सोमवार, 24 मई 2010

राष्ट्रीय कब बनेगें ये जनसंगठन?

माओवादी हिंसा का समर्थन करके मानवाधिकार नागरिक संगठन और बुद्धिजीवी अपनी ही साख कमजोर कर रहे हैं
पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स ने छत्तीसगढ़ में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के हमले में सीआरपीएफ के 76 जवानों के मारे जाने पर यह प्रतिक्रिया जताई है- 'पीयूडीआर का मानना है कि छह अप्रैल वर्ष 2010 की सुबह दंतेवाड़ा में जवानों की मौत ऑपरेशन ग्रीन हंट को आगे बढ़ाने की सरकार की हठधर्मी नीति का दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम है। ...चूंकि युद्ध भारत सरकार की प्राथमिकता है, इसलिए अगर लड़ाके मारे जाते हैं, तो उसके लिए सरकार ही दोषी है। हम याद दिलाना चाहते हैं कि जब घात लगाकर हमला किया गया, तब सुरक्षा बल तीन दिन की कार्यवाही के बाद लौट रहे थे। नागरिक अधिकार संगठन के रूप में हम न तो सुरक्षा बलों के लड़ाकों की हत्या की निंदा करते हैं और न माओवादी लड़ाकों की हत्या की या फिर किन्ही लड़ाकों के मारे जाने की।' माओवादियों के हमदर्द बुद्धिजीवी और पीपुल्स मार्च पत्रिका के संपादक गोविंदन कुट्टी ने एक टीवी चैनल पर यही बात ज्यादा असंवेदनशील ढंग से कही। ऑपरेशन ग्रीन हंट का संदर्भ देते हुए उन्होंने कहा कि सुरक्षा बल जंगल में 'शिकार' करने गए थे, तो खुद शिकार हो गए। पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज ने सुरक्षा बलों की हत्या की निंदा तो की है, मगर उसके साथ ही यह मांग भी जोड़ दी है, 'हम केन्द्र व राज्य सरकारों और माओवादियों से अपील करते हैं कि वे फौरन हिंसा का त्याग करें और रचनात्मक बातचीत में शामिल हों, ताकि कॉरपोरेट/ सरकार द्वारा जबरन भूमि अधिग्रहण, विस्थापन और आदिवासी अधिकार जैसे जनता को प्रभावित करने वाले असली मुद्दे हल किए जा सकें Ó बयान का सीधा निहितार्थ यह है कि जनता को प्रभावित करने वाले असली मुद्दों में एक पक्ष माओवादी हैं, और इनके समाधान में उनसे बातचीत जरूरी है। ये चंद मिसालें हैं, मानव/ जनतांत्रिक/ नागरिक अधिकारों' के नाम पर एक खास राजनीति को साख प्रदान करने की। बहरहाल, बातचीत के सवाल पर हम बाद में लौटेंगे, पहले 'नागरिक अधिकार संगठन' के रूप में पीयूडीआर की भूमिका पर एक नजर डाल लेते हैं। पिछले महीने की ही बात है। एक सुबह अखबारों में पीयूडीआर समेत कई नागरिक अधिकार संगठनों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं/ बुद्धिजीवियों के छपे बयानों से खबर मिली कि सीपीआई (माओवादी) के प्रवक्ता आजाद का पुलिस ने 'अपहरण' कर लिया है। बयान में आशंका जताई गई कि पुलिस आजाद की फर्जी मुठभेड़ में हत्या कर सकती है और मांग की गई कि उन्हें जल्द से जल्द अदालत में पेश किया जाए। खबर का स्रोत सीपीआई (माओवादी) का आंतरिक संवाद पत्र था। दो दिन बाद एक ऐसे ही पत्र में बताया गया कि पार्टी को गलतफहमी हुई थी। आजाद महाराष्ट्र गए थे, जहां उनसे संपर्क टूट गया था, वह सकुशल हैं। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं/ संगठनों ने इस पत्र पर ब्रह्म वाक्य की तरह भरोसा किया। उन्होंने अपनी तरफ से इस खबर की पुष्टि की कोशिश नहीं की और माओवादी आशंकाओं और मांग को अपने सार्वजनिक बयानों में शामिल कर लिया। लेकिन जब आजाद से माओवादी पार्टी का संपर्क कायम हो गया, तो वे खामोश बैठ गए। अगर ये संगठन ईमानदारी से इस बात में यकीन रखते हैं कि माओवादी जिस 'क्रांति' के लिए लड़ रहे हैं, उसके सफल हुए बिना आम जन के जनतांत्रिक या मानवाधिकारों की सुरक्षा नहीं हो सकती, तो उन्हें यह बात साफ तौर पर कहनी चाहिए। उन्हें इस पर परदा डालने की कोशिश नहीं करनी चाहिए कि वे भी उस 'क्रांतिकारी' परियोजना का हिस्सा हैं और इसमें अपनी भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन सच होने पर भी ये संगठन ऐसा नहीं कहेंगे, क्योंकि उन्होंने अपनी भूमिका मौजूदा व्यवस्था में मिले जनतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए जंगलों में छापामार युद्ध लड़ रहे 'क्रांतिकारियों' की मदद करने की बना रखी है। माओवादियों से बातचीत की वकालत करने वाले बुद्धिजीवी क्या इस बात से नावाकिफ हैं कि खुद माओवादी पार्टी की बातचीत में कोई रूचि नहीं है और इसके लिए हिंसा छोड़ऩे की बुनियादी शर्त मानने को वे तैयार नहीं हैं? कुछ समय पहले उसके प्रवक्ता आजाद ने एक अंग्रेजी पत्रिका में यह लिखा था, 'माओवादियों से हथियार डालने के लिए कहना उन ऐतिहासिक एवं सामाजिक-आर्थिक पहलुओं के प्रति घोर अज्ञानता को जाहिर करता है, जिनकी वजह से माओवादी आंदोलन का उभार हुआ है।' फिर माओवादियों से पांच साल पहले आंध्र प्रदेश में हुई बातचीत का अनुभव क्या रहा? इस सवाल को पूछने का यह मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि सरकार जब वार्ता की बात करती है, तो उसका इरादा नेक होता है। वह भी जनतांत्रिक दायरे में अपनी कार्यवाही की नैतिक साख कायम करने के मकसद से ही यह शिगूफा छोड़ती है। हकीकत यह है कि दोनों पक्षों के मकसद इतने अलग हैं कि बातचीत की बात महज एक छलावा है। राजसत्ता पर सशस्त्र कब्जा माओवादियों का लक्ष्य है, जबकि भारतीय राजसत्ता का मौजूदा स्वरूप अपने समाज की वर्ग संरचना से बना है। जाहिर है, मौजूदा राजसत्ता विषमता और शोषण पर आधारित है। पर अगर वस्तुगत नजरिये से देखा जाए, तो इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय राज्य विभिन्न विकास क्रमों से गुजरते हुए आज जिस मुकाम पर है, वह पहले की तुलना में ज्यादा लोकतांत्रिक है या इसके उत्तरोत्तर लोकतांत्रिक होने की संभावना है। बहरहाल, विषमता और शोषण से संघर्ष का अकेला रास्ता वही नहीं है, जिसे माओवादियों ने अपनाया हुआ है। यह एक ऐसा विमर्श है, जिसमें हस्तक्षेप करने वाले हर संगठन एवं व्यक्ति से यह मांग की जानी चाहिए कि वह इस बुनियादी सवाल पर एक साफ राजनीतिक स्टैंड ले। माओवादियों ने बीते महीनों में 'क्रांति' के अपने अति उत्साह में अंधाधुंध हिंसा का सहारा लेकर वाम जनतांत्रिक जनमत में फूट पैदा कर दी है। और अब यह साफ हो गया है कि वे आदिवासियों या हाशिये के लोगों की लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं। बल्कि वे इन वर्गों के मुद्दों का इस्तेमाल उस 'जन युद्ध' को आगे बढ़ाने के लिए कर रहे हैं, जिससे वे राजसत्ता पर कब्जा कर सकें। इस बात को इसी रूप में कहा जाना चाहिए। इस पर मानवाधिकारों' का मुलम्मा नहीं चढ़ाया जाना चाहिए। दरअसल, ऐसी कोशिशों में शामिल होकर मानवाधिकार संगठन खुद अपनी साख खत्म कर रहे हैं। वे उस वाम-जनतांत्रिक दायरे में भी अपनी छवि खराब कर रहे हैं, जिसके समर्थन के बिना वे समाज में कोई सकारात्मक योगदान नहीं कर सकते।

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