सोमवार, 24 मई 2010

आधुनिक विज्ञान ऋणी है देव संस्कृति का

क्रान्तियों के अविराम दौर को देखने और समझने वाले कल के महापरिवतर्न के बारे में विश्वस्त है । इस विश्वसनीयता ने सोच विचार में रुचि रखने वालों के मन में जिस जिज्ञासा को जन्म दिया है, वह है कल के जीवन की रूपरेखा उसका स्वरूप और संस्कृति । एक तरफ तर्कों और प्रयोगों की कसौटी पर तथ्यों को परखने वाला विज्ञान है । दूसरी ओर विश्वासों की बैसाखी पर टिका हुए विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों का समूह है । संवेदनशील हो सोचने वाले मानववादियों, दार्शनिक का अपना वर्ग है, उनकी अपनी चिन्तन प्रणालियाँ हैं । कल की जिन्दगी इनमें से किसे चुनेगी? अथवा किसमें वह सामर्थ्य है जो स्वयं को भावी-समाज के योग्य ठहरा सके । कुछ भी हो सवाल नवयुग की नयी संस्कृति की खोज का है । शुरुआत से खोज जीवन की मूलवृत्ति रही है । आवश्यकता आविष्कार की जननी है के सर्व प्रचलित सिद्धान्त ने समय-समय पर अनेकों उभार लिए हैं । आवश्यकता सभी को होती है-पशु हो या मनुष्य पर इनके स्वरूप में भेद हैं । पशुओं ने अपनी जिन्दगी की जरूरतों को पूरा करने स्वयं की वंश-वेलि को बचाए रखने के लिए कम खोजें नहीं की । प्राणिशास्त्र इसी के अध्ययन का इतिहास है । प्रकृति की सूक्ष्म हलचलों को पढऩे में सक्षम-चीटीं, कुत्ते, संगठन करने वाली दीमक, मधुमक्खी आदि के प्रयासें को देखकर दंग रहना पड़ता है । उनमें से अनेकों की अतीन्द्रिय सामर्थ्य का लोहा मानने के लिए सभी विवश हैं । पर इतने पर भी पशु भी किसी संस्कृति का निमार्ण नहीं कर पाए, क्योंकि उन्होंने स्वयं की प्रकृति और प्रवृति में परिवतर्न करने की न जरूरत महसूस की और न स्वयं में इसे कर सकने की सामर्थ्य का ही अनुभव किया । खोजी मनुष्य ने अपनी इसी विशेषता के कारण सभ्यताएँ निमिर्त की, संस्कृतियाँ रचीं और जीवन को अनूठा सौन्दर्य प्रदान किया । मनीषी स्टिच-स्टीफेन के ग्रन्थ रिसर्च एण्ड प्रोसेज के शब्दों में कहें तो इस विराट ब्रह्माण्ड में शक्ति-चेतनता की अनेकों धाराएँ अनेकों स्तर हैं । इनमें से प्रत्येक स्तर का अपना वैभव अपनी उपलब्धियाँ हैं, खोज का अर्थ इनमें से किसी स्तर से अपना गहरा सामजस्य बिठाना उसे मूर्त रूप देना है । प्रत्येक खोज का जन्म आवश्यकता से उत्पन्न इच्छा में होता है । इच्छा अपनी परिपक्व दशा में विचार और जिज्ञासा का रूप लेती है । जिज्ञासा के उपलब्धि की ओर बढ़ते कदम प्रक्रिया को जन्म देते हैं । प्रक्रिया की परिपूणर्ता में सपना साकार हो उठता है । समय के प्रवाह में मनुष्य की अंत: प्रकृति और ब्रह्म प्रकृति में अनेकों परिवतर्न घटित होते रहते हैं । संसार का स्वरूप भी अपने में व्यापक फेर-बदल करता रहता है । इन सारी उलट-फेर में फँसकर प्रक्रियाओं में परिवतर्न आना स्वाभाविक है । लेकिन उपलब्धि का सिलसिला वही रहता है । उदाहरण के लिए आग को ले, अग्नि तत्व सृष्टि के उदय काल से विद्यमान है । शुरूआत के दिनों इसकी जरूरत पडऩे पर मानव ने पत्थर रगड़कर इसे हासिल किया । तब से आज तक अग्नि उत्पादक प्रक्रियाओं में भारी अन्तर आ चुका है पर अग्नि वही है । नृतत्व विज्ञानियों के अनुसार आज से हजारों साल पहले भी आदमी ने अपनी सभ्यता के गौरवपूर्ण शिखरों को छुआ है । जिन्दगी के व्यापक दायरे के हर बिन्दु पर उसने तरह-तरह के शोध अध्ययन किए । समग्र जीवन पद्धति को रचने वाली संस्कृति के निमार्ण में सफल हुआ । महायोगी अनिवार्ण के ग्रन्थ वेद मीमांसा के अनुसार उसने अन्त: और प्रकृति पर अनूठे प्रयोग किए । ऐसे प्रयोग जिनसे मनुष्य देवता बन गया और धरती स्वर्ग । समय के थपेड़ों और नई पीढ़ी की उत्तरदायित्वहीनता के कारण ढेर की ढेर प्रक्रियाएँ खो गई । उन प्रक्रियाएँ के खोने का परिणाम है कि मनुष्य आज न जाने कितनी उपलब्धियों से वंचित है? वतर्मान