सोमवार, 24 मई 2010

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस : आजादी के महानायक

यद्यपि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में भारत माता ने ऐसे अनेक नर-पुंगवों को जन्म दिया था, जिनकी तुलना विश्व के किसी अन्य देश से नहीं की जा सकती। किन्तु इसके बावजूद इसे अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध संचालित राष्ट्रीय आन्दोलन की त्रासदीपूर्ण विडम्बना ही कहा जाएगा कि आवेदनकर्ता, उदारवादी, संविधानवादी, राष्ट्रवादी, क्रान्तिकारी, जनान्दोलनकारी धाराओं के पुरोधा एक-दूसरे के पूरक न बन सके। फलत: भारत माता को बन्धनमुक्त कराने में केवल एक सुदीर्घ कालखण्ड ही व्यतीत नहीं हुआ, अपितु स्वातंत्र्य देवी का पदार्पण भी मातृभूमि के पातकीय विभाजन के साथ हुआ। इस विषय में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की यह टिप्पणी अत्यंत महत्वपूर्ण है कि दुनिया के अन्यान्य देशों में 'अन्य नेतागण अपने-अपने देश को कम अनुयायियों के साथ और अल्प कालावधि में स्वतंत्र कराने में सफल रहे हैं। (देखिए, नेताजी-कलेक्टिड वर्क्स, खण्ड-2, 1981, पृष्ठ 329)। इस दुर्भाग्यपर्ण स्थिति का मुख्य कारण वर्ष 1920 में लोकमान्य तिलक के असामयिक निधन के उपरान्त राष्ट्रीय आन्दोलन का संचालन मूलत: पाश्चात्य राजनीतिक सिद्धान्तों और मनोरचना के आधार पर किया जाना है और उसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय आन्दोलन के मूर्धन्यतम नेता ने अपने से मत-भिन्नता रखने वाले प्रत्येक राजनेता और राजनीतिक समूह को अपना विरोधी मानकर उनको नेस्तोनाबूद करने में अपने प्रयासों की पराकाष्ठा कर दी। एक संक्षिप्त लेख के कलेवर में इस कुचक्र का शिकार बनने वाले महापुरुषों का नामोल्लेख तक कर पाना सम्भव नहीं है, फिर भी यह उल्लेखनीय है कि 23 जनवरी, 1897 को अवतरित हुए और अपने सम्पूर्ण जीवन की आहुति भारत माता के बन्धन काटने में चढ़ा देने वाले सुभाष बाबू उनमें से एक ऐसे अत्यन्त प्रमुख राजनेता हैं, जो 1916 में प्रेसीडेंसी कालेज, कोलकाता से उस वक्त निष्कासित कर दिए गए थे जब वे बी.ए. के विद्यार्थी थे। वर्ष 1919 में दर्शन शास्त्र विषय में प्रथम श्रेािी में बी.ए. (आनर्स) की उपाधि कलकत्ता विश्वविद्यालय से अर्जित करने के बाद इंग्लैण्ड में मात्र आठ मास के अध्ययन उपरान्त आई.सी.एस. की प्रतियोगात्मक परीक्षा उतीर्ण कर उन्होंने योग्यता सूची में चतुर्थ स्थान प्राप्त किया। किन्तु ब्रिटिश शासन की पराधीनता से घोर वितृष्णा के कारण अप्रैल, 1921 में इंग्लैण्ड में अपने निवास के दौरान ही उससे त्यागपत्र दे दिया। जुलाई, 1921 में भारत आने पर सर्वप्रथम वे गांधी जी से मिले, किन्तु उनसे हुए वार्तालाप से सन्तुष्ट न होने के कारण उन्होंने कलकत्ता जाकर देशबन्धु चित्तरंजनदास से भेंट की और उनके सम्पूर्ण जीवन-काल में वे उनके अत्यंत निष्ठावान अनुयायी बने रहे। महात्मा जी को सुभाष बाबू का यह कार्य रुचिकर नहीं लगा, क्योंकि 1923 में धारा सभाओं अथवा काउंसिल प्रवेश को लेकर इनके देशबन्धु के साथ इतने गम्भीर मतभेद हो गए थे कि 1924 से 1928 के दौरान गांधी जी ने अपने-आपको राजनीतिक गतिविधियों से पूरी तरह अलिप्त कर लिया था। सुभाष बाबू को भारतीय राजनीतिक क्षितिज से तिरोहित करने की पराकाष्ठा यद्यपि जनवरी, 1939 में उनके द्वारा डा. पट्टाभि सीतारमैय्या को पराजित करने की घटना से सम्बंधित है, क्योंकि उस समय महात्मा जी और उनके समर्थकों ने मार्च, 1939 के कांग्रेस अधिवेशन में अध्यक्ष के रूप में सुभाष बाबू द्वारा प्रस्तुत छह मास में भारत को स्वाधीनता देने से संबंधित अन्तिमेत्थम्-प्रस्ताव न केवल ठुकरा दिया था, अपितु उसके साथ ही कांग्रेस कार्यसमिति का गठन करना भी असम्भव बना दिया था। दुर्विपाक से कांग्रेस के अन्दर क्रियाशील समाजवादी समूह भी सुभाष बाबू के विरोध में आ डटा था। इसके पूर्व सितम्बर, 1938 में जर्मनी और ब्रिटेन के बीच हुए कथित म्यूनिख समझौते के तुरन्त बाद जब कांग्रेसाध्यक्ष