सोमवार, 10 मई 2010

भारतीयता ना छोड़े...

भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अगस्त का महीना मात्र इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि 14-15 अगस्त की मध्य रात्रि को भारत का विभाजन हुआ था। भारत बंट गया, सत्ता पाने के इच्छुक नेताओं ने बंटवारा स्वीकार कर लिया। भारत के विभाजन को पूरी तरह नकारने वाले गांधीजी भी न जाने किस मजबूरी में मौन हो गए और मजहब के नाम पर भारत को दो टुकड़ों में बांटने की बात मान ली गई। 1942 से आज तक पूरें 67 साल बीत गए। इस कालखण्ड में बहुत कुछ हुआ। परतंत्रता की श्रृखलाओं से मुक्त होकर देश आगे बढा। 30 करोड़ लोगो का भारत अब 110 करोड़ से अधिक मनुष्यों का देश हो गया है। आजादी 62 वर्ष की हो गई पर इन सालों में, दर्भाग्य से स्वतंत्रता का असली लक्ष्य विस्मृत हो गया। गांधीजी ने सिंहनाद किया- अंग्रेजों भारत छोड़ो। इसी गूंज से देश का कण-कण प्रतिध्वनित हुआ। नगर, गांव, कस्बें गूंज उठे-अंग्रेजों भारत छोड़ों। उन दिनों विदेशी वस्त्रों की होली जलाई जाती थी। भारतीय भाषाओं, भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्रीय गौरव का ज्ञान देने वाले स्कूल-कालेज खोले जाते और उन संस्थाओं में शिक्षा प्राप्त करना भी समाज में आदरणीय माना जाता था। देशभक्तों का विरोध और अंग्रेजों की चापलूसी करके सरकारी पुरस्कार या खिताब पाने वालों को पूरा देश "टोडी बच्चा" कहकर तिरस्कृत करता था। जय हिंद का नारा, वंदे मातरम् का उदघोष परतंत्रता के बंधन तोड़कर राष्ट्र को स्वतंत्र करवानें के राष्ट्रीय सकल्प का प्रतीक बन गया था। वन्दे मातरम का नारा तो अंग्रेजों के सीने को गोली की चोट से भी अधिक चुभता था। भारत के अमर क्रांतिवीरों की शहादत की कीमत पर 1947 में भारत आजाद हुआ। आजादी मिली, क्षत-विक्षत ही सही। धीरे-धीरे वे भी महाप्रयाण करते गए जिन्होने स्वतंत्रता के यज्ञ में सर्वस्व की आहूति दी थी। मंजिल उन्हे मिली जो शरीके- सफर ना थे। इस संक्रांतिकाल में शब्द भी बदले, परिभाषाएं भी बदली और यहां तक कि "अंग्रेजों- भारत छोड़ों" को भूलकर केवल भारतीयता छोडों याद रह गया। जो कुछ अपना है उसके प्रति हीन भाव प्रकट करना उगा वर्ग की विशेषता बन गई। यह वही वर्ग है जो भारतीय कम इंडियन ज्यादा है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले कुछ वर्षा में शिक्षा प्राप्त करने वालों को शिक्षालयों में भारत के महान सपूतों और सुपुत्रियों की जीवन चरित्र पढ़ाया जाता था किंतु समय के साथ शिक्षा मंदिरों से राष्ट्रभक्तों को बाहर कर दिया गया। चापलूसी एवं कुर्सी भक्ति का गुण पुनरू दिखने लगा। स्वतंत्र भारत में ऐसा भी समय देखने को मिला जब उन्ही श्टोडी बगाा ्य के नाम पर नामकरण होने लगे। जय हिन्द और वंदे मातरम का गान स्कूल-कालंजों से गायब हो गया। प्रयास करके नई पीढी को यह विस्मृत कराया गया कि जय हिन्द के उदघोष के साथ नेताजी सुभाष व आजाद हिन्द फौज का सर्वस्व समर्पण जुड़ा है। यह भी याद नहीं रहने दिया कि तिलक ने स्वराज्य हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। का मंत्र दिया था, भुला दिया गया कि वंदे मातरम गीत, गीत ही नहीं, बंकिम का दिया राष्ट्रभक्ति का मंत्र है तथा देश के असंख्य बेटे- बेटियां स्वतंत्रता की बलिवेदी पर अर्पित हुए थे। यह भी भुला दिया कि जिन्होने भ्रष्टाचार, असमानता एवं अन्याय से मुक्त स्वतंत्र देश का सपना देखा था वे करतार सिंह सराभा, मदनलाल ढींगरा, ऊधम सिंह, सोहनलाल पाठक, रामरक्खी आदि भारत मां की संतान थे। अंग्रेजों ने अपने रॉयल स्कूलों के साथ जन साधारण के लिए पब्लिक स्कूल भी खोले थे, परन्तु आज की विडम्बना