इसे 355 दिनों का बना दिया। ईसा के जन्म से 46 वर्ष पहले जूलियस सीजर ने इसे 365 दिन का बना दिया। सन् 1582 ई. में पोप ग्रेगरी ने आदेश जारी किया कि इस मास के 04 अक्टूबर को इस वर्ष का 14 अक्टूबर समझा जाए। आखिर क्या आधार है इस काल गणना का? यह तो ग्रहों व नक्षत्रों की स्थिति पर आधारित होनी चाहिए। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् नवम्बर 1952 में वैज्ञानिक और औद्योगिक परिषद के द्वारा पंचांग सुधार समिति की स्थापना की गई। समिति ने 1955 में सौंपी अपनी रिपोर्ट में विक्रमी संवत को भी स्वीकार करने की सिफारिश की थी। किन्तु, तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू के आग्रह पर ग्रेगेरियन कैलेंडर को ही सरकारी कामकाज हेतु उपयुक्त मानकर 22 मार्च 1957 को इसे राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में स्वीकार कर लिया गया। विक्रमी सम्वत् का सम्बन्ध किसी भी धर्म से न हो कर सारे विश्व की प्रकृति, खगोल सिद्धांत व ब्रह्मांड के ग्रहों व नक्षत्रों से है। इसलिए भारतीय काल गणना पंथ निरपेक्ष होने के साथ सृष्टि की रचना व राष्ट्र की गौरवशाली परम्पराओं को दर्शाती है। इतना ही नहीं, ब्रह्मांड के सबसे पुरातन ग्रंथ वेदों में भी इसका वर्णन है। नव संवत् यानी संवत्सरों का वर्णन यजुर्वेद के 27वें व 30वें अध्याय के मंत्र क्रमांक क्रमश: 45 व 15 में विस्तार से दिया गया है। विश्व में सौर मंडल के ग्रहों व नक्षत्रों की चाल व निरन्तर बदलती उनकी स्थिति पर ही हमारे दिन, महीने, साल और उनके सूक्ष्मतम भाग आधारित होते हैं। इसी वैज्ञानिक आधार के कारण ही पाश्चात्य देशों के अंधानुकरण के बावजूद, चाहे बच्चे के गर्भाधान की बात हो, जन्म की बात हो, नामकरण की बात हो, गृह प्रवेश या व्यापार प्रारम्भ करने की बात हो, सभी में हम एक कुशल पंडित के पास जाकर शुभ लग्न व मुहूर्त पूछते हैं। राष्ट्र के स्वाभिमान व देश प्रेम को जगाने वाले अनेक प्रसंग चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से जुड़े हुए हैं। यह वह दिन है जिस दिन से भारतीय नव वर्ष प्रारम्भ होता है। आइए इस दिन की महानता के प्रसंगों को देखते हैं:- <br />
ऐतिहासिक महत्व <br />
1. यह दिन सृष्टि रचना का पहला दिन: आज से एक अरब 97 करोड़, 39 लाख 49 हजार 109 वर्ष पूर्व इसी दिन के सूर्योदय से ब्रह्मा जी ने जगत की रचना प्रारंभ की। <br />
2. विक्रमी संवत का पहला दिन: उसी राजा के नाम पर संवत् प्रारंभ होता था जिसके राज्य में न कोई चोर हो, न अपराधी हो, न भिखारी हो साथ ही जो चक्रवर्ती सम्राट हो। सम्राट विक्रमादित्य ने 2067 वर्ष पहले इसी दिन राज्य स्थापित किया था। <br />
3. प्रभु राम का राज्याभिषेक दिवस: प्रभु राम ने भी इसी दिन को लंका विजय के बाद अयोध्या आने के बाद राज्याभिषेक के लिए चुना। <br />
4. नवरात्र स्थापना: शक्ति और भक्ति के नौ दिन अर्थात्, नवरात्र स्थापना का पहला दिन यही है। प्रभु राम के जन्मदिन रामनवमी से पूर्व नौ दिन उत्सव मनाने का प्रथम दिन। <br />
5. गुरु अंगददेव प्रगटोत्सव: सिख परंपरा के द्वितीय गुरू का जन्मदिवस। <br />
6. आर्य समाज स्थापना दिवस: समाज को श्रेष्ठ (आर्य) मार्ग पर ले जाने हेतु स्वामी दयानंद सरस्वती ने इसी दिन को आर्य समाज स्थापना दिवस के रूप में चुना। <br />
7. संत झूलेलाल जन्म दिवस: सिंध प्रान्त के प्रसिद्ध समाज रक्षक वरूणावतार संत झूलेलाल इसी दिन प्रगट हुए। <br />
8. शालिवाहन संवत्सर का प्रारंभ दिवस: विक्रमादित्य की भांति शालिनवाहन ने हूणों को परास्त कर दक्षिण भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित करने हेतु यही दिन चुना। <br />
9. युगाब्द संवत्सर का प्रथम दिन: 5111 वर्ष पूर्व युधिष्ठिर का राज्यभिषेक भी इसी दिन हुआ। <br />
10. डॉ. केशव राव बलीराम हेडगेवार जन्म दिवस, जो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्थापक थे। <br />
प्राकृतिक महत्व <br />
1. वसंत ऋतु का आरंभ वर्ष प्रतिपदा से ही होता है जो उल्लास, उमंग, खुशी तथा चारों तरफ पुष्पों की सुगंधि से भरी होती है। <br />
2. फसल पकने का प्रारंभ यानी किसान की मेहनत का फल मिलने का भी यही समय होता है। <br />
3. नक्षत्र शुभ स्थिति में होते हैं अर्थात् किसी भी कार्य को प्रारंभ करने के लिये शुभ मुहूर्त होता है। <br />
क्या एक जनवरी के साथ ऐसा एक भी प्रसंग जुड़ा है जिससे राष्ट्र प्रेम जाग सके, स्वाभिमान जाग सके या श्रेष्ठ होने का भाव जाग सके? आइये! विदेशी को फेंक स्वदेशी अपनाएं और गर्व के साथ भारतीय नव वर्ष यानि विक्रमी संवत् को ही मनाएं।रामदास सोनीhttp://www.blogger.com/profile/01823504717777508844noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4117630712253592267.post-73007918227020783182010-05-24T13:31:00.000+05:302010-05-24T13:31:16.416+05:30तुष्टिकरण और इसके घातक परिणामक्या मुस्लिम तुष्टिकरण संघ परिवार द्वारा अपने राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए दशकों से गढ़ा एक तथ्य है या कल्पित शब्द? इस प्रसंग में तुष्टिकरण का अर्थ क्या है और क्या इससे आम मुस्लिम का भला हुआ है? और तुष्टिकरण की नीति से राष्ट्र के रूप में भारत तथा अन्य समुदायों पर क्या प्रभाव पड़ा? सर विंस्टन चर्चिल ने कहा था, ‘एक तुष्टिकर्ता वह है जो मगरमच्छ को भोजन देता है और यह उम्मीद करता है कि वह उसे एक दिन निगल लेगा।’ मुस्लिम कट्टरपंथियों के साथ नरम रवैये के भारतीय अनुभवों पर यह एक पूर्णतया उचित कथन है। इसकी शुरूआत गांधीजी के उस समर्थन से हुई थी, जब उन्होंने 1920 में पूरे मन से सुदूर तुर्की में ‘खिलाफत’ की बहाली का समर्थन किया था। तुष्टिकरण की यह प्रक्रिया तीसरे और चौथे दशक में भी अबाधित रूप से जारी रही और 1947 में भारत के बंटवारे व पाकिस्तान के निर्माण के साथ शिखर पर पहुंची। तब से पाकिस्तान वैश्विक आतंकवाद के केंद्र के रूप में उभरा, जिसका मुख्य निशाना ‘शेष’ भारत को बनाया गया। जनवरी 2004 और मार्च 2007 के बीच जम्मू-कश्मीर, पूर्वोत्तर भारत और वामपंथी आतंकवादी हिंसक घटनाओं में कुल 3,647 बेगुनाह लोग मारे गए, जिसके कारण भारत को इराक के बाद विश्व के दूसरे सबसे खतरनाक क्षेत्र के रूप में विशेष पहचान मिली। पिछले एक दशक में भारत में 53,000 से ज्यादा लोग आतंकवादी हिंसा के शिकार हुए, जबकि कारगिल समेत सभी युध्दों में महज 8,023 लोग मारे गए। यह सिर्फ आंकड़ों की बात नहीं हैं, बल्कि उसके बाद की गई अथवा न की गई कार्यवाही से तुष्टिकरण की नीति और अधिक स्पष्ट हो जाती है। टाइम्स ऑफ इंडिया की जांच-पड़ताल (अगस्त 2007 के आखिरी सप्ताह में प्रकाशित हुई थी) जिस से पता चला कि अधिकांश जिहादी वारदातों में चाहे कितने ही बड़े पैमाने पर हिंसा क्यों न हुई हो और चाहे कितनी ही संपत्ति क्यों न नष्ट हुई हो-मामले दर्ज नहीं किए गए। अधिकांश मामलों की जांच किसी न किसी बहाने से रोक दी गई, क्योंकि खोज के सूत्र किसी खास समुदाय की ओर बढ़ रहे थे। यह तुष्टिकरण है। क्या यह किसी प्रकार राष्ट्रवादी मुस्लिमों की सहायता करता है, जो मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा हिस्सा है। हैदराबाद के लुंबिनी पार्क विस्फोट के तीन महीने पहले ठीक इसी तरह का विस्फोट मक्का मस्जिद में हुआ था। अभी तक इसकी जांच-पड़ताल एक इंच भी आगे नहीं बढ़ी। दरअसल, जैसा कि आडवाणीजी ने संसद में (मानसून सत्र 2007) उल्लेख किया था, तीन संदेहास्पद व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया था। बाद में उन्हें छोड़ दिया गया, वह इसलिए नहीं कि वे बेगुनाह थे, बल्कि ऐसा करने के लिए राजनैतिक दबाव पड़ा। अर्थशास्त्री विवेक राय ने उल्लेख किया कि हालिया हैदराबाद के विस्फोट से महज कुछ दिन पहले इस्लामिक चरमपंथी गुट एआईएमआईएम ने, जिसके पास महज एक संसद सदस्य एवं चार विधान सभा सदस्य हैं, मक्का मस्जिद विस्फोट की जांच तथा आतंकवादियों के खिलाफ आतंक निरोधी दस्ते की कठोर रवैये की निंदा की। तत्पश्चात् जांच सीबीआई के हवाले कर दी गई। टाइम्स ऑफ इंडिया की खोजबीन से मालूम हुआ कि जांच का एक हिस्सा ही सीबीआई को सौंपा गया, इसलिए जांच आगे नहीं बढ़ सकी। परिणामस्वरूप संपूर्ण जांच ठंडी पड़ गई। यह भी उल्लेखनीय है कि गृह मंत्री शिवराज पाटिल, आडवाणीजी द्वारा लगाए गए आरोपों का उत्तर देने में असफल रहे कि मक्का मस्जिद मामले में संदेहास्पद राजनैतिक कारणों से छोड़े गए थे। न तो इस केस में और न ही मालेगांव विस्फोट में तथा न ही मुंबई टे्रन धमाके के अभियुक्तों की धर-पकड़ अभी तक हो सकी है। और असल में सभी पूर्व जांच को स्थगित कर दिया गया है। कारण बिल्कुल साफ है। जांच की सुई मुस्लिम समुदाय वाले इलाकों की ओर संकेत करती है। जाहिर है कि वोट बैंक के कारण वे आधिकारिक निगरानी से पूर्णतया सुरक्षित हैं कि उनके बीच कौन से संदेहास्पद व्यक्ति आते-जाते हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया अपने संपादकीय में कहता है कि आतंकवादियों के प्रति भारत की कमजोर व ढुलमुल (दफ्तरी) प्रतिक्रिया, ज्यादा आतंकी घटनाओं का प्रमुख कारण है और वास्तव में यह तुष्टिकरण नीति के स्वाभाविक नतीजे हैं। केंद्रीय गृह-मंत्री पोटा जैसे कठोर आतंकविरोधी कानून की मांग को इंकार करते हैं। जैसा कि हम जानते है कि पोटा को वर्तमान सरकार ने सत्ता में आते ही रद्द कर दिया था। उनकी प्रतिक्रिया थी कि इस तरह का कानून, राक्षसी कानून होगा। टाइम्स ऑफ इंडिया ने लोकतांत्रिक देशों की एक फेहरिस्त दी है, जिन्होंने कठोर आतंक विरोधी कानूनों का निर्माण किया है, जिसके जरिए जांच अधिकारी संदेहास्पद व्यक्तियों की धर-पकड़, उनके ठिकाने की जांच और साइबर आधारित प्रमाणों को हासिल करते हैं। अधिकांश मामलों में आतंकी गतिविधियों की सजा आजीवन कारावास से कम नहीं होती, वह भी इसलिए कि अधिकांश यूरोपियन देशों ने मौत की सजा रद्द कर दी है। यहां के सेक्युलर इस तरह के कानूनों को राक्षसी कानून कहकर खारिज करते हैं। इस प्रकार जेहादी आतंकी गुटों को पहले ही नोटिस भेज दी जाती है कि उनके साथ सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाया जाएगा। <br />
