सोमवार, 24 मई 2010

दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों में गोमांस परोसेगी सरकार?

इन दिनों देश में खेल प्रतियोगिताओं को लेकर विवाद मचा हुआ है। आईपीएल में पाकिस्तान के खिलाड़ी भाग लेने में सफल नहीं हो सके, इस पर कुछ लोगों को बड़ी निराशा हुई है। वे अपना दुख और खीज अलग-अलग ढंग से व्यक्त कर रहे हैं। हाकी विश्व कप भारत में होने जा रहा है, इस पर हमें गर्व है। लेकिन जहां तक सुरक्षा व्यवस्था का सवाल है, उसकी सभी को चिंता है। खिलाडिय़ों की सुरक्षा को लेकर जितनी जिम्मेदारी भारत की है, उतना ही दायित्व उन देशों का भी है जो इस विश्व स्तरीय प्रतियोगिता में भाग लेने जा रहे हैं। आतंकवाद फैलाने वाले एक-दो देश हैं, क्या विश्व समुदाय उन पर अंकुश नहीं लगा सकता है? जिस प्रकार पाकिस्तान में बैठे आतंकवादी धमकियां दे रहे हैं, क्या पाकिस्तान की नाक में नकेल नहीं कसी जा सकती है कि वह अपने उन गुर्गों को वश में रखे? जो देश पाकिस्तान को धड़ल्ले से आर्थिक सहायता दे रहे हैं, क्या वे उसकी लगाम नहीं कस सकते? पाकिस्तान को आर्थिक सहायता देने का अर्थ है अप्रत्यक्ष रूप से पाकिस्तान में बैठे खूंखार आतंकवादियों की सहायता करना। इसलिए इस अंतरराष्ट्रीय आयोजन के समय अमरीका और चीन को पाकिस्तान के आतंकवादियों के विरुद्ध मैदान में उतरना चाहिए। इस्लामी देशों के अनेक संगठन हैं, लेकिन वे भी हमेशा चुप रहते हैं। उनकी चुप्पी आतंकवाद को समर्थन देने के बराबर है। इसलिए भारत को राष्ट्र संघ सहित सभी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से इस संबंध में विचार-विमर्श करके कोई ठोस योजना तैयार करनी चाहिए। श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में भारत में एशियाड खेल आयोजित किए गए थे। भारत ने बड़ी तन्मयता से इस प्रतियोगिता को सम्पन्न कराकर अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर नाम कमाया था। इंदिरा गांधी के समय में ही राष्ट्रमंडल देशों का राजनीतिक सम्मेलन भी आयोजित किया गया था। यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि जो राष्ट्र कभी ब्रिाटेन के अधीन रहे थे उनके संगठन को राष्ट्रमंडल कहते हैं। ब्रिाटेन की महारानी आज भी इस संगठन के सम्मेलनों का उद्घाटन करती हैं। इसका कितना लाभ है, यह एक अलग और विस्तृत विषय है, लेकिन पाकिस्तान को इस के जरिए दो बार घेरा गया है। इसलिए भारत को इस मंच का भी पाकिस्तान के खिलाफ उपयोग करना चाहिए, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस सम्मेलन में शामिल कई देशों का अपना प्रभाव है। अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में पाकिस्तान की किरकिरी होती है, यह तो दिन के उजाले की तरह स्पष्ट है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की जो भूमिका बन रही है उससे लगता है कि एक दिन भारत ओलम्पिक खेलों की मेजबानी भी कर सकता है। लेकिन दुर्भाग्य से क्रिकेट को छोड़कर भारत आज ज्यादातर खेलों में काफी पीछे है। हाकी की अवहेलना स्वयं सरकार कर रही है। जो हमारा राष्ट्रीय खेल है उसमें पिछड़ जाना देश की गरिमा के