सोमवार, 24 मई 2010

गाथा इस देश की गायी विदेशीयों ने

भारतवर्ष की शक्ति और समृद्धि ज्ञान और गुरुत्व विश्वविख्यात है । प्राचीन काल की श्रेष्ठतम उपलब्धियों से भरपूर साहित्य और इतिहास हमें प्रतिक्षण उस गौरवपूर्ण अतीत की याद दिलाता है । पूर्वजों की आत्माओं का प्रकाश अब इस देश के कण-कण को जागृति का संदेश दे रहा है । यह बात हर एक नागरिक के हृदय में समाई हुई है, वह आत्माभिमान अभी तक मरा नहीं । किन्तु काल के दूषित प्रभाव के कारण आज आर्य जाति सब तरह से दीन-हीन बन चुकी है । अब उसका कदम केवल विनाश की ओर ही बढ़ रहा है । जानते हुए भी हम अपनी पूर्व प्रतिष्ठा को भुलाये बैठै हैं । हमारी गाथायें विदेशों में बिक गई । हमारे ज्ञान की एक छोटी सी किरण पाकर पाश्चात्य देश अभिमान से सिर उठाये खड़े हैं और हम अपने पूर्वजों की शान को भी मिट्टी में मिलाने को तैयार हैं । कठोर बनने का कोई उद्देश्य नहीं है । कटु बात कहकर अपने ही आत्मा के कणों का जी दुखाना नहीं चाहते किन्तु जो दुर्गति हमारी संस्कृति की इन दिनों हो रही है, उसे देखकर हृदय में सौ-सौ बरछों का-सा प्रहार लग रहा है । आत्मा की इस आवाज को कोई धर्मभिमानी, राष्ट्र हितैषी तथा जाति के गौरव के लिये प्राण अर्पण करने वाला ही समझ सकता है । आर्य संस्कृति का या हिन्दू धर्म का नाम उल्लेख करने में साम्प्रदायिक संकीर्णता का भाव नहीं आना चाहिए । हमारी संस्कृति दिव्य-संस्कृति है । उसमें प्राणिमात्र के हित की व्यवस्था है । यह उद्बोधन केवल इसलिये है कि उस चिर-सत्य का प्रादुर्भाव केवल इसी भूमि में हुआ है, इसी से हम उसे एक विशेष सम्बोधन से विभूषित करते हैं, अन्यथा हिन्दू-धर्म को क्षेत्र सम्पूर्ण विश्व है । काउन्ट जोन्स जेनी ने इस बात को स्पष्ट करते हुए बताया है- भारतवर्ष केवल हिन्दू धर्म का ही घर नहीं है वरन् वह संसार की सभ्यता का आदि भण्डार है ।ज्ज् संसार में भारतवर्ष के प्रति लोगों का प्रेम और आदर उसकी बौद्धिक, नैतिक और आध्यात्मिक सम्पत्ति के कारण हैं । यह शब्द प्रो.लुई रिनाड ने व्यक्त किये है । इन शब्दों से भी यही तथ्य प्रकाशित होता है कि भारत समग्र विश्व का है और सम्पूर्ण वसुन्धरा इसके प्रेमपाश में आबद्ध है । अनादि काल से धर्म की, संस्कृति और मानवता की ज्योति यह विकीर्ण कर रहा है । धरती की अनुपम कृति यह देश भला किसे प्यारा ने होगा? भारतवर्ष ने जो आध्यात्मिक विचार इस संसार में प्रसारित किये हैं । वे युग-युगान्तरों तक अक्षुण्ण रहने वाले हैं । उनसे अनेक सुषुप्त आत्माओं को अनन्त काल तक प्रकाश मिलता रहेगा । भारतीय संस्कृति के प्रवाह का उद्गम वे चिन्तन शाश्वत और सनातन सत्य रहे है, जिनकी अनुभूति ऋषियों ने प्रबल तपश्चर्याओं के द्वारा अर्जित की थी, वह प्रवाह धूमिल भले ही हो गया हो किन्तु अभी तक भी लुप्त नहीं हुआ है । धार्मिक आध्यात्मिक एवं नैतिक क्षेत्र में ही हम सर्वसम्पन्न नहीं रहे वरन् कोई ऐसा