बुधवार, 12 मई 2010

नई पीढ़ी के स्वस्थ विकास के लिए हो शिक्षा में सकारात्मक परिवर्तन

देश भर में इस समय परीक्षाओं और परीक्षा परिणामों का माहौल है। छात्र आकंठ इसी चिंता में डूबे हैं कि कैसे अधिक से अधिक मेहनत करके अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हों। पर इसके साथ ही कुछेक घटनाओं ने समाज में, खासकर अभिभावकों में एक आशंका और चिंता पैदा की है। ये घटनाएं थीं, तनाव से त्रस्त कुछ मासूमों द्वारा अपनी जीवन लीला समाप्त करने की। अकेले मुम्बई में पिछले माह दो दिनों में तीन बच्चों ने आत्महत्या कर ली। इनमें से दो बच्चे तो महज छठी व सातवीं कक्षा के छात्र थे, जबकि तीसरी चिकित्सा कालेज की छात्रा थी। इन तीनों घटनाओं में समानता यह थी कि तीनों मासूमों ने खेलने-खाने और भविष्य के प्रति सपने बुनने की उघ में यह आत्मघाती एवं खतरनाक कदम उठाया था। साथ ही ये तीनों ही, कहीं न कहीं, अपने भावी जीवन को लेकर अपने-अपने परिवारों के दबाव में थे। आज दुनिया में प्रतिस्पर्धा का दौर चल रहा है। जिंदगी की इस होड़ ने बच्चों की आंखों की नींद उड़ा दी है तथा बच्चे अपने 'केरियरÓ को लेकर किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में हैं। ऐसे में समाज के सामने कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े होते हैं खासकर, आज के परिवारों की रीति-नीति में सकारात्मकता की मांग करते हैं। देखने में आया है कि बच्चे अब पहले की तुलना में ज्यादा निर्मम, आक्रामक और एकल होते जा रहे हैं। परिणामत: बच्चों का स्वाभाविक विकास बाधित हो रहा है। उनका बचपन विसंगतियों से भर रहा है। इसी पारिवारिक और शैक्षिक माहौल में वैयक्तिक विघटन की पृष्ठभूमि तैयार हो रही है। 'करियर' के दबाव और माता-पिता की बच्चों से असीम अपेक्षाओं के कारण बच्चे जिस तरह के आत्मघाती कदम उठा रहे हैं उसके लिए केवल बच्चों को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इसके लिए बच्चों को समाज की शैक्षिक मांग और समाज की परिस्थितियों के अनुकूल ढालने एवं जीवन में शैक्षिक विकास को निश्चित दिशा देने का काम भी परिवार व विद्यालय जैसी संस्थाओं का है। बच्चों के द्वारा उठाये जा रहे आत्मघाती कदमों के लिए आज का सामाजिक माहौल भी कम दोषी नहीं है। आज संयुक्त परिवार टूट रहे हैं और एकल परिवार समाज के 'आदर्शÓ बन रहे हैं। बच्चों का बचपन धीरे-धीरे सूना हो रहा है। माता-पिता और बच्चों के बीच स्वस्थ संवाद न रहने से सामाजिक और शैक्षिक दुनिया का उपयोगी परिचय बच्चों के जीवन से फिसल रहा है। यह इसी का परिणाम है कि बच्चों में सामूहिकता, धैर्य व संयम, अनुशासन, मूल्य व परम्पराएं एवं संवेदनाएं जैसे शब्द उनके एकल जीवन की पृष्ठभूमि में कहीं खो रहे हैं। परीक्षा के दबाव अथवा परीक्षा परिणाम के चलते तो कम, पर परिवारों में बच्चों के विषय में बढ़ती प्रतिस्पर्धात्मक प्रवृत्ति के कारण दु:खद घटनाएं ज्यादा देखने में आ रही हैं। शोध बताते हैं कि भारतीय सामाजिक ढांचे में आ रहे सतत् बिखराव, शिक्षा व बच्चों के 'करियर' विकास के मध्य बढ़ती दूरी एवं अनभिज्ञता, संयुक्त परिवार प्रणाली का विखंडन, नगरों में माता-पिता दोनों के नौकरी पर जाने से बच्चों की उपेक्षा जैसे कारक इसके लिए प्रमुख रूप से उत्तरदायी हैं। वास्तविक स्थिति यह है कि आज मां-बाप अपने बच्चों की तुलना अन्य बच्चों से करते हैं और उनका ध्यान अपने बच्चों पर कम, परीक्षा के नतीजों पर अधिक रहता है। मां-बाप की इस सोच का दुष्परिणाम यह है कि परीक्षाओं में अथवा परीक्षा परिणामों में बच्चों का श्रेष्ठ प्रदर्शन न होने पर मां-बाप बच्चों के प्रति उपेक्षा का भाव रखने लगते हैं। मनोचिकित्सकों का भी मानना है कि ऐसे में बच्चे गहरे अवसाद की स्थिति में पहुंच जाते हैं। अवसाद की यह स्थिति बच्चों के मध्य पनपते असफलता के भाव अथवा अप्रत्याशित त्रासदी अथवा सदमे का ही परिणाम होती है। कड़वी सच्चाई यह है कि एकल परिवारों में बच्चों से भावनात्मक रिश्ते तथा विद्यालयों में शिक्षक व छात्रों के बीच सीखने-सिखाने के रिश्ते समाप्त हो रहे हैं। माता-पिता को अपने दैनिक कारोबार और स्कूल व शिक्षकों को अपनी व्यावसायिकता तथा शिक्षा से जुड़े नीति-नियन्ताओं को पार्टी के स्वार्थों से अलग इतनी फुर्सत नहीं जो वे हमारी भावी पीढ़ी की वास्तविक शिक्षा अथवा समसामयिक शैक्षिक नीति-निर्माण की ओर ध्यान केन्द्रित करें। एक ओर वैश्वीकरण का आकर्षण है तो दूसरी ओर प्रगति व विकास के नए मानदण्ड हैं जो बच्चों व युवाओं तक को अवसादग्रस्त कर रहे हैं। ऐसे में हमें बच्चों के प्रति तटस्थता का भाव त्यागकर उनसे निरन्तर सघन संवाद स्थापित करने की महती आवश्यकता है। बच्चों में सृजनात्मक व्यक्तित्व के निर्माण के लिये परिवार, शिक्षा व विद्यालय आज भी बच्चों में पनप रहे अवसाद एवं उनमें हिंसा व आत्मघात की प्रवृत्ति को रोकने में सहायक ही नहीं, बल्कि उनकी ऊर्जा का सार्थक प्रयोग करने में भी पूर्ण सक्षम हैं। इसलिए इस सम्पूर्ण शैक्षिक व्यवस्था को समाज व राष्ट्रोपयोगी बनाने के साथ-साथ अभिभावकों को भी बच्चे की शिक्षा, उसके 'करियर' तथा बचपन के बीच सामंजस्य बनाने की महती आवश्यकता है।

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