प्रतिकूल है। भारत में कोई खेल नीति न होने से हमारे खिलाड़ी हर समय परेशान रहते हैं। सबसे दुखद बात तो यह है कि हाकी भारत का राष्ट्रीय खेल होने के बावजूद भारत आज इसमें स्वर्ण पदक प्राप्त करने में असफल रहता है जबकि एक समय भारत हाकी का सिरमौर था। भारत के खिलाडिय़ों को पौष्टिक भोजन नहीं मिलता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर के खेलों के नियमों की जानकारी भी भारत के छोटे नगरों तक नहीं पहुंचती है। एक समय था कि भारत में हर जगह खेल के मैदान थे, लेकिन वे अब भवन निर्माताओं के हाथों में पहुंच चुके हैं। इसलिए अब तो हमारे स्कूल और कालेज भी बिना मैदानों के हो गए हैं। सेकेंडरी स्कूलों की नियमावली में शाला की परिभाषा के अंतर्गत कहा गया है कि च्च्बिना मैदान की शालाज्ज् को शिक्षा विभाग पाठशाला की मान्यता नहीं देगा। अब तो हर जगह शिक्षा के नाम पर कुकुरमुत्तों की बहार आई हुई है। अच्छे खिलाड़ी को किस प्रकार का पौष्टिक भोजन दिया जाए, यह भी एक अहम मुद्दा है। इसके लिए कुछ अंतरराष्ट्रीय मानक हैं। विश्व में इन दिनों जो लहर चल रही है उसमें मांसाहार को काफी बढ़ावा दिया जाता है। इसलिए जो देश इन खेलों का आयोजक होता है उसे इन मानकों के अनुसार भोजन परोसना पड़ता है। आज तो यूरोपीय देश यह मानने लगे हैं कि शाकाहार में जो ताकत है वह मांसाहार में नहीं हो सकती है। अमरीका से आस्ट्रेलिया तक, अब शाकाहार पर चर्चा होती है। जो शाकाहार के गुण और शक्ति से परिचित हैं वे मांसाहार को तेजी से त्याग रहे हैं। वैसे, क्या खाया जाए, यह हर इनसान का अपना निजी मामला है। फिर भी यदि उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नहीं माना जाता और आज तक जो होता चला आया है उसमें वे संशोधन नहीं करना चाहते हैं तो यह इन संगठनों की अपनी निजी सोच है। लेकिन भोजन के साथ जब आस्था का सवाल जुड़ जाता है तो निश्चित ही इन अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को विचार करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। किसी मुस्लिम राष्ट्र में यदि इस प्रकार के आयोजन होते हैं तो वे इस बात को स्वीकार नहीं करते हैं कि खान-पान में शूकर का मांस शामिल किया जाए। जो मुस्लिम खिलाड़ी अन्य देशों में भी जाते हैं, वे वहां भी इसका विरोध करते हैं। भारत एक पंथनिरपेक्ष देश है। यहां सभी जातियों, समाजों और लोगों को अपनी आस्था के अनुसार खाने-पीने का अधिकार है। लेकिन फिर भी इस मामले में भारत का अपना एक आदर्श है। सामान्य भारतीय गोमांस खाना तो बहुत दूर, उसका नाम भी लेना पसंद नहीं करते। जबकि अंतरराष्ट्रीय खेलों में गोमांस च्च्पकवानज्ज् के रूप में प्रचलित है। इसलिए भारत को इस पर अपना सख्त रुख अपनाकर इसे अपने यहां होने वाले आयोजन से बाहर रखने की भरपूर कोशिश करनी चाहिए। लेकिन भारत में हिन्दुओं को चिढ़ाने और उनकी आस्था को ठेस पहुंचाने वाले तत्व भी कम नहीं हैं। उनकी यह दलील रहती है कि जब भारत में गोवध होता है और स्वयं सरकार गोमांस निर्यात करती है तो फिर उसे खाने की सूची में शामिल नहीं किये जाने का क्या औचित्य है? किसी के लिए यह तर्क