बुधवार, 12 मई 2010

लंदन तक चली तेग हिन्दुस्थान की...

सन् 1857 में जब पूरे देश में क्रांति की ज्वाला धधकी, तब लाखों भारत-संतानों ने कुर्बानी दी थी, पर अंत में अपने ही देश के कुछ कपूतों के कारण वह स्वातंत्र्र्य- यज्ञ अधूरा रह गया। अंग्रेजों ने तब बंदी बनाए जफर बहादुरशाह से कहा था-
दमदमे में दम नहीं, अब खैर मांगो जान की।
ए जफर! अब चल चुकी तलवार हिन्दुस्तान की।।
तब बहादुरशाह जफर ने आत्मविश्वास के साथ अंग्रेजों से अपनी भाषा में कहा-
बागियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की।
तख्ते लंदन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की।।
उस समय बादशाह जफर के मुंह से जो शब्द निकले, उनमें भारत की आत्मा की आवाज ही मुखरित हुई, जिसे भारत के सपूतों ने 52 वर्ष बाद तब साकार कर दिया जब 1 जुलाई 1909 को अमृतसर में जन्मे भारत के बेटे मदनलाल ढींगरा ने लंदन के भारत भवन में कर्जन वाइली को गोलियों से भून दिया तथा इस तरह भारतीय विद्यार्थियों के लंदन में हो रहे अपमान का बदला लिया। अंग्रेजों ने इस शहीद को 17 अगस्त 1909 को 'न्याय की नौटंकी' के बाद फांसी पर लटका दिया। स्मरणीय है कि यह भारत भवन लंदन में 'इंडिया हाउस' के नाम से प्रसिद्ध था और यहां क्रांतिवीर सावरकर तथा भारत के देशभक्त युवक इकठ्ठे होते थे। यहीं गुरु तथा शिष्य अर्थात वीर सावरकर तथा मदनलाल ढींगरा का मिलन हुआ और इसी ढींगरा ने कर्जन वाइली को समाप्त करके भारत के खून की गर्माहट का परिचय दिया था। मदनलाल का जन्म अमृतसर के एक जिक्षित परिवार में हुआ था। परिवार धनी था, इसलिए पंजाब विश्वविद्यालय से बी.ए. परीक्षा पास करके वे आगे पढऩे के लिए इंग्लैंड चले गए और भारत भवन में आने-जाने लगे। उस जमाने में खुदीराम, कन्हाई लाल, नरेन्द्र आदि की टोली बंगाल में खून का फाग खेल रही थी। इन समाचारों से मदनलाल के दिल में भी जोज भरा था। वह भी कुछ करने के लिए व्याकुल हो उठा और उसने अपने मन की बात वीर सावरकर से कही। सावरकर जी ने बड़े गौर से इस युवक की ओर देखा, फिर उसका हाथ जमीन पर रखा और एक छुरी हाथ में घोंप दी। यह परीक्षा थी। मदनलाल के हाथ से लहू की धारा फूट निकली, पर चेहरे पर पीड़ा का कोई चिन्ह न था। गुरु और शिष्य दोनों की आंखों से आंसू निकले तथा दोनों भावों के इस आदान-प्रदान में एक हो गए। सर कर्जन वाइली वैसे तो भारत मंत्री के 'शरीर रक्षक' के रूप में नियुक्त थे, किंतु वास्तव में वह भारतीय जत्रों पर खुफिया नजर रखने का काम करते थे, उन्हें अपमानित करते थे। भारतीय के अपमान का बदला लेने के लिए ही एक दिन मदनलाल ने उन पर गोली चला दी। ढींगरा शेर की तरह कर्जन पर झपटा और देखते ही देखते दो गोलियां उसके सीने में उतार दीं। मदनलाल की वीरता की चर्चा या यूं कहिए इंग्लैंड में ही एक अंग्रेज की हत्या का समाचार दुनिया के सभी देशों में मोटे-मोटे अक्षरों में छपा। मदनलाल के पिता को भी यह समाचार मिला, किंतु वह अपने वीर पुत्र पर गर्व न कर