गुरुवार, 27 मई 2010

विभाजन-गाथा का एक विस्मृत पन्ना-4

एक बौद्धिक आस्था और विश्वास को लेकर मुंशी जी अकेले ही अखंड हिन्दुस्थान की पताका लेकर लोक जागरण और राष्ट्रीय मोर्चे के निर्माण के लिए भारत भ्रमण पर निकल पड़े। उन्होंने पूरे उत्तर भारत की यात्रा की। इस यात्रा में वे कांग्रेसजनों और गैर कांग्रेसियों, दोनों से मिले। उन्होंने अपनी आंखों से देखा कि किस प्रकार "पाकिस्तानी दंगों" के द्वारा राष्ट्रवाद को देश-विभाजन की मांग के सामने झुकने को मजबूर किया जा रहा है। सुनियोजित दंगों की आग क्रमश: नए-नए प्रांतों में फैलती जा रही थी। पंजाब में सरगोधा और सिंध में सक्कर शहर भी इन लपटों में घिर चुके थे। इन दंगों के कारण हिन्दू मन बहुत अधिक उद्वेलित था, किंतु अपने को नेतृत्व विहीन और असहाय पा रहा था। मातृभूमि की स्वतंत्रता की उत्कट आकांक्षा को लेकर वह गांधी जी के प्रभावशाली व्यक्तित्व के कारण कांग्रेस के झंडे तले इक_ा हो गया था। कांग्रेस संगठन का जाल पूरे भारत के ग्रामों और नगरों में फैला हुआ था। प्रत्येक जाति, प्रत्येक भाषा, प्रत्येक वर्ग और प्रत्येक प्रांत में सत्याग्रह आंदोलनों के माध्यम से ऐसा नेतृत्व उभर आया था जिसे लोग जानते और मानते थे। अत: पूरे देश की आशाएं इसी नेतृत्व पर टिकी थीं। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह नेतृत्व विभाजन कतई नहीं चाहता था। गांधी जी ने स्वयं मार्च 1940 के मुस्लिम लीग प्रस्ताव पर प्रतिक्रिया करते हुए 13 अप्रैल 1940 के हरिजन के अंक में द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को ठुकराते हुए लिखा था, "मैं इस विचार को कदापि स्वीकार नहीं कर सकता कि वे लाखों भारतीय जो कल तक हिन्दू थे, इस्लाम मजहब को कबूल करते ही अपनी राष्ट्रीयता को बदल बैठे।" उन्होंने कहा कि "भारत विभाजन मेरे शरीर के टुकड़े करने जैसा है।"
कांग्रेस की चारित्रिक दुर्बलता
पर प्रश्न था कि क्या मुस्लिम लीगी हिंसा का मुकाबला गांधी जी की अहिंसा से किया जा सकता है? कितने कांग्रेसजनों ने अहिंसा का आचरण करने लायक आत्मबल और चित्त-शुद्धि अर्जित की थी? क्या वे उसे अंग्रेज सरकार के विरुद्ध एक रणनीतिक हथियार के रूप में ही नहीं अपना रहे थे? दो वर्ष तक सत्ता के उपभोग ने उनकी मानसिकता को बहुत दुर्बल और दूषित कर दिया था। बम्बई प्रांत के गृहमंत्री के नाते और बाद में भारत-विभाजन के लिए "पाकिस्तानी दंगों" के दौरान मुंशी जी ने कांग्रेस की चारित्रिक दुर्बलता का प्रत्यक्ष साक्षात्कार किया। अपने अनुभव को उन्होंने गांधी जी को 8 सितम्बर 1941 के लम्बे पत्र में स्पष्ट शब्दों में लिखा-