सत्ताधारी गठबंधन- क्या इनकी गतिविधियों को देखकर हम इन्हें माफिया कहें?- ने आतंकवादी गतिविधियों पर आंखें मूंद ली हैं और इसे महज दिग्भ्रमित बच्चों का कारगुजारी बताया हैं। दरअसल, सत्ताधारी गठबंधन आतंक के खिलाफ युध्द छेडऩे से जानबूझकर अलग है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने ठीक ही कहा कि बहुत लंबे समय से हम आतंक को राजद्रोह की तरह निपटने में असफल रहे। फिर कैसे हम आतंकवादियों के खिलाफ लोगों को एकजुट खड़े होने के लिए प्रेरित कर सकते हैं? तुष्टिकरण नीति उस वक्त बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है, जब हम आतंकी घटनाओं से निपटने के वर्तमान सरकार के दृष्टिकोण की तुलना अंतराष्ट्रीय प्रयासों मसलन- अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया की नीतियों से करते हैं। यहां तक कि सऊदी अरब, मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम देश भी इसे अंतर्राष्ट्रीय समस्या मानते हैं। लेकिन भारत ऐसा नहीं मानता। पेट्रियाट एक्ट (जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है) आतंकवादियों को आम आदमी से भिन्न व्यवहार करता है। यह कानून आतंकवादियों, उनको समर्थन देने वालों व उन्हें वित्तीय मदद मुहैया कराने वालों के साथ कठोर है। लगभग सभी देशों ने आतंकवादियों को वित्तीय मदद से रोकने के लिए कदम उठाए हैं, लेकिन हमारी सरकार सुस्त है। आखिर क्यों? माक्र्सवादियों द्वारा समर्थित जेहाद का भयानक चेहरा यूपीए सरकार व कांग्रेस के पीछे छिपा है। आतंकवाद जैसे गंभीर मुद्दे पर कांग्रेस ने कैसे अपने आप को एआईएमआईएम के हवाले कर दिया। बांग्लादेश के सीमा पर पकड़े गए एक व्यक्ति से खुफिया एजेंसी को पहले ही सूचना प्राप्त हो चुकी है कि बांग्लादेश और पाकिस्तान से बड़े पैमाने पर आरडीएक्स न केवल पहुंच चुका है, बल्कि उसका वितरण भी हो चुका है। समाचार-पत्रों की रिपोर्ट के अनुसार वे इसकी जांच करना चाहते थे और ठिकानों का पता भी लगाना चाहते थे। लेकिन आश्चर्यजनक यह है कि आंध्र प्रदेश की कांग्रेसी सरकार ने अधिकारियों को ऐसा करने की अनुमति नहीं दी, क्योंकि उन्हें डर था कि इससे मुस्लिम भावनाएं भडक़ेगी। मुसलमानों की प्रतिक्रिया की डर से पकड़े गए इन लोगों को छोड़ दिया गया। आशंका के मुताबिक हैदराबाद का दूसरा विस्फोट इसी का नतीजा था। ये तुष्टिकरण नीति के पुरूस्कार हैं। लेकिन मामला यहीं पर खत्म नहीं होता। अफजल गुरू की फांसी पर टाल-मटोल रवैये को देखें। एक कांग्रेसी मुख्यमंत्री खुले रूप से कहता है कि वह चाहता है कि सरकार फांसी की सजा को क्रियान्वित न करे। केंद्रीय गृह मंत्री यह बताने में असफल रहे हैं कि किस परिस्थिति बस संसद पर हमले की योजना में शामिल व्यक्ति की फांसी में देरी हो रही है। वामपंथी और स्वयंभू समाजवादी बड़े मसले को उठा रहे हैं कि एक समुदाय की भावना किस तरह प्रभावित होगी, यदि कोर्ट द्वारा दी गई फांसी के आदेश का क्रियान्वयन नहीं होता है। इसका अर्थ है कि इस देश में दो कानून हैं। एक गैर मुस्लिमों के लिए और दूसरा मुस्लिमों के लिए तथा अपराधियों मुस्लिम कानूनन मिलने वाले दण्ड से भी मुक्त रहते हैं मुस्लिम समुदाय के डर से आतंकी सौदागरों के प्रति अनिच्छुक कार्यवाही, धर्मनिरपेक्ष गुटों की एक रणनीति है, जो तुष्टिकरण नीति के रूप से लगातार जारी है। दूसरे अर्थों में इसका मतलब यह भी है कि मुस्लिम समुदाय का तथाकथित गुस्सा और इस गुस्से के कारण आतंक का सहारा लेने वालों के प्रति प्रदर्शित सहानुभूति को न्याय-संगत बनाता है।<br />
अनेकमुंही शैतान -- आतंकवाद के प्रति नरम रवैया दरअसल, तुष्टिकरण की सौ-मुंही नीति का महज एक भाग है। नेहरू की सेक्यूलर छूट जिसमें जम्मू-कश्मीर को धारा 370 व हिंदू कोड बिल कानून (लेकिन समान नागरिक संहिता नहीं) के जरिए स्वायत्तता दी गई। धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के तहत धर्म-परिवर्तन व अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थान जारी रहे। गौ-हत्या प्रतिबंध मखौल की वस्तु बना और हज सब्सिडी दी गई। इनको आस्था की वस्तु के रूप में (राष्ट्र के राजनीतिक जीवन में) देखा गया और इन सेक्युलर प्रावधानों के बुरे नतीजे अब हमारे सामने स्पष्ट हैं। समय के साथ, बीमारी बढ़ती ही गई। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने घोषणा की कि भारत के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला हक है। 2001 की जनगणना के धर्म आधारित आंकड़ों की मनचाही व्याख्या, पोटा को निरस्त करना, मुस्लिमों की आर्थिक स्थिति में सुधार की सिफारिश के लिए सच्चर कमेटी की नियुक्ति, मुस्लिमों को 5 प्रतिशत आरक्षण देने की वकालत, अल्पसंख्यक संस्थाओं को अन्य पिछड़ा वर्ग आरक्षण से बाहर रखना, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक दर्जा, आईएमडीटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को पलटने की कोशिश, अल्पसंख्यकों के लिए एक अलग मंत्रालय का गठन, हज सब्सिडी में बढ़ोत्तरी, मदरसों को यूनिवर्सिटी से संबध्द करने के इरादे की घोषणा आदि तुष्टिकरण नीति के विविध रूप हैं। छद्म-भावना, छद्म-सहानुभूति और पवित्र संवेदनशीलता ने सेक्युलरवाद के चारों तरफ एक तिलिस्म तैयार किया है। यह भी एक आकस्मिक घटना है कि पूरा विश्व अमेरिका से लेकर यूरोप और आस्ट्रेलिया तक एक ही समय में एक साथ एक ही समस्या से जूझ रहा है। भारत इससे केवल एक विचित्र संतुष्टि प्राप्त कर सकता है कि उत्तर औपनिवेशिक काल में समस्त विश्व की तुलना में भारत मुस्लिम समस्या को समझने में ज्यादा गलती नहीं की। पश्चिम में पिछले कुछ समय में आतंकवाद पर तमाम पुस्तकें लिखी गई, जिसमें इस्लामिक आतंकवाद के उभार व उनके कारण पश्चिम में मडंराते खतरों पर चर्चा हुई। मुख्य प्रकाशक, यूनिवसिर्टी प्रेस व मुख्य मीडिया ने इस समस्या पर काफी गौर किया और काफी विवेचना की। उन्होंने इसका खुलासा किया कि पश्चिम के उदारवादी मूल्यों, मसलन बहु-सांस्कृतिकवाद, लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्लामिक चरमपंथी उद्देश्यों के लिए किस तरह दुरूपयोग किया गया। वहीं भारत की मीडिया, शैक्षणिक समुदाय व राजनीतिज्ञों ने शायद ही इस प्रकार की खोजबीन की। ऐसे प्रश्नों पर चर्चा चलाने मात्र से ही, हालांकि अकादमिक तौर पर ही, उसे सांप्रदायिक घोषित कर दिया जाता है। ऐसा क्यों? इस सेक्युलर उद्योग में कुछ निहित स्वार्थ संलग्न हैं, जबकि सच्चाई यह है कि यह उद्योग जहरीले उत्पाद बना रहा है, जो आने वाले समय में सभ्यता का गला घोट देगी। धर्मनिरपेक्षवाद के ये झंडाबरदार सांप्रदायिकता के सबसे वीभत्स रूप को पोषित कर रहे हैं। हम नैतिक रूप से सही हैं या गलत, यह बहस अब काफी पीछे छूट चुकी है। अब हम एक ऐसे समय में हैं जब इसके द्वारा किए भयानक कृत्यों का उधार चुकाना है। केवल अच्छी-अच्छी बात करके हम राष्ट्रीय बैचेनी को नहीं ढक सकते। विस्फोटकों को ढेर किसी भी समय विस्फोट कर सकता है और इसके नतीजे बहुत ही भयानक होंगे। स्वतंत्र भारत की नीतियों के अवलोकन से स्पष्ट हो जाता है कि धर्मनिरपेक्षवादी किस तरह मुस्लिम चरमपंथियों के जहरीले वृक्ष का पोषित किए। इस दोष का बहुत बड़ा हिस्सा निम्न कारणों से कांग्रेस के सिर पर है। गांधीयुग में हिंदू-मुस्लिम एकता के नाम पर धर्मनिरपेक्षता की मीठी-मीठी बातें हुईं, लेकिन अनैतिक बंटवारे के बाद भी कुछ भी बेहतर हाथ नहीं लगा। ब्रिटिश से सत्ता हासिल करने व अगले तीन दशकों तक शासन संभालने के कारण इसने (कांग्रेस) संवैधानिक प्रावधानों की नींव रखी। आजाद भारत के अधिकांश वर्षों में इसने ही शासन किया। भाजपा, शिवसेना और अकाली दल को छोडक़र दूसरी पार्टियों ने भी मुस्लिम चरमपंथियों की खुशामद करके कांग्रेस को बाहर करने की कोशिश की।<br />
