सोमवार, 24 मई 2010

अब चुप क्यों हैं ये मानवाधिकार कार्यकर्ता?

छत्तीसगढ़ के दंतेवाडा जिले में एक के बाद एक हो रहे बर्बर माओवादी हमलों की निंदा मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को छोड़ कर सारा देश कर चुका है। आज जब इन बर्बर हमलों में मारे गए , आम नागरिकों व सुरक्षाकर्मियों के परिवार के प्रति देश भर में संवेदनाएं व्यक्त की जा रही हैं, ऐसे में इन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने शायद अपने मुंह पर पट्टी बांध ली है! कहां हैं वे मानवाधिकार कार्यकर्ता जिन्हें कथित पुलिसिया जुर्म तो नजर आ जाता है लेकिन माओवादियों ने जिस प्रकार 76 जवानों की निर्मम हत्या कर उनके पूरे घर को उजाड़ दिया,वह उन्हें नजर नहीं आ रहा है? यदि दंतेवाडा में उल्टा हुआ होता और सुरक्षाकर्मियों ने माओवादियों पर विजय पाई होती तो ये मानवाधिकार कार्यकर्ता वातानुकूलित सभागारों में सेमिनार आयोजित करते और कालेज कैंपसों में जाकर सरकार विरोधी माहौल बनाते,लेकिन अब यह क्यों चुप हैं? उन्हें सिर्फ आदिवासियों की ही गरीबी क्यों नजर आती है। माओवादी हमले में मारे गए सुरक्षाकर्मी भी गरीब परिवारों से थे,उनके बीवी बच्चों का भविष्य क्या होगा? यह शायद भगवान ही जाने। लेकिन उनके लिए कम से कम संवेदना तो व्यक्त की ही जा सकती है। क्या इसके लिए मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के पास शब्दों का अभाव हो गया है? माओवादी अथवा नक्सली झारखंड,उड़ीसा या छत्तीसगढ़ में स्कूल या कोई सरकारी कार्यालय उड़ाते हैं तो भी ये मानवाधिकार कार्यकर्ता चुप ही रहते हैं जबकि यही लोग इस बात का ज्यादा रोना रोते हैं कि इलाके में सुविधाएं नहीं होने के कारण लोग असंतुष्ट हो रहे हैं। इन मानवाधिकारवादियों को अपना दोहरा रवैया छोडऩा चाहिए और सुरक्षा की दृष्टि से उठाये गये कदमों का समर्थन करना चाहिए। आज देश में यह जनमत बन रहा है कि माओवादियों से सेना के द्वारा निपटा जाए क्योंकि अर्धसैनिक बलों पर माओवादियों ने जिस प्रकार पिछले दिनों पश्चिम बंगाल,पिछले सप्ताह उड़ीसा और इस बार छत्तीसगढ़ में धावा बोला, उससे लगता है कि हमारे अर्धसैनिक बलों के पास रणनीति और हथियारों की कमी है, यह स्थिति सेना के साथ नहीं है और उसे हर चीज में प्रशिक्षित किया गया है,ऐसे में उसकी सेवा ली जानी चाहिए और विकराल रूप लेती नक्सल समस्या से एक बार में देश को निजात दिला देनी चाहिए। फिर चाहे कितना भी बोलते रहें ये मानवाधिकार कार्यकर्ता।

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