"आपने पूरे बीस साल तक हमें शक्ति देने का प्रयास किया। पर हम इतनी भी शक्ति उत्पन्न नहीं कर पाये कि हम प्रांतों में मिली सीमित सत्ता को भी सुरक्षित रख पाते। हम शक्तिहीन हैं। हम केवल वाक्-शूरता दिखा सकते हैं। अधिक से अधिक हम गिरफ्तारी दे सकते हैं, बशर्ते कि हमें कुछ ही महीनों के बाद छूटने का भरोसा हो।" पर, यह सब होते हुए भी मुंशी जी को विश्वास था कि प्रकृति ने भारत को अखंड बनाया है। केदारनाथ से कन्याकुमारी तक और कामाख्या से कराची तक भारत अखंड है। सहरुाों वर्षों के संस्कारों के कारण भारतीय मन उसे भारत माता के रूप में पूजता है। उसकी मुक्ति के लिए व्याकुल और संघर्षरत है। अत: उसके विभाजन की मांग उसे भीतर से झकझोर डालेगी और वह अपने सब मतभेदों को भुलाकर एकता के सूत्र में बंध जाएगा, मातृभूमि के विभाजन के षड्यंत्र को पूरी शक्ति से परास्त कर देगा। इसी विश्वास को लेकर मुंशी जी भारत यात्रा पर निकल पड़े। उन दिनों कांग्रेस के अलावा हिन्दू महासभा ही दूसरा संगठन थी जो विनायक दामोदर सावरकर के नेतृत्व में स्वयं को कांग्रेस के राष्ट्रवादी विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर रही थी और अखंड भारत के लिए प्रतिज्ञाबद्ध थी। सावरकर जी ने मुंशी को दिल्ली में होने वाली अपनी कार्यसमिति की बैठक में भाग लेकर अपने अखंड हिन्दुस्थान दौरे के अनुभव के आधार पर देश की वर्तमान स्थिति को प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया। मुंशी वहां गए और अपने अनुभव सुनाए। उन्होंने बताया कि हिन्दू मन इस समय बहुत उद्वेलित और चिंतित है। अनेक कांग्रेसजन भी मान रहे हैं कि "पाकिस्तानी दंगों" का हिंसक प्रतिरोध आवश्यक है, किंतु गांधी जी और कांग्रेस नेतृत्व इस रास्ते को अपनाने को तैयार नहीं है। अत: यदि मुस्लिम हिंसा की चुनौती का मुकाबला करना है तो ऐसे गैर गांधीवादी नेतृत्व की खोज करनी होगी जो जनता के बीच लोकप्रिय हो और जिसका अपना जनाधार भी हो। तभी हम मुस्लिम लीग पर से "विजेता जाति" मानसिकता का भूत उतार पाएंगे। मुंशी जी ने हिन्दू महासभा कार्यसमिति को स्पष्ट कहा कि ऐसा जनाधार युक्त लोकप्रिय नेतृत्व अभी उन्हें दिखाई नहीं दिया। मुंशी जी लिखते हैं कि गैर कांग्रेसी नेता ऐसा नेतृत्व बनाने के बजाय कांग्रेस और गांधी जी की आलोचना में ही अपनी पूरी शक्ति खर्च कर रहे थे। दूसरी ओर हिन्दू नेतृत्व भी जिन्ना से गुप्त मुलाकात करके उन्हें मनाने में जुट गया था। डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मुंशी जी से मित्रता थी। उन्होंने मुंशी जी की दिल्ली यात्रा के समय उन्हें बताया कि जिन्ना ने उन्हें कहा कि यदि हिन्दू विभाजन की मांग को सिद्धांतत: स्वीकार कर लें तो मैं सत्ता हस्तांतरण के लिए उनका साथ दूंगा, किंतु साथ ही शर्त लगा दी कि यदि डा. मुखर्जी ने मेरे इस प्रस्ताव को सार्वजनिक किया तो मैं मुकर जाऊंगा।
डाक्टर जी का आह्वान
