गुरुवार, 27 मई 2010

विभाजन-गाथा का एक विस्मृत पन्ना-2

हिंसक पृथकतावाद, अहिंसक राष्ट्रवाद
12-13 जून, 1941 को गांधी जी के सेवाग्राम आश्रम में आयोजित अनौपचारिक बैठक का ऐतिहासिक महत्व है। इस बैठक में गांधी जी, डा.राजेन्द्र प्रसाद, आचार्य कृपलानी, क.मा.मुंशी और गोपीचंद भार्गव सहित कांग्रेस का शिखर नेतृत्व उपस्थित था। सरदार पटेल और नेहरू व्यक्तिगत सत्याग्रह करके जेल में बंद होने के कारण वहां नहीं थे। मुस्लिम लीग ने दिसम्बर 1940 में पाकिस्तान की मांग को लेकर एक उग्र प्रस्ताव पारित किया और दवाब पैदा करने के लिए खूनी दंगे शुरू कर दिये, जिन्हें मुंशी ने "पाकिस्तान दंगे" कहा। इन दंगों के राक्षसी चरित्र से व्यथित होकर गांधी जी ने 25,26,27 अप्रैल, 1941 को 72 घंटे का आत्मशुद्धि उपवास रखा और 4 मई 1941 को एक लम्बे प्रेस वक्तव्य में उन्होंने स्थिति की भयावहता पर अपनी अन्तव्र्यथा उड़ेली। इस वक्तव्य में गांधी जी ने माना कि "प्राप्त विवरणों से लगता है कि मुस्लिम कट्टरवादियों ने ढाका और अमदाबाद में हिन्दू सम्पत्ति को निश्चयपूर्वक लूट और आगजनी के द्वारा जितनी बुरी तरह क्षतिग्रस्त किया, उससे लगता है कि यह सब सुनियोजित था।" एक ओर यह राक्षसी लीला और दूसरी ओर गांधी जी लिखते हैं, "हिन्दू लोग इन शरारती तत्वों का मुकाबला करने और मैदान में साहसपूर्वक डटे रहने के बजाय खतरे के क्षेत्रों से हजारों की संख्या में भाग निकले।"
कांग्रेसजन की परीक्षा
गांधी जी को सबसे अधिक पीड़ा इस बात से थी कि "इन काले दिनों में कांग्रेस का कहीं कोई प्रभाव दिखाई नहीं दिखा। दंगा प्रभावित क्षेत्रों में कांग्रेस का प्रभाव न हिन्दुओं पर था, न मुसलमानों पर।...यदि ऐसे अवसरों पर कांग्रेस का जनता पर कोई नियंत्रण नहीं रह जाता तो कांग्रेस की अहिंसा की कोई कीमत नहीं है। अगर अंग्रेज अचानक चले जाते हैं तो कांग्रेस सरकार नहीं चला सकेगी।...अत: कांग्रेसजनों को अपनी अहिंसा की वास्तविकता की परीक्षा करनी चाहिए। मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी यदि अनेक नेताओं के जेल में बंद रहते हुए भी कांग्रेसजन अपनी विचारधारा को बदल दें या कांग्रेस को छोड़ दें। मैं पांच सच्चे आदमियों को लेकर कांग्रेस को फिर से खड़ा करूंगा।" गांधी जी का निष्कर्ष था कि "कायर लोग न शांति ला सकते हैं, न आजादी। गांधी जी का यह वक्तव्य 1924 के दंगों के बाद दिये गये उन वक्तव्यों की याद दिलाता है जब उन्होंने कहा था कि मैं अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि "यदि प्रत्येक मुसलमान गुंडा है तो प्रत्येक हिन्दू कायर और जहां कायर होंगे वहां गुंडे अवश्य होंगे।" बीस साल बाद भी स्थिति वहीं की वहीं थी। 6 मई 1941 को नरहरि पारीख को, जो अमदाबाद में महादेव देसाई के साथ शांति प्रयासों में लगे थे, गांधी जी ने लिखा कि, "यदि मुस्लिम समाज लडऩे पर उतारू है तो मैं बहिष्कार के विचार को नहीं ठुकराऊंगा। मैं छुरेबाजी और सम्पत्ति दहन की अपेक्षा बहिष्कार को अधिक शालीन समझता हूं।" दंगों की आग फैलती जा रही थी। 