सोमवार, 10 मई 2010

मिशनरी-वामपंथी मोर्चेबंदी

जो समझते हैं कि मुसलमानों के लिए पाकिस्तान बनवाने के आंदोलन में सक्रिय भागीदारी को आज हमारे कम्युनिस्ट अपनी 'भूल' मानते हैं, वे स्वयं भूल पर हैं। भारतीय कम्युनिस्टों का हिन्दू-विरोध यथावत है। चूंकि आज 'मुसलमानों के आत्मनिर्णय का अधिकार' जैसे नारे सीधे-सीधे दुहराना हानिकारक हो सकता है, इसलिए कामरेड तनिक मौन हैं। किंतु जैसे ही किसी गैर-हिन्दू समुदाय की उग्रता बढ़ती है-चाहे वह नागालैंड हो या कश्मीर-उनके प्रति कम्युनिस्टों की सहानुभूति तुरंत बढऩे लगती है। अत: प्रत्येक किस्म के कम्युनिस्ट मूलत: हिन्दू विरोधी हैं। केवल उसकी अभिव्यक्ति अलग-अलग रंग में होती है। पीपुल्स वार ग्रुप के आंध्र नेता रामकृष्ण ने कहा ही है कि 'हिन्दू धर्म को खत्म कर देने से ही हरेक समस्या सुलझेगी।' अन्य कम्युनिस्टों को भी इस बयान से कोई आपत्ति नहीं है। सी.पी.आई.(माओवादी) ने अपने गुरिल्ला दस्ते का आह्वान किया है कि वह कश्मीर को 'स्वतंत्र देश' बनाने के संघर्ष में भाग ले। भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में चल रहे प्रत्येक अलगाववादी आंदोलन का हर गुट के माओवादी पहले से ही समर्थन करते रहे हैं। अन्य कम्युनिस्ट पार्टियों की स्थिति भी बहुत भिन्न नहीं। माकपा के प्रमुख अर्थशास्त्री और मंत्री रह चुके अशोक मित्र कह ही चुके हैं, 'लेट गो आफ्फ कश्मीर'-यानी, कश्मीर को जाने दो। इसलिए कंधमाल में स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या में माओवादियों की भागीदारी न भी हो, यह तथ्य तो सामने आया ही है कि जिन ईसाई मिशनरी गिरोहों ने यह कार्य किया, उनमें पुराने माओवादी भी हैं। पर ध्यान देने की बात यह है कि भारतीय वामपंथियों ने इस पर कोई चिंता नहीं प्रकट की, जबकि उसके बाद मिशनरियों के विरूद्ध हुई हिंसा पर तीखी प्रतिक्रिया की। यह ठीक गोधरा कांड के बाद हुई हिंसा पर बयानबाजी का दुहराव है। तब भी साबरमती एक्सप्रेस में 59 हिन्दुओं को जिंदा जलाने वाली मूल घटना गुम कर दी गई, और केवल उसकी प्रतिक्रिया में हुई हिंसा की ही चर्चा की जाती रही। ये उसी हिन्दू विरोधी मनोवृत्ति की अभिव्यक्तियां हैं जो यहां वामपंथ की मूल पहचान हैं। पिछले दस वर्षों में कई वामपंथी अंतरराष्ट्रीय ईसाई मिशनरी संगठनों के एजेंट बन चुके हैं। सोवियत विघटन के बाद से वे भौतिक-वैचारिक रूप से अनाथ हो गए थे। इस रिक्तता को उन्होंने साधन-सत्ता संपन्न मिशनरियों से भर लिया है। इसीलिए वंचितों के संबंध में अब वामपंथियों की बातें मिशनरी प्रवक्ताओं से मिलने लगी हैं। वे वंचितों, वनवासियों का संगठित व अवैध मतांतरण कराने का उग्र बचाव करते हैं। अब वे वंचितों के 'मानव अधिकार' और 'मुक्ति' की ठीक वही शब्दावली दुहराते हैं जो आज सभी मिशनरी संगठनों का प्रिय कार्यक्रम है। वामपंथियों और अंतरराष्ट्रीय मिशनरियों की चिंताओं का यह सहमेल कदापि संयोग नहीं। मीडिया में भी मिशनरी-माक्र्सवादी दबाव इतना संयुक्त हो चुका है कि 'विदेशी धन से वंचितों के शिकारÓ पर कभी विचार नहीं होने दिया जाता। विदित है कि इंडोनेशिया में सुनामी हो, गुजरात का भूकंप या इराक में तबाही, जब भी विपदाएं आती हैं तो दुनिया भर के मिशनरियों के मुंह से लार टपकने लगती है, कि अब उन्हें 'आत्माओं की