बुधवार, 12 मई 2010

राष्ट्रीय सम्मान का प्रतीक नव संवतसर

एक बार फिर अधिकांश भारतवासी, हमारी सरकार, हमारा टेलीविजन भारतीय नववर्ष के आगमन से अन्जान से दिखाई दे रहे है। मैकालेप्रणीत शिक्षा पद्वति के ढ़ांचे में पले- बढ़े ये काले अंग्रेज सदैव पाश्चात्य नव वर्ष का स्वागत करने की तैयारी करते रहने में अपनी शान समझते हैं। बड़े-बड़े होटलों में हजारों रुपये प्रति व्यक्ति खर्च करके देश का कुलीन वर्ग सीटें रिजर्व कराता है। पाश्चात्य नववर्ष पर करोड़ों ग्रीटिंग कार्ड भेजे जाते हैं। तथाकथित सभ्य समाज जाम से जाम टकरा-खनका कर मदहोशी की हालत में विदेशी नववर्ष की शुभकामनाएं देता है। इनके देखा-देखी आम आदमी भी पीछे नहीं रहता। टीवी के सामने बैठ कर मध्य रात्रि के अंधेरे में ही नया दिन मनाता है और कुछ मनचले सड़कों पर पटाखे छोड़कर, नशे में धुत होकर घर के दरवाजे खटखटाते है। आजादी के बाद हमने परतंत्रता के बहुत से चिह्न हटाए, सड़कों के नामों का भारतीयकरण किया, पर संवत् और राष्ट्रीय कैलेंडर के विषय में हम सुविधावादी हो गए, हमें विस्मृति रोग ने जकड़ लिया। इसके लिए यह तर्क दिया जा सकता है कि अब जब संसार के अधिकतर देशों ने समान कालगणना के लिए ईस्वी सन स्वीकार कर लिया है तो दुनिया के साथ चलने के लिए हमें भी इसका प्रयोग करना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि हमने सुविधा को आधार बनाकर राष्ट्रीय गौरव से समझौता कर लिया है और यह भी भुला दिया कि काम चलाने और जश्न मनाने में बहुत अंतर है। दो हजार वर्ष पहले शकों ने सौराष्ट्र और पंजाब को रौंदते हुए अवंतिका पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की। विक्रमादित्य ने राष्ट्रीय शक्तियों को एक सूत्र में पिरोया और शक्तिशाली मोर्चा खड़ा करके ईसा पूर्व 57 में शकों पर भीषण आक्रमण कर विजय प्राप्त की।
थोड़े समय में ही इन्होंने कोंकण, सौराष्ट्र, गुजरात और सिंध भाग के प्रदेशों को भी शकों से मुक्त करवा लिया। वीर विक्रमादित्य ने शकों को उनके गढ़ अरब में भी करारी मात दी। इसी सम्राट विक्रमादित्य के नाम पर भारत में विक्रमी संवत प्रचलित हुआ। सम्राट पृथ्वीराज के शासनकाल तक इसी संवत के अनुसार कार्य चला। इसके बाद भारत में मुगलों के शासनकाल के दौरान सरकारी क्षेत्र में हिजरी सन चलता रहा। इसे भाग्य की विडंबना कहें अथवा स्वतंत्र भारत के कुछ नेताओं का अनुचित दृष्टिकोण कि सरकार ने शक संवत् को स्वीकार कर लिया, लेकिन शकों को परास्त करने वाले सम्राट विक्रमादित्य के नाम से प्रचलित संवत् को कहीं स्थान न दिया। यह सच है कि भारतवासी अपने महापुरुषों के जन्मदिन एवं त्यौहार विक्रमी संवत् की तिथियों के अनुसार ही मनाते हैं। जन्मकुंडली तथा पंचांग भी इसी आधार पर बनते हैं। उदाहरण के लिए रक्षाबंधन श्रावणी पूर्णिमा को और सर्दी का आगमन शरद पूर्णिमा को मनाते है। गुरुनानक देव का जन्मदिवस कार्तिक पूर्णिमा, श्रीकृष्ण का भादों की अष्टमी, श्रीरामचंद्र का चैत्र की नवमी को ही मनाया जाता है। इसी प्रकार बुद्ध पूर्णिमा, पौष सप्तमी और दीपावली के लिए कार्तिक अमावस्या सभी जानते हैं, किंतु न जाने क्यों अपनी तथा अपने बच्चों की जन्मतिथि ईसवी सन के अनुसार हम मनाते हैं। 