गुरुवार, 27 मई 2010

विभाजन-गाथा का एक विस्मृत पन्ना-3

यूं जन्मा अखंड हिन्दुस्थान मोर्चा
दो दिन लम्बी वर्धा बैठक से स्पष्ट हो गया कि पाकिस्तान की मांग को पूरा कराने के लिए मुस्लिम लीग ने देश को गृहयुद्ध के कगार पर धकेलने का निर्णय कर लिया है, जो अमदाबाद, बम्बई, ढाका और बिहार के अनेक नगरों में राक्षसी दंगों के रूप में प्रगट हो रहा है। देश के सबसे बड़े राजनीतिक दल के नाते कांग्रेस भारी अन्तद्र्वंद्व में फंसी थी। वह सैद्धांतिक तौर पर अहिंसा के लिए प्रतिबद्ध थी, किंतु अधिकांश कांग्रेसजन अनुभव कर रहे थे कि मुस्लिम हिंसा का मुकाबला अहिंसा के द्वारा संभव नहीं है। गांधी जी भी स्थिति की गंभीरता को समझ रहे थे, किंतु उनकी चिंता थी कि यदि कांग्रेस संस्था के नाते हिंसा का रास्ता अपनाएगी तो वह बिखर जाएगी या ब्रिाटिश सरकार उस पर हमला करके उसे समाप्त कर देगी। इस तमाम चर्चा से निष्कर्ष निकला कि क.मा.मुंशी भारत और कांग्रेस के हित में कांग्रेस से त्यागपत्र देकर बाहर जाएं और हिन्दुओं को संगठित करने का प्रयास करें। गांधी जी के निर्देशानुसार मुंशी ने बम्बई जाकर अपनी पत्नी, अपने कांग्रेसी मित्रों और पूना में यरवदा जेल में बंद सरदार पटेल से परामर्श किया। वर्धा लौटकर उन्होंने कांग्रेस से त्यागपत्र दिया और गांधी जी ने 15 जून 1941 को उनके त्यागपत्र पर एक प्रेस वक्तव्य जारी किया।
मुंशी का त्यागपत्र
गांधी जी ने अपने लम्बे वक्तव्य में कांग्रेस कार्यसमिति के 21 जून 1940 के वर्धा प्रस्ताव की अ.भा.कांग्रेस कमेटी की व्याख्या को उद्धृत किया, जिसमें कहा गया था कि कांग्रेस स्वराज्य की लड़ाई तो अहिंसा से ही लड़ेगी, किंतु स्वाधीन भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अहिंसा के सिद्धांत पर नहीं अड़ेगी। यह स्वयं में एक विरोधाभासी तर्कजाल था। जैसा कि इस श्रृंखला के प्रथम लेख में हम स्पष्ट कर चुके हैं कि यह प्रस्ताव गांधी जी के अहिंसा पर अव्यावहारिक आग्रह की प्रतिक्रिया में से निकला था। गांधी जी ने मुंशी के त्यागपत्र का समर्थन करते हुए कहा कि "उनका त्यागपत्र देना उनके अपने, कांग्रेस और देश के हित में होगा। उनके इस कदम से अन्य कांग्रेसजनों के लिए भी त्यागपत्र का रास्ता खुलेगा। उनके कांग्रेस से त्यागपत्र का अर्थ यह कदापि नहीं है कि वे बदले की भावना से भरे हिंसक प्राणी बन गए हैं या राष्ट्रवाद विरोधी साम्प्रदायिक हो गये हैं। मुझे तनिक भी संदेह नहीं है कि उनकी दृष्टि में ऐसा प्रत्येक गैर हिन्दू, जो भारत को अपना घर मानता है, उतना ही भारतीय है, जितना भारत में जन्मा-पला कोई भी हिन्दू है। मैं आशा करता हूं कि वे बम्बई में स्थाई शांति स्थापित करने में सफल होंगे।" मुंशी जी लिखते हैं कि "जब मैंने कुछ प्रमुख कांग्रेसजनों से सम्पर्क किया