हिंदू-मुस्लिम संबंधों का इतिहास -- यदि कोई 1300 वर्षों के हिंदू-मुस्लिम संबंधों की वस्तुपरक जानकारी लेने का इच्छुक है, तो उसे इतिहास के पन्नों में झांकना होगा। नौ-परिवहन (व्यापार) के जरिए दक्षिण भारत के तटों पर इस्लाम के पहुंचने की घटना कोई उल्लेखनीय बात नहीं थी। लेकिन जब वे मध्?यकाल में आक्रमणकारी के रूप में उत्तर-भारत के रास्ते आए, तब उनका संघर्ष उस हिन्दू धर्म के साथ हुआ, जो कि धर्म का विरोध नहीं करता है। मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में अरबों ने 712 ईसवी में सिंध पर आक्रमण कर उस पर कब्जा कर लिया और हिंदू राजा दहीर 20 जून को मारा गया। राजा की मृत्यु के बाद रानी और दूसरी औरतों ने अपने सम्मान की रक्षा के लिए जौहर कर लिया। 17 वर्ष से ज्यादा के जिन पुरूषों ने इस्लाम स्वीकार करने से इनकार किया वे मौत के घाट उतार दिए गए। बाद के सभी युध्दों में, जिसमें मुस्लिम विजेताओं ने गैर-मुस्लिमों को रौंदा, पराजितों को भयानक अपमान सहना पड़ा। सच तो यह है कि मध्?यकाल का इतिहास निशंस हत्या, मारकाट, लूटपाट, जबरन धर्म-परिवर्तन, हिंदू महिलाओं के साथ बलात्कार से भरा पड़ा है, जैसा कि मुस्लिम इतिहासकारों ने भी उल्लेख किया है। मध्?यकालीन भारत ने ऐसे सांस्कृतिक संघर्ष को देखा, जिसमें मुस्लिम काफी भारी पड़े। लेकिन शिवाजी और गुरू गोविंद के उदय के बाद (दोनों पंथ निरपेक्ष राजा थे) हिंदू अस्मिता को काफी बल मिला। 20 फरवरी 1707 को औरंगजेब की मृत्यु के बाद हिंदू-मुस्लिम संबंधों का एक युग खत्म हो गया। उस समय मुगल साम्राज्य अपने रक्तरंजित इतिहास के आधो-काल खंड से जब आगे बढ़ चुका था, तब इसका मुस्लिम वर्चस्व टूटने लगा था। औरंगजेब की मृत्यु से पहले के 180 सालों में में 6 मुगल शासक- बाबर, हुमायूं, अकबर, शाहजहां, जहांगीर और औरंगजेब ने शासन किया। सभी शासक शक्तिशाली थे। अकबर को छोडक़र शेष सभी बहुत हद तक इस्लामी धर्मान्धाता के शिकार थे। जबकि अगले 52 सालों में (1707 से लेकर 1759 तक) आठ मुगल शासक रहे, जिसमें से चार की हत्या कर दी गई, एक को अपदस्थ कर दिया और महज तीन ही शांतिपूर्ण मृत्यु हासिल कर सके। जून 1757 में प्लासी के युध्द में क्लायु के हाथों सिराजुद्दौला की हार के बाद मुगल साम्राज्य का पतन तेजी से होना शुरू हो गया। <br />
भारतीय इस्लाम -- 18वीं शताब्दी में मराठा-सिख-जाट और राजपूतों के नेतृत्व में स्थानीय शक्तियों ने विदेशी शक्तियों पर अपना अधिकार (क्षेत्रीय-सांस्कृतिक दोनों) जमाना शुरू कर दिया। अंतिम मुगल बादशाह भारतीय मूल्यों से काफी प्रभावित थे। एक खास तरह के इस्लाम का तेजी से विकास हुआ, जिसने अन्य धर्मों के साथ सामंजस्य बैठाया। अवध का नबाव वाजिद अली शाह औरंगजेब से कोसों दूर था। भारत के 95 प्रतिशत से ज्यादा मुस्लिम धर्म-परिवर्तन (हिंदुओं) से बने हैं। मेरा विश्वास है कि यह आपसी आदान-प्रदान यदि अंग्रेजों द्वारा बाधित नहीं किया गया होता, तो यहां के मुस्लिम अपने धर्म पर विश्वास करते हुए भी देश की संस्कृति में रच-बस जाते। अंतिम मुगल शासक बहादुर शाह जफर मराठों का पेंशनर था। दूसरे आंग्ल-मराठा युध्द में पटपडग़ंज की लड़ाई में मराठा, ब्रिटिश जनरल लेक के हाथों पराजित हो गए। युध्द की याद में पत्थर का एक छोटा सा स्मारक बना, जो दिल्ली के निकट नोयडा गोल्फ कोर्स के आज भी मौजूद है। ब्रिटिश के साथ मुठभेड़ मुस्लिमों ने नहीं बल्कि हिंदुओं ने शुरू की। 1857 में पहली गोली बा्रहमण, मंगल पांडे ने चलाई। प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम में शामिल अधिकांश शासक हिंदू ही थे, लेकिन उनका मकसद बहादुर शाह द्वितीय को बतौर बादशाह गद्दी पर बैठाना था। दिल्ली की गद्दी पर बैठते ही बहादुर शाह का प्रथम आदेश गौ-हत्या पर प्रतिबंध था और जिसके न होने पर फांसी की सजा का प्रावधान था।<br />
बांटो और राज करो -- 1857 के विद्रोह को दबाने के बाद परिस्थितियों में भारी बदलाव आया। अपने साम्राज्यवादी हितों को सुरक्षित करने के लिए ब्रिटिश ने ‘बांटो और राज करो’ की नीति का अनुसरण किया और दो धाराओं की मिलन प्रक्रिया को उलट दिया। एक ब्रिटिश अफसर, कर्नाटिकश ने एशियाटिक रिव्यू में लिखा है कि भारतीय प्रशासन-राजनीतिक, नागरिक व सैनिक- का सिध्दांत ष्ठद्ब1द्बस्रद्ग द्गह्ल द्बद्वश्चद्गह्म्ड्ड होना चाहिए। लार्ड एलफिंस्टोन ने 1859 में एक आफिशियल रिकॉर्ड में दर्ज किया कि क्पअपकम मज पउचमतं रोमन का पुराना सिध्दांत है और यह हमारा भी होना चाहिए। (रुशह्म्स्र श्वद्यश्चद्धद्बठ्ठह्यह्लशठ्ठद्ग, त्रश1द्गह्म्ठ्ठशह्म् शद्घ क्चशद्वड्ढड्ड4, रूद्बठ्ठह्वह्लद्ग शद्घ रूड्ड4 14, 1859)। 1888 में सर जान स्ट्राचे लिखते हैं, ‘विशुध्द सत्य यह है कि दो विरोधी धर्मों का एक साथ अस्तित्व भारत में हमारी राजनीतिक स्थिति का एक मजबूत आधार है।’ (स्द्बह्म् छ्वशद्धठ्ठ स्ह्लह्म्ड्डष्द्धद्ग4, ढ्ढठ्ठस्रद्बड्ड, 1888, श्च.255½<br />
द्वि-राष्ट्रीय सिध्दांत व अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी -- ‘बांटो और राज्य करो’ की नीति के तहत अंगरेजों ने सर सैयद अहमद खान को प्रोत्साहित करना शुरू किया, जो 1857 की क्रांति से काफी पहले ही ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में शामिल हो चुके थे। 1857 के गदर के दौरान वे अंग्रेजों के साथ रहे। बाद में चलकर वे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना की (1920), जो बाद में मुस्लिम राजनीति (पाकिस्तान मूवमेंट) का केंद्र बिंदु बना। सर सैयद इस बात को बखूबी समझते थे कि ब्रिटिश मालिकों की सेवा करके वे मुस्लिमों के हितों की रक्षा बेहतर ढंग से कर सकते हैं। पिछले व वर्तमान शासकों के बीच की मैत्री हिंदुओं के खिलाफ थी। परंपरागत मुस्लिम समुदाय के लिए उन्होंने अपने विचारों को सैध्दांतिक जामा पहनाया। उन्होंने मुस्लिमों व ईसाइयों की मित्रता को इस्लामिक करार दिया। सर सैयद अहमद खान, मुहम्मद एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज फंड कमेटी के अवैतनिक आजीवन सचिव रहे और चंदे निश्चित तौर पर मुस्लिम व ईसाइयों से ही लिए गए न कि किसी अन्य से। उन्होंने यह भगीरथ प्रयास किया कि मुसलमान व ब्रिटिश सबसे अच्छे मित्र हैं। मुस्लिम राजनीति में सर सैयद की परंपरा मुस्लिम लीग (1906 में स्थापित) के रूप में उभरी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (1885 में स्थापित) के विरूध्द उनका प्रोपेगंडा था कि कांग्रेस हिंदू आधिापत्य पार्टी है और प्रोपेगंडा आजाद-पूर्व भारत के मुस्लिमों में जीवित रहा। कुछ अपवादों को छोडक़र वे कांग्रेस से दूर रहे और यहां तक कि वे आजादी की लड़ाई से भी हिस्सा नहीं लिया। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि ब्रिटिश-भारत के मुस्लिम बहुल राज्यों मसलन-बंगाल, पंजाब में लगभग सभी स्वतंत्रता सेनानी हिंदू या सिख थे। सर सैयद अहमद की सफलता में अंगरेजों का अपना निहित स्वार्थ था, क्योंकि उन्हें कांग्रेस के प्रतिकार के रूप में देखा गया, क्योंकि ए ओ ह्यूम द्वारा स्थापना के तीन वर्षों के अंदर अंग्रेजों को इस बात का अंदेशा हो गया था कि यह सेटी वाल्व की जगह भस्मासुर साबित होगा। अलीगढ़ कालेज का प्रधानाचार्य अंगरेज, मसलन-थिओडोर बेक व मोरीसन बने, जो सर सैयद अहमद की नीतियों के सक्रिय प्रवक्ता बने। इंग्लैंड में अपने जीवन व कैरियर को त्याग चुके बेक ने भारत में मुसलमानों की सेवा में अपने आप को समर्पित कर दिया। वह अलीगढ़ कालेज की ‘इंस्टीटयूट गजेट’ के कार्यकारी संपादक बने और अपने अनेक संपादकीय और लेखों में कहा कि भारत द्वि-राष्ट्र या अनेक राष्ट्र हैं और इसलिए संसदीय सरकार भारत के लिए उपयुक्त नहीं है। यदि यह सौंपी जाती है तो बहुसंख्यक हिंदू ही शासक होंगे और कोई मुस्लिम शासक नहीं होगा। बेक कहते हैं, ‘कांग्रेस का उद्देश्य यह है कि देश की राजनीतिक सत्ता को हस्तांतरण ब्रिटिश से हिंदुओं के हाथ में हो। यह आर्म्स एक्ट को रद्द करने की मांग करती है और सेना के खर्च में कटौती चाहती है। जिससे परिणामस्वरूप सीमाप्रांत की रक्षा कमजोर होगी। मुसलमानों की इस मांग से कोई भी सहानुभूति नहीं है। इसलिए मुसलमानों व अंगरेजों को एकजुट रहना जरूरी है ताकि इन आंदोलनकारियों से लड़ा जा सके और लोकतांत्रिक सरकार को आने से रोका जा सके। इसलिए हम सरकार के प्रति स्वामीभक्ति व एंग्लो-मुस्लिम मित्रता की वकालत करते हैं।’ यहां पर, मार्च 16, 1888 को मेरठ में दिए गए सर सैयद अहमद के भाषण का संक्षिप्त उल्लेख जरूरी है: <br />
क्या इन परिस्थितियों में संभव है कि दो राष्ट्र-मुसलमान व हिंदू-एक ही गद्दी पर एक साथ बैठे और उनकी शक्तियां बराबर हों। ज्यादातर ऐसा नहीं। ऐसा होगा कि एक विजेता बन जाएगा और दूसरा नीचे फेंक दिया जाएगा। ऐसी उम्मीद रखना कि दोनों बराबर होंगे, असंभव और समझ से परे है। साथ ही इस बात को भी याद रखना चाहिए कि हिंदुओं की तुलना में मुसलमानों की संख्या कम है। हालांकि उनमें से काफी कम लोग उच्च अंग्रेजी शिक्षा हासिल किए हुए हैं, लेकिन उन्हें कमजोर व महत्वहीन नहीं समझना चाहिए। संभवत: वे अपने हालात स्वयं संभाल लेंगे। यदि नहीं, तो हमारे मुसलमान भाई, पठान, पहाड़ों से असंख्य संख्या में टूट पड़ेंगे और उत्तरी सीमा-प्रांत से बंगाल के आखिरी छोर तक खून की नदी बहा देंगे। अंग्रेजों के जाने के बाद कौन विजेता होगा, यह ईश्वर की इच्छा पर निर्भर करेगा। लेकिन जब तक एक राष्ट्र दूसरे को नहीं जीत लेगा और उसे आज्ञाकारी नहीं बना लेगा, तब तक शांति स्थापित नहीं हो सकेगी। यह निष्कर्ष ऐसे ठोस प्रमाणों पर आधारित है कि कोई इसे इनकार नहीं कर सकता। आगा खां ने 1954 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों को निम्न शब्दों में भेंट दी:<br />
‘प्राय: विश्वविद्यालय ने राष्ट्र के बौध्दिक व आध्?यात्मिक पुनर्जागरण के लिए पृष्ठभूमि तैयार की है।ज्अलीगढ़ भी इससे भिन्न नहीं है। लेकिन हम गर्व के साथ दावा कर सकते हैं कि यह हमारे प्रयासों का फल है न कि किसी बाहरी उदारता का। निश्चित तौर यह माना जा सकता है कि स्वतंत्र, सार्वभौम पाकिस्तान का जन्म अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में ही हुआ था।’<br />
