सोमवार, 24 मई 2010

अपनी विरासत को पहचानें

इन दिनों विरासत की बहुत चर्चा है। कोई इसे संभालना चाहता है तो कोई सरकार इसे नई पीढ़ी के हाथों सौंप कर निश्चित होना चाहती है। नि:संदेह यह किसी भी राष्ट्र, समाज और परिवार के लिए एक स्वस्थ सोच है। परिवार में भी हर मां, दादी अपनी अगली पीढ़ी को परिवार की परंपराओं और रीति रिवाजों से परिचित करवाकर ही संतुष्ट होती है। आज चाहे वंश परंपरा बढ़ाने का अर्थ संतान पैदा करना है, पर कुछ समय पूर्व केवल संतान- संख्या बढ़ाना ही वंश बढ़ाना नहीं माना जाता था, अपितु अपने वंश की परंपराओं और संस्कारों को भी अगली पीढ़ी को सौंपना महत्वपूर्ण था। पंजाब में भी इन दिनों विरासत- मेले लगाए जा रहे हैं। इन मेलों में अपनी भाषा, पहनावा, भोजन, पुराने बर्तन, चरखे से लेकर हाथ से बने पंखों तक का प्रदर्शन किया जाता है। वे गीत भी गाए जाते हैं जिन्हें नई पीढ़ी भूलती जा रही है। पुराने प्रेमियों के किस्से बार-बार दोहराए भी जाते हैं और उनकी कथाओं का मंचन भी होता है, ये बातें हर किसी को अच्छी लगेंगी। दुनिया चाहे नए फिल्मी गीतों के शोर में कितनी खो जाए, पर आज भी ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं जो पुराने गीतों, पुराने अदाकारों और पुरानी कथाओं के दीवाने हैं। सच तो यह है कि जब आज से पांच दशक पहले के गीत रेडियो या टेलीविजन पर सुनने को मिलते हैं तो चलते कदम भी रुक जाते हैं और उनमें आज के शोर-शराबे की तुलना में कहीं ज्यादा आनंद मिलता है।
नई पीढ़ी को सौंपें विरासत :-
पर सवाल है कि क्या विरासत केवल तीन दिन के विरासती मेले से सुरक्षित रह पाएगी? देश के लगभग सभी प्रांतों की सरकारें तथा सामाजिक संगठन ऐसे आयोजन करते रहते हैं, जो निश्चित ही एक सराहनीय प्रयास है। पंजाब में भी ऐसा हुआ और पंजाब राज्य इस पर लगभग एक करोड़ रुपया वार्षिक खर्च करता है। तीन या चार जिलों में तीन दिन का मेला लगता है। कुछ कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करके थोड़ा धन कमा लेते हैं, उनकी पहचान भी बन जाती है। पर मेरा प्रश्न यह है कि जहां पर भारत की नई पीढ़ी को राष्ट्रीय और प्रादेशिक विरासत सौंपी जा सकती है वहां हम उन्हें केवल मैकाले और डायर का 'गुलाम' बनाकर क्यों रखते हैं? देश के अनेक विश्वविद्यालयों और कालेजों में दीक्षांत समारोह उसी रंग-ढंग से सराबोर रहते हैं जिसमें मैकाले ने हमें रंग दिया। उससे मुक्ति पाने के लिए कोई प्रयास अधिकांश प्रांतों में नहीं हुआ। अभी-अभी गुरुनानक देव विश्वविद्यालय और उससे सम्बद्ध अनेक कालेजों में दीक्षांत समारोह हुए और इसी दिन अमृतसर के एक धार्मिक संस्थान द्वारा चलाए जा रहे एक कालेज में भी यही सब देखने को मिला। वहां न तो कहीं गुरुनानक देव की शिक्षाएं दिखाई- सुनाई दीं और न ही वह धार्मिक रंग कालेज में दिखाई दिया जिसके प्रचार-प्रसार का लक्ष्य भी ऐसी संस्थाओं का रहता है। राज्यपाल अंग्रेजी में दीक्षांत भाषण देते हैं अथवा कहें, समय की औपचारिकता पूरी की जाती है। वही काले गाउन, सिर पर बड़े-बड़े ब्रिटिश राज के अवशेष दिखाई दिए। उस विरासत का सब रंग-ढंग वहां देखने को मिला जो फिरंगी इस देश पर शासन करते हुए हमारे लिए छोड़ गए थे। सच तो यह है कि हम अंग्रेज शासकों की छोड़ी जूठन सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। इन दीक्षांत समारोहों में उस दीक्षा के दर्शन नहीं होते जो हमारे पूर्वजों, ऋषियों- मुनियों की धरोहर है और जिसे संभालकर रखना हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है।
मानसिक गुलामी क्यों? :-
