गुरुवार, 27 मई 2010

विभाजन-गाथा का एक विस्मृत पन्ना- १

1935 के भारत एक्ट द्वारा प्रदत्त सीमित मताधिकार के आधार पर 1937 में प्रांतीय विधानसभा चुनावों और उसके तुरंत पश्चात् नेहरू जी के मुस्लिम जनसम्पर्क अभियान की विफलता ने प्रमाणित कर दिया कि 1920 और 1930 के दो देशव्यापी विशाल सत्याग्रहों के बावजूद मुस्लिम समाज कांग्रेस के साथ खड़ा नहीं हुआ। इस विषय पर हम पाञ्चजन्य में पहले ही विस्तार से लिख चुके हैं। इन सत्याग्रहों और चुनाव परिणामों ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि कांग्रेस के साथ न होकर भी मुस्लिम समाज अनेक मुस्लिम नेताओं के पीछे बिखरा हुआ था जबकि राष्ट्रभक्ति और स्वतंत्रता की कामना से अनुप्राणित हिन्दू समाज गांधी और नेहरू के पीछे एकजुट हो रहा था। राष्ट्रवाद के आधार पर हिन्दू समाज के भारी समर्थन के बल पर कांग्रेस को सात प्रांतों में सरकार बनाने का अवसर मिल सका था। इस दृश्य का ही जिन्ना ने लाभ उठाया। उन्होंने कांग्रेस राज को हिन्दू राज के रूप में चित्रित किया और मुसलमानों के सामने उस भय को खड़ा कर दिया जो सर सैयद अहमद ने कांग्रेस की स्थापना के समय से ही मुसलमानों के सामने खड़ा करना शुरू कर दिया था कि यदि भारत में लोकतंत्र आया तो जनसंख्या भेद के कारण अल्पसंख्यक मुसलमान बहुसंख्यक हिन्दुओं के गुलाम बन जाएंगे। यह स्थिति 700 साल तक हिन्दुओं पर राज करने वाले मुसलमानों को कदापि सहन नहीं है, क्योंकि उनकी रगों में मुस्लिम विजेताओं का रक्त बह रहा है। सत्ता किसके पास रहे, इसका फैसला वोटों से नहीं, तलवार से होगा। मि.जिन्ना ने 1937 से 1939 तक, कांग्रेस के दो वर्ष के शासनकाल को मुसलमानों के इसी भय का दोहन करने में लगाया। मुस्लिम मानस में गांधी और कांग्रेस की छवि हिन्दू संस्था से आगे नहीं बढ़ पायी। वे दो वर्ष लम्बे सतत् हिन्दू राज विरोधी प्रचार के द्वारा अनेक धड़ों में बिखरे मुस्लिम समाज को अपने और मुस्लिम लीग के पीछे एकजुट करने में काफी हद तक सफल हो गये।
जिन्ना की चालाकी
इसी समय 3 सितम्बर, 1939 को द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ गया और ब्रिटिश वायसराय लार्ड लिनलिथगो ने भारतीय नेतृत्व से सलाह-मशविरा किये बिना भारत को युद्ध में ब्रिाटेन का पक्षधर घोषित कर दिया। गांधी जी और कांग्रेस नेतृत्व ने वायसराय से कई मुलाकातें कर बहुत कोशिश की कि ब्रिाटेन युद्ध के पश्चात् भारत को स्वतंत्रता देने और लोकतांत्रिक सरकार बनाने की उनकी शर्त को स्वीकार कर ले, पर ब्रिाटिश सरकार टस से मस नहीं हुई। इस पर गांधी जी ने कांग्रेस सरकारों को त्यागपत्र देने की सलाह दी। इस निर्णय को सूचित करने के लिए उन्होंने ब्रिाटिश सरकार को पत्र लिखा कि कांग्रेस के नेतृत्व में भारत अहिंसाव्रत से बंधा हुआ है जबकि यह