तो उन्होंने कहा कि अब जब गांधी जी ने तुम्हें कांग्रेस से बाहर जाने की अनुमति दे दी है तो हम भी तुम्हारे साथ आने को तैयार हैं।" अनेक कांग्रेसजनों ने सुझाव दिया कि "स्वराज्य पार्टी" को पुन: जीवित किया जाए, ताकि वे उसमें जा सकें। मुंशी जी ने इसका उत्तर दिया कि आज का मुख्य प्रश्न संवैधानिक सुधार न होकर भारत की अखंडता की रक्षा है। कांग्रेस, हिन्दू महासभा, बम्बई कांफ्रेंस, आजाद कांफ्रेंस, मोमिन कांफ्रेंस, अखिल बंगाल कृषक प्रजा पार्टी, पृथकता विरोधी दक्षिण भारतीय कांफ्रेंस आदि अधिकांश दल और सिख, ईसाई, पारसी आदि सभी समुदाय अखंड भारत की निष्ठा रखते हैं। ये सब इकठृठा हो जाएं तो भारत को कौन खंडित कर सकता है। इसलिए आज की आवश्यकता है कि इस व्यापक जनभावना को उद्दीपित और संगठित करने के लिए अखंड हिन्दुस्थान मोर्चा बनाया जाए। यह मोर्चा कोई अनुशासनबद्ध संगठन नहीं होगा, बल्कि भारत की अखंडता और आंतरिक सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध दलों का एक साझा मंच मात्र होगा। इस स्थिति ने सरदार पटेल को विचलित कर दिया। उन्होंने गांधी जी को लिखा कि विभाजन और दंगों के प्रश्न पर बड़ी संख्या में कांग्रेसजन कांग्रेस को छोडक़र अपनी अलग पार्टी बना लेंगे। मुंशी कहते हैं कि गांधी जी पार्टी से ऊपर उठकर सोच सकते थे, पर सरदार नहीं। सरदार जैसे सहयोगियों का दबाव पडऩे के कारण गांधी जी ने अपने निजी सचिव महादेव देसाई के द्वारा एक स्पष्टीकरण जारी करवा दिया कि मुंशी ने कांग्रेस इसलिए छोड़ी, क्योंकि उनका अहिंसा पर से ही विश्वास उठ गया है। किंतु जो अभी भी अहिंसा पर विश्वास रखते हैं, भले ही उस पर अमल करना कठिन पाते हैं, उन्हें कांग्रेस में बने रहना चाहिए। मुंशी जी लिखते हैं कि महादेव देसाई के इस वक्तव्य के बाद जिन कांग्रेसियों ने मेरे साथ आने का वचन दिया था वे इस स्पष्टीकरण का तिनका पकडक़र कांग्रेस में ही रुके रह गए और मुझे अकेले ही अखंड हिन्दुस्थान का झंडा उठाना पड़ा।
पाकिस्तान समर्थक मनोभूमिका की पहचान
अखंड हिन्दुस्थान मोर्चे की पताका लेकर मुंशी जी ने पूरे भारत का भ्रमण किया। इस भारत यात्रा के पीछे मुंशी जी का उद्देश्य भारत और भारत विभाजन अर्थात् पाकिस्तान समर्थक शक्तियों की पहचान करना, उनकी मनोभूमिका और विचारधारा को समझना तथा अखंड भारत समर्थक शक्तियों का मनोबल बढ़ाना और उन्हें जोडऩा था। इस यात्रा से मुंशी जी का यह विश्वास दृढ़ हो गया कि यह संघर्ष भारतीय राष्ट्रवाद और मुस्लिम पृथकतावाद के बीच आठवीं शताब्दी से आरंभ हुए संघर्ष की अगली कड़ी मात्र है। उन्होंने मुस्लिम श्रोताओं को उनकी रगों में भारतीय पूर्वजों के रक्त का और समान सांस्कृतिक विरासत का स्मरण दिलाने का भरसक प्रयास किया, किंतु उन्हें जगह-जगह उग्र मुस्लिम विरोध का सामना