सोमवार, 24 मई 2010

कभी सुनी है आपने कामरेडों की आवाज?

- तवलीन सिंह
तवलीन सिंह सुप्रसिद्ध स्तंभकार है। देश के अनेक प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों में आपके लेख नियमित रुप से छपते है, जिसमें इंडियन एक्सप्रेस और पंजाब केसरी उल्लेखनीय है। स्पष्टवादिता और प्रखर चिंतन आपके लेखन की विशेषता है। निम्न लेख में उन्होंने कम्युनिस्टों की जमकर खबर ली है और स्पष्ट रुप से कहा है कि कोलकाता की गलियों में घूमने के बाद साबित करने की जरूरत नहीं है कि मार्क्सवादी विचारधारा भारत की समस्याओं का हल नहीं है। प्रस्तुत लेख पंजाब केसरी से साभार है।

प्रकाश करात, सीताराम येचुरी जैसे कामरेडों की हरकतें देखकर, उनके बयान सुनकर मुझे पूरा विश्वास हो गया है कि आम आदमी की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले इन लोगों में आम आदमी के लिए कोई प्यार नहीं है। थोड़ा-सा भी होता तो सरकार गिराने के कई कारण उनको दिखते जो परमाणु करार से ज्यादा आम आदमी के जीवन में अहमियत रखते हैं। आम भारतीय नागरिक के जीवन में अभाव हर बुनियादी जरूरतों का है। नौकरी मिले तो दफ्तर तक पहुंचने के लिए बस-ट्रेन की व्यवस्था ऐसी कि धक्का-मुक्की, परेशानी बिना पहुंचना मुश्किल है। चोट लग जाए, बीमार पड़ जाए तो सरकारी अस्पताल में इलाज का कोई भरोसा नहीं। बच्चों को स्कूल भेजना हो तो समस्या एक और खड़ी हो जाए। रही मकान की बात तो मुम्बई जैसे शहर में कच्ची झुग्गी मिल जाए तो उसका मासिक किराया 1500 से कम नहीं, फुटपाठ पर बसने की कोशिश भी अक्सर पुलिस वालों के डण्डे नाकाम कर देते हैं। ये रोजाना की समस्यायें पहले भी गम्भीर थीं लेकिन अब और गम्भीर दिखती हैं क्योंकि जो भारतीय नागरिक आम आदमी की गिनती में नहीं आते हैं, जिसके जीवन में रोटी, कपड़ा, मकान की समस्या नहीं है, उसके लिए तो अब सब कुछ है। निजी स्कूल-अस्पताल अब भारत में इतने अच्छे हैं कि राजनीतिज्ञ भी विदेश नहीं जाते और निजी परिवहन की स्थिति तो यह है कि प्राइवेट जेट बेचने वालों की कतार है अपने द्वार। मोटरगाड़ी जिसके पास लेने की क्षमता हो तो दुनिया की सबसे आलीशान गाडिय़ां अब न सिर्फ भारत में मिलती हैं बल्कि बनती भी हैं। और आम आदमी के लिए क्या? ब्ल्यू लाइन। पिछले सप्ताह दिल्ली में तीन बार ब्ल्यू लाइन बसों ने अलग-अलग जगहों पर आम आदमी को कुचला। हालत इतनी खराब हैं कि ब्ल्यू लाइन का नाम 'सीरियल किलर' रख दिया गया है। कहने को तो ब्ल्यू लाइन 'प्राइवेट' है लेकिन थोड़ी सी तफ्तीश करने पर मालूम पड़ता है कि इन बसों के मालिकों में राजनीतिज्ञ भी हैं और पुलिस वाले भी। परिवहन मंत्रालय वास्तव में जनता की सेवा कर रहा होता तो यह स्थिति नहीं होती लेकिन परिवर्तन के लिए हमारे चुने हुए सांसदों-विधायकों को आवाज उठानी पड़ती है। कभी सुनी है आपने कामरेडों की आवाज? स्वास्थ्य की करते हैं बात तो मैं अपने ही जीवन से जुड़ा एक किस्सा सुनाती हूं। पिछले सप्ताह मेरी जान-पहचान का एक आदमी अपने चार वर्ष के बेटे को दिल्ली इलाज