सोमवार, 24 मई 2010

गाली देकर शर्मिंदा होने का कम्युनिस्टी ढ़ोंग

गत फरवरी में लखनऊ की सड़कों पर लगभग दो दर्जन कम्युनिस्ट एक भ्रामक नारा लगाते घूम रहे थे- 'गांधी जी हम शर्मिंदा हैं, आपके हत्यारें जिंदा है।' यह नारा कम्युनिस्टों की रीति-नीति के अनुकूल था। बार-बार शर्मिंदा होना, माफी मांगना उनके स्वभाव के अनुरूप है। 1920 में ताशकंद में जन्मी 'कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया' को प्रारम्भ से ही क्षमायाचना करने की आदत है। 1924 में जब कानपुर षड्यंत्र केस में कम्युनिस्टों के प्रमुख नेता पकड़ लिऐ गये तो तत्कालीन सर्वोच्च कम्युनिस्ट नेता ने ब्रिटिश सरकार को एक गुप्त पत्र (पत्र की प्रतिलिपि 7 मार्च, 1964 के 'द करेंट' में प्रकाशित) भेजकर क्षमायाचना की तथा अपने साथियों के बारे में पूरी जानकारी देने का सरकार को आश्वासन दिया। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में ब्रिटिश सरकार के साथ मिलकर आन्दोलन को कुचलने में अपनी देशद्रोहितापूर्ण नीति की शर्मिंदिगी का कम्युनिस्टों ने बार-बार स्पष्टीकरण दिया। सुभाष चन्द्र बोस को निम्नतम स्तर की गालियां देने के पश्चात भी उनकी लोकप्रियता के सामने झुकना पड़ा। कम्युनिस्टों के बड़े-बड़े नेताओं ने भारतीय जनता से क्षमायाचना की। हरकिशन सिंह सुरजीत ने दो लम्बे-लम्बे लेख लिखकर माफी मांगी (देखें टाइम्स आफ इंडिया- 24 फरवरी, 1997)। ई.एम.एस. नम्बूदिरीपाद तथा ज्योति बसु ने भी भूल स्वीकार की। इतना ही नहीं बंगाल के वर्तमान मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने साठ वर्ष पहले नेताजी सुभाषचन्द्र को गालियां देने के लिए शर्मिंदगी महसूस की। भारत के महान पुरुषों का अपमान करना, उन्हें भद्दी-भद्दी गालियां देना कम्युनिस्टों का परम्परागत स्वभाव है। गांधी जी को ही नहीं, भारत के कम्युनिस्टों ने यहां के सामाजिक, धार्मिक तथा अन्य महापुरुषों का चरित्र हनन करने, उनकी खिल्ली उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। संभवत: यह कम्युनिस्टों की योजना का एक विशिष्ट भाग है। राजा राममोहन राय से लेकर स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविन्द तथा श्री रवीन्द्र नाथ टैगोर की आलोचना करना उनकी नीति का एक अंग रहा है। इतना ही नहीं कम्युनिस्टों ने डा. अम्बेडकर, जयप्रकाश नारायण तथा डा. राममनोहर लोहिया को भी अपशब्द कहे। जिन डा. अम्बेडकर ने कम्युनिस्टों को जेल से छुड़वाने तथा चुनाव में मदद की थी, उन्हीं को कम्युनिस्टों ने देशद्रोही, ब्रिटिश एजेन्ट, लोक हितों से गद्दारी करने वाला, साम्राज्यवाद से गठजोड़ करने वाला तथा अवसरवादी, अलगाववादी और ब्रिटिश समर्थक (देखें, गैइल ओबवडेन, दलित एण्ड द डेमोक्रेटिक रिव्यूलेशन: डा. अम्बेडकर एण्ड द दलित मूवमैन्ट इन कोलोनियल इंडिया) बताया। परिणामस्वरूप डा. अम्बेडकर ने भी कम्युनिस्टों को 'ब्राह्मण बच्चों का गुच्छा' तथा स्वयं को उनका जानी दुश्मन बतलाया। डा. अम्बेडकर ने लिखा, 'कम्युनिस्टों से मेरे मिलने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अपने स्वार्थ के लिए मजदूरों का शोषण करने वाले कम्युनिस्टों का मैं जानी दुश्मन हूं।' जयप्रकाश नारायण जब पढ़ाई के पश्चात भारत लौटे तब कम्युनिस्टों ने उन्हें 'भारत का लेनिन' कहा तथा गांधीजी ने भी उन्हें महानतम माक्र्सवादी कहा। पर शीघ्र ही कम्युनिस्टों ने उन्हें फासिस्ट, साम्राज्यवादी, विश्वासघाती, कांग्रेस सोशिलिस्ट पार्टी का शत्रु तथा राष्ट्रीय आन्दोलन में नकारात्मक भूमिका अपनाने वाला बताया। राम मनोहर लोहिया ने भी कम्युनिस्टों की काली कारतूतों को देखते हुए उन्हें हिंसक, बर्बर, एशिया के विरुद्ध यूरोप का हथियार, अनैतिकता से पूर्ण, स्टालिन को विश्व इतिहास का महान अपराधी तथा साम्यवाद को एक महान बुराई बतलाया। जहां तक गांधीजी का प्रश्न है, भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के सन्दर्भ में कम्युनिस्ट जगत ने उनका सर्वाधिक उपहास उड़ाया। लेनिन के रूस आने के निमंत्रण को ठुकराने के बाद गांधीजी कम्युनिस्टों