सोमवार, 24 मई 2010

गौ-संवर्धन के मौलिक सिद्धांत

भारत देश की गौमाता और गोवंश आधारित जीवन पद्धति तथा पश्चिम की अर्थव्यवस्था साथ-साथ भारत की धरती पर टिक नहीं सकते। इसकी वजह यह है कि पश्चिमी अर्थव्यवस्था हिंसा और शोषण के द्वारा पली-बढ़ी है तथा हिंसा, शोषण व अन्याय का आचरण किये बगैर उसके अस्तित्व की कल्पना नहीं हो सकती है। दोनो के बीच अपना-अपना अस्तित्व टिकाने के लिए भारी मुकाबला है। दोनों में से एक पक्ष को दूसरे के हाथों खत्म हुए बिना छुटकारा नहीं मिलने वाला है। हमारी भारतीय अर्थव्यवस्था के मूल में गाय और गौवंश हैं। गौरक्षा, वनरक्षा, भूरक्षा और जलरक्षा के द्वारा जीव सृष्टि का रक्षण और पोषण करना यही भारतीय अर्थव्यवस्था का ध्येय है। रक्षा के इन चार सिद्धांत के साथ हिन्दू धर्म, संस्कृति, समाज के ताने-बाने बुने हुए हैं। रक्षा के इन चार सिद्धातं में से अगर किसी एक को हानि पहुंचाई जाये तो चारों सिद्धांत टूट जायेंगे और समस्त भारत की प्रजा का भविष्य अंधकारमय हो जायेगा। जबकि पश्चिमी अर्थव्यवस्था जैसा कि पहले बताया गया हिंसा और शोषण पर आधारित है। पशुओं का विनाश करना, मनुष्य जाति को बेकार बनाकर प्राकृतिक खनिज संपत्ति का शोषण और संहार करने के लिए यंत्रों की मदद से समस्त विश्व का शोषण करने के प्रयास करना इसके प्रमुख कर्म हैं। भारत के गोवंश उनके शोषण कार्य में बड़े विघ्न हैं। अत: उनका नाश करने के लिये वे प्रयत्नशील रहते हैं। यांत्रिक अर्थव्यवस्था में गोवंश का कोई स्थान नहीं हैं। हां, सिर्फ मारकर खाने में उनकी थोड़ी बहुत उपयोगिता है। उनके लिये गाय सिर्फ दूध का शोषण करने के लिए एक साधन है। कम से कम समय में गाय का ज्यादा से ज्यादा दूध मशीनो के द्वारा खींचना ही वे जानते हैं। जब गाय कम दूध देने लगे तो वे उसे मारकर खा जाते हैं। इसके अलावा गाय का उनकी नजर में कोई उपयोग नहीं। लेकिन भारत में गाय मारने के लिये नहीं बल्कि पूजने के लिये है। क्योंकि हिन्दू प्रजा का अस्तित्व गाय पर निर्भर है। हिन्दू संस्कृति जलाशयो के तट पर पली-बढ़ी है। हिन्दू धर्म जंगलों और जलाशयों के संगम पर उत्पन्न हुआ है। हिन्दू अर्थव्यवस्था इसी उपजाऊ जमीन में से पैदा हुई है। गोरक्षा के बगैर वनरक्षा, भूरक्षा और जलरक्षा संभव ही नहीं है। इन चारो का नाश यानि हिन्दू प्रजा का नाश। जब प्रजा ही न होगी तो धर्म, संस्कृति, समाज तथा अर्थव्यवस्था का नामोनिशान ही कैसे रहेगा? गौमाता के इस महत्व को स्वीकार कर हिन्दू प्रजा ने गाय और उसके दूध को कभी भी व्यापार-विनिमय के साधन के रूप में नही समझा था। गौ की महत्ता को भुलवाकर उसके विनाश का मार्ग खोलने के लिए अंग्रेजी प्रचार पद्धति ने गाय और उसके दूध को व्यापारी वस्तु की तरह जनसामान्य में प्रचलित किया। गाय के आर्थिक व अनार्थिक ऐसे दो विभाग करके उसके नाश की प्रक्रिया शुरू की। हिंदू प्रजा को अपना अस्तित्व