नहीं छूटा जहाँ हमारी पहुँच न रही हो । आध्यात्मिक तत्व ज्ञान के अतिरिक्त सामाजिक, व्यावहारिक तथा अन्य विद्याओं के ज्ञान-विज्ञान में भी हम अग्रणी रहे हैं । अपनी एक शोध में डा. थीवों ने लिखा है च्ज्संसार, रेखागणित के लिये भारत का ऋणी है यूनान का नहीं ।' प्रसिद्ध इतिहासज्ञ प्रो. बेबर का कथन है-'अरब में ज्योतिष विद्या का विकास भारतवर्ष से हुआ 'कोलब्रुक ने बताया है कि कोई अन्य देश नहीं, चीन और अरब को अकंगणित का पाठ पढ़ाने वाला देश भारतवर्ष ही है ।'यूनान के प्राचीन इतिहास का दावा है कि 'भारत के निवासी, यूनान में आकर बसे । वे बड़े बुद्धिमान, विद्वान और कला-कुशल थे । उन्होंने विद्या और वैद्यक का खूब प्रचार किया । यहाँ के निवासियों को सभ्य बनाया ।ज्ज् निसंदेह इतना सारा ज्ञान अगाध श्रम, शोध और लगन के द्वारा पैदा किया गया होगा । तब के पुरुष आलस्य, अरुचि, आसक्ति, अहंकार आदि से दूर रहें होंगे तभी तो वह तन्यता बन पाई होगी, जिसके बूते पर इतनी सारी खोज की जा सकी होगी । दुर्भाग्य की बात है कि आज वही भारतवर्ष विदेशियों के अनुकरण को ही अपनी शान समझता है । इस कार्य में जो जितना अधिक निपुण है, उसे उतनी ही सामाजिक प्रतिष्ठा मिलती है । विश्व के विविध विषयों के जब आँकड़े प्रस्तुत किये जाते हैं तो देखकर तीव्र वेदना होती है कि उनमें भारतवर्ष पिछड़ी श्रेणी में आता है । शिक्षा के क्षेत्र में हम सबसे कमजोर, भारतीय की औसत आय संसार में सबसे कम, आरोग्य के नाम पर सबसे दु:खी दुर्बल और रोगग्रस्त, आहार में सबसे कम कैलोरी वाला, निर्धनता में सबसे पहले दर्जे का । अवनति की कोई हद नहीं । कोई क्षेत्र नहीं छूटा जहाँ मात न खाई हो । क्या वह समृद्धि हम फिर से देख सकेंगे, जिसका वर्णन प्रसिद्ध यूनानी विद्वान एरियन ने इस तरह किया है- च्ज्जो लोग भारत से आकर यहाँ बसे थे वे कैसे थे? वे देवताओं के वंशज थे, उनके पास विपुल सोना था । वे रेशम के कामदार ऊनी दुशाले ओड़ते थे । हाथी दाँत की वस्तुयें व्यवहार में लाते थे और बहुमूज्य रत्नों के हार पहनते थे ।ज्ज् जो विध्वंसक विज्ञान और एटमी हथियार इन दिनों बन रहे हैं, उनसे भी बड़ी शक्ति वाले आयुध यहाँ वैदिक युग में प्रयुक्त हुये हैं । सरस्वती की उपासना के साथ-साथ शक्ति की भी समवेत उपासना इस देशें में हुई है । अथर्ववेद में उनके स्थानों पर जो च्ज्अशनिज्ज् शब्द का प्रयोग हुआ है, उसका अर्थ आजकल की भीमकाय तेपों जैसा ही है प्रोफेसर विल्सन का कथन है-ज्ज्गोलों का अविष्कार सबसे पहले भारत में हुआ था । योरोप के सम्पर्क में आने के बहुत समय पहले उनका प्रयोग भारत में होता था ।ज्ज् कर्नल रशब्रुक विलियम ने एक स्थान पर लिखा है-ज्ज्शीशे की गोलियाँ और बन्दूकों के प्रयोग का हाल विस्तार से यर्जुवेद में मिलता है । भारतवर्ष में तोपों और बन्दूकों का प्रयोग वैदिक काल से ही होता था ।

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