हिन्दू महासभा की कार्यसमिति की बैठक से मुंशी जी को निराशा ही हाथ लगी। उन्हें लगा कि "सावरकर भी मुझे बुलावा देने से प्रसन्न नहीं लगे।" वे चाहते थे कि मुंशी हिन्दू महासभा में आ जाएं, जिसके लिए मुंशी तैयार नहीं हुए। उन्होंने गांधी जी को 8 सितम्बर वाले पत्र में लिखा कि, "मेरा हिन्दू महासभा में जाने का कोई विचार नहीं है, क्योंकि उसकी सब नीतियों और उद्देश्यों को मैं स्वीकार नहीं कर सकता।" उन दिनों यदि कांग्रेस और हिन्दू महासभा राजनीति के क्षेत्र में सक्रिय थे तो गैर राजनीतिक राष्ट्रवादी शक्ति के रूप में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तेजी से उभर रहा था। भारत की स्वतंत्रता और अखंडता के प्रति वह पूरी तरह जागरूक था। संघ के जन्मदाता डा. हेडगेवार के 21 जून 1940 को निधन के तुरंत पश्चात् प्रकाशित उनकी जीवनी में "जागतिक परिस्थिति और हिन्दुओं का भवितव्य" शीर्षक से अपने भाषण में डा. हेडगेवार ने चिंता प्रगट की थी कि, "पैंतीस करोड़ से घटते-घटते हम पच्चीस करोड़ रह गये हैं। हमारी क्षति कितनी द्रुत गति से होती जा रही है। इसके विपरीत मुसलमान लोग सबके सामने खुल्लम-खुल्ला पाकिस्तान की मांग ब्रिाटिश लोगों के सामने रख रहे हैं। इस दशा में हमें सतर्क होकर आत्म-संरक्षण के लिए संगठित हो जाना चाहिए।" जिस समय डाक्टर जी ने यह चेतावनी दी उस समय, उनके कथनानुसार, "संघ की केवल दो सौ शाखाएं हैं जिनमें बीस हजार स्वयंसेवक नित्य प्रति नियमित रूप से कार्य कर रहे हैं।" इसके कुछ समय बाद त्रयोदश वर्षीय (अर्थात् सन् 1938) सिंहावलोकन में डाक्टर हेडगेवार ने कहा, "आज तो हम 70,000 से अधिक संख्या में हैं। संघ कार्य के चौदह वर्ष पूर्ण होने पर 1939 में डा. हेडगेवार ने अपने "संदेश" में कहा, "इन चौदह वर्षों में हमने अपने कार्य का विस्तार भारतवर्ष के पंजाब, बंगाल, बिहार आदि प्राय: सभी दूर-दूर के प्रांतों में भी किया है तथा मध्य प्रांत और बम्बई प्रांत के प्रत्येक जिले और तहसील में हमारी शाखाएं सुचारू रूप से कार्य कर रही हैं।" इसी "संदेश" में डा. हेडगेवार ने माना कि अब तो हम जनता के सामने प्रकाश में आ चुके हैं। हमारे चारों ओर शत्रु और मित्र फैले हुए हैं।" उन्होंने कार्यकत्र्ताओं को अपनी गति बढ़ाने का आह्वान करते हुए कहा कि "संघ यह नहीं चाहता कि किसी क्लब या पाठशाला के समान वह भी सदियों तक जैसे-तैसे चलता रहे।...यदि उस परीक्षार्थी के समान, जो परीक्षा बिल्कुल समीप आने पर दौड़-धूप मचाता हो, कार्य करने की चेष्टा करोगे तो आखिर में खाली हाथ मलते रहना पड़ेगा। कौन कह सकता है आगे चलकर परिस्थिति कैसे पलटा खाने वाली है। पता नहीं आगामी काल के संकट के पहाड़ हमारे सिर पर कब टूट पड़ेंगे।"
पुणे संघ शाखा में मुंशी
