सोमवार, 24 मई 2010

आंख मूंदने से बात नहीं बनेगी

एक समय था जब ईसाइयत और इस्लाम ने प्रलय मचाती सेनाओं का सहारा लेते हुए दुनिया के एक बड़े हिस्से में अपने मत का प्रचार-प्रसार किया। किंतु आज के बदले हुए माहौल में जब ताकत के बल पर अपने मतावलंबियों की संख्या बढ़ाना संभव नहीं रहा, तब इन दोनों मतों ने अपनी रणनीति में भी बदलाव किया है। ईसाइयत के पैरोकार जहां सेवा का चोंगा ओढ़कर दूसरे पंथों के आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों का मतांतरण करने में लगे हैं, वहीं इस्लामी नेतृत्व ने अपनी जनसंख्या वृद्धि को ही हथियार बना लिया है। पड़ोसी देश बांग्लादेश से हो रही नियोजित घुसपैठ इसी हथियार का एक नमूना है। संख्याबल में अपने को सर्वोपरि और दूसरे को मिटा देने की यह विधर्मी मानसिकता आज भारत में पूरे जोर-शोर से काम कर रही है। भारतीय मतावलंबियों का मतांतरण, बांग्लादेशी घुसपैठ और भारतीय मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि की असामान्य दर के कारण देश के कई हिस्सों में भारतीय मतावलंबी अल्पमत में आ चुके हैं। वोटबैंक की मानसिकता में जकड़ा हुआ देश का राजनैतिक नेतृत्व इस समस्या की गंभीरता को समझने और उसका निदान ढूंढने के लिए आवश्यक कदम उठाने को तैयार नहीं है। बड़ी संख्या में देश का बुद्धिजीवी वर्ग भी जनसंख्या असंतुलन के इस खतरे के विकराल स्वरूप को नहीं देख पा रहा है। ऐसी स्थिति में समस्या का समाधान ढूंढने के लिए जनसामान्य को ही आगे आना होगा। भारतीय मूल के सभी मतावलंबियों को चाहिए कि वे आपस में मिलकर सरकार पर दबाव डालें कि वह बांग्लादेशी घुसपैठ को रोकने के लिए सरकारी तंत्र को सक्रिय करे और साथ ही ऐसी स्थितियां निर्मित करे जिसमें बिना कोई भेदभाव किए सभी नागरिकों को असामान्य रूप से जनसंख्या बढ़ाने के लिए हतोत्साहित किया जाए। सेवा की आड़ में हो रहा मतांतरण एक ऐसी समस्या है जिसका उपाय केवल सरकार के पास नहीं है। इसे रोकने में समाज की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण है। भारतीय मूल के पंथों एवं संप्रदायों का कर्तव्य बनता है कि वे अपने समाज के पिछड़े वर्ग को सम्मान दें और उसके आर्थिक उन्नयन में हाथ बंटाएं। अपनों की ओर से सम्मान के साथ मदद में उठा एक छोटा सा कदम भी सेवा की आड़ में हो रहे मतांतरण को रोकने की ताकत रखता है। यदि सरकार और समाज दोनों की ओर से जनसंख्या असंतुलन के इस खतरे से निपटने का गंभीर प्रयास नहीं किया गया तो स्थिति कभी भी विस्फोटक एवं नियंत्रण के बाहर हो सकती है। सहिष्णुता एवं सहअस्तित्व की बातें केवल भारतीय मूल के संप्रदाय करते हैं, दूसरे नहीं। इसे समझने के लिए दूर जाने की जरुरत नहीं। अपने ही देश में कश्मीर घाटी और मिजोरम में भारतीय मतावलंबियों के साथ जो हुआ, वह आने वाले खतरे को बयान करने में सक्षम है।

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