युद्ध हिंसा के द्वारा लड़ा जा रहा है अत: अहिंसक भारत हिंसक युद्ध प्रयासों में सहभागी नहीं बन सकता। अहिंसा का उपदेश देते हुए उन्होंने एक पत्र हिटलर को भी लिखा। गांधी जी के इस निर्णय के फलस्वरूप सभी कांग्रेस मंत्रिमंडलों ने 27 अक्तूबर से 15 नवम्बर 1939 तक एक-एक कर त्यागपत्र दे दिया। और कांग्रेस के हाथ से सत्ता निकल गयी। यह स्थिति जिन्ना के लिए वरदान बन गयी। उन्होंने तुरंत वायसराय और बम्बई के गर्वनर से गुप्त भेंट करके उन्हें आश्वासन दिया कि यदि ब्रिाटिश सरकार उन्हें व मुस्लिम लीग को मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि मान ले तो वह ब्रिटिश युद्ध प्रयासों में मुस्लिम समाज का पूर्ण सहयोग जुटाएंगे। ब्रिाटेन जीवन-मरण के युद्ध में फंसा था। उसने जिन्ना की शर्त को अपने लिए वरदान समझकर लपक लिया और जिन्ना ने मुस्लिम समाज का आह्वान किया कि वह 22 दिसंबर 1939 का दिन "हिन्दू राज से मुक्ति दिवस" के रूप में मनाए। देश भर में यह "मुक्ति दिवस" मनाए जाने से जिन्ना ने ब्रिाटिश सरकार को दिखा दिया कि कुछ अपवाद छोडक़र पूरा मुस्लिम समाज उनके नेतृत्व में एकजुट है। इस स्थिति में कांग्रेस के भीतर बहस शुरू हो गई कि क्या मंत्रिमंडलों का त्यागपत्र कांग्रेस और राष्ट्र के हित में रहा? राजगोपालाचारी जैसे नेता ही नहीं तो वी.पी.मेनन जैसे नौकरशाह को भी यह लगा कि मंत्रिमंडलों के त्यागपत्र देने से ब्रिाटिश सरकार पर कांग्रेस का रहा-सहा दबाव भी खत्म हो गया। उनके सरकार से हटने पर ब्रिाटेन के युद्ध प्रयत्नों में उनकी बाधा पूरी तरह समाप्त हो गयी। इधर, मि.जिन्ना ने ब्रिाटिश सरकार की शह पर मुस्लिम समाज को पाकिस्तान बनवाने के लिए शस्त्र संग्रह और हिंसा की तैयारी का इशारा कर दिया। लार्ड लिनलिथगो से गुप्त भेंट के बाद जिन्ना ने मार्च 1940 में द्विराष्ट्रवाद के आधार पर भारत विभाजन का प्रस्ताव लीग के लाहौर अधिवेशन में पारित कर दिया और लार्ड लिनलिथगो ने अगस्त 1940 में युद्ध के पश्चात् भारत के बारे में किसी भी ब्रिाटिश निर्णय पर लीग को वीटो का अधिकार घोषित कर दिया। क.मा.मुंशी ने लिखा है कि 1937-39 तक ब्रिाटेन और भारतीय राष्ट्रवाद का जो गठबंधन उभरा था उसकी जगह अब ब्रिाटिश-मुस्लिम गठबंधन ने ले ली। ब्रिाटेन पूरी तरह राष्ट्रवाद के विरुद्ध मुस्लिम पृथकतावाद के साथ खड़ा था। इस घटनाचक्र से चिंतित होकर राजगोपालाचारी ने पहले ही जुलाई 1940 में कांग्रेस कार्यसमिति की वर्धा बैठक में एक प्रस्ताव पेश कर कांग्रेस को गांधी जी की अहिंसा वाली शर्त से बाहर निकलने और गांधी जी को कांग्रेस के निर्णयों से मुक्त करने का प्रस्ताव पेश किया, जिसका सरदार पटेल और कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना आजाद ने समर्थन किया। कांग्रेस कार्यसमिति द्वारा समर्थित यह प्रस्ताव उन्होंने 27 जुलाई 1940 को पूना में आयोजित अ.