बम्बई प्रांत के गृहमंत्री के नाते मुंशी जी को संघ की शक्ति, संगठनात्मक विस्तार और विचारधारा की जानकारी अवश्य रही होगी। अत: 6 अगस्त 1941 को वे पुणे में संघ की शाखा पर गये और वहां स्वयंसेवकों का इस संकट काल में आगे आने का आह्वान किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से मुंशी जी के मिलन का यह प्रसंग अनजाना ही रह जाता यदि मुंशी जी ने उसके तुरंत बाद जनवरी 1942 में बम्बई से प्रकाशित अपनी "अखंड हिन्दुस्थान" शीर्षक वाली अंग्रेजी पुस्तक में इस कार्यक्रम की तिथि और वह पूरा भाषण लिपिबद्ध न कर दिया होता। उन्होंने संघ शाखा पर अपना भाषण आरंभ करते हुए पहले अपनी स्थिति स्पष्ट की। उन्होंने कहा कि "मैंने कांग्रेस इसलिए छोड़ी कि मैं आत्मरक्षार्थ हिंसक बल प्रयोग को न अपनाने के कांग्रेस के सिद्धांत से स्वयं को सहमत नहीं पाता। हम एक मतभेद को छोड़ दें तो मैं अभी भी वैसा ही राष्ट्रवादी हूं जैसे मैं कांग्रेस में प्रवेश के पहले और बाद में था।" आगे उन्होंने कहा, "मेरी पक्की धारणा है कि भारत-विभाजन की मांग का एकमात्र उद्देश्य भारत में हिन्दुओं के अस्तित्व और प्रभाव को नष्ट करना है...हिन्दुओं का भविष्य बहुत संकटापन्न है। हम जातिवाद, प्रांतवाद और भाषावाद के भंवर में फंस गये हैं।...जब तक हिन्दू असंगठित और विभाजित रहेंगे तब तक वे इस कुटिल षड्यंत्र को परास्त नहीं कर पाएंगे। प्रखर राष्ट्रवाद ही हमें अन्य समुदायों का सहयोग लेते हुए शक्तिशाली बना सकता है।" उन्होंने कहा, "भारत विभाजन को रोकने में जितनी बाधा मुस्लिम कट्टरवाद की ओर से आ रही है उससे अधिक हिन्दुओं की भीरू वृत्ति की ओर से है। कठोर वास्तविकता का सामने करने के बजाय हम शब्द जाल बुनने लगते हैं। नौकरी या सूद के लालच में हम किसी भी हद तक गिरने को तैयार रहते हैं। यदि अंग्रेज हमारे सामने कुछ टुकड़े फेंक देता है तो उन्हें झपटने के लिए हम आपस में झगडऩे लगते हैं। यदि मुसलमान हमें आंखें दिखाता है तो हम अपनी भाषा, अपनी वेशभूषा, यहां तक कि संस्कृति को भी छोडऩे को तैयार हो जाते हैं। देश के सामने विभाजन का खतरा खड़ा है, पर हम उस खतरे का मुकाबला न करने के बहाने खोज रहे हैं। अपनी भीरुता को ढंकने के लिए कोई भी सहारा हमारे लिए काफी है। भयग्रस्त राष्ट्र अपना भविष्य कभी नहीं बना सकता।" हिन्दू समाज की दुर्बलताओं का वर्णन करने के बाद मुंशी जी ने संघ का आह्वान करते हुए कहा, "आपका संघ हिन्दुओं का व्यापक संगठन है। आपने हिन्दू समाज की सेवा करने और उसे बलशाली बनाने की प्रतिज्ञा ली है। इसलिए आपका पहला कर्तव्य है कि आप हिन्दुओं को निर्भयता का पाठ पढ़ाएं।" अपनी बात को बढ़ाते हुए उन्होंने कहा, "आप एक विशाल और प्रभावशाली संगठन हैं। भारत के कई भागों में आपकी बहुत अधिक शाखाएं फैली हुई हैं। आपने हिन्दू समाज