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फखरूद्दीन अली अहमद के जीवनीकार रहमानी बंटबारे में अलीगढ़ की भूमिका के बारे में कहते हैं, ‘ज् 1940 के बाद मुस्लिम लीग ने अपने राजनैतिक सिध्दांतों के प्रसार के लिए इस यूनिवर्सिटी को एक सुविधाजनक और उपयोगी मीडिया के रूप में इस्तेमाल किया और द्विराष्ट्र सिध्दांत का जहरीली बीज बोया।ज् यूनिवर्सिटी के अध्?यापक व छात्र सारे देश में फैल गए और मुसलमानों को यह समझाने की कोशिश की कि पाकिस्तान बनने का उद्देश्य क्या है और उससे फायदे क्या हैं।<br />
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अक्टूबर 1947 में ऐसा पाया गया कि पाकिस्तानी सरकार ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से अपनी सेना के लिए अफसरों की नियुक्ति की। उस समय उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत को यूनिवर्सिटी के उप-कुलपति को आदेश देना पड़ा कि कोई पाकिस्तानी अफसर यूनिवर्सिटी न आने पाए। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संदिग्ध इतिहास के बावजूद सेक्युलर गुट कानून बनवाने में व्यस्त हैं कि मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाए। यह हास्यास्पद लगता है, क्योंकि अल्पसंख्यक दर्जा के बिना ही यूनिवर्सिटी के 90 प्रतिशत छात्र और शिक्षक मुस्लिम हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने इस सेक्युलर प्रयासों पर विराम लगा चुकी है।<br />
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मुस्लिम अलगाववाद का विस्तार<br />
मुस्लिम समस्या (मुस्लिम अलगाववाद) प्रत्येक संवैधानिक सुधारों के बाद बढ़ती गई, जिसे ब्रिटिश सरकार ने उत्तरदायी सरकार बनाने के मकसद से किया। भारतीय परिषद् कानून (1892) ने पहली बार गवर्नर की विधान परिषद् में मुस्लिमों को अलग से प्रतिनिधिात्व मिला। मुसलमानों को ऐसे वर्ग के रूप में चिह्नित किया गया, जिसका प्रतिनिधित्व होना था। यह बात अलग है कि उनका प्रतिनिधि मुसलमानों के द्वारा नहीं, बल्कि गवर्नर जनरल के द्वारा चुना जाना था। मार्ले-मिंटो सुधार से पहले के बहस-मुबाहिसे के लिए 1906 में एच. एच. खान के नेतृत्व में विशिष्ट मुसलमानों का एक प्रतिनिधिमंडल लार्ड मिंटो से शिमला में मिला।<br />
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उसने मांग की नगरपालिका तथा जिला परिषदों में पृथक निर्वाचन मंडल द्वारा मुसलमानों की निश्चित भागीदारी सुनिश्चित की जाय। प्रांतीय परिषदों में मुस्लिम समुदाय के राजनीतिक महत्व के अनुरूप हिस्सेदारी सुनिश्चित की जाय। यह भागीदारी एक ऐसे निर्वाचक मंडल के द्वारा तय की जाय, जिसमें केवल मुसलमान हों। इसी तरह की व्यवस्था इंपीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल के लिए भी की जाय।<br />
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1909 का मार्ले-मिंटो सुधार, जिसने केंद्रीय व प्रांतीय विधान परिषदों का विस्तार किया, ने कुछ सदस्यों के चुनाव की व्यवस्था की। प्रत्येक परिषद् में अतिरिक्त मुस्लिम सदस्यों रखे गए। ये सदस्य पृथक मुस्लिम निर्वाचक मंडल से चुन कर आते थे। पृथक निर्वाचक मंडल मद्रास और असम प्रांतीय परिषद् के लिए छह, बांबे, बिहार, उड़ीसा और संयुक्त पांत के लिए चार और बंगाल के लिए पांच सदस्य चुनने का अधिकार था। साथ ही, मुस्लिमों को यह भी अधिकार था वे आम मतदाता के साथ चुनाव में हिस्सा ले सकें। वास्तव में अंग्रेजों द्वारा पृथक निर्वाचक मंडल की व्यवस्था पाकिस्तान के निर्माण की तरफ पहला कदम था। 1946 के प्रांतीय चुनावों में उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रांत को छोडक़र, मुस्लिम लीग ने मुस्लिम क्षेत्रों में कांग्रेस को रौंद दिया।<br />
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सिविल सोसाइटी मूवमेंट में मुस्लिम विरोध<br />
मुस्लिमों की राष्ट्रीय राजनीति से जानबूझकर अलगाव बंगाल में पहली बार देखने को मिला। 1851 में बंगाल में ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन की स्थापना हुई, जिसके अध्?यक्ष राजा राधाकांत देब और सचिव देवेंद्र नाथ टैगोर बने। धर्म, जाति व भाषा के भेदभाव के बिना कोई भी भारतीय इसका सदस्य बन सकता था। शुरूआत से ही अखिल भारतीय दृष्टिकोण रखा गया और मद्रास व पुणे में इसी तरह के संगठनों से सहयोग भी किया गया।<br />
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एसोसिएशन की मांगों में क्या सांप्रदायिक हो सकता था। देश के स्थानीय प्रशासन में सुधार, कानूनों व नागरिक प्रशासन में आवश्यक सुधार ताकि भारतीयों की भलाई सुनिश्चित हो सके, कर में कमी, जीवन और संपत्ति की सुरक्षा, ईस्ट इंडिया कंपनी के एकाधिकार से राहत, स्थानीय उद्योगों का विकास, लोगों की शिक्षा व उच्च प्रशासनिक सेवाओं में प्रवेश के लिए प्रोत्साहन या विधान सभा की दो-तिहाई सीटें भारतीयों के लिए सुरक्षित करना उनकी मांगें थीं।<br />
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लेकिन मुस्लिम इन आंदोलनों से यह बहाना बनाकर दूर रहे कि इसमें धनी जमीदारों का आधिपत्य है और यह वर्गीय हितों को देखता है। यह मुसलमानों के हितों का प्रतिनिधित्व नहीं करता, क्योंकि अधिकांश मुसलमान रैयत या किसान हैं। इसलिए मुसलमानों ने 1856 में मुहम्मडन एसोसिएशन की स्थापना की। संगठन का नाम समुदाय को दर्शाता है न कि किसी वर्ग को। लेकिन ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन ने यह कहकर मुहम्मडन एसोसिएशन की स्थापना का स्वागत किया कि यह राष्ट्रीय समस्या को हल करने में मदद करेगा। 1859 में ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन ने रैयत की मांगों का समर्थन किया और शोषक नील उत्पादकों के उस प्रयास में हिस्सा नहीं, जिसमें 1859 के एक्ट-ग् को रद्द कराने का प्रयास किया था। 1860 में इसने सरकार से अनुरोध किया कि इंडिगो प्लांटेशन संबंधी प्रश्नों को हल करने के लिए एक जांच कमेटी नियुक्ति की जाए। यह राष्ट्रीय हित में काम कर रही थी, हालांकि यह उसके वर्गीय हित के खिलाफ भी था। फिर भी मुहम्मडन एसोसिएशन की तरफ से कोई मदद नहीं मिली।<br />
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1867 में आनंदमोहन बोस और सुरेंद्र नाथ बनर्जी ने इंडियन एसोसिएशन की स्थापना की। ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन की तरह यह किसी उच्च वर्गों का प्रतिनिधित्व नहीं करता था, बल्कि इसका काम पढ़े-लिखे मध्?यवर्गीय लोगों में राजनीतिक चेतना फैलाना था। इंडियन एसोसिएशन ने जनहित के लिए अनेक मुद्दों-जैसे आर्म्स एक्ट, वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट, बंगाल टीनैंसी एक्ट 1885 के पक्ष या विरोध में आंदोलन किया। इसने अर्थव्यवस्था, स्थानीय स्वशासन, वैधानिक व्यवस्था तथा प्रेस की स्वतंत्रता जो सभी भारतीयों की हितों से संबंधित थे, के लिए जनमत तैयार किया। हिंदुओं तथा मुसलमानों के बीच दोस्ताना संबंध बनाना एसोसिएशन का एक प्रमुख उद्देश्य था।<br />
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परंतु, मुसलमानों की कृपा से यह केवल स्वप्न ही रह गया। 1877 में बंगाल का एक मुसलमान सैयद आमीर अली, जिसे अपने ईरानी वंशज होने का अभिमान था, ने सेंट्रल मुहम्मडन एसोसिएशन की स्थापना की। इसका घोषित लक्ष्य भारत पर मुसलमानों का सभी वैध और संवैधानिक तरीकों से कल्याण करने का था। उसने तर्क दिया कि मुसलमान शिक्षा और धन में पीछे हैं। इसलिए हिंदू-मुस्लिम भाई-चारा की बात करने के बावजूद कोई भी हिंदू वर्चस्व वाली संस्था मुस्लिम समाज के हितों को प्रतिबिंबित नहीं कर सकती। इसलिए मुसलमानों एक अलग मंच की जरूरत थी।<br />
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विचित्र बात यह थी कि जो मुसलमान सैयद आमीर अली का सेंट्रल मुहम्मडन एसोसिएशन से जुड़ रहे थे, उनकी सामाजिक आर्थिक स्थित उन हिंदुओं के समकक्ष थी, जो इंडियन एसोसिएशन के सदस्य थे। परंतु जब कि इंडियन एसोसिएशन समान भारतीय हितों का पहरेदार था, सेंट्रल मुहम्मडन एसोसिएशन केवल मुस्लिम हितों की बात करती है। पांच वर्षों के अंदर सेंट्रल मुहम्मडन एसोसिएशन की सदस्यता 100 से बढक़र 500 हो गई। आमीर अली चतुराई से पचास शाखाओं का विस्तार बंगाल, बिहार, बांबे प्रेसीडेंसी, संयुक्त प्रांत, पंजाब से लेकर सुदूर लंदन तक किया। ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन अपना विलय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में उसकी स्थापना के समय कर दिया। लेकिन सेंट्रल मुहम्मडन एसोसिएशन ने कांग्रेस से दूरी बनाए रखा।<br />
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कांग्रेस की भर्त्सना करते हुए इलाहाबाद, लखनऊ, मेरठ, लाहौर, मद्रास तथा अन्य शहरों के मुसलमानों ने प्रस्ताव पारित किए। द् मुहम्मडन आब्जर्वर, द् विक्टोरिया पेपर, द् मुस्लिम हेराल्ड, द् रफीक ए हिंद तथा द् इंपीरियल पेपर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की आलोचना करने में एकजुट थे। इन समाचार पत्रों की कतरनें उत्तर भारत की एक प्रतिष्ठित मुस्लिम प्रकाशन, अलीगढ़ इंस्टीटयूट गजट में लगातार प्रकाशित होती रही।<br />
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सर सैयद के समय से लेकर जिन्ना के समय तक मुसलमान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को हिंदू पार्टी कहकर आलोचना करते रहे। क्रांग्रेस ने मुसलमानों की आम भागीदारी अल्प रही। 1946 का अंतरिम चुनाव ने मुस्लिम मतदाताओं का मुस्लिम लीग के प्रति भारी समर्थन दर्शाया। मुस्लिम लीग साधारणत: अग्रेजों का वफादार रहा। फिर भी क्या कारण है कि मुस्लिम लीग स्वतंत्र भारत में कई दशकों तक यह मुसलमानों का सर्वाधिक प्रिय पार्टी बनी रही। यह बात तय हैं कि स्वतंत्रता-सह-बंटवारा की सुबह मुसलमान हिंदुओं के प्रति कोई विशेष प्रेम विकसित नहीं कर पाए। कांग्रेस शासन के दौरान अनेक बड़े दंगे भारत को अपने चपेट में लेता रहा। इस विरोधाभास का उत्तर तब मिलता है, जब हम सुविधा के गठजोड़ की तरफ देखें।<br />