फसल' काटने का अवसर मिलेगा। इसके बावजूद हमारे मीडिया में राहत के लिए मिशनरियों की वाहवाही की जाती है, जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, वनवासी कल्याण आश्रम जैसे हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों की नि:स्वार्थ सेवाओं का उल्लेख कभी नहीं होता। हिन्दू संस्थाओं के संदर्भ में यह दोहरापन क्यों? यदि मिशनरी 'सेवा' करके हिन्दुओं को ईसाई बनाने का प्रयास करते हैं, तो ठीक। किंतु जब हिन्दुत्वनिष्ठ संगठन घर-वापसी कार्यक्रम चलाकर उन्हें पुन: हिन्दू धारा में वापस लाते हैं, तो गलत। यह कैसा मानदंड है? फिर, क्या कारण है कि जो माक्र्सवादी हर बात में 'मूल समस्या' की रट लगाते थे, वे मिशनरी हरकतों से होने वाली अशांति पर कभी मूल समस्या का प्रश्न नहीं उठाते? केवल इसलिए कि ग्राहम स्टींस की हत्या हो या स्वामी लक्ष्मणानंद की, उत्तर-पूर्व का अलगाववाद हो या जगह-जगह भड़काऊ हिन्दू-विरोधी साहित्य का वितरण-हर कहीं मूल समस्या मिशनरी मतांतरण कार्यक्रम है। यह कार्यक्रम विश्व में ईसाई विस्तारवाद की सर्वविदित, पुरानी साम्राज्यवादी परियोजना का ही अंग है। चूंकि कम्युनिस्ट साम्राज्यवाद पराजित हो चुका है, इसलिए हमारे कम्युनिस्टों ने अपनी बची-खुची शक्ति ईसाई एवं इस्लामी साम्राज्यवाद को मदद पहुंचाने में लगा दी है। कम से कम इससे उन्हें अपने शत्रु 'हिन्दुत्वÓ को कमजोर करने का सुख तो मिलता है। इसीलिए भारतीय वामपंथ हर उस झूठ-सच पर कर्कश शोर मचाता है जिससे हिन्दू बदनाम हो सकें। न उन्हें तथ्यों से मतलब है, न ही देश-हित से। विदेशी ताकतें उनकी इस प्रवृत्ति को पहचानकर अपने हित में जमकर इस्तेमाल करती है। मिशनरी एजेंसियों की यहां बढ़ती ढिठाई के पीछे यह ताकत भी है। इसीलिए वे चीन या अरब देशों में इतने ढीठ या आक्रामक नहीं हो पाते, क्योंकि वहां इन्हें भारतीय वामपंथियों जैसे स्थानीय सहयोगी उपलब्ध नहीं हैं। चीन सरकार विदेशी ईसाई मिशनरियों को चीन की धरती पर काम करने देना अपने राष्ट्रीय हितों के विरूद्ध मानती है। किंतु हमारे देश में चीन-भक्त वामपंथियों का भी ईसाई मिशनरियों के पक्ष में खड़े दिखना उनकी हिन्दू विरोधी प्रतिज्ञा का सबसे प्रत्यक्ष प्रमाण है। जब चार वर्ष पहले अंग्रेजी साप्ताहिक 'तहलका' ने अमरीका प्रशासन द्वारा भारत में बड़े पैमाने पर मतांतरण कराने की योजना को समर्थन देने की विस्तृत रिपोर्ट छापी तो इस पर कोई तहलका नहीं मचा। क्योंकि देश-विदेश से चल रही हिन्दू विरोधी कार्रवाइयों पर हमारे वामपंथी बौद्धिकों में एक मौन सहमति है। इसके लिए उन्हें पुरस्कार भी मिल रहा है। पिछले कुछ वर्षों में प्रफुल्ल बिदवई, अचिन विनायक, तीस्ता सीतलवाड़, एडमिरल रामदास आदि प्रमुख वामपंथी, सेकुलरों को अंतरराष्ट्रीय मिशनरी संस्थाओं (जैसे पैक्स क्रिस्टी का 'पैक्स क्रिस्टी इंटरनेशनल पीस प्राइज', इंटरनेशनल काउंसिल आफ इवांजेलिकल चर्चेज का 'ग्राहम स्टींस इंटरनेशनल अवार्ड फार रिलीजियस हार्मोनी' आदि) द्वारा बार-बार पुरस्कृत किया गया। यदि इन सेकुलरों के तमाम बयानों, क्रिया-कलापों पर ध्यान दें तो कारण तुरंत समझ में आ जाएगा। उन्हें भारत-विरोध, विशेषकर हिन्दू-विरोधी कार्रवाइयों के लिए प्रोत्साहित किया गया।

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