को संगठित करके बलशाली बनाने का संकल्प लिया हुआ है। किंतु आप यह न भूलें कि इस समय एक नि:शस्त्र पराधीन समाज है। अखंड हिन्दुस्तान की जो लड़ाई हमारे सामने है उसमें विजय पाने के लिए समाज के सब वर्गों और भारत में रहने वाले उन सभी समाजों का, जो इस प्रश्न पर हमारे साथ हैं, सहयोग लेना होगा।" उन्होंने कहा, "अखंड हिन्दुस्थान एक यथार्थ था, है और रहेगा। हम तीस करोड़ हैं, हम एक महान संस्कृति और इतिहास के उत्तराधिकारी हैं। यदि हिन्दू धर्म खोखला होता तो हम सब मुसलमान बन गये होते। हमारे पास एक महान दर्शन और संदेश है। अखंड हिन्दुस्थान की जमीन से वह संदेश पूरे विश्व को देना है।" अपने भाषण का अंत उन्होंने इन शब्दों से किया, "भारत कभी नहीं मरेगा, क्योंकि आप उसे बचाएंगे।"
"अखण्ड हिन्दुस्थान" की राह
मुंशी जी के इस आह्वान पर संघ की क्या प्रतिक्रिया रही, इसकी कोई जानकारी हमें नहीं मिल पायी। इतना तो सत्य है कि 1939 से 1941 तक, संघ का संगठनात्मक विस्तार 70,000 की संख्या से बहुत आगे बढ़ गया होगा। जून 1940 में डाक्टर जी के असामयिक स्वर्गवास से व्यथित माधवराव मुल्ये एवं नानाजी देशमुख जैसे अनेक कार्यकत्र्ताओं ने अपना पूरा समय संघ कार्य को समर्पित करने का संकल्प लिया था। डाक्टर जी के उत्तराधिकारी श्रीगुरु जी के प्रभावशाली आध्यात्मिक नेतृत्व में महाराष्ट्र और विदर्भ के नगरों में तीन प्रतिशत और गांवों में एक प्रतिशत स्वयंसेवक खड़े करने की डाक्टर जी की अंतिम इच्छा की पूर्ति में सब प्राणपण से जुटे होंगे। पाकिस्तान के खतरे की चेतावनी डाक्टर जी ने बहुत पहले दे दी थी। अत: इस समय, जब वह खतरा सामने खड़ा था, तब संघ ने उस दिशा में क्या पहल की, इसकी कोई जानकारी कहीं से नहीं मिल पा रही। अगस्त में संघ शाखा पर उद्बोधन के पश्चात 1 नवम्बर 1941 को मुंशी जी ने कुछ उत्साही लोगों के निमंत्रण पर पंजाब के लुधियाना नगर में आयोजित अखंड हिन्दुस्थान सम्मेलन में अध्यक्षीय भाषण दिया। इस लम्बे भाषण में उन्होंने "मुस्लिम राष्ट्र" के विचार का खंडन करते हुए मुस्लिम पृथकतावाद का इतिहास प्रस्तुत किया। हिन्दू-सिख एकता का आह्वान करते हुए उन्होंने विश्वास प्रगट किया कि "अखंड हिन्दुस्थान कभी नहीं मरेगा।" पर उनका यह आशावाद पूर्ण क्यों नहीं हो पाया? यह तो सत्य है कि हिन्दू समाज की विकेन्द्रित रचना और मानसिकता को देखते हुए किसी एक संगठन के झंडे तले पूरे समाज को खड़ा करना तब संभव नहीं था। मुंशी जी की यह कल्पना ठीक थी कि "अखंड हिन्दुस्थान" जैसे किसी ढीले-ढाले मोर्चे के द्वारा ही सब राष्ट्रवादी शक्तियों का एकत्रीकरण ही व्यावहारिक होता। क्या इस दृष्टि से राष्ट्रवादी शिविर में कोई गहरा विचार-मंथन हुआ? (जारी)

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