सोमवार, 10 मई 2010

मैकाले तो मुस्कुराएगा ही!

सन् 1835 की फरवरी से आज 2010 तक पूरे पौने दो सौ वर्ष का समय बीतने के नजदीक है। उस समय ब्रिटिश संसद में भाषण देते हुए लार्ड मैकाले ने कहा था- "मैंने भारत का हर गांव, हर शहर देख लिया, भारत में न कोई अशिक्षित है, न असभ्य। भारत सपेरों और पशु चराने वालों का देश नहीं है। उनकी सभ्यता और संस्कृति बहुत गहरी है। अगर भारत पर राज करना है तो हमें भारत की इस सभ्यता संस्कृति को नष्ट करना होगा, जो कि भारतीयों की रीढ़ है और इसके लिए जरूरी है उनकी शिक्षा पद्धति को बदल देना।" और धीरे-धीरे भारत की रीढ़ को कमजोर करने का काम मैकाले करता गया। फिर भी, 1947 से पहले हमारी रीढ़ बहुत मजबूत थी। हमने कहा कि, देशवासियो खून दो, देश को आजादी मिलेगी। हमने यह भी कहा कि स्वराज्य हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। हमने यह गीत भी गाया कि "नहीं रखनी सरकार अंग्रेजी सरकार नहीं रखनी।" जिन लोगों ने विदेशी शासकों के समक्ष आत्म समर्पण किया भी था, उनकी संख्या बहुत कम थी। वे अंग्रेजों द्वारा बांटे गए पदों को सजाकर अकड़ते रहे, पर राष्ट्रभक्तों ने देश के इन गद्दारों को "टोडी बच्चा हाय-हाय" कहकर भगा दिया। "इंकलाब जिंदाबाद" और "अंग्रेजो, भारत छोड़ो" के नारों की तरह ही टोडी बच्चों को भगाने वाला नारा लोकप्रिय हो गया, पर मैकालेवाद बढ़ता गया। शिक्षा के नाम पर भारतीय संस्कृति विरोधी विष देश की नई पीढ़ी के खून में धीरे-धीरे घुलता रहा और कड़वे करेले पर नीम चढ़ाने का काम कुछ उन नेताओं ने कर दिया जिन्होंने स्वतंत्र भारत की कमान संभाली। उन्होंने पूरे देश को यह विश्वास दिलवाया कि अंग्रेजी शिक्षा पद्धति व जीवनशैली ही "उन्नति का एकमात्र मार्ग" है। मैकाले ने भारत से अपने परिजनों को एक पत्र लिखा था, जिसमें उसने यह विश्वास प्रकट किया कि अगर उसकी शिक्षा नीति केवल पचास वर्ष भी भारत में चल गई तो भारत अगले पांच सौ वर्ष के लिए गुलाम रहेगा। मैकाले ने अपनी शक्ति का आकलन गलत नहीं किया था। पौने दो सौ वर्ष बाद भी, महसूस किया कि, मैकाले मुस्कुरा रहा है। वह मुस्कुराए भी क्यों न ! 3 नवम्बर, 2009 को चंडीगढ़ में दो दीक्षांत समारोह देखने का मौका मिला। इनकी अध्यक्षता के लिए भारत के प्रधानमंत्री उपस्थित थे, पर मंच और सभागार में भारत था ही नहीं, बस इंडिया था। मैकाले और डायर की जूठन ओढ़े पीजीआई में मंच पर डायर की ही भाषा और उन्हीं के ओढ़ाए हुए गाउन और सिर पर अंग्रेजों जैसे ही बड़े-बड़े टोप सजाए प्रधानमंत्री, भारत के स्वास्थ्य मंत्री, राज्यपाल बैठे थे। सभी प्रसन्न थे और उसी भाषा में भाषण हो रहे थे जिस भाषा में मैकाले ने भारत की रीढ़ को तोडऩे का संकल्प लिया था। और आश्चर्य यह भी कि उस मंच पर समापन के समय पर राष्ट्रगान भी न हो सका। मंच पर राष्ट्रगान न होने के कई कारण सुनने को मिले, राष्ट्रगान सुनने को नहीं मिला! मैकाले की छाया में चले इस कार्यक्रम में काले बादलों में सुनहरी रेखा की तरह सरस्वती वंदना का स्वकसी विद्यार्थी में इतना साहस भी नहीं भरा कि वह हाथ उठाकर उच्च स्वर में कह सके कि आज तो विद्या प्राप्ति का पर्व है, मैं काला क्यों पहनूं। विद्या की देवी सरस्वती तो शुभ्रवसना हैं, काले कपड़ों का कोई औचित्य तो बताइए। महाकवि जयशंकर प्रसाद के शब्दों में यह कह सकते हैं-