करना पड़ा। भारत की सांस्कृतिक परंपरा से मुस्लिम समाज कितना कट चुका है इसका अंदाजा मुंशी जी को तब हुआ जब उदारता के लिए प्रसिद्ध और हिन्दू रियासत मैसूर के मुस्लिम प्रधानमंत्री सर मिर्जा इस्माईल ने मुंशी जी को कहा कि आपने अखंड जैसे संस्कृत शब्द की जगह उर्दू का कोई शब्द क्यों नहीं अपनाया? इससे तो मुसलमान नाराज हो जाएंगे। और तब मुंशी जी ने महसूस किया कि क्यों जिन्ना उर्दू को मुस्लिम राष्ट्रवाद का आधार कहते हैं। एक राष्ट्रवादी मुस्लिम नेता ने उन्हें लिखा कि आप मुसलमानों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर रहे हैं। जब मुंशी जी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रसंघ को सम्बोधित कर रहे थे तो चार-पांच मुस्लिम सभा से यह चिल्लाते हुए बाहर चले गए कि आप मुसलमानों को अपना गुलाम बनाना चाहते हैं। मुंशी जी लिखते हैं कि जब मैं लाहौर गया तो एक मुस्लिम नेता के उर्दू अखबार ने हिन्दुओं को धमकी दी कि यदि उन्होंने मेरी बात सुनी तो उनका वही हश्र दोबारा होगा जो 11वीं शताब्दी के आरंभ में महमूद गजनी ने किया था। उनकी दृष्टि में भारत की एकता का प्रचार करना, कायरता को छोडऩे का आह्वान करना और गुंडागर्दी का हिम्मत के साथ मुकाबला करने की बात करना अपराध था।
विष-बुझे वक्तव्य
इसके विपरीत महत्वपूर्ण और उत्तरदायी मुस्लिम नेताओं के जहरीले भाषणों के अनेक उद्धरण मुंशी जी ने ढाका दंगा जांच समिति को पेश की गयी बंगाल प्रांतीय कांग्रेस कमेटी की रपट में से दिए हैं। बंगाल के तत्कालीन मुस्लिम प्रधानमंत्री ने कहा, "यदि मुसलमान संगठित रहे तो वे दोबारा राज करेंगे। 22 करोड़ हिन्दुओं को मैं बिना उंगली हिलाए कुचल दूंगा। भविष्य केवल मुसलमानों का है, काफिरों का कोई भविष्य नहीं होता।" उसके मंत्रिमंडलीय सहयोगी सुहरावर्दी ने भैरव कांफ्रेंस में मुसलमानों को मुस्लिम लीग के झंडे तले संगठित होकर सवर्ण हिन्दुओं से सत्ता छीनने को कहा। गृहमंत्री ख्वाजा निजामुद्दीन ने एक हिन्दू की निजी सम्पत्ति पर बिना उससे पूछे "पाकिस्तान पार्क" का उद्घाटन कर दिया। मंत्रिमंडल के मुखपत्र "दि स्टार आफ इंडिया" ने लिखा, "बंगाल के कोने-कोने में मुसलमानों का धैर्य समाप्त हो चुका है। वक्त आ गया है कि इन चूहों को बताया जाए कि शेर मरा नहीं है, केवल सो रहा था। हम उन्हें दिखा देंगे कि बंगाल किसका है। उन्हें ऐसा सबक सिखाएंगे कि वे याद रखेंगे।" मंत्रिमंडल द्वारा पोषित पत्र "आजाद" में 10 मार्च 1941 को एक कविता छपी जिसमें मुस्लिम लीग के झंडे तले विजेता सिपाहियों को परास्त हिन्दुओं पर हमला करने और खून की नदियां बहाने, हिन्दू मंदिरों का ध्वंस करने और हिन्दू घरों में आग लगाने का आह्वान किया गया। उन्हीं दिनों सिंध में सुल्तानकोट में जी.एम.