भा.कांग्रेस समिति की बैठक में भी 47 के विरुद्ध 95 मतों से पारित करा लिया। इस प्रस्ताव के द्वारा ब्रिाटिश सरकार के हिंसा द्वारा लड़े जा रहे युद्ध में सहयोग का सशर्त वचन दिया गया। इस प्रस्ताव को गांधी जी की पराजय के रूप में देखा गया। नरहरि पारीख ने गुजरात प्रांतीय कांग्रेस कमेटी से अपील की कि वह इस प्रश्न पर गांधी जी का समर्थन करे न कि सरदार पटेल का। किंतु गुजरात कांग्रेस कमेटी ने भारी बहुमत से सरदार पटेल का समर्थन किया। 19 जुलाई 1940 को गुजरात प्रांतीय कमेटी के सामने अपनी स्थिति को स्पष्ट करते हुए सरदार पटेल ने कहा, "आज हमें यह निर्णय करना है कि हमें स्वतंत्रता मिल जाए, पूरी सत्ता मिल जाए तो क्या हम सेना के बिना काम चला सकेंगे? अगर हम यह कहें कि हमारे पास हुकूमत आ जाएगी, तो हम सेना को बिखेर देंगे, तब तो अंग्रेज कभी हमें सत्ता नहीं देंगे। ज्यादातर मुसलमान इसके (अहिंसा के) खिलाफ हैं। कांग्रेस के बाहर के मुसलमान तो हिंसा पर ही कायम हैं..." (बापू के पत्र वल्लभ भाई के नाम, नवजीवन प्रकाशन, अमदाबाद, 1952, प्रस्तावना, पृष्ठ 12)
हिन्दुओं पर हिंसक हमले
इस भाषण से स्पष्ट है कि सरदार को तभी मुसलमानों की हिंसक तैयारियों की गंध आने लगी थी। लाहौर में पाकिस्तान प्रस्ताव पारित होने के बाद से मुस्लिम नेताओं के भाषण बहुत उग्र और आक्रामक होने लगे। कांग्रेस नेतृत्व स्वयं को किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में पा रहा था। जड़ता से बाहर निकलने के लिए 13 अक्तूबर 1940 को चुने हुए कांग्रेसी कार्यकत्र्ताओं के द्वारा व्यक्तिगत सत्याग्रह का निर्णय लिया गया, जिसमें पहला सत्याग्रही विनोबा भावे को और दूसरा सत्याग्रही जवाहर लाल नेहरू को बनाया गया। इसी क्रम में कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी गांधी जी के आदेश पर 4 दिसंबर, 1940 को व्यक्तिगत सत्याग्रह करके यरवदा जेल में सरदार पटेल, भूलाभाई देसाई, बी.जी.खरे एवं मंगलदास पकवासा आदि के साथ बंद किये गये। और बड़ी बीमारी के कारण रिहा होकर नैनीताल में स्वास्थ्य लाभ के लिये गये। मुंशी बम्बई प्रांत में कांग्रेस सरकार में पहले कानून-व्यवस्था और फिर गृहमंत्री का दायित्व संभालते थे, भारतीय विद्या भवन नामक सांस्कृतिक-बौद्धिक संस्था की स्थापना कर चुके थे, सिद्धहस्त लेखक और इतिहासकर थे। उन्होंने मि.जिन्ना के सहयोगी के रूप में अपनी वकालत की यात्रा आरंभ की थी। 