सोमवार, 10 मई 2010

भारत को इस दर्द से उबारें

भारत माता को ग्रामवासिनी कहने वाले कवि की कल्पना धुंधली पड़ती जा रही है क्योंकि आजादी के 62 सालों में गांवों की खुशहाली को तो जैसे ग्रहण लग गया है। गांव शहरीकरण की चपेट में आकर उजड़ रहे है, गांवों की अर्थ व्यवस्था के आधार खेती और पशुधन की हालत चिंताजनक है। संसाधनों की कमी और सरकारों की गलत नीतियों की मार झेल रही कृषि चौपट होने के कगार पर है और अपना पेट भरने की जद्दोजहद में लगा किसान पशुधन को पालने में लाचार है। बड़े-बड़े कल- कारखानों व विशाल बाँधों को श् विकास का मंदिर ्य मानकर उनके बेहताशा निर्माण को प्रोत्साहन देने वाली नीतियां और उन नीतियों का प्रेरक श् नेहरू मॉडल्य मानों गांव- कृषि- पशुधन और पर्यावरण के लिए अभिशाप सिद्ध हुआ है। अन्न एपजाऊ कोख बंजर होते जाने और विकास की होड़ में बहुमंजिली अट्टालिकाओं के बोझा तले धरती कराह रही है, नदियां सुख रही है, कृषि की अर्थव्यवस्था का आधार गोवंश अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहा है, पेड़ों की कटाई की हालत यह है कि भारत का वन क्षेत्र लगातार सिकुड़ता जा रहा है और पर्यावरण संतुलन बिगड़कर विनाश की ओर तेजी से अग्रसर है। यह चिंता जनमानस में इस कदर व्याप्त हो गई है कि पेड़ों को बचाने के लिए इस रक्षा बन्धन पर देश के अनेक भागों में पेड़ों को राखी बाँधकर उन्हे बचाने का संकल्प भी जनता ने जताया है। सिंचाई के लिए वर्षा पर आधारित रहने वाले खेतों का कण्ठ इतना सुखा है कि देश का बड़ा हिस्सा त्राहि-त्राहि कर रहा है। अकेले बुंदेलखण्ड क्षेत्र के करीब 13 जिलों के 60 लाख से अधिक किसान इस वर्ष सुखे के कारण गांवों से पलायन कर चुके है। गत 62 वर्षाे की आजादी की क्रूर सच्चाई यह है कि विज्ञान, रक्षा क्षेत्र, संचार, अर्थव्यवस्था आदि में विकास के नए-नए प्रतिमान गढने के बावजूद ग्रामवासिनी भारत माता बेहाल है और बड़े अर्थ कुबेरों की सूची में हर साल कुछ और करोड़पतियों के नाम जुड़ते जाने के दर्प से श्इंडिया्य इठला रहा है। पिछले कुछ सालों में सरकार की आर्थिक एवं विकास की नीतियों ने भारत और इंडिया के बीच की खाई को और चौड़ा किया है। गांधी- विनोबा भावे व दीनदयाल उपाध्याय ने जिस आत्म निर्भर, खुशहाल और भ्रातृत्व भाव के सूत्र से गुंफित सुदृढ़ ग्राम व्यवस्था का सपना बुना था, वह तो मानो बिखर गया। दुर्भाग्य तो यह है कि विकास के नाम पर गांवों को शहरों में बदलने का प्रयास हो रहा है। ग्रेटर नोएडा, नोएडा, सोनीपत जैसे अनेक क्षेत्र है जहां किसानों की उपजाऊ कृषि भूमि को अधिग्रहीत कर वहां बड़े-बड़े राजमार्ग बनाये जा रहे है, आलीशान श् टाऊनशिप्य विकसित की जा रही है और विशेष आर्थिक व औद्योगिक क्षेत्र (सेज) खड़े किए जा रहे है। किसानों को मोटा मुआवजा मिल गया, उससे अचानक करोड़पति हुए किसान शहरी चकाचौंध की लालसाएं पूरी करने में जुट गए है। गांवों में ऐसे