के रूप में सुभाष बाबू ने सम्पूर्ण देश में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध खुला संघर्ष करने के उद्देश्य से देशवासियों में बड़े पैमाने पर अपना अभियान आरम्भ किया तब उसका भी खुला विरोध गांधी जी के अनुयायियों द्वारा किया गया, क्योंकि प्रान्तीय स्वायत्तता के अन्तर्गत सत्ता संभालने वाले कांग्रेस के राजनेता अपना मंत्री पद खतरे में डालने को सिद्ध नहीं थे। फलस्वरूप सुभाष बाबू ने 29 अप्रैल, 1939 को कांग्रेसाध्यक्ष पद और कांग्रेस से त्यागपत्र देकर फारवर्ड ब्लाक नामक संस्था की स्थापना की थी। (देखिए, वही, पृ. 371-373)। इसके पूर्व भी पूर्ण स्वाधीनता के प्रस्ताव को लेकर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के विरुद्ध एक जबरदस्त अभियान चलाया गया था। देश और विदेश में बहुत कम लोगों को इस सच्चाई की जानकारी होगी कि कांग्रेस के द्वारा पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव वर्ष 1929 के अन्त में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में सम्पन्न कांग्रेस अधिवेशन के पूर्व ही पारित किया जा चुका था। तथ्य यह है कि इस घटना के कई वर्ष पूर्व कांग्रेस में बढ़ती हुई युवा शक्ति के जबरदस्त आग्रह पर प्रान्तीय कांग्रेस समितियां पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव पारित कर अखिल भारतीय कांग्रेस महासमिति से उसे सार्वदेशिक स्तर पर स्वीकार करने का अनुरोध कर रही थीं। फलत: दिसम्बर, 1927 के अन्त में मद्रास में डा. एम.ए. अंसारी की अध्यक्षता में सम्पन्न कांग्रेस अधिवेशन में पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया गया था। किन्तु गांधी जी ने अधिवेशन समाप्ति के तुरन्त बाद एक सार्वजनिक वक्तव्य में यह घोषणा की कि उक्त प्रस्ताव 'जल्दबाजी में बिना गम्भीर विचार-विनिमय के पारित किया गया है।' यद्यपि महात्मा जी स्वयं मद्रास कांग्रेस में उपस्थित नहीं थे। तदुपरान्त 1928 में सर्वदलीय सम्मेलन में मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में बनी सांविधानिक समिति ने बहुमत से कांग्रेस का लक्ष्य पूर्ण स्वाधीनता के स्थान पर 'डोमिनियन स्टेटसÓ प्राप्त करने की सिफारिश की थी। किन्तु सुभाष बाबू और उनके समर्थकों को वह स्वीकार्य नहीं था। अत: दोनों पक्षों में सहमति बनाने के लिए नवम्बर, 1928 में मोतीलाल नेहरू ने एक फार्मूला प्रस्तुत किया, जिसे गांधीजी सहित सुभाष बाबू और दोनों के समर्थकों ने स्वीकार कर लिया। किन्तु दिसम्बर, 1928 में आयोजित कलकत्ता कांग्रेस ने महात्माजी ने मोतीलाल नेहरू के दिल्ली-फार्मूले को मानने से इनकार कर दिया। इसके परिणामस्वरूप पूर्ण स्वाधीनता और 'डोमिनियन स्टेटस' के प्रश्न को लेकर अधिवेशन में मतदान हुआ। गांधी जी के समर्थकों द्वारा जोर-शोर से यह प्रचार करने के कारण कि यदि 'डोमीनियन स्टेटस' को अस्वीकृत किया गया तो गांधी जी कांग्रेस की गतिविधियों से अपने आपको सर्वदा के लिए अलग कर लेंगे, मतदान में 'डोमीनियम स्टेटसÓ के पक्ष में 1350 मत और पूर्ण स्वाधीनता के समर्थन में 973 मत आए। (देखिए, वही, पृ. 161-175)। किन्तु इसके एक वर्ष बाद दिसम्बर 1929 में लाहौर में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में स्वयं गांधी जी ने पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव प्रस्तुत किया, जोकि मद्रास कांग्रेस की ही भांति सर्वसम्मति से पारित हुआ था। (देखिए, वही, पृ. 192)। सुभाष बाबू के विरुद्ध इससे भी बड़ा गुनाह देश की स्वाधीनता प्राप्ति का श्रेय उन्हें और उनके नेतृत्व में युद्ध-क्षेत्र के अन्दर अद्वितीय वीरता दिखाने वाले आजाद हिन्द फौज के जवानों को न देकर इस मिथ्या-प्रचार को जाता है कि भारत को स्वतंत्रता अहिंसा के मार्ग से गांधी जी के नेतृत्व में प्राप्त हुई है। इस पर टिप्पणी करते हुए सुप्रसिद्ध काकोरी काण्ड के एक अप्रतिम स्वतंत्रता सेनानी शचीन्द्रनाथ बख्शी ने वर्ष 1964 में एक लेख के माध्यम से कहा था कि 'अहिंसा से ही मुल्क आजाद हुआ', इस झूठे प्रचार के बाद, आज ऐसा समय आ गया है जब अहिंसा का प्रचार करना देशद्रोह समझा जाने लग गया है।' (देखिए, शचीन्द्रनाथ बख्शी- 'वतन पे मरने वालों का....