7 मई को गांधी जी ने एक प्रेस वक्तव्य में माना कि राजेन्द्र बाबू बिहार में दंगों की आग बुझाने के लिए भागे-भागे गये हैं। मुस्लिम लीग ने 23 मार्च को "पाकिस्तान दिवस" मनाया, जिसकी प्रतिक्रिया में हिन्दुओं ने "पाकिस्तान विरोधी दिवस" मनाया। उससे भडक़कर मुसलमानों ने दंगे शुरू कर दिए। गांधी जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि, "यह मानना पड़ेगा कि बिहार हिन्दू बहुल प्रांत है और कांग्रेस के अधिकांश सदस्य हिन्दू ही हैं, इसलिए वहां कांग्रेस के लिए पुलिस और सेना की मदद लिये बिना शांति स्थापना का काम आसान होना चाहिए। इस समय बिहार ही अकेला प्रांत है जो रास्ता दिखा सकता है और उदाहरण बन सकता है। राजेन्द्र बाबू की अपने प्रांत पर बहुत अनूठी और मृदु पकड़ है, जैसी किसी भी अन्य नेता की नहीं है। ईश्वर करे कि वे बिहार में शांति दूत बनकर बिहार के माध्यम से पूरे भारत में शांति दूत बनें।"
हिंसक या अहिंसक मार्ग?
21 मई को गांधी जी ने महादेव देसाई के हाथों गुजरात प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के सचिव भोगीलाल लाला के नाम एक लम्बा पत्र भेजा, जो चार दिन तक गांधी जी, मृदुला बहन, गुलजारी लाल नंदा और महादेव देसाई के बीच गहन मंत्रणा के बाद लिखा गया था। इस पत्र में कांग्रेसजनों के लिए अहिंसा पर आग्रह करते हुए गांधी जी ने लिखा कि "यदि कांग्रेसजनों का बहुमत यह मानता हो कि हिंसक मार्ग से किसी आक्रमणकारी का मुकाबला करना हमारा कर्तव्य है और यदि वे इसे कांग्रेस की विचारधारा से असंगत न समझते हों तो उन्हें अपने विश्वास की खुली घोषणा करनी चाहिए और तद्नुसार जनता का मार्गदर्शन करना चाहिए। यदि आगे चलकर यह रास्ता गलत लगे तो उस पर पुनर्विचार हो सकता है, मुझे विश्वास है कि यदि सभी कांग्रेसजनों ने अपना कर्तव्य निभाया होता तो हमें हाल की जैसी गुंडाशाही को न भोगना पड़ता। यह असह्र है कि लोग गुंडों के भय से अपनी जान बचाने के लिए भाग निकलें। उनमें हिंसक या अहिंसक मार्ग से गुंडाशाही का मुकाबला करने की ताकत होनी चाहिए। ...कांग्रेस जन स्वयं अहिंसक रहकर भी लोगों को स्पष्ट शब्दों में बता दें कि भय के कारण भागना कायरता है। यदि वे अहिंसा के द्वारा मुकाबला करने में असमर्थ हैं तो हिंसा के द्वारा मुकाबला करना उनका धर्म है।" इस पत्र से विदित होता है कि अमदाबाद के मध्यम वर्गीय व्यापारियों की ओर से जान-माल की रक्षा के लिए अन्य प्रांतों के"भैया, सिख या ठाकुर दा" लोगों को चौकीदार या सुरक्षाकर्मी नियुक्त करने का सुझाव आया था। इस सुझाव को ठुकराते हुए गांधी जी ने लिखा कि "मध्यम वर्गीय व्यापारी समुदाय में ऐसा एक भी युवक न रहे, जिसने आत्मरक्षा का पर्याप्त प्रशिक्षण- हिंसक या अहिंसक- प्राप्त न किया हो। दंगे की अफवाह