परिस्थियाँ इतनी बदली हुई है कि वेदों के आख्यान- पुराणों के विवरण, शास्रों के वचन सुनने वालों को नानी की कहानी मालूम पड़ते हैं, जब कभी कोई ऋषि दयानन्द परमहंस विशुद्धानन्द, उन तथ्यों को अपने जीवन में प्रमाणिक कर लोक-जीवन को झकझोरता है सभी थोड़े समय उसे कौतुक और अतिमानव का सम्मान दें अपने लिए असम्भव बता किसी गहरी नींद खोने लगते हैं । इस असम्भव और आश्चयर्जनक के पीछे झाँकने वाले तथ्यों को परखे तो प्रक्रियाओं का मौलिक अन्तर समझ पड़ता है । प्राच्य विद्या के विशेषज्ञ डा. गोपीनाथ कविराज के अध्ययन भारतीय संस्कृति साधना शब्दों में आज की शोध प्रक्रियाएँ जिन्हें विज्ञान की विभिन्न शाखा-उपशाखाओं का समूह कहले विश्लेषण करने में समर्थ बुद्धि की उपज है । देव संस्कृति के विभिन्न पक्षों की खोज के पीछे अन्तज्ञार्न सम्पन्न संवेदनशील मन को ढूँढ़ा जा सकता है । आज के जीवन में यदा-कदा ऐसे अवसर आ जाते हैं, जब पुरानी शोध को नवीन मूल्यांकन से गुजरना पड़ता है । परिणति आश्चयर्जनक ढंग से सुखद होती है । लेकिन पुरानी प्रक्रियाओं के खो जाने से आधुनिक प्रयोगकर्ताओं को इस विवशता का सामना करना पड़ता है कि ऋषि मुनि कहे जाने वाले शोध विज्ञानी यन्त्रों और बहुमूल्य प्रयोगशालाओं के अभाव में इन निष्कर्षों तक कैसे पहुँच सकें, समस्या का सुलझा सकने में अक्षम बुद्धि को एक ही बात समझ मे आती है कि इन सब तथ्यों को संयोग कहकर चुप्पी साध लें । पर संयोग एक-आध हो सकते हैं । मानवीय ज्ञान के विविध क्षेत्रों में इनका भरा-पूरा सिलसिला इस बात को प्रमाणित करता है कि कहीं न कहीं तथ्यांकन की कोई पुनमूर्ल्यांकन के अपने मौलिक अधिकार के लिए गुहार लगा रही है । चरक का आयुविर्ज्ञान, वराहमिहिर, आयर्भट्ट की खगोल गणनाएँ, पतंजलि का मानसशास्र, गोरक्षनाथ की हठयोग प्रणाली, विभिन्न दाशर्निक पद्धतियों के सृष्टि और मनुष्य सम्बन्धी गहरे सवेर्क्षण प्रयोगों की कसौटी पर कसने पर यह मानने के लिए विवश करते हैं कि यह सब कल्पना लोक की उड़ाने नहीं हैं । तब क्या इन सबके पास आज सी सुसज्जित प्रयोगशालाएँ थी जिनकी न तो उल्लेख मिलता है न अवशेष? इस प्रश्न का सुसंगत उत्तर इतना ही है कि प्रयोगों की प्रणाली तो थी पर आज से भिन्न । उन दिनों प्रारम्भ से ही अन्त: प्रकृति को तरह-तरह के गम्भीर प्रयोगों द्वारा इस लायक बना दिया जाता था कि वह सृष्टि के विभिन्न रचनाक्रमों और इसकी उपादेयता को सम्यक् ज्ञान अजिर्त कर सकें । ऐसे शोधार्थी के रूप में चरक और उनके सहयोगी किसी पौधे के प्राण स्पंदनों से अपने अन्तर्बोध सम्पन्न मन का एकाकार करके-पौधे की गुणवत्ता, उसके भाग विशेष की रोगनिवारण की विभिन्न क्षमताओं का ज्ञान अजिर्त कर लेते थे । परीक्षणों का व्यापक सिलसिला प्रयोगों की गुणवत्ता को शत-प्रतिशत ठीक ठहराता था । यही कारण है कि आयुवेर्द के प्राचीन ग्रन्थों में पौधों के गुण-स्वभाव उनके विभिन्न भागों की रोगनिवारण सामर्थ्य-प्रयोग विधि का ब्योरेवार विवरण तो मिलता है, पर पौधे के रासासनिक संगठन और सूक्ष्म विश्लेषण का अभाव है । यही बात ज्ञान की अन्य धाराओं के सन्दर्भ में है । प्राचीन ज्ञान की प्राय: सभी शाखाओं-उपशाखाओं की उपलब्धि में प्रक्रिया का यही स्वरूप दिखाई देता है । इसका एक ही कारण है इसकी सवर्तोजयी प्रामाणिकता प्राचीन शास्रों में ज्ञान की चार विधियों का उल्लेख मिलता है । इन्द्रियानुभूति द्वारा अन्तबोर्ध सम्पन्न मन से, विश्लेषण क्षमता सम्पन्न बुद्धि से और गहरे आत्मिक तादात्म्य द्वारा । आधुनिक समय में ऋषि अरविन्द लाइफ डिवाइन में इसी अन्तिम विधि को श्रेष्ठ बताया है । देव संस्कृति को जन्म देने वाले इस विधि में निष्णात् थे । यही कारण है उन्होंने इस उत्कृष्ट विधि के रहते निम्न विधियों का कम ही प्रयोग किया है ।

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