सैयद की अध्यक्षता में मुस्लिम लीग सम्मेलन में एक उर्दू शायरी में कहा गया, "हम पाकिस्तान में कोई गैर मुस्लिम चेहरा नहीं देखेंगे, वहां मूर्ति पूजा का नामोनिशान नहीं रहेगा, जो हिन्दू गुलाम रहने के लिए ही पैदा हुए हैं उन्हें सरकार में कोई हिस्सा पाने का हक नहीं है।" मुस्लिम मानसिकता के इन अनुभवों के आधार पर मुंशी जी ने गांधी जी के नाम 8 सितम्बर 1941 को एक बहुत लम्बे पत्र में लिखा, "मैं स्पष्ट देख रहा हूं कि मुसलमानों का बहुत बड़ा बहुमत राष्ट्रवाद के प्रति उदासीन है और देश पर हावी होने की नीति अपना रहा है। कमजोर दिल हिन्दू ऊंची बात कहकर संतोष कर लेते हैं कि "मैं राष्ट्रवादी हूं और मुझे मुसलमानों को नाराज नहीं करना चाहिए। इसका नतीजा यह हो रहा है कि राष्ट्रवाद, हिन्दू और अन्य गैर मुस्लिम समुदाय खतरे में हैं। यदि मैं अपनी सभाओं में मेरा भाषण सुनने या मेरे भाषणों की रपट पढक़र कुछ मुसलमानों की आहत भावनाओं या नाराजगी की चिंता करके सत्य न बोलूं तो मेरे बोलने की आवश्यकता ही क्या है?" उसी पत्र में मुंशी जी लिखते हैं, "यह सच है कि जो मैं बोलता हूं उससे मुसलमानों की भावनाएं आहत होती हैं। वे केवल एक ही दृष्टिकोण से देखना और सुनना चाहते हैं और उसके प्रति बड़े भावुक हैं। वे चाहे जो कहें या करें, किसी को उसकी आलोचना नहीं करनी चाहिए। लेकिन मैं जो साफ देखता हूं क्या उसे अपनी पूरी क्षमता से बताने का मुझे हक नहीं है? यहां (बम्बई में) कुछ ही दिन पहले मुस्लिम नेताओं के भाषणों में जो ईष्र्या, जहर और मतांधता भरी थी वह ध्यान देने लायक है। मुस्लिम पृथकतावादी देश का विभाजन करने पर तुले हुए हैं। वे भारत राष्ट्र के टुकड़े-टुकड़े करके हिन्दुओं को अल्पसंख्यक बना देना चाहते हैं। देश का भविष्य खतरे में है। क्या हिन्दुओं को इस डर से कि, कहीं आज के सच्चे हालात के वर्णन को सुन-पढक़र कहीं मुसलमान भाई नाराज न हो जाएं, अपने होंठ सी लेने चाहिएं?" पत्र के पहले पैरा में ही मुंशी जी लिखते हैं कि, "कट्टरवादी मुसलमान आपको सब समस्या की जड़ मानते हैं और मुझे केवल एक नन्हा सपोला। कोई आश्चर्य नहीं कि राष्ट्रवादी मुसलमान भी मुझे मुसलमानों की पराधीनता का औजार समझ रहे हैं। जबसे मैंने कांग्रेस छोड़ी है और मुस्लिम प्रेस ने आप पर आरोप लगाना शुरू किया है कि आपने ही बुरे इरादे से मुझे बाहर भेजा है, मैं पूरी सावधानी बरतता हूं कि आप पर मेरे कारण कोई लांछन न लगने पाए।"
अखण्ड हिन्दुस्थान का उद्घोष