अंधकार में दौड़ लग रही ,मतवाला यह सब समाज है
चिकित्सा कालेजों और विश्वविद्यालयों में हमने शरीर चिकित्सा के डाक्टर तो बना दिए, विभिन्न विषयों में एम.ए., पीएचडी. की डिग्रियां भी दे दीं, पर यह नहीं बताया कि भारत की रीढ़ तोडऩे का जो संकल्प मैकाले ने लिया था, उसका इलाज भी हमें ही करना है। सच तो यह है कि देश की शिक्षण संस्थाओं को एक "एंटी मैकालेवाद औषधि" या "सर्जरी" का पाठ पढ़ाना ही होगा, जो भारत की संतानों को स्वदेशी का गौरव अनुभव करना सिखा सके। दुनिया को दुनिया की भाषा में जवाब देना हमें आता है, हम देते भी रहे हैं। स्वामी विवेकानन्द, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, शहीद भगत सिंह, ऊधम सिंह, मदनलाल ढींगरा और वीर सावरकर जैसे भारत पुत्रों ने बड़ी कुशलता से दुनिया को भारतीय उत्तर दिया था। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और उनके साथियों ने इन फिरंगियों को खूब पाठ पढ़ाया। पर जिस देश को अपनी भाषा में मां को मां कहने में ही शर्म आ रही हो उसे क्या कहेंगे? हमारे कुछ नेता मुम्बई को बम्बई कहने पर भड़क उठते हैं। कोलकाता को कलकत्ता कह दो तो लाल- पीले हो जाते हैं, पर जब तीन चौथाई से ज्यादा देश अपनी मां को श््यमम्मीश््य अथवा श््यमॉमश््य बना बैठा है, तब उन्हें गुस्सा क्यों नहीं आता; जब भारत माता को हम इंडिया कहते हैं तो उनके खून की रवानी रुक क्यों नहीं जाती है? भाषा के नाम पर तनाव भड़काने वालों के बच्चे भी अधिकतर उस भाषा में शिक्षा ग्रहण नहीं करते जिस भाषा के समर्थन में भाषण देकर वे लोगों को लड़वाते हैं, गाड़ी-बसें जलवा देना जिनके बाएं हाथ का काम है। मैकाले मुस्कुराये क्यों न, जब हम ज्योति की पूजा करने वाले देश के लोग अपने और बच्चों के जन्मदिन पर दीप जलाने के बजाय बुझाते हैं। दीप बुझाने के बाद खुशी में तालियां बजाते हैं। हजारों तरह की मिठाइयां बनाने वाले देश के लोग केक के मोहताज हो गए हैं। ऐसे में लगता है कि मैकाले कामयाब हो गया, हमारी रीढ़ टूटी तो नहीं, पर बहुत कमजोर हो गई है। हम सूर्य के उपासक हैं। सूर्य की प्रथम किरण के साथ नए दिन का स्वागत करने वाले भारत के बहुत से लोग आधी रात के अंधेरे में अंग्रेजी ढंग से अंग्रेजों के नववर्ष का स्वागत करते हैं और यही लोग अपने को "वी.आई.