1930 में पूरे मनोयोग से गांधी जी की शरण में आ गये थे और नमक सत्याग्रह में कूद पड़े थे। देश के उत्कृष्ट विधिवेत्ताओं में उनकी गणना होती थी। जिन दिनों कांग्रेस व्यक्तिगत सत्याग्रह में व्यस्त थी, उन्हीं दिनों एक ओर मुस्लिम लीग ने दिसंबर 1940 में अपने लाहौर सम्मेलन में प्रस्ताव पारित किया कि विभाजन से कम कोई भी संवैधानिक व्यवस्था मुसलमानों को स्वीकार नहीं होगी, दूसरी ओर मुस्लिम नेतृत्व अपने जहरीले भाषणों से मुस्लिम समाज को असावधान हिन्दू समाज पर हिंसक हमलों के लिए भडक़ा रहा था। ढाका, बम्बई, अमदाबाद आदि नगरों में भयंकर दंगे हुए। अमदाबाद के दंगे की भयंकरता को स्वीकार करते हुए गांधी जी के निजी सचिव महादेव देसाई ने 15 मई 1941 को मुंशी को पत्र में लिखा, "निस्संदेह अमदाबाद में जो कुछ हुआ उससे भारी धक्का लगा है, विशेषकर जब वहां के लोगों ने जिस क्षुद्रता और कायरता का परिचय दिया उसकी याद आती है। वहां अभी भी डर समाया हुआ है। मुझे वहां दोबारा जाना होगा।" महादेव देसाई ने वहां शांति सेना का प्रयोग करना चाहा पर लोगों ने उसमें कोई रुचि नहीं दिखायी। सरदार पटेल ने यरवदा जेल से 22 जून 1941 को मुंशी को पत्र लिखा कि "अमदाबाद में जब दंगा शुरू हुआ तो लोग अचानक घिर गये। यदि वहां अधिक संख्या में लोगों ने उसके विरुद्ध मोर्चा लिया होता तो शायद सब कुछ बच जाता या भारी कत्लेआम होता।" बम्बई के दंगे पर सरदार की प्रतिक्रिया थी, "बम्बई में जो स्थिति पैदा हुई है वह भयंकर है। क्या तुम सोचते हो कि इसके विरुद्ध कोई संगठित मोर्चा संभव है? हिंसक आत्मरक्षा में विश्वास करने वाले कुछ नौजवान भी क्या उन लोगों का मुकाबला कर सकते हैं जो पीछे से पीठ में छुरा घोंपकर भाग जाते हैं? इस समस्या का कोई बिल्कुल भिन्न उपाय खोजना होगा।"
दंगे की विभीषिका
ढाका के दंगे के बारे में बंगाल की प्रांतीय कांग्रेस कमेटी ने विस्तृत रपट तैयार की, जिसमें मुस्लिम नेताओं के जहरीले भाषण और हिन्दुओं पर हुए अत्याचारों का तथ्यात्मक वर्णन था। अमदाबाद के दंगे की विभीषिका का वर्णन करते हुए क.मा.मुंशी लिखते हैं, "अमदाबाद का पाकिस्तान दंगा व्यभिचारपूर्ण और बेलगाम था। अमदाबाद के हिन्दू, जो एक बहुत शांतिपूर्ण समाज के नाते हमेशा गांधी जी और कांग्रेस नेतृत्व की ओर निहारते रहे, इस समय पूरी तरह दंगाइयों की कृपा पर निर्भर थे। इस स्थिति में अमदाबाद के एक प्रमुख कांग्रेसी भोगीलाल लाला ने गांधी जी की सलाह मांगी कि यहां के हिन्दू जिस विकट स्थिति में फंसे हुए हैं, उसमें कांग्रेसजनों को क्या करना चाहिए।" भोगीलाल ने गांधी जी को पत्र लिखा कि मुस्लिम हिंसा का मुकाबला कांग्रेसी अहिंसा के द्वारा नहीं किया जा सकता। हिन्दू समाज को भी सशस्त्र हिंसक प्रतिरोध की तैयारी करनी होगी। इसके लिए युवकों को अखाड़ों में जाने के लिए प्रोत्साहित करना होगा। इसके उत्तर में गांधी जी ने भोगीलाल को लिखा कि कांग्रेसजनों को आत्मरक्षा का प्रशिक्षण देने वाले अखाड़ों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध नहीं रखना चाहिए और जो कांग्रेसजन आत्मरक्षा के लिए हिंसा अपनाने के पक्ष में हैं, उन्हें कांग्रेस छोड़ देनी चाहिए।
