सोमवार, 24 मई 2010

गांधी जी का कांग्रेस नेताओं से टकराव!

केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अनिल सील ने 1968 ई. में भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के सन्दर्भ में निष्कर्ष देते हुए, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा संचालित आन्दोलन को एक वैचारिक शून्य तथा जानवरों की लड़ाई बताया है। निश्चय ही उसका यह कथन तर्कहीन तथा अतिशयोक्तिपूर्ण है। परन्तु यह भी कटु सत्य है कि कांग्रेस का इतिहास इसके नेताओं में परस्पर ईष्या, द्वेष तथा टकराव से भरपूर रहा है तथा इसका बार-बार विभाजन होता रहा है। यह स्वतंत्रता से पूर्व 1907, 1923 तथा 1930 में सूरत की फूट, स्वराज्यवादी तथा गांधीवादी, दक्षिणपंथी कांग्रेस तथा वामपंथी (कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी) कांग्रेस के रूप में प्रसिद्ध है। स्वतंत्रता के पश्चात भी कभी कांग्रेस संगठन तथा कांग्रेस इन्दिरा तथा कभी असली कांग्रेस तथा राष्ट्रवादी कांग्रेस में बंटी रही। अलगाव का प्रमुख कारण व्यक्तिगत ईष्या तथा राजनीतिक महत्वकांक्षा ही रहा। यह भी सर्वमान्य है कि ए.ओ. ह्यूम की प्रेरणा तथा भारत के वायसराय लार्ड डफरिन के आशार्वाद से स्थापित कांग्रेस का प्रारम्भ में उद्देश्य अंग्रेजी राज्य की सुरक्षा तथा अंग्रेजी साम्राज्य के अन्र्तगत भारतीयों को कुछ सुविधाएं प्राप्त करना मात्र था। इसकी कार्यवाही वर्ष में केवल तीन दिनों तक होती थी। अत: इसे 'वार्षिक मेला', 'एक तमाशा', 'तीन दिन की पिकनिक', 'एक मंच' आदि के नामों से पुकारा गया। एक विद्वान ने कांग्रेस को एक गैरवफादार लेकिन 'कम खतरनाक' तथा इसकी कार्यवाही को 'बेहूदा' बतलाया। 1901 ई. में गांधी जी ने प्रथम बार कलकत्ता अधिवेशन में भाग लिया था तथा इसके अध्यक्ष फिरोजशाह मेहता के साथ एक ही रेलगाड़ी में (पर अलग-अलग डिब्बों में) बम्बई से कलकत्ता गए थे। वे मेहता के राजसी ठाट-बाट तथा उनके सैलून को देखकर दंग थे तथा अधिवेशन में अनुशासनहीनता तथा बेहद गंदगी से परेशान। इतना ही नहीं, 1912 में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने पहली बार बांकीपुर (पटना) में कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया तो उन्हें भी मोर्निंग कोट व सुन्दर प्रेस किए हुए ट्राउजर पहने प्रतिनिधियों को देखकर लगा कि अधिवेशन मानो कोई सामाजिक एकत्रीकरण हो, जिनमें कोई राजनीतिक उत्साह या तनाव नहीं है। 1915 में गांधी जी का भारत में वापस आगमन हुआ। आते ही उनका गुजराती सभा द्वारा बम्बई में स्वागत हुआ। पहली ही सभा में उनका मोहम्मद अली जिन्ना से टकराव हो गया। गांधी जी गुजराती में बोले जबकि जिन्ना, जो अध्यक्षता कर रहे थे, अंग्रेजी में। गांधी जी ने अंग्रेजी में बोलने पर उनको फटकार लगाई। सम्भवत: तभी से दोनों में अलगाव का बीजारोपण हो गया था। भारत आते ही गांधी जी भारतीय राजनीति में आना चाहते थे, परन्तु उनके राजनीतिक गुरू श्री गोपाल कृष्ण गोखले ने उन्हें आगामी दो वर्षों तक देश को समझने, घूमने तथा राजनीति को समझने के लिए कहा। साथ ही उन्होंने गांधी जी की आखें खुली रखने तथा मुंह को बन्द रखने को कहा। इस दो-तीन वर्ष के काल को गांधी जी 'भारतीय राजनीति में अपना प्रोबेशन पीरियड' कहते थे। गांधी जी का प्रथम मिलन तथा टकराव पं. मोतीलाल नेहरू से हुआ। 