सोमवार, 24 मई 2010

"सहजीवन" नहीं, विवाह है भारत का संस्कार

सर्वोच्च न्यायालय ने अभी हाल के अपने फैसले में अविवाहित सहजीवन को वैध ठहराया है। न्यायालय की अपनी सीमा है। उसने मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 21) की ही व्याख्या की है। उसने विवाह नामक संस्था को अवैध नहीं ठहराया, लेकिन भारतीय शील, मर्यादा और संस्कृति के विरोधी उछल रहे हैं। टिप्पणीकार इसे आधुनिकता की जरूरत बता रहे हैं। लेकिन ऐसे अतिआधुनिक (उनकी भाषा में अल्ट्रा माडर्न) लोग भी अपनी पुत्रियों और बहनों और पुत्रों की अविवाहित 'मस्ती' को स्वीकार नहीं करेंगे। क्या वे अपनी पत्नियों और दीगर पुरुष का सहजीवन स्वागत योग्य मानेंगे? आखिरकार कथित आधुनिकता की मांग तो यही है। उनकी नजर में काम-सुख की सामाजिक मर्यादा रूढि़वाद है और मुक्त यौन-सुख ही आधुनिकता। लेकिन विश्व के प्रथम 'कामसूत्र' के रचयिता आचार्य वात्स्यायन ने भी परस्त्री सहजीवन को गलत ठहराया है, 'राजाओं, मंत्रियों, वरिष्ठों को उचित है कि वे परस्त्री गमन जैसे निन्दनीय कार्य में प्रवृत्त न हों।' (कामसूत्र, पृष्ठ 575, चौखम्भा प्रकाशन) वे आगे कहते हैं, 'पराई स्त्रियों से संबंध दोनों लोकों को नष्ट करता है।' (वही, पृ. 598) लेकिन 'सहजीवन' के लिए राधा-कृष्ण का उदाहरण दिया जाना बेहद आश्चर्यजनक है। उस दिव्य युगल का इस संदर्भ में उल्लेख किया जाना हिन्दू संस्कृति व आस्था पर गहरी चोट है। श्रीराधा तो कृष्ण की आद्याशक्ति मानी जाती हैं, दोनों के संबंध को इतनी हल्की नजर से देखा जाना घोर आपत्तिजनक है। परिवार भारतीय समाज की प्रीतिपूर्ण इकाई है। प्राचीन भारत में कर्तव्यबोध था, अधिकार- शून्यता थी। सारी सम्पत्ति पर परिवार के अधिकार थे। प्राचीन गणसमाजों में सामूहिक सम्पत्ति थी फिर निजी सम्पत्ति का विकास यूनान में हुआ। भारत में यूनान से हजारों बरस पहले परिवार संस्था थी। पिता की सम्पत्ति ज्ञानी पुत्र को मिलती थी। ऋग्वेद का तीसरा मण्डल बहुत प्राचीन है। यहां इन्द्र से प्रार्थना है- 'हे इन्द्र, जिस प्रकार पिता अपने ज्ञानवान पुत्र को अपने धन का भाग देता है उसी प्रकार तू हमें धन दे'। भारत में विवाह संस्था पुष्ट थी और परिवार संस्था का केन्द्र थी। वेदों में पृथ्वी-आकाश के जोड़े को माता-पिता कहा गया। लेकिन उन्हें संयुक्त रूप में 'रोदसी' कहा गया। पति-पत्नी अलग इकाइयां थे, लेकिन मिलकर दंपति। माक्र्सवादी लेखक रामशरण शर्मा ने Óप्राचीन भारत में भौतिक प्रगति एवं सामाजिक संरचनाएं' (पृष्ठ 60) में ऋग्वैदिक काल का वर्णन इन शब्दों किया है- घर के लिए प्रयुक्त शब्द 'सद्म' एवं 'दम' प्रकट करते हैं कि इसे संपत्ति के रूप में स्वीकार किया जाता था। पति-पत्नी दोनों ही 'घर' अथवा 'दम' के स्वामी थे, उन्हें दंपत्ति कहा जाता है।' सारी दुनिया के आदिम समाज स्वच्छंद थे। विवाह संस्था का विकास बाद में हुआ, लेकिन भारत में ऋग्वैदिक काल में ही विवाह संस्था थी। बावजूद इसके, प्रख्यात कम्युनिस्ट एस.