सके, अपितु बहुत गुस्से में उन्होंने इंग्लैंड में तार द्वारा यह संदेश भेजा कि वह ऐसे व्यक्ति को, जो 'राजद्रोही' तथा 'हत्यारा' है, अपना पुत्र मानने से इनकार करते हैं। इधर देश में अंग्रेजों के बहुत से भारतीय गुलामों ने निंदा प्रस्ताव पारित किए, पर भारत माता के पुत्र और राष्ट्रभक्त मुस्कुरा उठे। लंदन में भी भारतीयों की एक सभा इस संबंध में हुई। सरकार के गुलाम राजभक्त तो एक के बाद एक ढींगरा के विरोध में बोलते गए, पर राष्ट्रभक्त खामोज रहने को विवज थे। रास्ता कोई न था, सावरकर बिल्कुल चुपचाप बैठे रहे। दुख की बात यह कि सभा की अध्यक्षता विपिन चंद्र पाल कर रहे थे। अंत में जब सर्वसम्मति से निंदा प्रस्ताव पास होने लगा तो वीर सावरकर शेर की तरह कड़क कर बोले-'नहीं, मुझे भी कुछ कहना है।' उनकी वकील बुद्धि वहां काम आई। उन्होंने सभा में कहा कि मदनलाल ढींगरा का मामला अभी अदालत में विचाराधीन है, इसलिए उसकी निंदा या प्रशंसा करने से मुकदमे की कार्यवाही पर असर पड़ेगा। इतने में गुस्से से लाल होकर एक अंग्रेज ने सावरकर को घूंसा मारकर कहा-'जरा अंग्रेजी घूंसे का मजा लो।' वह अंग्रेज अभी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि एक हिन्दुस्थानी ने उसके सर पर डंडा दे मारा और कहा, 'जरा हिन्दुस्थानी डंडे का मजा लो।' सभा में खलबली मच गई और बिना कोई प्रस्ताव पारित किए लोग चले गए। मदनलाल रंगे हाथों पकड़े गए थे। लंदन शहर के एक प्रतिष्ठित सरकारी अधिकारी को उन्होंने मारा था। फांसी उन्हें होगी ही, यह सब जानते थे फिर भी उन्होंने अदालत में दिल खोलकर अपनी बात कही, न कहीं भय न पश्चाताप। उन्होंने कहा, 'हमारे सैकड़ों देशभक्तों को अमानवीय यातनाएं दी जा रही हैं। काले पानी में नरक का जीवन दिया गया है। हर कदम पर भारतीयों का अपमान हो रहा है। मैंने उसी का एक साधारण सा बदला उस अंग्रेज के रक्त से लेने का प्रयास किया है। मैंने तो केवल अपना कर्तव्य पूरा किया है। एक जाति, जिसको विदेशी संगीनों तले दबाए रखा जा रहा है, उसके लिए खुला युद्ध संभव नहीं है, इसलिए यह मेरा एक छोटा सा प्रयास है। एक हिन्दू होने के नाते मैं यह समझता हूं कि यदि हमारी मातृभूमि के विरुद्ध कोई अत्याचार करता है तो वह ईश्वर का अपमान करता है। मातृभूमि की सेवा ही श्रीराम और श्रीकृष्ण की सेवा है। मेरे जैसी भारत की एक संतान, जिसके पास न धन है न बुद्धि, इसके सिवाय और क्या कर सकती है कि भारत मां की यज्ञवेदी पर अपना रक्त अर्पण करे। भारतवासी इस समय केवल इतना ही कर सकते हैं कि वे देश के लिए मरना सीखें और इसको सीखने का एकमात्र उपाय यह है कि वह पहले स्वयं मरें। मैं मरूंगा और मुझे इस शहादत पर गर्व है। ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि जब तक मेरा देश स्वाधीन न हो जाए तब तक मैं बार-बार उसी माता के गर्भ से पैदा होऊं और राष्ट्र के लिए प्राण अर्पण करूं-वंदेमातरम।' अंग्रेजों ने न्याय का नाटक तो किया, पर मदनलाल ढींगरा के लिए फांसी का दंड निश्चित हो गया था। जेल में रहते हुए मदनलाल ढींगरा ने किसी से भी मिलने से इनकार कर दिया। वह केवल वीर सावरकर से ही मिलना चाहते थे। जब उन्हें यह पता चला कि उनके पिता ने भारत से रुपये भेजकर उनके लिए वकील तय करने का प्रयास किया है तो उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि वह किसी भी देशद्रोही के धन से अपनी वकालत नहीं करवाएंगे। मदनलाल ढींगरा अपना अंतिम वक्तव्य फांसी से पहले प्रकाशित करवाना चाहते थे, जो बहुत कठिन कार्य था। परंतु एक विदेशी महिला की मदद से उनकी फांसी के दिन सुबह फ्रांस से सभी अखबारों में वह सब कुछ छप गया जो ढींगरा अपने देश और दुनिया से कहना चाहते थे। 17 अगस्त 1909 को मदन लाल ढींगरा को लंदन की पैटनविले जेल में फांसी दे दी गई। फांसी से पहले ढींगरा से जब यह पूछा गया कि उसकी कोई अंतिम इच्छा? तो दुनिया को हैरान करते हुए उन्होंने एक कंघी और शीशा मांगा। पूछने पर बताया कि वह अपने विश्वविद्यालय में अपने बालों को सुंदर तरीके से काढऩे के लिए जाने जाते थे। वह चाहते हैं कि मौत से मिलने भी वह उसी तरह सज धज कर जाएं। उन्होंने अपने अंतिम समय गीता ग्रंथ को ही अपने साथ रखा। अपनों से दूर, देश से दूर लंदन की पैटनविले जेल में 'भारत माता की जय' कहते हुए ढींगरा जहीद हो गए। उनके भारत भवन के कुछ साथी ही उनके लिए नहीं तड़प रहे थे, अपितु भारत की हर एक राष्ट्रभक्त संतान उस दिन मदन लाल को प्रणाम कर रही थी। उनका दिल अपने इस बहादुर बेटे के लिए रो भी रहा था, पर माथा जान से ऊंचा था। यहां यह भी याद रखना होगा कि सन् 1940 में इसी जेल में जलियांवाला बाग के अपमान का बदला लेने वाले शहीद ऊधम सिंह को भी फांसी दी गई थी। लंदन की पैटनविले जेल हर भारतीय के लिए बलिदान का मंदिर है। मुझे भी एक बार लंदन जाने का अवसर मिला तो वहां मेरे लिए यही मंदिर था। वहां जाकर लग रहा था मानो आज भी इस जेल की दीवारें मदनलाल और ऊधम सिंह के नारों से गूंज रही हैं। आज हमारे बहुत से देशवासी विदेश जाने की चाह रखते हैं, जाते भी हैं, पर कितना अच्छा हो अगर वे पैटनविले जेल को प्रणाम करने अवश्य जाएं। वीर सावरकर के साधना केन्द्र का दर्जन करें और लंदन के बीचोंबीच खड़े उस कैक्स्टन हाल में भी जाएं जिसकी दीवारें जहीद ऊधम सिंह की वीरता की साक्षी हैं। 17 अगस्त 2009 को मदन लाल ढींगरा की शहादत को पूरे सौ साल हो गये, पर अपने देश में उनका कोई भी योग्य स्मारक नहीं, अमृतसर में भी नहीं। प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी मादाम कामा ने कहा था कि मदनलाल ढींगरा का बलिदान अद्भुत और अनुपम है। देश के हर चौराहे पर उनकी प्रतिमा लगेगी। अफसोस कि देशवासियों को आज अपने मदनलाल की याद ही नहीं। अच्छा हो कि उनकी शहादत के इस शताब्दी वर्ष में हम अपनी उस भूल पर पश्चाताप करें और भारत के हर बेटे-बेटी को शहीद ढींगरा के अमर बलिदान से परिचित करवाएं।

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