1919 ई. का वर्ष भारतीय राजनीति में चहल-पहल का वर्ष था। इस वर्ष गांधी जी ने इतिहास की सर्वाधिक चमत्कारी राजनीतिक विजय प्राप्त की। गांधी द्वारा जीता गया सबसे पहला और निर्णायक क्षेत्र-इलाहाबाद का आनन्द भवन था। वस्तुत: नेहरू परिवार को अभी तक राजनीति से कोई लगाव न था। इतिहासकार बी.आर. नन्दा के अनुसार राजनीति उनके लिए सप्ताहांत में खाने की मेज पर रोज की जिंदगी से एक बदलाव के रूप में थी। दोनों एक-दूसरे से प्रभावित हुए। मोतीलाल आयु में गांधी जी से आठ साल बड़े थे। इलाहाबाद के एक सम्पन्न तथा प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। गांधी जी उनके पुत्र जवाहरलाल नेहरू को राजनीति में लेना चाहते थे। मोतीलाल नेहरू गांधी जी के 'रोलेट एक्टÓ सम्बंधी विरोध तथा सत्याग्रह से प्रभावित थे। परन्तु मोतीलाल नेहरू का गांधी जी से पहला आग्रह था कि वे उनके पुत्र जवाहरलाल नेहरू को सत्याग्रह में भाग लेने से रोकें तथा समझाएं। गांधी जी मान गए तथा मोतीलाल का पुत्र भी। दोनों की मित्रता गहरी होती गई। जलियांवाला बाग काण्ड के पश्चात कांग्रेस ने एक जांच समिति बनाई तथा इसमें मोतीलाल को मुख्यत: जिम्मेदारी दी गई। पुरस्कार स्वरूप मोतीलाल को 1922 में अमृतसर कांग्रेस 1919 ई. का अध्यक्ष बना दिया गया। मोतीलाल ने अपने अध्यक्षीय भाषण में गांधी जी को इस समय का 'सर्वाधिक आदरणीय भारतीयÓ भारतीय कहा, परन्तु शीघ्र ही दोनों में टकराव हो गया। मोतीलाल को अहिंसा तथा असहयोग आंदोलन का स्वरूप नहीं जंचा। पर जब गांधी जी ने फरवरी, 1922 ई. में चौरा-चौरा की अचानक घटना से आन्दोलन स्थगित कर दिया तो वे आग बबूला हो गए। गांधी ने इसे 'शून्य की अवस्था में पहुंचाने वाली दवा की खुराक' कहा। टकराव इतना बढ़ा कि गया अधिवेशन की समाप्ति के अगले दिन मोतीलाल व सी.आर.दास ने स्वराज्य पार्टी जनवरी, 1923 ई. में बनाई और असहयोग के विपरीत काउंसिंलों में प्रवेश तथा सहकारी कार्य में अड़ंगे की नीति अपनाई। गांधी जी को इस अडग़ेबाजी में हिंसा की जबरदस्त गन्ध आई। कांग्रेस की सदस्यता के प्रश्न पर भी टकराव हुआ। अभी तक प्रचलित चार आने (वर्तमान 25 पैसे) देकर कांग्रेस की सदस्यता के स्थान पर 2000 गज सूत कातने की शर्त लगा दी गई। अत: 1924 के अन्त तक परस्पर टकराव चरम सीमा तक पहुंच गया। गांधी जी के मित्र सी.