Ó पृष्ठ 92)। इसी भांति क्रान्तिकारी आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी करने वाले मन्मथनाथ गुप्त और सुप्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफेसर आर.सी. मजूमदार ने स्वाधीनता-प्राप्ति का श्रेय नेताजी को दिए जाने की पुष्टि की है। प्रोफेसर मजूमदार ने अंग्रेजी भाषा के अपने ग्रन्थ 'भारत में स्वाधीनता का इतिहास-खण्ड 3 के पृष्ठ 609-610 पर लिखा है कि 1947 में स्वतंत्रता-प्राप्ति में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का योगदान महात्मा गांधी से किसी भी प्रकार कम नहीं था, सम्भवत: वह उससे अधिक महत्वपूर्ण था। ' इस सन्दर्भ में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कथन भारत को स्वतंत्रता प्राप्त होने के समय ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली के हैं, जिनके शासन काल में देश स्वतंत्र हुआ। फरवरी, 1947 में ब्रिटेन के हाउस आफ कामन्स में भारत को स्वाधीन करने के विषय में उन्होंने स्पष्ट शब्दों में घोषणा की थी कि ब्रिटेन भारतीयों को स्वतंत्रता दे रहा है, क्योंकि अब भारतीय सेना ब्रिटिश राजसत्ता के प्रति राजभक्त नहीं रही है और ब्रिटेन भारत को अपने अधीन बनाये रखने के लिए अंग्रेजों की बहुत बड़ी सेना को भारत में रखने की स्थिति में नहीं है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली की इस विवशता की पुष्टि आजाद हिन्द फौज के सेनाधिकारियों के विरुद्ध कोर्ट मार्शल की कार्रवाई का भारतीय सेनाधिकारियों द्वारा एक स्वर से विरोध करने-जिसके फलस्वरूप ब्रिटिश राज्य सत्ता को अपनी योजना रद्द करनी पड़ी, 20 जनवरी, 1947 को कराची में भारतीय वायुसेना के द्वारा प्रारम्भ की गई हड़ताल और उसके लाहौर, मुम्बई और दिल्ली में फैल जाने, 29 फरवरी, 1947 को मुम्बई में नौसेना के 5000 जवानों द्वारा आजाद हिन्द फौज के बिल्ले लगाकर हड़ताल करने तथा कलकत्ता, दिल्ली, मद्रास और कराची के उसकी चपेट में आने की आशंका, मुम्बई में हड़ताली नौसैनिकों द्वारा अंग्रेज सेनाधिकारियों की गोलियों का जवाब सात घंटे तक गोलियों से देने और अन्तत: लार्ड वेवेल द्वारा सरदार पटेल की मध्यस्थता से समझौता करने आदि की घटनाओं से हो जाता है। इतना ही नहीं, बीसवीं शताब्दी में साठ के दशक में जब क्लीमेंट एटली लार्ड के रूप में भारत यात्रा पर आए तब वे कलकत्ता के राजभवन में राज्यपाल के मान्य अतिथि बनकर 3 दिन रुके थे। उस समय राज्यपाल महोदय ने लार्ड एटली से जब यह जानकारी चाही कि 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के पूरी तरह विफल हो जाने और दूसरे महायुद्ध में ब्रिटेन और उसके मित्र-राष्ट्रों को निर्णायक विजय प्राप्त हो जाने पर भी ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने भारत को स्वतंत्र करने का निर्णय क्यों लिया? तब इस पर लार्ड एटली का उत्तर था कि इसके अनेक कारण थे जिनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की भूमिका थी जिसने भारत की थल और नौसेना की ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठा के आधार को ही पूरी तरह हिला दिया था। इस पर जब राज्यपाल ने उनसे आगे यह जानकारी प्राप्त करनी चाही कि इस महत्वपूर्ण परिवर्तन में गांधी जी का कितना योगदान था तब उसे सुनकर एटली के होंठ एक तिरस्कारपूर्ण मुस्कान के साथ फैल गए और उन्होंने धीरे-धीरे अपने एक-एक अक्षर पर जोर देते हुए कहा कि न्यूनतम। इससे स्पष्ट है कि भारत को राजनीतिक आजादी प्राप्त कराने में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और उनके नेतृत्व में सक्रिय आजाद हिन्द फौज की निर्णायक भूमिका रही है। इतिहास की इस सच्चाई को उनके 113 वें जन्म दिन के पावन अवसर पर पहचानने की सर्वाधिक आवश्यकता है।

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