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युवराज कृष्ण (भारत-विद्या के महान विद्वान एवं सेवानिवृत्ता सिविल अधिकारी) ने अपनी पुस्तक ‘अण्डरस्टैण्डिंग पार्टिशन’ में कहा है: अपने प्रस्तावों में, मंचों पर और प्रेस में मुस्लिम लीग ने कांग्रेस, विशेष रूप से 8 प्रांतों में कांग्रेसी सरकार के खिलाफ जमकर प्रचार किया। कांग्रेस पर आरोप लगाया गया कि उसने हिन्दू राज्य की स्थापना और भारत के मुसलमानों की संस्कृति एवं धर्म तथा उनके राजनीतिक व आर्थिक अधिकारों को मिटा डालने का इरादा कर रखा है। आरोपकर्ताओं को बार-बार चुनौती दी गई कि वे साम्प्रदायिक अत्याचार और मुसलमानों पर प्रभुत्व जमाने के कुछ तो उदाहरण पेश करें। इस चुनौती के जवाब में उन्होंने बड़े अस्पष्ट और अनिश्चित प्रकार के आरोपों, एक-तरफा कहानियां बनाने, विकृत भ्रांतियां और अतिश्योक्तिपूर्ण बातें ही कहीं। उन्होंने मुस्लिम संस्कृति को कुचलने के प्रयासों के उदाहरण पेश किए, उनमें वन्देमातरम् गान, सार्वजनिक संस्थानों पर राष्ट्रीय ध्?वज फहराने, हिन्दुस्तानी का प्रचार करने जैसी बातें शामिल है। इस प्रकार की गतिविधियां कोई नई नहीं थी। 1920 से ही राष्ट्रीय ध्?वज विदेशी शासन के खिलाफ और राष्ट्रीय अखण्डता का प्रतीक रहा है। वर्तमान शताब्दी के आरम्भ से ही ऐतिहासिक एसोसिएशनों ने राष्ट्रीय गीत के रूप में वन्देमातरम् का गान करती रही है और विभाजन से पहले से ही चलता आ रहा था। इसके खिलाफ मुस्लिम आन्दोलन एक नई बात थी। यहां भी, कांग्रेस ने केवल इस गीत के उस अंश को गाने की अनुमति दी थी जिस पर किसी को कोई आपत्ति हो ही सकती थी। कांग्रेस ने जिस आम भाषा की वकालत की थी, वह हिन्दुस्तानी थी, जिसे उत्तरी भारत में बोला और नागरी अथवा देवनागरी लिपि में लिखा जाता था। ये सभी गतिविधियां बहुत पुरानी थीं परन्तु इनके बारे में लीग का विरोध नया था। फिर भी, हर जगह जहां भी विरोध हुआ, कांग्रेसजनों और कांग्रेस सरकार संघर्ष से बचती रही।<br />
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मुस्लिम लीग की परिषद ने कांग्रेसी सरकारों के खिलाफ ऐसे सभी तथा अन्य अस्पष्ट से आरोपों को इक_ा करने के लिए एक विशेष समिति बनाई। एक रिपोर्ट पेश हुई जो पीरपुर रिपोर्ट के नाम से विख्यात है। इसके शीघ्र बाद ही संसदीय उप-समिति के अध्?यक्ष श्री वल्लभभाई पटेल ने कांग्रेसी मंत्रियों से प्रत्येक आरोप की जांच करने और रिपोर्ट देने को कहा। कांग्रेसी सरकारों ने इन सभी आरोपों का ब्यौरेवार उत्तार तैयार कर उन्हें बेबुनियाद बताते हुए विज्ञप्तियां जारी कीं। क्या आज भी ये परिचित सी नहीं लगती हैं? अब जरा कांग्रेस के स्थान पर भाजपा को और विभाजन पूर्व मुस्लिम लीग के स्थान पर कांग्रेस और अन्य सेक्युलर पार्टियों को रख कर देखें तो आपको महसूस होगा कि जैसे इतिहास फिर से दोहराया जा रहा है।<br />
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गांधी और मुस्लिम तुष्टीकरण<br />
कांग्रेस के नेता सदा ही मुस्लिमों को अपने साथ जुटाने के लिए लालायित थे। कुछ मुस्लिम पुरुष जैसे बदरूद्दीन तैयबजी (1887), रहिमतुल्ला एम. सायानी (1896) और नवाब सैय्यद मौहम्मद बहादुर (1919) इसके अध्?यक्ष भी बने। परन्तु एक समुदाय के रूप में मुस्लिम कांग्रेस से अलग ही रहे। सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी ने लिखा है: "हम इस महान राष्ट्रीय कार्य में अपने मुसलमान देशवासियों का सहयोग प्राप्त करने के लिए जी-तोड़ प्रयास कर रहे हैं। कभी-कभी तो हमने मुसलमान प्रतिनिधियों को आने-जाने का किराया तथा अन्य सुविधाएं भी प्रदान कीं।"<br />
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मुस्लिम सहयोग पाने के लिए जरूरत से ज्यादा झुक जाने की परम्परा गांधीवादी कांग्रेस की विशेषता बन गई थी। गांधी ने मजहबी-नैतिक दृष्टि से ‘हिन्दू-मुस्ल्मि एकता’ मुद्दे को देखा। उन्होंने इसे अपने सिध्दांत हिंसा की तरह स्वतंत्रता आंदोलन के लिए अपनी आस्था का मुद्दा बना लिया, हालांकि उनके इस सम्पर्क प्रयास को बहुत कुछ सफलता नहीं मिली। सम्भवत:, शायद ही कुल चार प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या ही कांग्रेस की तरफ आकर्षित हो पाई।<br />
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वस्तुत: गांधी पहले ऐसे कांग्रेसी नेता थे जिन्होंने मुसलमानों को सुधारने की कोशिश की और उन्होंने निष्क्रिय पड़े खलीफाओं के संस्थानों को बचाने के लिए भी कट्टरवादियों के साथ हाथ मिलाया। मुस्लिम लीग (1906 में स्थापित) शिक्षित कंजर्वेटिव लोगों का केन्द्र थी, परन्तु ये ऐसे दकियानुसी मुस्लिम नहीं थे, जिन्होंने मुस्लिम हितों को आधुनिक आधार पर आगे न बढ़ाया हो। लीग बड़ी कड़ाई से खलीफा आन्दोलन से दूर रहे क्योंकि वे मानते थे कि इससे कट्टरवादियों को शह मिलेगी। परन्तु गांधीजी ने खिलाफत का चैम्पियन बनकर जबरदस्त परिवर्तन ला दिया। उनके सुप्रसिध्द असहयोग आन्दोलन 1 अगस्त 1920 (जैसा कि उसी दिन की तारीख के वाइसराय को लिखे उनके पत्र से स्पष्ट है) निजी स्तर पर शुरू हुआ, जो वास्तव में खिलाफत प्रश्न पर था, जिसका उल्लेख 4 सितम्बर 1920 के कांग्रेस प्रस्ताव में हुआ था। उक्त प्रस्ताव को पढऩे से स्पष्ट है कि असहयोग आन्दोलन खिलाफत की बहाली के लिए शुरू किया गया और स्वराज की बात तो जैसे सरसरी तौर पर कही गई हो।<br />
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गांधी जी का खिलाफत आन्दोलन<br />
खिलाफत तथा असहयोग आन्दोलन ने मुस्लिम दकियानूसी ताकतों को भारतीय राजनीति में फिर से ले आया जो 1857 के बाद से कभी संभव नहीं हो पा रहा था। बहुत से मुस्लिमों के लिए जो सामान्यतया अनपढ़ होते हैं, स्वराज भारत में मुस्लिम शासन की पुन: स्थापना का पर्याय बन गया। मालाबार (केरल) में भयावह माफला नरसंहार इसका उदाहरण है। खिलाफत आंदोलन से उपजी सर्व-इस्लामी सरगर्मी में हताश होने का आक्रोश हिन्दुओं पर उतरा। दंगों की लहर दौड़ गई जिसमें हिन्दुओं को भारी नुकसान उठाना पड़ा। फिर भी गांधी जी ने (6 दिसम्बर 1924 के) ‘यंग इण्डिया’ अंक में लिखा: "हिन्दू-मुस्लिम एकता किसी भी तरह चरखा-कताई से कम महत्वपूर्ण नहीं है। यह हमारे जीवन की श्वास-रेखा है।"<br />
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गांधी जी ने भारतीय मानस को चकाचौंध कर दिया, परन्तु ये हिन्दू ही थे जिन्होंने गांधी को एक राजनीतिक नेता से कहीं अधिक उनका ‘ईश्वरीय रूप’ स्वीकार कर लिया। परन्तु गांधी में हिन्दुओं की इस आस्था का शोषण हुआ, क्योंकि उनकी यह आस्था अंध-विश्वासी थी। क्या हिन्दुओं को 23 मार्च 1940 के ‘हरिजन’ में गांधी जी ने जो कुछ कहा था, उसे मान लेना चाहिए था- "यह मुस्लिम ही थे, जिन्होंने अकेले जोर-जबर्दस्ती से या अंग्रेजों की सहायता से अशांति भारत पर लाद दी थी।" यदि कांग्रेस को अपने पक्ष में कर सकता हूं तो मैं मुसलमानों को ताकत का उपयोग नहीं करने दूंगा। मैं उन्हें अपने ऊपर शासन करने दूंगा क्योंकि आखिर फिर भी यह भारतीय शासन ही होगह्या।" (देखिए कलेक्टेड वक्र्स आफ महात्मा गांधी, खण्ड 78, पृ. 66)।<br />
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गांधी जी ने बहुत पहले राष्ट्र के पीठ पीछे 1944 में विभाजन पर बातचीत की थी, जब वे जिन्ना से मालाबार हिल्स, बम्बई के निवास पर चौदह बार मिले थे। फिर भी, वे 1947 तक विभाजन की संभावना से इंकार करते रहे, परन्तु उन्होंने इसे रोकने के लिए जरा कुछ नहीं किया। गांधी जी ने ‘मुस्लिम प्रश्न’ पर सबसे बड़ा नुकसान किया जब उन्होंने यह कह कर इतिहास को झुठला दिया कि ब्रिटिश शासन से पहले हिन्दु-मुस्लिम वैर-भाव नहीं था और अंग्रेजों ने इसकी शुरूआत की। गांधी जी के हिन्दू-मुस्लिम एकता के सिध्दांत ने हिन्दुओं के साथ धोखा किया क्योंकि उनके शांतिवाद ने हिन्दुओं को कमजोर कर दिया।<br />
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कम्युनिस्ट और तुष्टिकरण<br />
भारतीय राजनीति में सबसे अधिक पथ भ्रष्ट लोग कम्युनिस्ट हैं। 1943 तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मास्को-आधारित कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल का भारतीय अध्?याय बनी रही।<br />
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एम.एन. राय की ‘दि हिस्टोरिकल रोल आफ इस्लाम’ (1937) में लिखा है कि कम्युनिस्टों का दृष्टिकोण इस्लाम को क्रांतिकारी और हिन्दू धर्म को पश्चगामी बताया गया है, जबकि अपने आवरण परिचय में राय ने लिखा है कि ‘इस्लाम की अपार सफलता के पीछे प्रमुख कारण यह रहा है कि इस्लाम ने ग्रीस, रोम, पर्शिया तथा चीन एवं भारत की प्राचीन सभ्यताओं के पतन से उत्पन्न अत्यंत निराशाजनक स्थितियों से लोगों को बाहर निकालने की क्रांतिकारी क्षमता रही है।"<br />
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राय का कहना है कि आज भारत, विशेष रूप से हिन्दुओं में मानव संस्कृति के अंशदान में इस्लाम की जो ऐतिहासिक भूमिका रही है, उसको समुचित ढंग से समझने का सर्वोच्च राजनीतिक महत्व बन गया है।" राय का मानना है कि मुस्लिमों के प्रति हिन्दुओं की पूर्वाग्रह की जड़ में इतिहास की गुलामी के संस्मरण पीड़ा पहुंचाते हैं।<br />