एफ. एन्डलज ने लिखा कि मई-जून 1924 ई. में दोनों के मस्तिष्क में एक-दूसरे के प्रति इतनी भिन्नता थी कि यह लगता था कि वे अब कभी साथ न रहेंगे। दोनों की अलग-अलग बयानबाजी चल रही थी। आखिर गांधी जी ने समझौते द्वारा बीच का मार्ग अपनाया तथा उन्हें काउंसिल प्रवेश की स्वीकृति मिल गई तथा सदस्यता के लिए अब 'सूत दान' को मान्यता मिली। इसके बाद सामान्यत: दोनों के सम्बंध अच्छे रहे। जवाहर लाल नेहरू के वामपंथ के प्रति झुकाव से मोतीलाल व गांधी जी-दोनों परेशान थे। मोतीलाल के आग्रह पर गांधी जी-ने उसे कुछ बनाने की सोची। गांधी जी को लगता था कि यदि उसे कांग्रेस में सक्रिय न किया गया तो वह 'लाल' हो जाएगा या 'बिगड' जाएगा। अत: 1929 में कांग्रेस अध्यक्ष के पद के लिए निम्नतम वोट मिलने पर भी गांधी जी ने उसे अध्यक्ष बनाया। इसी भांति उन्हें कई बार बिना चुनाव आगे भी अध्यक्ष बनाया गया। परन्तु गांधी जी तथा पंडित जवाहरलाल नेहरू में भी शीघ्र कटुता बढ़ी। क्रोधित स्वभाव के कारण पं. नेहरू फरवरी, 1922 में असहयोग आंदोलन स्थगित किए जाने पर क्रोधित होने की भांति, सविनय अवज्ञा आन्दोलन के रोकने पर अत्यधिक नाराज हो गए। पं. नेहरू ने स्वयं लिखा, कोई बापू के साथ कैसे कार्य सकता है, अगर वह इस ढंग से काम करते है जिसमें व्यक्तियों को आपत्ति में छोड़ दिया जाए। 'संविधान सभा के निर्माण में तथा उसके तात्विक विवेचन में गांधी जी का 'हिन्द स्वराज्यÓ, 'रामराज्य' या ग्रामीण आधारित योजना काल्पनिक बन गई थी। गांधी जी चाहते थे कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उद्देश्य पूरा हो गया है। इसे समाप्त कर दिया जाए, परन्तु उनका राष्ट्र चिंतन सत्ता की दौड़ में पिछड़ गया था। इसी भांति विपिन चन्द्र पाल ने तो गांधी जी के असहयोग आन्दोलन से ही नहीं बल्कि कांग्रेस से ही सम्बंध अलग कर लिया। असहयोग आन्दोलन में उन्हें न कोई चमत्कार लगता और न ही कोई तर्क। अंग्रेजों की निगाह में 'खतरनाक बागी लाजपतराय' से भी गांधी जी के सम्बंध प्राय: कटु रहे। यद्यपि गांधी जी से उनकी पहली भेंट 24 फरवरी, 1920 को हुई थी। उन्होंने गांधी जी के असहयोग आन्दोलन का समर्थन किया था परन्तु वह आंदोलन में एक साथ सभी प्रकार के बहिष्कार के पक्ष में न थे और न ही इस क्षेत्र में बिना व्यवस्था के सरकारी स्कूलों तथा कालेजों को छोडऩे के। बाद में उन्होंने असहयोग आंदोलन को 'महानतम गलती' कहा था। उनका विचार कि गांधी जी की असहयोग आन्दोलन में मुस्लिम समर्थन पर निर्भरता तथा एक वर्ष में स्वराज्य का कथन गलत था। 1926 में उन्होंने मदन मोहन मालवीय से मिलकर एक 'इंडिपेंडेंट नेशनल पार्टी' गठित की, तथा केन्द्रीय असेम्बली के लिए दो स्थानों से खड़े हुए तथा जीते। अत: संक्षेप में गांधी जी जैसा चमत्कारिक व्यक्तित्व तथा प्रभावी नेतृत्व भी तत्कालीन कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में सामूहिकता का बोध, समरसता तथा सहयोग की भावना स्थापित न कर सका। सम्भवत: नेहरू परिवार तथा उग्र कांग्रेसी नेता कांग्रेस के बदलते हुए लक्ष्य, ब्रिटिश सरकार के प्रति नीति तथा मार्ग को स्पष्ट दिशा न दे सके। साथ ही नेताओं का अहम् तथा महत्वाकांक्षा भी राजनीतिक पथ को अवरुद्ध करती रही।

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