ए. डांगे ने Óओरीजिन आफ मैरिज' में एंजेल्स को आधार बनाकर ऋग्वैदिककाल में विवाहहीनता/अपरिभाषित यौन-सम्बंध सिद्ध करने का प्रयास किया है। डांगे के अनुसार, इनमें रोक लगाने का काम बहुत मन्द गति से हुआ- 'दिस प्राग्रेस वाज मेड मच मोर डिफीकल्ट'। वे इसके लिए ऋग्वेद के यम-यमी सूक्त का उदाहरण देते हैं। डांगे ने ऋग्वेद का यह सूक्त (10.10.1 से 14) पूरा नहीं पढ़ा। यम और यमी भाई-बहन थे। यमी ने यम से प्रेम सम्बंध की याचना की। यम ने ऐसी मित्रता से साफ इनकार किया - न ते सखा सख्यम् वष्टि एतत् सऽलक्ष्मा यत् विषऽरूपा भवति। (वही मंत्र-2) यम ने डांटते हुए कहा कि ऐसी बकवास व्यर्थ है। यमी ने फिर आग्रह किया। यम ने ऐसे सम्पर्क को अधम बताया। ऋग्वेद के ऋषि पति और पत्नी के बीच प्रेम को लेकर सतर्क थे। ऋग्वेद के सबसे बड़े देवता अग्नि (दंपति समनसा कृणोपि-अग्नि) पति-पत्नी का मन मिलाते हैं। (ऋग्वेद 5.3.2) विवाह संस्कार में अग्नि के सात फेरे की परम्परा शायद इसी वजह से आयी। मित्र भी यह काम करते हैं। वे दंपति मिलाते हैं। (ऋग्वेद 10.68.2) ऋषि सूर्य से कहते हैं- आप आयें, उसी तरह आयें जैसे पति-पत्नी के पास जाता है। (ऋग्वेद 10.149.4) पत्नी रूपवती है पर अपना सौन्दर्य सिर्फ पति को दिखाती है। दूसरे लोग केवल वस्त्र देखते हैं। (ऋग्वेद 10.71.4) विवाह सामाजिक अनुष्ठान है। सिर्फ कन्या के पिता ही कन्या का हाथ वर को नहीं सौंपते, बल्कि संपूर्ण समाज भी कन्यादान में हिस्सा लेता है। वर कहता है, हे वधु, सौभाग्यवृद्धि के लिए मैं तेरा हाथ ग्रहण करता हूं। भग, अर्यमा, सविता और पूष देवों ने गृहस्थ धर्म के लिए तुझे प्रदान किया। तुम वृद्धावस्था तक मेरे साथ रहो।' (वही, 36) फिर अग्नि से प्रार्थना है- हे अग्नि आप सुसन्तति प्रदान करें।' फिर इन्द्र से प्रार्थना है- हे इन्द्र, इसे सौभाग्यशाली बनायें। फिर शुभकामनाओं की झड़ी लग जाती है- आप कभी पृथक् न हों। पुत्र-नाती-पोतों के साथ प्रमोदपूर्वक जीवन का पूरा भोग करें।' (वही, 43)। वैदिक काल में भरे- पूरे परिवार थे। नई बहू परिवार की साघाज्ञी' थी। ऋग्वेद के एक मंत्र का आशीष बड़ा प्यारा है- साघाज्ञी श्वसुरे भव- ससुर पर साघाज्ञी, साघाज्ञी श्वसुरवा भव, ननान्दरि साघाज्ञी भव, साघाज्ञी देवृषु, सास, ननद, देवर, साघाज्ञी। विवाह संस्था किसी राजाज्ञा से नहीं आई। इसका सतत् विकास हुआ है। महाभारत काल में भी विवाह हैं। महाभारत के अनुसार, श्वेतकेतु ऋग्वैदिक काल की विवाह संस्था को मजबूत करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता थे। आधुनिक भारत श्वेतकेतु से कम परिचित है। महाभारत के आदि पर्व के अनुसार श्वेतकेतु के पिता उद्दालक प्रख्यात दर्शनशास्त्री ऋषि थे। श्वेतकेतु ने नियम बनाया कि जो स्त्री पति को छोड़ दूसरे से मिलेगी उसे भ्रूणहत्या का पाप लगेगा और जो पुरुष अपनी स्त्री को छोड़ दूसरी से सम्पर्क करेगा उस पर भी वैसा ही कठोर पाप होगा। पांडु ने कुंती को यही बात बतायी थी। भारत में यही परम्परा है। छांदोग्य उपनिषद् के छठे प्रपाठक में श्वेतकेतु व उनके पिता के बीच हुई प्रीतिकर बहस है। उद्दालक अपने पुत्र श्वेतकेतु को हड़काते हुए कहते हैं- श्वेतकेतु! जाओ, ब्राहृचर्य वास करो। हमारे कुल में ऐसा कोई पुरुष नहीं होता जो बिना वेद पढ़े, ज्ञानी हुए ही ब्राहृण बन जाये।' उपनिषद् के अनुसार, श्वेतकेतु 12 वर्ष पढ़कर 24 वर्ष की आयु में ज्ञान में अकड़ता हुआ घर लौटा। पिता ने पूछा, तुम स्वयं को ब्रााहृण मानने का अभिमान लेकर लौटे हो, लेकिन क्या तुमने वह जाना है जिससे न जाना हुआ भी जान लिया जाता है और न सुना हुआ भी सुना हुआ हो जाता है?' श्वेतकेतु हक्का-बक्का था। उसने पिता से ही वह ज्ञान जानने की प्रार्थना की, 'कथं नु भगव:! स आदेशो भवतीति।' पिता ने सामान्य सांसारिक उदाहरणों के जरिए पुत्र को ब्राहृज्ञान समझाया। श्वेतकेतु ने प्रश्न-प्रति प्रश्न किये। उद्दालक ने उत्तर दिये और अंत में कहा, 'तत्वमसि श्वेतकेतो'। वह तत्व तू है श्वेतकेतु, तेरे भीतर, तेरे बाहर वही तत्व है। पिता का अंतिम वाक्य दीर्घकाल तक भारतीय ज्ञान का मुहावरा बना रहा, तत्वमसि श्वेतकेतु। दर्शनशास्त्री होना आसान है। दर्शन को समाजहित में लागू करना ही असली बात है। पश्चिम में कोई ऋग्वेद नहीं उदित हुआ। कोई श्वेतकेतु नहीं हुआ। भारत में विवाह संस्था का दिलचस्प विकास हुआ। यहां विवाह संस्था स्थाई है। लेकिन अमरीका में विवाह संस्था मर गयी। वहां टायर-ट्यूब की तरह पत्नियां बदली जाती हैं, पति बदले जाते हैं। अमरीका-यूरोप भारत में घुस आया, अमरीकी- यूरोपीय संस्कृति-प्रभावित कन्याएं अपना शरीर दिखाती हैं। वे कहती हैं, देह सुंदर है, इसे दिखाने में गलत क्या है? इसी में से अविवाहित सहजीवन का चलन बढ़ा। दक्षिण कोरिया के कानून मंत्री ने हाल ही में यौन सम्बंधों को वैध ठहराने वाला वक्तव्य दिया है। दक्षिण कोरिया का देह-व्यापार वहां की जी.डी.पी. का 4 प्रतिशत है। क्या भारत को भी इसी व्यापार की राह पर बढ़ाने का कुप्रयास किया जा रहा है? ऐसा भोगवादी सहजीवन अंतत: विषाद है। लेकिन पति-पत्नी का मिलन फल ही परिवार है और वही दिव्य प्रसाद है। इसकी पवित्रता बचाकर ही भारत का संवद्र्धन होगा।

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