31 दिसंबर की आधी रात को नववर्ष के नाम पर नाचने वाले आम जन को देखकर तो कुछ तर्क किया जा सकता है, पर भारत सरकार को क्या कहा जाए जिसका दूरदर्शन भी उसी रंग में रंगा श्लील-अश्लील कार्यक्रम प्रस्तुत करने की होड़ में लगा रहता है और राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री पूरे राष्ट्र को नववर्ष की बधाई देते हैं। भारतीय सांस्कृतिक जीवन का विक्रमी संवत् से गहरा नाता है। नव संवत्सर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, जिसे विक्रम संवत् का नवीन दिवस भी कहा जाता है। राष्ट्रीय चेतना के ऋषि स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - ''यदि हमें गौरव से जीने का भाव जगाना है, अपने अन्तर्मन में राष्ट्र भक्ति के बीज को पल्लवित करना है तो राष्ट्रीय तिथियों का आश्रय लेना होगा। गुलाम बनाए रखने वाले परकीयों की दिनांकों पर आश्रित रहनेवाला अपना आत्म गौरव खो बैठता है।'' यह दिन हमारे मन में यह उदघोष जगाता है कि हम पृथ्वी माता के पुत्र हैं, सूर्य, चन्द्र व नवग्रह हमारे आधार हैं 'प्राणी मात्र हमारे पारिवारिक सदस्य हैं। तभी हमारी संस्कृति का बोध वाक्य ''वसुधैव कुटुम्बकम" का सार्थक्य सिद्ध होता है। ध्यान रहे कि सामाजिक विश्रृंखलता की विकृतियों ने भारतीय जीवन में दोष एवं रोग भर दिया, फलत: कमजोर राष्ट्र के भू भाग पर परकीय, परधर्मियों ने आक्रमण कर हमें गुलाम बना दिया। सदियों पराधीनता की पीड़ाएं झेलनी पड़ी। पराधीनता के कारण जिस मानसिकता का विकास हुआ, इससे हमारे राष्ट्रीय भाव का क्षय हो गया और समाज में व्यक्तिवाद, भय एवं निराशा का संचार होने लगा। जिस समाज में भगवान श्रीराम, कृष्ण, बुद्ध महावीर, नानक व अनेक ऋषि-मुनियों का आविर्भाव हुआ। जिस धराधाम पर परशुराम, विश्वामित्र, वाल्मिकी, वशिष्ठ, भीष्म एवं चाणक्य जैसे दिव्य पुरुषों का जन्म हुआ। जहां परम प्रतापी राजा-महाराजा व सम्राटों की श्रृंखला का गौरवशाली इतिहास निर्मित हुआ उसी समाज पर शक, हुण, डच, तुर्क, मुगल, फ्रांसीसी व अंग्रेजों जैसी आक्रान्ता जातियों का आक्रमण हो गया। यह पुण्यभूमि भारत इन परकीय लुटेरों की शक्ति परीक्षण का समरांगण बन गया और भारतीय समाज के तेजस्वी, ओजस्वी और पराक्रमी कहे जाने वाले शासक आपसी फूट एवं निज स्वार्थवश पराधीन सेना के सेनापति की भांति सब कुछ सहते तथा देखते रहे। जो जीत गये उन्होनें हम पर शासन किया और अपनी संस्कृति अपना धर्म एवं अपनी परम्परा का विष पिलाकर हमें कमजोर एवं रुग्ण किया। किन्तु इस राष्ट्र की जिजीविषा ने, शास्त्रों में निहित अमृतरस ने इस राष्ट्र को मरने नहीं दिया।
भारतीय नवसम्वत के दिन लोग पूजापाठ करते हैं और तीर्थ स्थानों पर जाते हैं। लोग इस दिन तामसी पदार्थों से दूर रहते हैं, पर विदेशी नववर्ष के आगमन से घंटों पूर्व ही मांस मदिरा का प्रयोग, श्लील-अश्लील कार्यक्रमों का रसपान तथा बहुत कुछ ऐसा प्रारंभ हो जाता है जिससे अपने देश की संस्कृति का रिश्ता नहीं है। विक्रमी संवत के स्मरण मात्र से ही विक्रमादित्य और उनके विजय अभिमान की याद ताजा होती है, भारतीयों का मस्तक गर्व से ऊंचा होता है, जबकि ईसवी वर्ष के साथ ही गुलामी द्वारा दिए गए अनेक जख्म हरे होने लगते हैं। मोरारजी देसाई को जब किसी ने पहली जनवरी को नववर्ष की बधाई दी तो उन्होंने उत्तर दिया था- किस बात की बधाई? मेरे देश और देश के सम्मान का तो इस नववर्ष से कोई संबंध नहीं । यही हम लोगों को भी समझना होगा।

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