यह है कि यही स्कूल राजनेताओं और अधिकारियों के बच्चों के लिए सुरक्षित हो गए है। और पब्लिक का हिन्दी अनुवाद जनता गाड़ी, जनता साड़ी और जनता भोजन गरीबों से जुड़ गया है। आजादी से पूर्व हिन्दी भारत के सम्मान का प्रतीक रही। आजाद भारत में भी हिंदी को भारत के माथे की बिन्दी कहा जाता था। आज स्वतंत्रता के 62 साल बीतने के साथ ही हिन्दी तथा अन्य सभी भारतीय भाषाएँ सरकारी स्कूलों या गरीबों के लिए बने विद्यालयों की शिक्षा का माध्यम बनकर रह गई है। देश के शासकों, प्रशासकों के बगों, नेताओं के लाडले, लक्ष्मीपुत्रों के कण्ठहार भारतीय भाषाओं के माघ्यम ये शिक्षा प्राप्त नहीं करते। शिक्षा प्राप्ति के लिए जो विदेश ना भी जा सके वे देहरादून, सनावर, डलहौजी तथा अन्य ऐसे कान्वेन्टों में प्रवेश लेते है जहां भारतीयता उन्हे छू भी ना सके। हिंदी बोलने पर बच्चों को दण्डित करने का समाचार अपने देश में यदा-कदा मिलता ही रहता है। विदेशी वस्त्रों की होली जलाने वाला देश आज स्वतंत्र भारत में उन विदेशी वस्तुओं का प्रयोग गौरव से करता है। केवल विदेशी का प्रयोग ही होता तो भी चिंता न की जाती, स्वदेशी के प्रति हीनभाव की मानसिकता भी बढ रही है। बुआ, फूफा, चाचा-चाची, ताया-ताई, मामा-मामी जैसे प्यारें रिश्ते जताने वाले मीठे शब्द आज आंटी-अंकल में सिमट गए है। देशभक्ति का भाव जगाने के लिए जिन शिक्षा मंदिरों की स्थापना हुई थी वहसं से भी वन्दे मातरम और जय हिन्द को निकालकर गुड मार्निंग और हाय-बाय की सस्कृति ने कब्जा कर लिया है। दीपक जलाकर हर शुभ अवसर का अभिनंदन करने वाले देश में बगाों का जन्मदिन दीपक बुझाकर मनाया जा रहा है। दूरदर्शन जैसे सशक्त प्रसार माध्यम भी इसी मैकाले संस्कृति का प्रचार करते है। इसमें दोष उनका है, जो शिखरों पर बैठे है। जब देश के सर्वाेगा पदों पर आसीन नेता देश-विदेश में केक काटते और शराब के जाम के साथ दुनिया से मिलते दिखते है, तो आम आदमी आम नागरिक भला कैसे बच सकता है? और कब तक बच सकता है? देश भक्ति के गीत, देशभक्तों के नाम का स्मरण तो अब बस रस्म पूरी करने का तरीका है। 15 अगस्त और 26 जनवरी जैसे पर्व देशभक्ति की वर्षगांठ मनाने के दिन बन गए है। शहीदों पर आधारित चलचित्र भी एक-दो दिन के आयोजन रह गए है। जरा सोचिए, कितने बगो सावरकर और चाफेकर परिवार के सर्वस्व समर्पण को जानते है? खुदीराम बोस, प्रीतिलता और कनकलता, करतार सिंह सराभा, मदनलाल ढींगरा तथा अशफाक के बलिदान से कितने देशवासी परिचित है? कूका वीरों का बलिदान, सुब्रह्यण्यम भारती, भारतीय आत्मा माखनलाल चतुर्वेदी और भारतेन्दू के देशभक्ति गीत तथा 1857 के वीरों का अनुपम शौर्य कितने लोग इस देश में याद करते है? काश भारत की प्रशासनिक, पुलिस तथा अन्य सेवा परीक्षओं में इन वीरों के विषय में प्रश्र पूछे जाते तो सभी स्कूल-कालेजों में देशभक्तों के जीवन चरित्र भी पढाये जाते। सहायक पुस्तकों में इन्ही का गुणगान रहता। इससे नई पीढी में देश के प्रति त्याग और बलिदान का भाव बचा रहता, लूट खसोट न होती। याद कीजिए स्वतंत्रता के हित में संघर्ष करने वालों ने अंग्रेजों भारत छोड़ों कहा था भारतीयता छोड़ों नहीं। आइये एक बार फिर याद करे कि हमने आंदोलन चलाया था अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए, अंग्रेजियत को अपनाने के लिए नही। आईये दुनियां को कहे कि हम स्वतंत्र है। जब भारत में आये तो भारतीयों जैसा व्यवहार करे। उसके लिए हमें सर्वप्रथम तन-मन से भारतीय बनना होगा। विडंबना यह है कि हम एनआरआई है, यह कहकर ज्यादा आदर और सुविधा पाने का प्रतीक बन गया है। (साभार पांचजन्य)

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