सुनते ही दुकानों को बंद करने के बजाए हिंसक या अहिंसक प्रतिरोध के लिए प्रत्येक दुकानदार को तैयार रहना चाहिए।" अंत में गांधी जी ने लिखा कि "हमारे देश में दंगों का जो रूप होता है वैसा पश्चिमी देशों में नहीं होता, क्योंकि वहां संघर्षरत दोनों पक्ष बराबर ताकतवर होते हैं। इस दृष्टि से हम घोर वहशी और नपुंसक, दोनों हैं।" ऊपर दिये गये गांधी जी के पत्रों और वक्तव्यों से स्पष्ट है कि पाकिस्तान की मांग को लेकर सुनियोजित दंगों का रूप इतना भयंकर था कि गांधी जी को अहिंसा के साथ-साथ हिंसक प्रतिरोध की आवश्यकता को स्वीकार करना पड़ा था। वे एक गहरे अन्तद्र्वंद्व से गुजर रहे थे। एक ओर तो वे मध्यम वर्गीय युवकों के लिए हिंसक या अहिंसक प्रतिरोध का प्रशिक्षण अनिवार्य बता रहे थे, दूसरी ओर कांग्रेसजनों को ऐसा प्रशिक्षण देने वाले अखाड़ों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध न रखने का आदेश दे रहे थे। 12-13 जून की बैठक अन्तद्र्वंद्व की इस पृष्ठभूमि में बहुत महत्वपूर्ण बन जाती है।
मुंशी का महत्वपूर्ण प्रश्न
बैठक में चर्चा को आरंभ करते हुए मुंशी जी ने कहा, युद्ध भारत की सीमाओं पर आ पहुंचा है जिसके कारण आंतरिक व्यवस्था तंत्र दुर्बल हो रहा है। सुनियोजित दंगों के रूप में पाकिस्तान सक्रिय हो गया है और आगे भी रहेगा। पर पाकिस्तान का निर्माण हमारी लाशों पर ही हो सकता है। भारत की अखंडता की रक्षा के साथ-साथ दंगों के कारण जान-माल की रक्षा करने की समस्या हमारे सामने खड़ी हो गयी है। इने-गिने कांग्रेसजन ही आत्म बलिदान के लिए सिद्ध हैं। इससे कांग्रेस में ढोंग की प्रवृत्ति बढ़ रही है। और उपद्रवियों की ताकत बढ़ रही है। इस स्थिति में कांग्रेसजन क्या करें? डा.राजेन्द्र प्रसाद ने कहा कि बिहार में मुसलमान खुल्लम-खुल्ला आक्रामक हो गये हैं। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप हिन्दू भी उतने ही आक्रामक बन रहे हैं। बिहार पर मेरी पकड़ समाप्त हो रही है। शांति सेना का विचार कांग्रेसजनों के गले नहीं उतर रहा है। इस पर गांधी जी ने कहा कि मैं मानता हूं कि शांति सेना का विचार कांग्रेसियों को आकर्षित नहीं कर रहा है। महादेव भाई को अमदाबाद में इस दृष्टि से अब तक कोई सफलता नहीं मिली है। राजेन्द्र बाबू ने कहा कि मेरे विचार से अभी प्रारंभिक झड़पों के द्वारा मुस्लिम समाज की ताकत का अंदाजा लगाया जा रहा है। जल्दी ही पूरी ताकत से अभियान छेड़ा जाएगा। मुंशी जी ने कहा, यह गृहयुद्ध की स्थिति है। इसमें कांग्रेस को प्रभावी भूमिका निभानी होगी। राजेन्द्र बाबू ने चिंता प्रगट की कि एक भी मुसलमान नेता मुस्लिम अत्याचारों की भत्र्सना करने के लिए आगे नहीं आया, न वह अहिंसक आत्म बलिदान की बात करता है। इस पर चर्चा छिड़ गई कि अहिंसक प्रतिरोध के सिद्धांत में संशोधन पर प्रमुख मुस्लिम कांग्रेसी नेताओं की क्या प्रतिक्रिया है। पिछले लेख में हम बता चुके हैं कि पुणे में अ.