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राय मुस्लिम हमलावरों मंदिर-विध्?वंस की कार्रवाई को न्यायसंगत मानते हैं। "युगों से, थानेश्वर, मुत्तारा, सोमनाथ आदि प्रसिध्द मंदिरों की जा रही दैवीय चमत्कारिक शक्तियों से लाखों लोगों को राहत मिली। इन मन्दिरों के पुजारियों ने लोगों की भावना के आसरे पर विशाल धन-सम्पत्ति जमा कर ली थी। अचानक ही, इन कू्रर हमलावरों के आघात से कार्ड के पत्तो की तरह यह आस्था और परम्परा का सम्पूर्ण ढांचा टूट गया। जब मौहम्मद की सेना हमला करने आई तो पुजारियों ने लोगों को बताया कि हमलावर ईश्वर के भयानक आक्रोश का शिकार हो जाएंगे। लोगों को चमत्कार की आशा थी, जो पूरी नहीं हुई। बल्कि हमलावरों के ईश्वर ने चमत्कार कर दिखाया। चमत्कार पर आधारित होने के कारण आस्था भी उसी चमत्कारिक ढंग से बदल गई। मजहब के सभी पारम्परिक स्तरों की हिसाब से उस संकट के समय जिन लोगों ने इस्लाम कबूल कर लिया, उन्हें सबसे अधिक धार्मिक माना जाने लगा।" राय के अनुसार इस्लाम में आस्था मजहब है, परन्तु हिन्दू धर्म में आस्था मात्र अंधविश्वास बन कर रह गया।<br />
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बाद में उसी वर्ष मुस्लिम लीग ने लाहौर में (1940) के विभाजन या पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित हुआ तो कम्युनिस्टों ने आल इण्डिया स्टूडेण्ट्स फेडरेशन के सम्मेलन में मल्टीपल विभाजन प्रस्ताव पेश कर दिया। वहां हिरेन मुकर्जी और के एस अशरफ ने पूरे भारत की ओर से कांग्रेस को चुनौती दे डाली। प्रस्ताव पारित किया गया कि "भारत के भविष्य को पारस्परिक विश्वास के आधार पर क्षेत्रीय राज्यों का स्वैच्छिक परिसंघ होना चाहिए।" इस प्रकार कम्युनिस्टों ने भारत के आदर्शों को मल्टी नेशनल राज्यों के रूप में स्वीकार किया। जहां जिन्ना ने ‘द्विराष्ट्रीय सिध्दांत’ का प्रचार किया, वहीं कम्युनिस्टों ने ‘मल्टीनेशनल थियोरी’ का प्रतिपादन कर दिया।<br />
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कम्युनिस्टों ने इसी थियोरी पर चलते हुए पाकिस्तान के हितों का समर्थन किया। सच तो यह है कि कम्युनिस्टों ने जिन्ना के हाथों में ‘आत्म-निर्णय के उस अधिकार’ को सौंप कर जिन्ना की वह आवश्यकता पूरी कर दी जो उसे आधुनिक भाषा के रूप में पाकिस्तान बनाने की युक्तिपूर्ण ठहराने के लिए जरूरी थी। सितम्बर 1942 में सीपीआई के केन्द्रीय समिति ने प्रस्ताव पारित किया।<br />
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स्वतंत्रता के बाद की कम्युनिस्ट रणनीति<br />
स्वतंत्र भारत में कम्युनिस्टों ने बुध्दिजीवियों (मीडिया) पर कब्जा कर लिया। नेहरू की कृपा से वे ऐसा करने में सफल रहे क्योंकि नेहरू का कम्युनिज्म के प्रति गहन आकर्षण था, नेहरू सोवियत संघ के प्रशंसक और चीन के मित्र थे। जबकि कम्युनिस्ट सभी धर्मों को खारिज करते हैं या उनसे बराबर की दूरी बनाकर रखते हैं, परन्तु वास्तव में उनका झुकाव मुस्लिमों के प्रति रहा। वामपंथियों ने मुस्लिमों के मूर्ति भंजन और मध्?ययुग में उनके अत्याचारों को तो सराहा परन्तु मीडिया में हिन्दुओं के झगड़ों को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया और मुस्लिम कट्टरपंथियों पर ध्?यान नहीं दिया और ‘हिन्दुओं की छवि फासीवाद’ बना डाली।<br />
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स्वतंत्र भारत के मुस्लिम कांग्रेसी की तरफ क्यों झुके?<br />
भारत के विभाजन का मतलब था कि दो तिहाई मुस्लिम पाकिस्तान का हिस्सा बन गए। बाकी एक तिहाई मुस्लिम हिन्दु-बहुल भारत में जनसांख्यिकी रूप से कमजोर थे। पाकिस्तान से आने वाले हिन्दू और सिखों की दर्दनाक गाथा ने भारत में मुस्लिम विरोधी मिजाज तैयार कर दिया था। भारत के मुसलमान स्वयं को मुसीबत में महसूस कर रहे थे। ब्रिटिश शासन के स्वर्ण युग में उन्होंने जिस कांग्रेस की भर्त्सना की थी, अब वह कांग्रेस धोती-धारिया वाली, संघर्ष करने वाली पार्टी नहीं रह गई थी, अब तो वह सत्ता में थी और देश के शासन पर पूरा अधिकार था। इसके अलावा, सेना और पुलिस में, जहां ब्रिटिश शासन में मुस्लिमों का प्रभुत्व था, अब यहां हिन्दू विराजमान थे। अब इन मुस्लिमों ने खत्म हो जाने की बजाए घास खाना पसंद किया। उन्होंने कांग्रेस की छत्रछाया में जाना उचित समझा। यह सर सैयद अहमद खां की नीति जैसा था कि अगर आप शत्रु को हरा नहीं सकते तो उसके साथ जा मिलो। इस व्यक्ति ने 1857 से पहले ब्रिटिश और मुस्लिम, जो दोनों एक दूसरे के जानलेवा का दुश्मन थे, के बीच न केवल आपस में मेल मिलाप कर दिया, बल्कि, एक विशेष सम्बंध भी बनवा दिए। इस कारण यह था कि वे दोनों स्थितियों में जीत की हालत में थे।<br />
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यह पूछा जा सकता है कि स्वतंत्र भारत में कांग्रेस को मुस्लिमों से क्या लाभ हुआ? स्पष्ट है कि इसे चुनावी लोकतंत्र में उन्हें मत प्राप्त हुए। इसके अलावा, हालांकि मुस्लिमों ने सदा ही कांग्रेस को दुलारा है, फिर भी कांग्रेस उन्हें अपनी तरफ आकर्षित करने में लगी रहती है, चाहे इसके लिए उन्हें कितना ही झुकना न पड़े। कांग्रेस को विभाजन की प्रतिक्रिया स्वरूप हिन्दू राष्ट्रवादी पार्टियों से भय था कि कहीं वे उसे चुनौती देकर अपना एकाधिकार न कर लें। हिन्दू राष्ट्रवादी पार्टी जनसंघ ने भारत के प्रथम आम चुनाव में भाग लिया। नेहरू चुनाव परिणामों में असफल नहीं होना चाहते थे, इसीलिए वे मुस्लिम मतों की तरफ झुके। नेहरू मुस्लिम मतों के बिना भी जीत सकते थे। परन्तु पूरे के पूरे मुस्लिम मतों को अपनी तरफ आता देख कर वह उन मतों की तरफ झुक गए। चुनावों में मुस्लिम मतों से अतिरिक्त लाभ लेने के लिए ‘सेक्युलरिज्म’ की बात कही जाने लगी।<br />
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नेहरू हिन्दू धर्म को अवमानना की दृष्टि से देखते थे और मानते थे कि वह संयोग से ही हिन्दू हैं। उन्होंने एक थियोरी निकाली कि फासीवाद हिन्दू राष्ट्रवाद के माध्?यम से आ सकता है। वह कांग्रेस में हिन्दू प्रवृत्ति की तरफ झुकने वाले लोगों से परेशान थे जैसे राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभभाई पटेल, पीडी टण्डन, केएम मुंशी आदि। नेहरू की मृत्यु पर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था कि नेहरू जन्म से ब्राह्मण, शिक्षा में यूरोपीय और आस्था में मुसलमान थे। सरदार वल्लभ भाई पटेल ने नेहरू को भारत का राष्ट्रवादी मुसलमान बताया था। वे हिन्दू राष्ट्रवाद के खिलाफ इस लड़ाई में मुस्लिमों को स्वाभाविक विदेशी मानते थे। मुस्लिमों के लिए इसका अर्थ सर सैयद अहमद बनाम अंग्रेजों द्वारा इस्तेमाल की गई प्रतिकृति थी।<br />
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मदरसे<br />
कांग्रेस एकाधिकार की कब्रगाह से निकली अन्य पार्टियों ने सेक्युलरिज्म को राजनीतिक अनिवार्यता बना दिया। हर पार्टी ने ‘सेक्युलर’ की गलत राह पर चलने के लिए कांग्रेस को मात देने की कोशिश की। इमाम, मौलाना और मौलवियों पर उनकी निर्भरता के कारण मदरसों, उर्दू आदि की प्रगति के लिए दी जाने वाली राशि ने एक विस्फोटक स्थिति पैदा कर दी है। आज भारत में स्वतंत्रता के बाद कुछ हजार मदरसों की तुलना में लाखों-लाखों मदरसे खड़े कर दिए हैं।<br />
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अच्छे से अच्छे वातावरण में भी मदरसों की पाठयचर्या में दीने-तालीम केन्द्रित रहता है अर्थात् यहां कुराने-पाक, अदीस, शरीयत लॉ, इस्लामिक धर्मशास्त्र, अरबी, फारसी और उर्दू की पढ़ाई की मजहबी शिक्षा दी जाती है। विद्यार्थियों को भारत में इस्लाम के आगमन और इसके अरबिया, पार्शिया, मिस्र और टर्की आदि में फैलाव का इतिहास पढ़ाया जाता है। मदरसे की पाठयचर्या से शायद ही आज के विश्व से कोई जुड़ाव रहता है और सच तो यह है कि इसके कारण उनके यहां जन्म लेने वाले देश तथा अन्य समुदायों की संस्कृति से उनका कोई नाता नहीं रहता है।<br />
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अलगाव की प्रक्रिया<br />
इसमें कोई सन्देह नहीं कि मुस्लिम राष्ट्र की आकांक्षाओं तथा चिंताओं की मुख्यधारा से अलग-थलग पड़ गए हैं, जिसकी शुरूआत ब्रिटिश इण्डिया से हुई थी और अब उसकी गति ‘सेक्युलर षडयंत्र’ की सक्रिय मदद से स्वातंत्र्योत्तार युग में बढ़ गई है।<br />
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1969 में मुस्लिम लीग के दबाव में मालापुरम के मुस्लिम बहुल इलाकों को कुछ अन्य जिलों की भौगोलिक सीमाओं का पुनर्गठन कर बनाया गया। एक सेक्युलर राज्य द्वारा मजहबी आधार पर एक नया जिला बनाया गया ताकि मुस्लिम गैर मुस्लिम काफिरों के प्रभुत्व से मुक्त होकर रह सके।<br />
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तुष्टिकरण की कीमत चुकानी पड़ती है। कांग्रेस सरकार ने 1959 में मुस्लिमों की हज सब्सिडी शुरू की थी। 57 मुस्लिम देशों में से कोई भी ऐसी सब्सिडी नहीं देता है। तुष्टिकरण नीति के अन्तर्गत राजीव सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक के अधिकार का संरक्षण) अधिनियम 1986 पारित किया और शाहबानो जजमेंट को शून्यीकृत बना दिया। गांधीजी की कांग्रेस ने 1932 में ‘कम्युनल एवार्ड’ खारिज कर दिया था। परन्तु अब सोनिया गांधी की कांग्रेस ने सरकारी नौकरियों में मुस्लिम आरक्षण की शुरूआत कर दी है। कांग्रेस पार्टी उस मुस्लिम लीग के साथ सरकार बनाने पर खुश है, जिसने पाकिस्तान की मांग की और वह बन भी गया। ‘सेक्युलर षडयंत्र’ आतंक के प्रति नरम रूख अपनाए है और यूपीए सरकार ने 1995 में बने टाडा की तरह ही पोटा को भी निरस्त कर दिया है। युध्द में लिप्त कश्मीर से सुरक्षा बलों को हटाने की योजना बन रही है। सेक्युलर प्रचार की कृपा से देश ने जनसांख्यिकीय हमलों को भुला दिया है, जिससे देश की सुरक्षा और भविष्य को गम्भीर खतरा पैदा हो गया है।<br />