किसानों के घरों के सामने श्लक्जरी्य गाडिय़ा आ गई, शानदार मकान बन गए, रहन-सहन बदल गया। लेकिन ये पैसा कितने दिन चल पायेगा? जीने का आसरा जमीन तो छिन गई। आंकड़े गवाह है कि इस तरह देश में जात का रकबा घट रहा है। एक तरफ हरित क्रांति की रौ में कृषि का यंत्रीकरण व रासायनीकरण हो जाने से भूमि की उर्वरा शक्ति लगातार घट रही है। तो दूसरी ओर उपजाऊ कृषि भूमि श्विकास्य की भेंट चढ़ रही है। इससे भविष्य में अन्न उत्पादन का संकट किस कदर बढ़ जायेगा, यह सोच कर ही दिल दहलता है। देश में खाद्यान्न की प्रति व्यक्ति उपलब्धता लगातार घट रही है। इस कारण भारत में दुनियां के सर्वाधिक 23 करोड़ 30 लाख लोग भूख व कुपोषण से पीड़ित है। विकास का यह रूप बेहद खतरनाक है कि विकास के नाम पर गांवों को शहरों में बदलने का प्रयास हो रहा है। गांव सुविधा सम्पन्न और आत्म निभेर बने, ग्रामवासियों के लिए सड़के, बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं का विकास करते समय यह ध्यान रखा जाना आवश्यक है कि यह विकास नैसर्गिक रूप से हो, उसमें कृत्रिमता ना हो, गांव का स्वाभाविक रूप खत्म ना हो, ऐसी अनुकूल व्यवस्था निर्माण की जाये। गांव की खुशहाली को चुनावी मुद्दा बनाकर किए जाने वाले राजनैतिक टोटको से भी गांव का कोई भला होने वाला नहीं है। इस दृष्टि से संप्रग सरकार की सबसे महत्वाकांक्षी योजना नरेगा ( राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ) को देखा जा सकता है। इस योजना के तहत ग्रामीण क्षेत्र में चालू वित्त वर्ष के दौरान 39 हजार करोड़ रूपये खर्च करने का प्रावधान है, लेकिन महत्वपूर्ण प्रश्र ये है कि क्या ये पैसा गांवों तक पंहुचेगा? अब तक के आंकड़ों के अनुसार घोषित 100 दिन के रोजगार की बजाय केवल 45 दिनों का रोजगार ही दिया जा सका है, उस पर भी श्जॉब कार्डश् बनाने व उन्हे भरने में भारी धांधली सामने आ रही है। मजदूरी वितरण में भी गंभीर अनियमितताएं बरती जा रही है। लेकिन अहम सवाल यह है कि क्या एक ग्रामीण को वर्ष में 100 दिन का रोजगार देने से उसके परिवार का जीवन आत्मनिर्भर हो जाएगा? यह तो एक प्रकार से आर्थिक परावलम्बन ही हुआ। इस पर राजकोष का अरबों रूपया स्वाहा हो रहा है, गांवों की तस्वीर बदलने में यह कितना उपयोगी है इसकी समीक्षा की जानी चाहिए। आज देश के समक्ष मौजूद अनेक चुनौतियों के बीच गो-ग्राम- कृषि व पर्यावरण का प्रश्र गंभीर रूप में खड़ा है। गाय हमारी संस्कृति का प्रतीक तो है ही, कृषि अर्थ व्यवस्था भी गोवंश पर आधारित है, यंत्रीकृत कृषि किसानों के लिए जानलेवा साबित हो रही है। गाय और कृषि गांव की समृद्धि की भी प्रतीक है। दरअसल गो- ग्राम और भारत अभिन्न है। गाय बचेगी तो गांव बचेगा, गांव बचेगा तो भारत बचेगा, भारत बचेगा तो विश्व बचेगा, इस संदेश की अनुगूंज से जब दिशाएं आच्छादित होगी तो मिटेगा भारत का दर्द।

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