भा.कांग्रेस समिति ने राजगोपालाचारी के प्रस्ताव को पास करके अहिंसा के सिद्धांत में संशोधन किया था कि (अ) अन्तरराष्ट्रीय संघर्ष में हिंसा का सहारा लिया जा सकता है पर, (आ) स्वराज्य के लिए लड़ाई में अहिंसा का सिद्धांत ही चलेगा। गांधी जी ने कहा कि मौलाना आजाद भी अन्तरराष्ट्रीय संघर्ष में हिंसा को जायज मानते हैं, पर देश के अंदरूनी संघर्षों में नहीं। इस पर गोपीचंद भार्गव ने कहा कि आसफ अली ने भोगीलाल लाला के नाम गांधी जी के पत्र की आलोचना करते हुए कहा कि यह पत्र कांग्रेस के सिद्धांत की सही व्याख्या नहीं करता, क्योंकि पूना संशोधन केवल स्वराज्य की लड़ाई के लिए था न कि अन्य आंतरिक संघर्षों के लिए। गांधी जी ने कहा, लेकिन आसफ अली अंदरूनी मामलों में हिंसक प्रतिरोध के विरोध में मौलाना के साथ थे। इस पर मुंशी जी की प्रतिक्रिया थी कि ये लोग मुसलमानों के हिंसक आक्रमणों को तो रोक नहीं पाते, पर चाहते हैं कि कांग्रेसी हिन्दू आत्मरक्षा के लिए भी हिंसा न अपनाएं। इसका परिणाम होगा कि हिन्दू समाज विभाजित हो जाएगा और गृहयुद्ध की स्थिति में मुसलमानों का मुकाबला करने में अक्षम रहेगा। दंगों के इस वातावरण में यह सवाल भी उठा कि कांग्रेस के मुस्लिम सदस्यों की संख्या कितनी है। महादेव देसाई ने 15 मई 1941 को मुंशी जी को लिखा कि कांग्रेस के मुख्यालय से प्राप्त सूचना के अनुसार, कांग्रेस के 30 लाख सदस्यों में मुस्लिम सदस्यों की संख्या लगभग डेढ़ लाख होगी। पर, सीमांत गांधी के एक लाख अनुयायियों को निकाल देने पर क्या बचता है? दो दिन लम्बे मुक्त चिंतन में गांधी जी का अन्तद्र्वंद्व देखने लायक है। मुंशी जी के प्रारंभिक कथन पर टिप्पणी करते हुए गांधी जी ने कहा, सरकार से समझौते के कोई आसार मुझे दिखाई नहीं देते। जिन्ना मानने वाले नहीं हैं और दंगे बढ़ते जाएंगे। इस स्थिति में कांग्रेस अपनी वर्तमान संरचना के कारण दंगों में कोई भूमिका नहीं निभा सकती, किंतु साथ ही अगर उसने दंगों का कोई हल नहीं निकाला तो वह समाप्त हो जाएगी। गांधी जी की मुख्य चिंता यह थी कि यदि कांग्रेस ने हिंसक आत्मरक्षा को संगठित करने का कोई भी प्रयास किया तो सरकार को कांग्रेस पर हमला करने का मौका मिल जाएगा। पर, यह पूरे भारत की समस्या है इसलिए इसकी उपेक्षा भी नहीं की जा सकती। गांधी जी ने पुन: दोहराया कि एक संस्था के नाते कांग्रेस हिंसक आत्मरक्षा का रास्ता नहीं अपना सकती। दंगों में हिंसक भूमिका अपनाना कांग्रेस के लिए खतरनाक होगा, क्योंकि इससे सरकार को उसे नष्ट करने का मौका मिल जाएगा। इसलिए कांग्रेस के सामने एक ही रास्ता रह जाता है कि वह ऐसे लोगों के प्रयासों को प्रोत्साहन दे जो ह्मदय से अनुभव करते हैं कि इस "युद्ध" को अन्य (हिंसक) रास्ते से ही रोका जा सकता है। अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए गांधी जी ने कहा कि कुछ लोगों को कर्म की स्वतंत्रता पाने के लिए कांग्रेस से बाहर जाना चाहिए। आचार्य कृपलानी ने अपनी सहमति जताते हुए कहा कि इस समय कुछ कांग्रेसजनों को कांग्रेस से बाहर जाकर वह काम करना चाहिए जो कांग्रेस संस्था के रूप में नहीं कर सकती।