के दुश्मन माने गये। उन्होंने गांधीजी के असहयोग आन्दोलन को 'क्रांतिकारी शक्तियों के साथ विश्वासघात', सविनय अवज्ञा आन्दोलन को 'बेकार का युद्ध' बताया तथा 1942 के आन्दोलन में वे स्वयं ब्रिटिश सरकार के गुप्त एजेन्ट व मुखबिर बन गये। स्टालिन अपने निरकुंश तंत्र (1924-1953) में सदैव गांधीजी को अपने मार्ग की बाधा तथा अड़चन समझता रहा। रूसी विश्व कोष के पहले संस्करण (1929) तथा दूसरे संस्करण (1952) में गांधीजी को जी भरकर अपशब्द कहे गए। पहले संस्करण में उन्हें अमीरों के हितों का संरक्षण करने वाला बताया तथा दूसरे में उन्हें प्रतिगामी राजनीतिक विचारों का जनक, धार्मिक अन्धविश्वासपूर्ण भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने वाला कहा तथा उनके कार्यों को 'पाखण्डपूर्ण' कहा। कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल में भी गांधी जी का चेहरा ऐसे देशद्रोही के रूप में प्रस्तुत किया गया, जिसने जनक्रांति से विश्वासघात किया हो। इसी काल में सोवियत रूस के 'सरकारी इतिहासकार' ए.एम. डिकोम ने गांधीजी को मुक्ति आन्दोलन का प्रथम द्रोही, जन आंदोलन को धोखा देकर भारत को गुलाम बनाये रखने वाला तथा अंग्रेजों के हाथ मजबूत करने वाला (क्राइसिस आफ द कोलोनियल सिस्टम, 1952, पृ. 32) बताया। भारतीय कम्युनिस्टों ने अपने 'जन्मदाता' के अनुसार गांधी जी के प्रति नीति का अनुसरण किया। मास्को के इन भोंपुओं ने जहां स्टालिन की आरती उतारी, पूजा की, वहीं गांधी जी की भरपूर निंदा की। मानवेन्द्र नाथ राय, एस.ए.डांगे, पी.सी.जोशी, राजेश्वर राव, अजय घोष- सभी ने गांधी जी के प्रति अपशब्द कहे। सामान्यत: उन्होंने सोवियत रूस की शब्दावली को ही दोहराया। इस क्रम में ई.एम.एस.नम्बूदिरीपाद तथा प्रो. हीरेन मुकर्जी भी पीछे न रहे। पर विश्व की बदलती हुई परिस्थितियों, भारत की स्वतंत्रता, चीन में नये आका की स्थापना, स्टालिन की मृत्यु आदि ने गांधी जी के प्रति रुख बदलने को मजबूर किया। अब रूसी इतिहासकारों ने गांधी जी को एक अत्यधिक जटिल व्यक्ति कहा। एक इतिहासकार ए. द्रौवशैव ने गांधीजी को एक महान देशभक्त तथा मानवतावादी कहा। तदनुसार भारत के कम्युनिस्ट नेताओं ने अपना स्वर बदला तथा मिली-जुली प्रतिक्रिया व्यक्त की। ई.एम.एस. नम्बूदिरीपाद ने कहा गांधी अच्छे हैं, पर गांधी दर्शन नहीं। प्रो. हीरेन मुकर्जी ने गांधी जी की प्रशंसा की, पर उनमें बुद्धि का अभाव बतलाया। यह सत्य है कि गांधी जी ने अपने लेखों में बार-बार बोल्शेविज्म अथवा साम्यवाद के प्रति अपनी अज्ञानता प्रकट की। परन्तु अपनी मृत्यु के पूर्व 25 अक्तूबर, 1947 को कम्युनिस्टों के बारे में उन्होंने जो निष्कर्ष दिये वह भारत तथा विश्व के अनेक नेताओं के लिए आंखें खोलने वाले हैं। गांधी जी ने लिखा- 'क्या कम्युनिस्ट समझते हैं कि उनका सबसे बड़ा कर्तव्य, सबसे बड़ी सेवा मनमुटाव पैदा करना, असन्तोष को जन्म देना और हड़ताल कराना है... अधूरा ज्ञान सबसे बड़ी बुराइयों में से एक है... कुछ लोग ज्ञान और निर्देश रूस से प्राप्त करते हैं। हमारे कम्युनिस्ट इसी दयनीय हालत में जान पड़ते हैं। मैं इसे शर्मनाक न कहकर दयनीय कहता हूं, क्योंकि मैं अनुभव करता हूं कि उन्हें दोष देने की बजाय उन पर तरस खाने की आवश्यकता है... ये लोग एकता को खंडित करने वाली उस आग को हवा दे रहे हैं, जिसे अंग्रेज लगा गये थे।' गांधीजी के परमभक्त तथा अनुयायी विनोबा भावे ने कम्युनिस्ट विचारधारा को 'आत्माविहीन विचारधारा' तथा कम्युनिस्टों की दृष्टि को 'बौद्धिक पोलिया से ग्रसित' बतलाया है। विचारणीय विषय यही है कि आखिर भारतीय कम्युनिस्ट कब तक लेनिन व स्टालिन या माओत्सेतुंग तथा चाऊ-एन-लाई के तराने गाते हुए, भारतीय नेताओं का अपमान तथा तिरस्कार कर, शर्मिंदा होने का ढोंग करते रहेंगे? विश्व के जनमानस ने जहां साम्यवाद को अपने-अपने देशों में अतीत का विषय बना दिया, भारतीय जनता कब तक उनके भ्रामक नारों का शिकार बनती रहेगी? शर्मिंदिगी का यह नाटक कब तक चलता रहेगा?(साभार पांचजन्य)

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