ठीक हो सकता है, लेकिन गाय के साथ हमारी धार्मिक और सांस्कृतिक आस्था जुड़ी है। साथ ही यह कृषि प्रधान देशों के लिए वरदान है। इसलिए हम अपने पैरों पर अपने हाथों कुल्हाड़ी नहीं मार सकते हैं। भारत सरकार और उसके अधीन काम करने वाले खेल संगठन इस मामले में ढुलमुल नीति रखते हैं। इसलिए अब तक इस मामले में कोई सख्त कानून नहीं बना है। कानून न भी हो तब भी इस लोकतांत्रिक देश में यह लोगों की आस्था और मान्यता का सवाल है। इसलिए स्वयं भारत सरकार को आगे आकर यह कह देना चाहिए कि भारत में कोई भी अंतरराष्ट्रीय आयोजन हो, उसमें गोमांस परोसे जाने का कोई सवाल ही नहीं उठता है। एशियाड खेलों के समय यह मामला उठ चुका है। राज्यसभा सदस्य एवं हरियाणा तथा पंजाब उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रामा जायस ने अपनी एक अपील में सरकार से आग्रह किया है कि वह राष्ट्रमंडल खेलों में खिलाडिय़ों के लिए पकवानों की सूची में गोमांस शामिल न करे। ऐसा करना हमारे संविधान एवं संस्कृति पर खुला हमला होगा। रामा जायस ने अपनी अपील में अनेक संस्कृत के श्लोक तथा संविधान सभा की बहस को उद्धृत किया है। रामा जायस की यह अपील इस बात को सिद्ध करती है कि भारत सरकार पहले की तरह यह पाप करती रहेगी और इस बार हो रहे राष्ट्रमंडल खेलों में खिलाडिय़ों को गोमांस परोसने की परंपरा जारी रखेगी। जो महानुभाव गोमांस को अथवा किसी भी तरह के मांस को खिलाडिय़ों के लिए शक्ति और ऊर्जा का स्त्रोत मानते हैं उन्हें इस बात पर अवश्य विचार करना चाहिए कि जो जीव स्वयं मर चुका है क्या वह किसी को शक्ति दे सकता है? चिकित्सा विज्ञान में यह सबसे बड़ा भ्रम है, जिसका अब धीरे-धीरे निवारण होता जा रहा है। विनियोग परिवार से जुड़े आर.के.जोशी ने अपने एक लेख में प्राकृत भाषा के प्राचीन शास्त्र से एक जैन मुनि का श्लोक उद्धृत किया है, जिसमें कहा गया है... अमासु अपक्कासु अ विपच्चमाणासु मंसपेसीसु। सययं चिय उववाओ भणिओ अ जीवाणं।। साधारण भाषा में इसका अर्थ यह होता है कि च्च्मांस के एक टुकड़े में असंख्य वेक्टीरिया पैदा हो जाते हैं। वह मांस का टुकड़ा कच्चा हो या फिर पकाया हुआ हो। ये बेक्टीरिया बाहर से नहीं आते हैं बल्कि मांस में ही जन्म लेते हैं। इसलिए शास्त्रों में मांस खाना वर्जित किया गया है।ज्ज् बेक्टीरिया वाला यह टुकड़ा यदि खाया जाए तो वह निश्चित ही शरीर को कमजोर करने वाला और शक्ति को घटा देने वाला सिद्ध होगा। इसलिए जो मांस के ताकत का रुाोत होने का पक्ष लेते हैं, उन्हें इन बातों पर विचार करना चाहिए। भारत में पिछले दिनों अनेक संत-महंतों और शंकराचार्यों के नेतृत्व में विश्व मंगल गो ग्राम यात्रा का आयोजन किया गया था। पिछली 30 जनवरी को महात्मा गांधी बलिदान दिवस पर राष्ट्रपति को करोड़ों लोगों के हस्ताक्षर सहित एक प्रतिवेदन दिया गया था, जिसमें गोहत्या पर अविलम्ब प्रतिबंध लगाने की मांग थी। इस प्रकार के वातावरण में गो मांस परोसने का निर्णय निश्चित ही करोड़ों भारतीयों की आस्था पर सुनियोजित आघात करने जैसा होगा।
(साभार पांचजन्य)

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