अन्तर्द्वंद के बीच
इस बैठक का आयोजन तो मुंशी जी के अन्तद्र्वंद्व का हल निकालने के लिए हुआ था। गांधी जी ने कहा कि मुंशी जी के सामने तीन रास्ते हैं- (अ) वे शांति सेना के काम में पूरे मन से लग जाएं। (आ) वे कुछ समय के लिए हिमालय में एकांतवास करें। (ई) और यदि वे यह नहीं कर सकते तो कांग्रेस से बाहर निकलकर हिन्दुओं को हिंसक आत्मरक्षा के लिए संगठित करें। तुम जो भी रास्ता चुनो, हमारे व्यक्तिगत संबंध पहले जैसे ही रहेंगे और मैं तुम्हारी आज जैसी ही चिंता करता रहूंगा। यहां मुंशी जी भावुक हो गए, उनका गला रुंध आया। उन्होंने कहा कि पहले दो रास्ते तो मेरे लिए संभव नहीं हैं। मैं लम्बे समय से सार्वजनिक जीवन में हूं। उससे अलग होना मेरे लिए संभव नहीं है। और इस समय जब मेरा देश, मेरा समाज और मेरी संस्कृति खतरे में है, मैं पीछे नहीं हट सकता। यदि आप कांग्रेस के हित में आवश्यक समझते हों तो मैं कुछ समय के लिए कांग्रेस से हट कर जेल वापस जा सकता हूं या अपने वकालत के व्यवसाय में लग सकता हूं। गांधी जी ने कहा कि मैं इन दोनों रास्तों के पक्ष में नहीं हूं। इस पर मुंशी जी ने कहा कि मैं अन्त:करण में महसूस करता हूं कि मेरा देश और संस्कृति खतरे में हैं।...मुसलमानों के पास तो उनकी मस्जिदें हैं और उनके अपने संगठन हैं। इसलिए दंगों में शुरू में हिन्दुओं को ही हानि होती है। मैंने देखा है कि अनेक कांग्रेसजन ऐसी नई संस्थाओं की मदद करते रहे हैं और अभी भी करते हैं, जो हिंसक उपायों से अपनी बस्तियों की रक्षा करती हैं। अंत में गांधी जी ने कहा कि यदि मुंशी जी को शांति सेना का पहला रास्ता स्वीकार नहीं है तो यह कांग्रेस के हित में होगा कि वे कांग्रेस से बाहर जाएं और अपनी अंत:प्रेरणा से कार्य करें। मैं उनकी स्थिति को स्पष्ट करने के लिए स्वयं वक्तव्य जारी करूंगा। वे अपने कांग्रेस मित्रों से भी चर्चा करके देखें कि क्या वे भी उनके साथ बाहर जाकर आत्मरक्षा को संगठित करेंगे। बम्बई के कांग्रेसी कार्यकत्र्ताओं से भी विचार करें कि क्या वे हिंसक आत्मरक्षा का अधिकार चाहते हैं। इस पर राजेन्द्र बाबू ने कहा कि इससे कांग्रेस की एकता नष्ट हो जाएगी, पर गांधी जी ने मुंशी जी को कहा कि तुम बम्बई जाकर अपने मित्रों से मिलकर वापस आओ। तब हम अंतिम निर्णय लेंगे। मुंशी जी ने कहा कि "यह बिल्कुल नया विचार है। बाहर जाना मेरे लिए इतना आसान नहीं है, मुझे अपनी पत्नी (लीलावती) से भी परामर्श करना पड़ेगा।" उपरोक्त चर्चा से स्पष्ट है कि वह हिंसा-अहिंसा के अन्तद्र्वंद्व में फंस गये थे और यह प्रश्न उनके लिए अस्तित्व-रक्षा का प्रश्न बन गया था। (जारी)

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