इससे पहले यही तथाकथित दीक्षांत समारोह मैंने कई बार पंजाब विश्वविद्यालय में देखा और पीजीआई (चंडीगढ़) में भी। उनमें भारत कहीं नहीं मिला। एक बार शबद गायन और सरस्वती वंदना यह अहसास जरूर करवा देती है कि हम अपने देश में हैं अन्यथा जिस भाषा और भूषा से अपनेपन का अहसास होता है, अपनी पहचान होती है वह कहीं दिखाई नहीं देती। मैंने तब भी एक प्रश्न किया था कि हमारे मेडिकल कालेज, पीजीआई जैसे संस्थान, हमारे विश्वविद्यालय बहुत कुछ सिखा देते हैं, पर वह हमारी उस रीढ़ की हड्डी को मजबूत करने का काम क्यों नहीं करते, जो अंग्रेजों की मानसिक गुलामी ढोते-ढोते यह महसूस करना ही भूल गई कि अब हम परतंत्र नहीं, स्वतंत्र हैं? इस देश ने बड़े-बड़े हड्डी रोग विशेषज्ञ पैदा कर दिए, कटे अंग भी हम जोड़ सकते हैं, पर हम राष्ट्र के नेताओं और अधिकतर बुद्धिजीवियों की उस रीढ़ की हड्डी का इलाज नहीं कर पाए जिसके कारण हमारे देश के बहुत से नेता नई पीढ़ी को मैकाले की भाषा में दीक्षा देते हैं और उनके मूल संस्कारों को काले गाउन और विदेशी परिधानों के नीचे दबा देते हैं। नई पीढ़ी को विरासत से जोडऩे और परिचित करवाने का सबसे अच्छा अवसर तो हमारे दीक्षांत समारोह हैं। इन अवसरों की शोभा बनने वाले राज्यपाल, नेतागण, शिक्षाविद् अगर यह तय कर लेते हैं कि भारतीय परंपरा के अनुसार ही हम शिक्षार्थियों को दीक्षा देंगे तब किसी विरासती मेले की जरूरत ही नहीं रहेगी। सही स्थिति तो यह है कि देश के बच्चे आज अपने उन शहीदों से ही परिचित नहीं जिनके सर्वस्व बलिदान के फलस्वरूप देश स्वतंत्र हुआ था। पंजाब के बच्चे पंजाब के शहीदों को नहीं जानते, पूरे देश के बारे में क्या जानेंगे। यह स्थिति केवल एक प्रांत की नहीं, पूरे देश की है। जय हिंद का नारा किसने दिया, वंदेमातरम् का प्रेरणामंत्र किसकी देन है, स्वराज्य को जन्मसिद्ध अधिकार किसने घोषित किया और खून के साथ आजादी मिलती है, यह पाठ किसने पढ़ाया, कुछ भी तो याद नहीं। अफसोस की बात है कि अधिकतर शिक्षा मंदिरों में यह पाठ नहीं पढ़ाया जाता। जय हिंद का नारा केवल सरकारी स्कूलों के गरीब विद्यार्थी लगाते हैं और स्वतंत्रता की वर्षगांठ पर कुछ नेता जोर लगाकर जय हिंद बोलते हैं, अन्यथा देश इसे भी भूल चुका होता। वंदेमातरम् तो अब देश के कर्णधारों को भी भारी लगने लगा है, जबकि क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास बताता है कि यह राष्ट्र की अस्मिता बचाने हेतु बलिपथ पर बढऩे वालों का महामंत्र था और हमारे मदनलाल ढींगरा से लेकर शहीद भगतसिंह तक, अनेक वीर इसी मंत्र का पाठ करते हुए फांसी के फंदों पर लटक गए थे।
भारत को जानें :-
मेरा निवेदन तो बस इतना है कि जब शिक्षा मंदिरों में विद्यार्थियों को विरासत सौंपने का सुअवसर आता है तब तो उन्हें फिरंगियों की विरासत से जोड़ा जाता है और फिर करोड़ों रुपये लगाकर विरासती मेलों के जरिए विरासत से जोडऩे का एक असफल प्रयास किया जाता है। जो स्कूल-कालेज अमीरों के बच्चों के लिए हैं, वहां न विरासत है न भारत, वहां केवल 'इंडिया' है। वह 'इंडिया' जो इंग्लैंड वाले बनाना चाहते थे। और गरीब के स्कूल में भारत मिलता है, जहां बच्चे आधे पेट भूखे हैं, अद्र्धनग्न हैं, सर्दी से ठिठुरते हैं और बहुत से तो स्कूल में केवल दोपहर के भोजन के लिए आते हैं। देश के राष्ट्रपति, विश्वविद्यालयों के कुलपति, प्रांतों के राज्यपाल और उपकुलपति भी यह विचार करें कि दीक्षांत समारोहों के नाम पर जो वे दे रहे हैं क्या आज वह भारत के लिए सही है? अगर वही सही है तो फिर विरासती मेले बंद करें और अगर नई पीढ़ी को अपनी सांस्कृतिक विरासत से जोडऩा है तो कालेजों और विश्वविद्यालयों में दीक्षांत समारोहों के नाम पर अंग्रेजों की जूठन के वितरण पर रोक लगा दें। विडम्बना यह है कि प्रांतीय भाषाओं की उन्नति के नाम पर देशवासियों को लड़ाने वाले भी उनकी भाषा बोलने में कोई संकोच नहीं करते, जिन्होंने जलियांवाला बाग में गोलियों से हमें भूना था!

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