कायम रखना हो तो तुरंत इस क्रिया को रोककर खरीद-बिक्री की वस्तु बनी हुई गाय को पुन: गृहस्थ परिवार के एक सदस्य के रूप में स्थापित करना पड़ेगा। गाय के आर्थिक-अनार्थिक होने का वाद-विवाद, उसके दूध का ज्यादा या कम होने का प्रमाण तथा दूध की कीमत की बातों के मायाजाल में से जब तक हम मुक्त नहीं होंगे तब तक गाय को उसके सत्य स्वरूप को पहचान कर उसे यथास्थान पर आरूढ़ नहीं कर सकेंगे। पश्चिमी विचारशैली के ढांचे में ही रहकर उसे बचाने की बातें करते रहेंगे तो गाय और पूरे गोवंश का सत्यानाश हो जायेगा। गाय परिवार का पोषण करने वाली माता है। परिवार की एक माननीय सदस्या है। वह कोई बाजारू चीज नहीं, इस सिद्धांत को स्वीकृत करने के बाद ही गाय की रक्षा कर सकेंगे। विदित रहे कि भारतीय गाय के रक्षण पर ही भारत में वनरक्षा, भूरक्षा और जलरक्षा आधारित है। हिंदू प्रजा आज तितर-बितर हो रही है। हिंदू धर्म और संस्कृति का तेज गति से क्षय हो रहा है। क्योंकि गौमाता को घर से बाहर बाजार में धकेलने से हिन्दुं की धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक तथा सामाजिक व्यवस्था भूकंप के झटके खा-खाकर टूट गई है। अपने देश में पाश्चात्य यांत्रिक अर्थव्यवस्था चालू रखकर गाय को बचाने के प्रयास निरर्थक और व्यवहारशून्य साबित हुए हैं। जिस अर्थव्यवस्था का आधार ही हिंसा-शोषण व अन्याय हो तो ऐसी अर्थव्यवस्था में बने कानून क्या गाय की रक्षा कर पायेंगे? ऐसे प्रयास बचकाने हैं। यह समुद्र को बैलगाड़ी में बैठकर पार करने के प्रयास जैसा है। गोरक्षा करनी है तो समस्त अर्थव्यवस्था को बदलना होगा। यांत्रिक अर्थव्यवस्था में गायों का उपयोग केवल उसके दूध व उसके मांस के लिए है। दूध की उपयोगिता के आधार पर गोदुग्ध की ऊंची कीमत रख कर हमने अपनी अर्थव्यवस्था और गोरक्षा करने की इच्छा के मूल को कमजोर बना दिया है। हमारी मांग सिर्फ गोहत्या के रोकने तक सीमित नहीं होनी चाहिए। सिर्फ कानून बनाने से गो रक्षा नहीं होगी। हमारा प्रयास पूर्ण अर्थव्यवस्था बदलकर उसे गोरक्षा के साथ समन्वित करने का होना चाहिए। आज की परिस्थितियों में गोवंश पर जो खतरा पैदा हुआ है, उसमें हमें सिर्फ गोहत्या पर प्रतिबंध नहीं लगाना है। इससे आगे बढ़कर कुछ करना है। गोहत्या बंदी चाहने वाले लगभग सभी भारतवासी संविधान की कलम 47 को बहुत ज्यादा महत्व दे रहे हैं। लेकिन इस कलम में ऐसा कुछ नहीं जो अपने गोवंश को अन्तरराष्ट्रीय षडयंत्र की जकड़ द्वारा होने वाले नाश से बचा ले। प्रश्न केवल गोहत्याबंदी का ही नहीं बल्कि कत्ल के साथ-साथ अन्य अनेक वजहों से होने वाले गोवंश के नाश को रोकना, बचाना व उसे उसके योग्य सुरक्षित स्थान पर सम्मान पूर्वक स्थापित करने का भी है। संविधान की कलम 47 में इस बारे में कोई सुझाव नहीं है। अपितु कत्ल के अलावा अन्य उपायों द्वारा उसे खत्म करने के मार्ग खोल दिये है। संविधान की