मुसलमानों में व्याप्त पृथकतावादी और हिन्दू विरोधी मानसिकता से दुखी मुंशी जी लिखते हैं, "गांधी जी पिछले 25 साल से हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए भागीरथ प्रयास कर रहे हैं। इसके लिए वे हिन्दुओं के एक वर्ग का विश्वास भी खो बैठे हैं। यह वर्ग उन पर हिन्दुओं को नीचे गिराने का लांछन लगाता है। किंतु मुस्लिम समाज ने उनके इरादों को गलत समझा। पृथकतावादी अखबारों में उन्हें इस्लाम का सबसे बड़ा शत्रु कहा जा रहा है। उनको जान से मारने की धमकियां दी जा रही हैं। यही स्थिति मौलाना अबुल कलाम आजाद की है। वे इस्लाम के अधिकारी विद्वान हैं, देशभक्त हैं, बड़े राष्ट्रवादी हैं। पर उनका मखौल उड़ाया जा रहा है कि वे हिन्दू मुस्लिम एकता के द्वारा भारत को अखंड रखना चाहते हैं। मुंशी जी पूछते हैं कि, " जो अहिंसा का मसीहा और भारत का सबसे महान मुसलमान प्राप्त नहीं कर पाया, वह तुष्टीकरण के द्वारा प्राप्त हो सकेगा? जब भारत की अखंडता के उपासक निर्भीक वाणी में अखंड हिन्दुस्थान का उद्घोष करेंगे तभी वे पृथकतावादियों से सम्मान अर्जित कर पाएंगे, तभी दोस्ती और आपसी समझदारी का सवेरा प्रगट होगा।" ऐसा नहीं है कि मुंशी जी मुस्लिम समाज के भीतर से उठ रहे इक्के-दुक्के राष्ट्रवादी स्वरों के प्रति अनजान थे। उन्होंने मोमिन नेता अब्दुल कय्यूम अंसारी, अखिल बंग कृषक प्रजा पार्टी के नेता सैयद हबीबुर रहमान, मध्य प्रांत के पूर्व मंत्री मोहम्मद यूसुफ शरीफ और इस्मायली खोजा समुदाय के नेता मोहम्मद भाई रावजी के भाषणों को उद्धृत किया है, किंतु मजहबी जुनून की आंधी में वे तिनकों के समान उड़ गए। 100 वर्षों के इतिहास से विकसित हिन्दू विरोधी व विजेता शासक की मानसिकता मतांतरित मुसलमानों में इतनी व्यापक और गहरी फैल गयी थी कि भारतीय मुसलमानों ने मौलाना आजाद जैसे निष्ठावान मुसलमान को ठुकराकर कुरान और नमाज से दूर अंग्रेजियत में रंगे जिन्ना को सिर पर उठा लिया। मुसलमानों में व्याप्त हिन्दू विरोधी मानसिकता के उदाहरण देते हुए मुंशी जी कहते हैं, "मुस्लिम विभाजनवादी को राष्ट्रीय एकता को प्रतिबिम्बित करने वाले प्रत्येक प्रतीक और व्यवहार से चिढ़ है। यदि मैं वंदेमातरम् गाता हूं तो उसे बुरा लगता है। यदि मैं किसी विद्यालय को "विद्या मंदिर" जैसा संस्कृत नाम देता हूं तो उसकी भावना आहत होती है। अगर मैं राष्ट्रीय ध्वज का वंदन करता हूं तो वह परेशान हो जाता है। यदि मैं हम दोनों को समझ आने वाली "हिन्दुस्थानी" जैसी राष्ट्रभाषा का विकास करना चाहता हूं तो वह चाहता है कि हम केवल उर्दू बोलें, जिसे मैं समझ नहीं पाता। वह अपने को मजहबी अल्पसंख्यक के बजाय प्रतिद्वंद्वी राष्ट्र मानता है।" अखंड हिन्दुस्थान मोर्चा के मंच से मुंशी जी ने पूरे भारत में घूमकर अखंड भारत की अलख जगाने और पृथकतावाद के विरुद्ध राष्ट्रवादी शिविर में एकता पैदा करने का ऐतिहासिक प्रयास किया। किंतु राष्ट्रवादी शिविर की आंतरिक स्थिति और मानसिकता का उनकी आंखों देखा चित्र और अनुभव क्या है, वह भारत की आज की स्थिति में भी अत्यंत प्रासंगिक है। (जारी)...

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