जब भोगीलाल लाला के नाम गांधी जी का पत्र अखबारों में छपा तब क.मा.मुंशी जेल से रिहा होकर नैनीताल में स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे। अखबार में गांधी जी का उत्तर पढक़र मुंशी ने 26 मई 1941 को गांधी जी को पत्र लिखा कि "मैं आपके दोनों निर्देशों से स्वयं को सहमत नहीं पा रहा हूं। ढाका, अमदाबाद और बम्बई और अन्य कई स्थानों पर पाकिस्तान सक्रिय हो गया है। यह संकेत है कि कुछ वर्षों के लिए हमें इन दंगों के साथ जीवित रहना होगा।...यदि जान, माल और महिलाओं की इज्जत को गुंडागर्दी से खतरा पैदा होता है तो मेरी दृष्टि में आत्मरक्षा के लिए संगठित प्रतिरोध- उसका रूप चाहे जो रहे-सर्वोच्च अनिवार्य कर्तव्य बन जाता है।" मुंशी ने अपने पत्र में लिखा कि "मैं पिछले पन्द्रह या उससे भी अधिक वर्षों से बम्बई प्रेसीडेंसी में अखाड़ा आंदोलन से प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ा रहा हूं। बम्बई और पूना में उनके दो सम्मेलनों की अध्यक्षता भी कर चुका हूं। मैं उन्हें हमारे समाज को आत्मरक्षा का प्रशिक्षण देने का आवश्यक तंत्र मानता हूं। पिछले कई वर्षों से उन्होंने गुंडागर्दी का सामना करने का आत्मविश्वास पैदा करने में भारी योगदान दिया है। 1930 से ही मैंने आपको पूरे ह्मदय से अपना नेता माना है।...किंतु मेरा मन इस समय बगावत कर रहा है...मैं हिंसा के विरुद्ध आत्मरक्षार्थ सब संभव उपायों से संगठित प्रतिरोध के प्रति सहानुभूति रखने या प्रचार न करने का वचन देने में स्वयं को असमर्थ पाता हूं।...आप ही बताइए कि इस स्थिति में मैं क्या करूं?" मुंशी ने गांधी जी का मार्गदर्शन पाने के लिए 12-13 जून 1941 को सेवाग्राम में प्रत्यक्ष भेंट में विस्तृत चर्चा का समय मांगा। तुरंत 29 मई को गांधी जी ने उत्तर भेजकर मुंशी को सेवाग्राम बुलाया।
वर्धा बैठक के संकेत
12-13 जून 1941 को वर्धा में पूरे दो दिन महत्वपूर्ण बैठक हुई, जिसमें गांधी जी और मुंशी के अलावा डा.राजेन्द्र प्रसाद, आचार्य कृपलानी, पंजाब के डा.गोपीचंद भार्गव और बिहार के कोई कांग्रेसी नेता मि.माथुर भी उपस्थित रहे। दो दिन तक करीब 10 घंटे चली इस महत्वपूर्ण चर्चा के नोट्स भी मुंशी ने सुरक्षित रखे, जो आज हमें उपलब्ध हैं। इन नोट्स से विदित होता है कि देश विभाजन को लेकर उस समय कांग्रेस में कितना अधिक उद्वेलन था और मुस्लिम हिंसा व गुंडागर्दी से कांग्रेसजन कितने चिंतित थे। काफी बड़ी संख्या में कांग्रेसजन संगठित हिंसक प्रतिरोध को आवश्यक अनुभव करने लगे थे। मुंशी ने उनकी भावनाओं को मुखरित करने का साहस दिखलाया। इस महत्वपूर्ण द्वि दिवसीय चर्चा का वर्णन अगली बार। (जारी)

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