कलम 47 आदेशात्मक कलम नहीं, ब्लकि सिर्फ एक मार्गदर्शक कलम है। वह किसी भी राज्य को दूध देने वाले या श्रम करने वाले पशु का कत्ल न करने के लिए बाध्य नहीं करती। वो तो संविधान सभा में जो बहुमती सदस्य भारत में संपूर्ण गौवध बंदी करवाना चाहते थे, उनको चुप करने के लिए एक साजिश के तहत लिखी गई पंक्ति है। इस विषय में जिन्हें ज्यादा जानकारी नहीं है ऐसे गोवधबंदी के भोले हिमायती इस पंक्ति के समावेश से आनंदित हो गये हैं। ये ऐसा समझने लगे हैं कि संविधान की दुहाई देकर गौहत्या पर पाबंदी लगाई जा सकती है। ऐसे लोगों को दिवास्वप्न देखने बंद कर देने चाहिए। क्योंकि संविधान को लागू हुए 63 वर्ष बीत गये हैं लेकिन अभी तक गौहत्या बंद नहीं हुई है। संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो राज्यों को कलम 47 का पालन करने के लिए बाध्य कर सके। इसके विपरीत, जब उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश व बिहार राज्यों ने इस कलम के आधार पर अपने-अपने राज्यों में संपूर्ण गौवधबंदी घोषित की तब किन्हीं अज्ञात ताकतों की सहायता से मुस्लिम कसाइयों ने सुप्रीम कोर्ट में उसका विरोध किया। सुप्रीम कोर्ट में राज्य द्वारा बनाये गये कानूनों में इतने छेद कर दिये गये जिनके फलस्वरूप वे कानून अर्थहीन हो गये। तीनों राज्यों में और उनके पीछे-पीछे समग्र देश में गायों तथा पूर्ण गोवंश के विनाश का मनहूस कार्य चलता रहा। गोवंश के कत्ल को रोकना हमारा आंतरिक मामला है। संपूर्ण गोवधबंधी, गोरक्षा व गोसंवर्धन यह हिंदू प्रजा की आत्मा की आवाज है। फिर भी जिस समय भारत के तीनो राज्यों ने कलम 47 के अनुसार गोवधबंदी अपने-अपने राज्यों में घोषित की तो फाओ और संयुक्त राष्ट्र जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को उसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार देकर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भारत के सार्वभौमत्व व गौरव को नीचे गिराकर भारतीय प्रजा के अंतर की आवाज का गला घोंट दिया। प्रश्न केवल गोरक्षा का नहीं अपितु भारतीय अर्थव्यवस्था, समाजव्यवस्था व हिंदू संस्कृति बनाम पश्चिमी अर्थव्यवस्था व संस्कृति के बीच होने वाले व्यापक टकराव का है। उसे पूरी तरह समझकर सफल मुकाबला करने का है। भारत में अर्थव्यवस्था का केन्द्र गाय है तथा हिंदू अर्थव्यवस्था का ध्येय जीवमात्र का पोषण व रक्षण करने का है। जबकि पाश्चात्य अर्थव्यवस्था का आधार यंत्र शोषण और अन्याय है। उसका मानना है कि हिंदू प्रजा की अर्थव्यवस्था, समाजव्यवस्था तथा संस्कृति को खत्म करके उनका पश्चिमीकरण करना हो तो सर्वप्रथम उनकी गाय को शिकार बनाओ। इसलिए गाय को बचाने के लिए केवल गौहत्या का विरोध करना काफी नहीं होगा बल्कि भारतीय अर्थव्यवस्था को पाश्चात्य प्रभावों से भी मुक्त रखना होगा।

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