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द्वितीय विश्व युध्द के आरम्भ होने से पहले ब्रिटिश द्वारा अपनाई गई जर्मनी के बारे में तुष्टिकरण की नीति की आलोचना करते हुए सर विंस्टन चर्चिल ने कहा था- "अब भी, अगर आप उन अधिकारों के लिए नहीं लड़ेंगे, जबकि आप बिना खून खराबे के जीत सकते हैं; यदि आप उस विजय के लिए नहीं लड़ेंगे जो निश्चित ही आपको मिलेगी और यह विजय महंगी भी नहीं रहेगी; तो फिर आप ऐसे क्षण पर पहुंच जाएंगे जब आपको अपने ही खिलाफ हर प्रकार की मुसीबत का सामना करना पड़ेगा और आपके लिए जिंदा रहने का बहुत कम अवसर रह जाएगा।" क्या यही कथन आज हमारे लिए भी प्रासंगिक नहीं है?रामदास सोनीhttp://www.blogger.com/profile/01823504717777508844noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4117630712253592267.post-87100954456294756262010-05-24T13:23:00.000+05:302010-05-24T13:23:22.231+05:30और ऐसे सिमट गया भारतप्राचीन भारत की सीमाएं विश्व में दूर-दूर तक फैली हुई थीं। भारत ने राजनैतिक आक्रमण तो कहीं नहीं किए परंतु सांस्कृतिक दिग्विजय अभियान के लिए भारतीय मनीषी विश्वभर में गए। शायद इसीलिए भारतीय संस्कृति और सभ्यता के चिन्ह विश्व के लगभग सभी देशों में मिलते हैं। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि सांस्कृतिक और राजनैतिक रूप से भारत का विस्तार ईरान से लेकर बर्मा तक रहा था। भारत ने संभवत विश्व में सबसे अधिक सांस्कृतिक और राजनैतिक आक्रमणों का सामना किया है। इन आक्रमणों के बावजूद भारतीय संस्कृति आज भी मौजूद है। लेकिन इन आक्रमणों के कारण भारत की सीमाएं सिकुड़ती गईं। सीमाओं के इस संकुचन का संक्षिप्त इतिहास यहां प्रस्तुत है। —<br />
ईरान - ईरान में आर्य संस्कृति का उद्भव 2000 ई. पू. उस वक्त हुआ जब ब्लूचिस्तान के मार्ग से आर्य ईरान पहुंचे और अपनी सभ्यता व संस्कृति का प्रचार वहां किया। उन्हीं के नाम पर इस देश का नाम आर्याना पड़ा। 644 ई. में अरबों ने ईरान पर आक्रमण कर उसे जीत लिया।<br />
कम्बोडिया - प्रथम शताब्दी में कौंडिन्य नामक एक ब्राह्मण ने हिन्दचीन में हिन्दू राज्य की स्थापना की।<br />
वियतनाम - वियतनाम का पुराना नाम चम्पा था। दूसरी शताब्दी में स्थापित चम्पा भारतीय संस्कृति का प्रमुख केंद्र था। यहां के चम लोगों ने भारतीय धर्म, भाषा, सभ्यता ग्रहण की थी। 1825 में चम्पा के महान हिन्दू राज्य का अन्त हुआ।<br />
मलेशिया - प्रथम शताब्दी में साहसी भारतीयों ने मलेशिया पहुंचकर वहां के निवासियों को भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति से परिचित करवाया। कालान्तर में मलेशिया में शैव, वैष्णव तथा बौद्ध धर्म का प्रचलन हो गया। 1948 में अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हो यह सम्प्रभुता सम्पन्न राज्य बना।<br />
इण्डोनेशिया - इण्डोनिशिया किसी समय में भारत का एक सम्पन्न राज्य था। आज इण्डोनेशिया में बाली द्वीप को छोड़कर शेष सभी द्वीपों पर मुसलमान बहुसंख्यक हैं। फिर भी हिन्दू देवी-देवताओं से यहां का जनमानस आज भी परंपराओं के माधयम से जुड़ा है।<br />
फिलीपींस - फिलीपींस में किसी समय भारतीय संस्कृति का पूर्ण प्रभाव था पर 15वीं शताब्दी में मुसलमानों ने आक्रमण कर वहां आधिपत्य जमा लिया। आज भी फिलीपींस में कुछ हिन्दू रीति-रिवाज प्रचलित हैं।<br />
अफगानिस्तान - अफगानिस्तान 350 इ.पू. तक भारत का एक अंग था। सातवीं शताब्दी में इस्लाम के आगमन के बाद अफगानिस्तान धीरे-धीरे राजनीतिक और बाद में सांस्कृतिक रूप से भारत से अलग हो गया।<br />
नेपाल - विश्व का एक मात्र हिन्दू रा'य है, जिसका एकीकरण गोरखा राजा ने 1769 ई. में किया था। पूर्व में यह प्राय: भारतीय रा'यों का ही अंग रहा।<br />
भूटान - प्राचीन काल में भूटान भद्र देश के नाम से जाना जाता था। 8 अगस्त 1949 में भारत-भूटान संधि हुई जिससे स्वतंत्र प्रभुता सम्पन्न भूटान की पहचान बनी।<br />
तिब्बत - तिब्बत का उल्लेख हमारे ग्रन्थों में त्रिविष्टप के नाम से आता है। यहां बौद्ध धर्म का प्रचार चौथी शताब्दी में शुरू हुआ। तिब्बत प्राचीन भारत के सांस्कृतिक प्रभाव क्षेत्र में था। भारतीय शासकों की अदूरदर्शिता के कारण चीन ने 1957 में तिब्बत पर कब्जा कर लिया।<br />
श्रीलंका - श्रीलंका का प्राचीन नाम ताम्रपर्णी था। श्रीलंका भारत का प्रमुख अंग था। 1505 में पुर्तगाली, 1606 में डच और 1795 में अंग्रेजों ने लंका<br />
पर अधिकार किया। 1935 ई. में अंग्रेजों ने लंका को भारत से अलग कर दिया।<br />
म्यांमार (बर्मा) - अराकान की अनुश्रुतियों के अनुसार यहां का प्रथम राजा वाराणसी का एक राजकुमार था। 1852 में अंग्रेजों का बर्मा पर अधिकार हो गया। 1937 में भारत से इसे अलग कर दिया गया।<br />
पाकिस्तान - 15 अगस्त, 1947 के पहले पाकिस्तान भारत का एक अंग था।<br />
बांग्लादेश - बांग्लादेश भी 15 अगस्त 1947 के पहले भारत का अंग था। देश विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान के रूप में यह भारत से अलग हो गया। 1971 में यह पाकिस्तान से भी अलग हो गया।रामदास सोनीhttp://www.blogger.com/profile/01823504717777508844noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4117630712253592267.post-41270839325482509992010-05-24T13:19:00.000+05:302010-05-24T13:19:05.522+05:30शव की शादी देख बदल गया जीवनबात 1996 की है जब संजय पटेल को मुंबई महानगर से कुछ घंटों की दूरी पर स्थित ठाणे जिले के वनवासी गांवों में जाने का मौका मिला। मुंबई की चमक-दमक के ठीक विपरीत उन गांवों में फैली गरीबी को देखना उनके लिए सदमे जैसा था। वो अपने साथियों के साथ गांव घूम ही रहे थे कि वो एक घर के सामने का दृश्य देखकर ठिठक गए। उन्होंने देखा कि एक महिला शव के पास दुल्हन के वेश में बैठी है और उसके विवाह की रस्में निभायी जा रही हैं। पूछने पर वहां के वनवासी समाज की एक ऐसी तस्वीर उभर कर सामने आयी, जो किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को विचलित कर सकती है। असल में पारंपरिक समाज होने के कारण वनवासियों में जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी संस्कारों का विशेष महत्व होता है। लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय हो चुकी है कि वे इन संस्कारों में आने वाले छोटे-मोटे खर्च को उठा सकने में भी समर्थ नहीं हैं। इस विवशता के कारण लड़का और लड़की के परिवार वाले बिना विवाह की कोई रस्म निभाए ही उन्हें साथ रहने की इजाजत दे देते हैं। शर्त होती है कि वे शीघ्र ही पैसे जुटाकर विधि-विधान से विवाह की रस्म पूरी कर लेंगे। लेकिन जब खाने के लिए भोजन न हो और पहनने के लिए कपड़े तक न हों तो कोई विवाह की रस्मों के लिए पैसे कहां से जुटाएं। ऐसा प्राय: होता है कि लड़का-लड़की देखते-देखते माता-पिता और दादा-दादी बन जाते हैं, लेकिन उनकी विधिवत शादी नहीं हो पाती। दुर्भाग्य से इसी बीच दोनों में से किसी एक की यदि मृत्यु हो गयी, तो वह सब होता है जो किसी भी सभ्य समाज के लिए कलंक है। पति या पत्नी को अपने मृत साथी के साथ विवाह की रस्में पूरी करनी होती हैं। यदि ऐसा नहीं किया गया तो वनवासी समाज के नियमों के अनुसार मृत व्यक्ति का अंतिम संस्कार नहीं किया जा सकता। पुराने समय में शवों को प्राय: बिना अंतिम संस्कार किए जंगलों में छोड़ दिया जाता था, जहां वे जंगली जानवरों का आहार बन जाते थे। लेकिन आज यह भी संभव नहीं। जंगल कट चुके हैं। ऐसे में भारी ब्याज पर कर्ज लेकर मृत साथी के साथ विवाह करना कई वनवासियों की मजबूरी बन चुकी है। वनवासियों की इस समस्या का ईसाई मिशनरियों ने भरपूर फायदा उठाया। उन्होंने यह प्रचार करना शुरू किया कि ईसाई धर्म उन्हें ऐसे सभी कर्मकांडों से मुक्ति दिलाएगा। साथ ही उनकी ओर से वनवासियों को आर्थिक सहायता भी उपलब्ध करायी गयी। इन सबका मिला-जुला प्रभाव यह हुआ कि इलाके के कई-कई गांव ईसाई बन गए। धर्मांतरण की इस समस्या पर जब विश्व हिंदू परिषद के लोगों का ध्यान गया तो उन्होंने अपना पहला सेवा प्रकल्प ठाणे जिले के तलाशरी तहसील में माधव राव काणे के नेतृत्व में प्रारंभ किया। धीरे-धीरे हिंदू समाज के कई लोग इस सेवा प्रकल्प से जुड़ते गए और इस प्रकार ठाणे जिले के वनवासी क्षेत्रों में चल रहे सेवाकार्यों में गति आने लगी। मृत्यु के बाद विवाह की समस्या से विश्व हिंदू परिषद के लोग परिचित थे। वे प्रतिवर्ष कुछ जोड़ों की शादी भी करवाते थे। लेकिन संजय पटेल इससे संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने व्यापक स्तर पर विवाह कार्यक्रम आयोजित करने का मन बनाया। वर्ष 1996 में ही उन्होंने तलाशरी में 25 वनवासी जोड़ों की शादी करवायी। कुछ सप्ताह बाद उन्होंने डहाणू तहसील में 50 जोड़ों की शादी करवायी। उसी साल उन्होंने जवाहर तहसील में 71 और जोड़ों का स्थानीय रीति-रिवाज के साथ विवाह संपन्न