पी." मानते हैं, धन संपन्न हैं और भारत को "इंडिया" कहने वाले हैं। बेचारा गरीब आदमी कहीं-कहीं इनकी नकल कर लेता है। किसी महानगर का नाम बदलने और डंडे के नाम पर उसका प्रयोग करवाने वाले, नारी को देवी मानने वाले देश के ये मैकालेवादी तब दुखी नहीं होते जब उन्हीं के कुछ महानगरों में नारी के लगभग नग्न शरीर को नचाया जाता है, उसके लिए करोड़ों रुपए खर्च कर दिए जाते हैं। भारतीय अस्मिता की किसी को परवाह ही नहीं है। इसी का प्रभाव हमारे दूरदर्शन और अन्य टीवी चौनलों में भी देखने को मिलता है। भारतीय दूरदर्शन का भी कमाल है। रात नौ बजे के समाचार अंग्रेजी में प्रसारित होते हैं। जब आधा हिन्दुस्थान रात्रि का भोजन ले चुका होता है तब नौ बजे समाचार शुरू करते ही वाचक "गुड ईवनिंग" कहता है, पर सवा नौ बजे जब समाचार खत्म होते हैं तो इन्हें शायद मजबूरी में "गुड नाइट" कहना पड़ता है। आखिर किस कारण 15 मिनट बाद ही "ईवनिंग" "नाइट" हो जाती है, यह दूरदर्शन वाले भी नहीं बता सकते। जो देश अपने दूरदर्शन पर वंदेमातरम् का गीत हर रोज नहीं गा-दिखा सकता, जिस देश के करोड़ों विद्यार्थियों को वह गीत याद नहीं जिस गीत के बल पर बंग-भंग आंदोलन लड़ा गया और असंख्य देशभक्तों ने फांसी के फंदे को हंसते-हंसते गले में डाल लिया, अंग्रेजों की अमानवीय यातनाएं सहीं, उस देश की हालत पर मैकाले तो मुस्कुराएगा ही। मैं न निराश हूं, न हताश। यह संतोष का विषय है कि आज भी भारत के स्वाभिमान को जगाने के लिए, स्वदेशी को अपनाने के लिए अनेक साधक साधना कर रहे हैं और स्वामी रामदेव तथा आचार्य बालकृष्ण का प्रयास इस दिशा में एक नए प्रभात की ओर संकेत कर रहा है। लंदन में संत मुरारी बापू और स्वामी रामदेव जी के प्रवचन, योग शिविर हमें बता रहे हैं कि अब मैकाले नहीं, भारत मां मुस्कुराएगी। अगर कहीं कमी है तो इस देश के राजनेताओं में है। जब भारत का प्रधानमंत्री अपने पद की शपथ भी मैकाले की भाषा में लेता है, उस समय देश को दर्द होता है। जब इनके दीक्षांत भाषण नई पीढ़ी के विद्यार्थियों को जबरन पिलाए जाते हैं तब नई पीढ़ी को निराशा होती है। मुझे इन दीक्षान्त समारोहों में मैकाले के मुस्कुराने का एक कारण मिला, पर मुझे पूरा विश्वास है कि जब भारत मुस्कुराएगा तो मैकाले मुरझा जाएगा। भारत की मुस्कान के लिए हम सबको काम करना है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता, स्वदेश और स्वदेशी के भाव को प्रखर करना होगा और फिर वही गीत गाना होगा-
जननी जन्मभूमि स्वर्ग से महान है
इसके वास्ते ये तन है, मन है और प्राण है
और याद भारतेंदु जी को भी करना होगा, जिन्होंने कहा था-
अपनी भाषा है भली, भलो अपनो देश
जो कुछ है अपनो भलो, यही राष्ट्र संदेश
(यह विचारोत्तेजक लेख साभार पांचजन्य से लिया गया है।)

1 टिप्पणी:

  1. काफी अच्छा लेख है, आज देश को इंडिया बनाने के लिए हमारे देश के कर्णधार कमर कसे हुए है, अगर सभी लोग भारत को भारत ही बना रहने दे तो यह आने वाले समय में हमारे, देश के और दुनिया के हित में होगा।

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