सोमवार, 24 मई 2010

देश की सुरक्षा में सेंध लगाते नक्सलवादी-माओवादी

नक्सलवाद की त्रिमूर्ती चारु मजूमदार, जंगल संथाल और कानू सान्याल में से केवल सान्याल ही जिंदा बचे थे। यह आंदोलन उन्होंने पिछली शताब्दी के मध्य में शुरु किया था और 21 वी शताब्दी के पहले दशक के बीतते-बीतते कानू सान्याल ने नक्सलवाद की वर्तमान स्थिति को देखते हुए आत्महत्या करना ही श्रेयस्कर समझा। कहा जाता है कि कानू सान्याल जीवन की चौथ तक पहुंचते -पहुंचते इस बात को अच्छी तरह समझ गए थे कि हिंसा से किसी समस्या का अंत नहीं होता बल्कि छूत की बीमारी की तरह नई समस्याएं जन्म लेती हैं। एक बार यह समझ लेने के बाद उनके पास आत्महत्या के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचा था क्योंकि नई पीढी के नक्सलवादियों-माओवादियों के लिए कानू सान्याल गुजरा हुआ अतीत था जो निराशा में बड़बड़ा रहा था। माओंवादियों को लगता है कि उनकी क्रांति का भविष्य हिंसा पर ही आधारित है। इसलिए इस बार उन्होंने छत्तीसगढ़ में कानू सान्याल और भारत सरकार को एक साथ ही जवाब दिया। 6 अप्रैल को उन्होंने छत्तीसगढ़ के दंतेवाडा में लगभग 100 जवानों का कत्ल करके कानू सान्याल कि आत्महत्या को अप्रासंगिक बना दिया और भारत सरकार के ग्रीन हंट ऑपरेशन पर बहुत बडा प्रश्नचिन्ह लगा दिया। कहा जाता है दंतेवाडा में आपरेशन पर गयी केन्द्रीय सुरक्षाबलों की टीम पर लगभग 1000 हजार नक्सलवादियों ने घात लगाकर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण में उन्होंने आधुनिक हथियारों का प्रयोग ही नहीं किया बल्कि केन्द्रीय पुलिस सुरक्षा बल के मृत और घायल जवानों से उनके अपने हथियार और गोलाबारुद भी छीन लिया। इस आक्रमण में माओवादियों ने लैडमाईन्स का प्रयोग तो किया ही अन्य चौंकाने वाले हथियारों का भी प्रदर्शन किया। इस बात पर लम्बी बहस हो सकती है और शायद होती भी रहेगी कि केन्द्रीय सुरक्षा बलों के जवान बिना स्थिति को समझे हुए वहां क्यों गए थे? प्रधानमंत्री ने बहुत ही दु:ख ही प्रकट कर दिया है। जिस पद पर वे बैठे हैं वहां ऐसी घटनाओं पर दु:ख प्रकट करना उनकी रोजमर्रा की दिनचर्या का हिस्सा ही है। गृहमंत्री पी. चिदम्बरम भी क्रोध में हैं। शायद, इस घटना के बाद नक्सलवादियों से लडने का उनका ईरादा और भी मजबूत हो गया होगा। लेकिन नक्सलवाद से जुडे हुए कुछ ऐसे प्रश्न है जिनका उत्तर मनमोहन सिंह और चिदम्बरम को देना होगा। अनेक राज्यों के कुछ जिलों में नक्सलवाद की बढोत्तरी एक दिन में हो नहीं सकती। यह अनेकों वर्षों के सतत प्रयत्नों का हिस्सा ही था कि नक्सलवादियों ने सफलतापूर्वक अधिकांश भारत में लाल गलियारे की स्थापना कर ली है। इस लाल गलियारे में भारतीय संविधान द्वारा संचालित सरकार नहीं चलती बल्कि अपनी सरकार चलती है। इन इलाकों मे ंजो सरकारी कर्मचारी तैनात भी हैं वे भी शायद भय से माओवादियों की सरकार के सहायक के रुप में काम करते हैं। यह उनका दोष नहीं बल्कि उनकी विवशता है। लेकिन बहुत सीधा सा प्रश्न है कि पिछले दो -तीन दशकों से माओवादी धीरे-धीरे एक विशिष्ट क्षेत्र से संवैधानिक सरकार को समाप्त कर रहे थे, लेकिन उस वक्त सरकार माओवादियों को समाप्त करने के लिए क्या कर रही थी? इसका उत्तर यही मिलेगा कि सरकार कुछ नहीं कर रही थी। अलबत्ता, पश्चिमी बंगाल सरकार की लाल सरकार माओवादियों को अप्रत्यक्ष रुप से अपनी वैचारिक आधारभूमि का विस्तार ही मान रही थी और आंध्र प्रदेश में कांग्रेसी सरकार वोटों के लिए नक्सलवादियों से समझौता वार्ताएं चला रहीं थी और उन दिनों छत्तीसगढ़ में कांग्रेसी मुख्यमंत्री अजीतसिंह जोगी पर यह आरोप तो लगता ही था कि उन्होने वोटों के खातिर नक्सलवादियों से सुलह -सफाई कर ली है। ओडीसा में जब चर्च माओवादियों का प्रयोग स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या के लिए कर रहा था तो केन्द्र और राज्य सरकार दोनों ही चर्च के साथ खडी दिखाई दे रही थी। यकीनन, माओवादी इन सब के पीछे संकेतों को अच्छी तरह समझ सकते थे। अब कमोवेश स्थिति यह आ गयी है कि देश का एक हिस्सा उसी प्रकार माओवादियों के कब्जे में आ गया है जिस प्रकार लिट्टे के कब्जे में श्रीलंका का एक हिस्सा लम्बे समय रहा। अंतर केवल इतना ही है कि भारत सरकार ने कभी माओवादियों को आपराधिक टोला मानकर उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं की। इसलिए लगता था कि शायद शांति बनी हुई है। लेकिन जैसे ही गृहमंत्री चिदम्बरम ने नक्सलवादियों के खिलाफ ऑपरेशन ग्रीन हंट शुरु करने का ऐलान किया वैसे ही नक्सलवादी उत्तर देने के लिए मैदान में आ कूदे।

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