कराने के लिए लाया। बच्चा गढ़वाल के किसी गांव में रहता है और वहां उसकी दायी बाह की हड्डी टूटी थी तो इलाज ठीक न हो सका क्योंकि हड्डियों के डाक्टर नहीं थे। नीम-हकीम जो थे तो उन्होंने टेढ़ा जोड़ दिया और आखिरकार बच्चे को दिल्ली लाना पड़ा। लेकिन राजधानी में भी आम आदमियों के लिए राहत कहां? सरकारी अस्पताल के चक्कर काटने के बाद जब बच्चे को दुखी बाप निजी अस्पताल पहुंचा तो मालूम हुआ कि आपरेशन जरूरी हो गया है और खर्चा 30,000 हो सकता है। आम आदमियों के जीवन में स्वास्थ्य व्यवस्था के अभाव के बारे में कभी सुनी है आपने कामरेडों की आवाज? शिक्षा के क्षेत्र में तो समस्या और भी गम्भीर है। सरकारी नीतियों ने निजी निवेश को इस क्षेत्र में इतना मुश्किल कर दिया है कि जिसकी पहुंच नहीं है वह न स्कूल खोल सकता है और न कॉलेज। नतीजा यह है कि देश के अधिकतर बच्चे या तो अशिक्षित हैं या अर्धशिक्षित और वह भी ऐसे समय जब हर जगह, हर स्तर पर बेहिसाब नौकरियां हैं लेकिन काबिल लोग नहीं। कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि यह एक ऐतिहासिक अवसर है भारत के जीवन में क्योंकि इस देश में सबसे ज्यादा नौजवानों की संख्या है। विकसित देशों में भी उनकी मांग है अगर शिक्षित होते। सरकार इस समस्या का हल उसी रफ्तार से ढूंढ रही है जैसे अक्सर भारत सरकार काम करती है। कभी सुनी है आपने कामरेडों की आवाज? आम आदमी के जीवन में अन्य गम्भीर समस्यायें हैं। यू.एन. की हाल में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत के आधे से ज्यादा बच्चे कुपोषण से पीडि़त हैं। आवास की अगर बात करें तो मालूम पड़ता है कि भारत के 30 प्रतिशत से ज्यादा लोग एक कमरे में रहते हैं या झुग्गी बस्तियों में। मुम्बई शहर में 60 प्रतिशत नागरिक झुग्गी बस्तियों में रहते हैं। ऐसे गन्दे हाल में कि किसी सभ्य देश में जानवरों को भी न रखा जाए। कभी सुना है आपने कामरेडों की आवाज? और बोलेंगे भी क्या जब 30 वर्ष से पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी राज के बावजूद वहां भी यही समस्या है और गरीबी इतनी कि पिछले सप्ताह 6 जिलों में रोटियों कि दुकान को आम आदमियों ने लूटा। उनको शक था कि जनता के लिए वितरित किया गया अन्न खुले बाजार में बेच रहे हैं। अपनी तरफ से मैं यह कहूंगी कि जितनी गरीबी मैंने कोलकाता की गलियों में देखी है किसी और भारतीय महानगर में नहीं देखी। कोलकाता की गलियों में घूमने के बाद साबित करने की जरूरत नहीं है कि मार्क्सवादी विचारधारा भारत की समस्याओं का हल नहीं है। शायद यही कारण है कि चुनावी राजनीति में इस विचारधारा का असर केरल और बंगाल की सीमाओं के बाहर कम ही दिखता है और यदि दिखता भी है तो भारत के गरीब राज्यों के जंगलों में जहां माओवादियों का असर दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। छत्तीसगढ़ और झारखण्ड जैसे राज्यों में तो शासन इनके हाथ में खिसक गया है। क्यों नहीं कामरेड इसकी बात करते?

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