करवाया। प्रत्येक दंपति को यथासंभव गृहस्थी के सामान, कपड़े और अन्य उपहार भी दिए गए। साल दर साल जोड़ों की संख्या बढ़ती गयी। ठाणे के आस-पास के अन्य इलाकों में भी काम का विस्तार हुआ। वर्ष 2000 में संघ शासित क्षेत्र सिलवासा में एक बड़ा कार्यक्रम किया गया जिसमें 202 जोड़ों की शादी करवायी गयी। लगभग 15,000 लोगों ने भोजन किया। विवाह करवाने के इस पूरे अभियान की खासियत यह रही कि इसमें मुंबई के समृद्ध व्यवसायियों को जोड़ा गया। मुंबई के बड़े-बड़े व्यापारियों ने वनवासी इलाकों में आकर कन्यादान किया। विवाह के बाद भी उनका वनवासी दंपति से संबंध बना हुआ है। मालाबार हिल्स जैसे इलाकों में रहने वाले परिवार दिवाली के मौके पर वनवासी परिवार के बच्चों को अपने यहां बुलाते हैं। लेकिन यह सब इतना आसान नहीं रहा। संजय पटेल बताते हैं कि शुरू में जब कुछ दानदाता देखते कि एक ही मंडप में तीन-तीन पीढिय़ों की शादी हो रही है, दुल्हन बच्चे को दूध पिला रही है, तो वे नाराज होते और सोचते कि यह सब ड्रामेबाजी है, लेकिन असलियत बताने पर वो भावुक हो जाते और फिर पूरे मनोयोग से सहयोग करने के लिए तैयार हो जाते। दानदाताओं के सहयोग से इस समय ठाणे जिले की पांचों तहसीलों में 500 से अधिक जोड़ों का विवाह प्रतिवर्ष आयोजित किया जा रहा है। विवाह कार्यक्रमों के दौरान संजय पटेल ने महसूस किया कि वनवासियों की असली समस्या गरीबी और भुखमरी है। शिक्षा का घोर अभाव है। सरकार की ओर से स्कूल खुले हैं, अध्यापक भी नियुक्त हैं। लेकिन, बच्चे नहीं हैं, क्योंकि वे अपने मां-बाप के साथ काम की तलाश में घूमते रहते हैं। दिवाली के बाद जब फसलें कट जाती हैं, उस समय वनवासियों के गांव लगभग खाली हो जाते हैं। बूढ़े और लाचार लोगों को छोड़ सारा गांव काम की तलाश में निकल जाता है। ईंट बनाने, समुद्रतट से रेत निकालने और खेतों में काम करने जैसे काम ये लोग पारंपरिक रूप से करते आए हैं। जागरुकता के अभाव में इनका हर जगह शोषण ही होता है। बरसात में जब चारों ओर काम बंद हो जाता है तो भुखमरी की नौबत आ जाती है। पेट भरने के लिए साहूकारों और ठेकेदारों से कर्ज लेना पड़ता है जो कभी खत्म नहीं होता। इन सब मुसीबतों के बीच शराबखोरी की समस्या कोढ़ में खाज के समान है। सारा वनवासी समाज इससे पीडि़त है। इन परिस्थितियों के बीच संजय पटेल ने भुखमरी की समस्या से पहले लोहा लिया। सितंबर-अक्टूबर के महीने में जब भुखमरी की समस्या सबसे भयंकर होती है, उन्होंने उन इलाकों में राशन के हजारों पैकट बंटवाए। प्रत्येक पैकट में 10 किलो चावल और 2 किलो दाल के साथ-साथ चीनी, हल्दी, मिर्च और नमक के पैकट भी बांटे गए। बच्चों के लिए विशेष व्यवस्था की गयी। उन्हें पास के स्कूलों में भेजा गया और उनके माता-पिता को आश्वासन दिया गया कि वे उनके भोजन की चिंता न करें। यह सब करते हुए संजय जी ने वनवासियों को उद्यमिता का पाठ पढ़ाने का भी निश्चय किया। स्वयं वे व्यावसायिक परिवार से हैं। मेकैनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने यार्न के अपने खानदानी व्यवसाय को छोड़ ट्रेडिंग और एक्सपोर्ट के क्षेत्र में भाग्य आजमाने का फैसला किया था। शीघ्र ही हिंदुस्तान एयरोनाटिक्स और ग्लैक्सों जैसी 90 बड़ी कंपनियां उनकी ग्राहक बन चुकी थीं। आज संजय पटेल का प्रतिष्ठान लगभग 150 बड़ी कंपनियों को उन सभी सामानों की आपूर्ति करता है जो उनके उत्पादन के लिए आवश्यक हैं। इस समय भवन निर्माण से जुड़ी उनकी कई परियोजनाएं मुम्बई में चल रही हैं। निर्यात क्षेत्र में भी उनकी अच्छी ख्याति है। यद्यपि संजय पटेल ने अब व्यावसायिक गतिविधियों में अपनी सक्रियता बहुत कम कर दी है, फिर भी उनकी व्यावसायिक सूझ-बूझ तो आज भी यथावत है। उन्होंने सोचा कि ये वनवासी कई पीढिय़ों से ईंट भट्टों में काम करते आए हैं, तो क्यों न इनकी एक सहकारी समिति बनायी जाए जो ईंट बनाने का काम करे। इसी सोच के साथ उन्होंने तीन गांव सापने, करंजा और नवी दापचरी के वनवासियों से बात की और जय श्री राम औद्योगिक ईंट उत्पादक सहकारी संस्था मर्यादित का गठन किया। बैंक में खाता खुलवाया गया। पर किसी सदस्य को हस्ताक्षर तक करने नहीं आता था। किसी तरह संस्था की चेयरपरसन वंदना डगला नामक महिला को हस्ताक्षर करना सिखाया गया। संस्था को राजनीति से दूर रखने के लिए विशेष प्रावधान किया गया। ऐसे नियम बनाए गए कि यदि कोई सदस्य राजनीतिक गतिविधि में भाग लेता है, तो उसे संस्था से निकाल दिया जाएगा। यदि संस्था के सभी सदस्य ऐसी गतिविधि में शामिल हो जाएं तो पूरी संस्था को ही भंग कर देने का प्रावधान है। वनवासियों को यह कतई विश्वास नहीं था कि वे खुद मालिक बनने जा रहे हैं। वो तो इसी बात से खुश थे कि उन्हें अब काम की तलाश में गांव के बाहर नहीं जाना पड़ेगा। संजय पटेल के व्यावसायिक निर्देशन में संस्था ने तेजी से प्रगति की और तीन साल के भीतर ही यह एक लाभकारी संस्था बन गयी। जो वनवासी पहले काम की तलाश में इधर-उधर भटकते थे, अब अपने ही गांव में काम करके साल में 5 से लेकर 7 लाख रुपए तक कमा लेते हैं। यह पूछे जाने पर कि क्या वे अपने इस प्रयोग को अन्य गांवों में भी दोहराएंगे, संजय पटेल ने कहा, च्च्वे अपना पूरा ध्यान प्रशिक्षण देने पर केंद्रित कर रहे हैं।ज्ज् उनकी योजना के अनुसार अब आसपास के कई गांव वाले ईंट बनाने के काम में प्रशिक्षण ले रहे हैं। संजय पटेल ने अब तक जो भी किया, उसमें समाज का भरपूर सहयोग लिया। वे किसी राजनीतिक दल के लिए काम नहीं करते, लेकिन सभी राजनीतिक दल उनका सहयोग करने के लिए तत्पर रहते हैं। यहां एक बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि जिन तीन गांवों के वनवासियों को इस संस्था से जोड़ा गया है, उनमें से एक गांव नवी दापचरी ईसाइयों का है। जो गांव ईसाई हो जाते हैं, उनसे बाकी वनवासी गांव रोटी-बेटी का संबंध नहीं रखते। संजय पटेल के विशेष आग्रह पर दो गांवों के लोगों ने ईसाई गांव के साथ पहली बार मेल-मुलाकात की। उन्होंने गांव वालों को समझाया कि ईसाई हो चुके वनवासी भी उनके अपने हैं। उनसे भाईचारा बनाए रखने की जरूरत है। इससे उनके मन में अपने मूल धर्म के प्रति फिर से आस्था जागृत होगी। जब सहकारी समिति का प्रयोग सफल हो गया तो संजय जी को एक नयी चिंता सताने लगी। वे वनवासी समाज की कमजोर नस को जानते थे। वे जानते थे कि जो वनवासी कर्जा लेकर भी शराब पीने से नहीं हिचकता, उसके पास यदि साल में ईंट उत्पादन से लाखों रुपया आने लगा, तो उसका दुरुपयोग अवश्यंभावी है। शराबखोरी और लड़ाई-झगड़ा की आदत उनकी समृद्धि को जल्दी ही निगल जाएगी। इसलिए नवसृजित समृद्धि को संभालने के लिए उन्होंने वनवासियों के बीच संस्कृति के बीज बोने का फैसला किया। ठाणे और उसके आस-पास के वनवासी इलाकों में वैष्णव मत का प्रभाव है। उनमें से कुछ लोग पंढरपुर में विठोबा के दर्शन को बहुत पुण्य का काम मानते हैं। जिनकी आध्यात्मिक प्रवृत्ति अधिक होती है वे पंढरपुर में जाकर कंठी धारण कर लेते हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए संजय जी ने सहकारी समिति के प्रभावक्षेत्र में आने वाले तीन गांवों की सभा बुलायी और प्रस्ताव किया गांव के सभी लोग पंढरपुर की यात्रा करेंगे और कंठी धारण करेंगे। सभा में दो सौ लोगों ने यात्रा की बात स्वीकार कर ली। तीन बसों का इंतजाम हो गया और पंढरपुर में एक संत से भी बात हो गयी जो सभी यात्रियों को कंठी देने वाले थे। लेकिन अगले दिन संजय जी को अलग ही समाचार सुनने को मिला। एक कार्यकर्ता ने उन्हें फोन पर बताया कि अधिकतर लोग कंठी लेने की बात पर पलट गए हैं। अब केवल 12 लोग ही यात्रा करने और कंठी लेने को तैयार हैं। पूछने पर पता चला कि कंठी लेने के बाद बहुत संयमित जीवन जीना पड़ता है। कंठी लेने वाले के लिए मांस-मदिरा का त्याग करने और झूठ नहीं बोलने के साथ-साथ नियमित हरिभजन, तुलसी को जल, देवदर्शन और वर्ष में एक या दो बार तीर्थयात्रा जरूरी होती है। उन्मुक्त जीवन जीने वाले वनवासियों को यह सब बहुत मुश्किल लग रहा था। मौके की नजाकत को देखते हुए संजय जी ने लोगों को समझाया कि सभी के लिए कंठी लेना जरूरी नहीं है। जिसकी इच्छा हो वही कंठी ले। किसी के ऊपर दबाव नहीं डाला जाएगा। यह स्पष्ट हो जाने पर 132 वनवासी और कुछ शहरी लोग यात्रा के लिए निकल पड़े। देहू, आणंदी और पंढरपुर की तीन दिन यात्रा के दौरान जो भक्तिमय माहौल बना, उसके प्रभाव में 21 लोगों ने कंठी ली। उन्हें वारकरी (वैष्णव) संप्रदाय की हरिभक्त परायण मंगलाताई काम्बले द्वारा दीक्षा दी गयी। आते समय सभी ने लोनावाला में एकवीरा माता के भी दर्शन किए। अपने गांव लौटकर वनवासियों ने श्रमदान करके एक मंदिर बनाया। अब वहां प्रतिदिन भजन कीर्तन होता है। जिन गांवों में शाम को मांस-मदिरा का सेवन और मार-पीट आम बात थी, वहां अब हरिभजन के स्वर सुनाई देने लगे हैं। जहां पहले सभी कंठी लेने से कतराते थे, वहीं माहौल इतना बदल गया कि अगले दो महीनों में 61 और युवाओं ने सौगंध ली कि वे भी कंठी धारण करेंगे। भक्ति की यह लहर आस-पास के गांवों को भी प्रभावित कर रही है। वहां भी भजन मंडलिया शुरू हो गयी हैं। संजय पटेल ने पिछले कई सालों की मेहनत से जो आदर्श स्थापित किया है, उसके स्थायित्व के बारे में अब वे आश्वस्त दिखते हैं। अब वे अपना अधिकतर समय भारत विकास संगम में लगा रहे हैं। सज्जनशक्ति के बीच संवाद-सहमति और सहकार उनका एकमेव लक्ष्य बन चुका है।रामदास सोनीhttp://www.blogger.com/profile/01823504717777508844noreply@blogger.com0