सोमवार, 24 मई 2010

वीर विनायक दामोदर सावरकर

विनायक सावरकर भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के अग्रिम पंक्ति के सेनानी और प्रखर राष्ट्रवादी नेता थे। उन्हें प्राय: वीर सावरकर के नाम से सम्बोधित किया जाता है। हिन्दू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा (हिन्दुत्व) को विकसित करने का बहुत बडा श्रेय सावरकर को जाता है। ये न केवल स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी सेनानी थे अपितु महान क्रांतिकारी, चिंतक, सिद्धहस्त लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता भी थे। वे एक ऐसे इतिहासकार भी हैं जिन्होंने हिन्दू राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रमाणिक ढंग से लिपिबद्ध किया है। उन्होंने 1857 के प्रथम स्वातंत्र्य समर का सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिख कर ब्रिटिश शासन को हिला डाला।
विनायक सावरकर का जन्म महाराष्ट्र में नासिक के निकट भागुर गांव में हुआ था। इनकी माता जी का नाम राधाबाई तथा पिताजी का नाम दामोदर पन्त सावरकर था। इनके दो भाई गणेश (बाबाराव) व नारायण दामोदर सावरकर तथा एक बहन नैनाबाई थीं। जब ये केवल नौ वर्ष के थे तभी हैजे की महामारी में उनकी माता जी का देहान्त हो गया। इसके सात वर्ष बाद सन् 1899 में प्लेग की महामारी में उनके पिताजी भी स्वर्ग सिधारे। इसके बाद विनायक के बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन-पोषण का कार्य संभाला । दु:ख और कठिनाई की इस घड़ी में गणेश के व्यक्तित्व का विनायक पर गहरा प्रभाव पड़ा। विनायक ने शिवाजी हाईस्कूल नासिक से 1901 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। बचपन से ही वे पढ़ाकू थे। बचपन में उन्होंने कुछ कविताएँ भी लिखी थीं। आर्थिक संकट के बावजूद बाबाराव ने विनायक की उच्च शिक्षा की इच्छा को समर्थन दिया। इस अवधि में विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके मित्र मेलों का आयोजन किया। शीघ्र ही इन नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रान्ति की ज्वाला जाग उठी। सन् 1901 में रामचन्द्र त्रयम्बक चिपलूनकर की पुत्री यमुनाबाई के साथ उनका विवाह हुआ। उनके ससुर जी ने उनकी विश्वविद्यालय की शिक्षा का भार उठाया। 1902 में मैट्रिक की पढाई पूरी करके उन्होने पुणे के फग्र्युसन कालेज में नामांकन कराया।
लंदन आवास
सावरकर 1920-30 के दशक में1904 में उन्होने अभिनव भारत नामक एक क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की। 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। फर्ग्युसन कॉलेज, पुणे में भी वे राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देते थे। बाल गंगाधर तिलक के अनुमोदन पर 1906 में उन्हें श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली। इंडियन सोशियोलाजिस्ट और तलवार नामक पत्रिकाओं में उनके अनेक लेख प्रकाशित हुए, जो बाद में कलकत्ता के युगांतर पत्र में भी छपे। सावरकर रूसी क्रांतिकारियों से ज्यादा प्रभावित थे। 10 मई, 1907 को इन्होंने इंडिया हाउस, लंदन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयंती मनाई। इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संग्राम को गदर नहीं, बल्कि भारत की स्वतंत्रता का प्रथम महान संग्राम सिद्ध किया। जून, 1908 में इनकी पुस्तक द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस - 1857 तैयार हो गई, किंतु इसके मुद्रण की समस्या आई। इसके लिए लंदन, पेरिस, जर्मनी तक भी प्रयास असफल रहे। तब किसी प्रकार गुप्त रूप से हॉलैंड से प्रकाशित हुई व इसकी प्रतियां फ्रांस पहुंचायी गईं। इस पुस्तक में भी सावरकर ने इस लड़ाई को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतंत्रता की पहली लड़ाई बताया। मई 1909 में इन्होंने वहां से वकालत उत्तीर्ण की, जिसके अभ्यास की अनुमति इन्हें नहीं मिली। लंदन आवास के दौरान सावरकर की मुलाकात लाला हरदयाल से हुई। लंदन में वे इंडिया हाऊस की देखरेख भी करते थे। 1 जुलाई, 1909 को मदनलाल ढींगरा को गोली मार दिए जाने के बाद उन्होंने लंदन टाइम्स में भी एक लेख लिखा था। 13 मई, 1910 को पैरिस से लंदन पहुंचने पर गिरफ़्तार कर लिया गया, किंतु 8 जुलाई, 1910 को एस.एस.मोरिया नामक जहाज से भारत ले जाते हुए सीवर होल के रास्ते ये भाग निकले। 24 दिसंबर, 1910 को इन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई। इसके बाद 31 जनवरी, 1911 को इन्हें दोबारा आजीवन कारावास दिया गया। इस प्रकार सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने क्रांति कार्यों के लिए दो आजन्म कारावास की सजा दी, जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी। सावरकर के अनुसार -'मातृभूमि! तेरे चरणों में पहले ही मैं अपना मन अर्पित कर चुका हूं। देश सेवा में ईश्वर सेवा है, यह मानकर मैंने तेरी सेवा के माध्यम से भगवान की सेवा की।Ó
सेलुलर जेल में
नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या के लिए नासिक षडयंत्र काण्ड के अंतर्गत इन्हें 7 अप्रैल, 1911 को काला पानी की सजा पर सेलुलर जेल भेजा गया। उनके अनुसार यहां स्वतंत्रता सेनानियों को कड़ा परिश्रम करना पड़ता था। कैदियों को यहां नारियल छीलकर उसमें से तेल निकालना पड़ता था। साथ ही इन्हें यहां कोल्हू में बैल की तरह जुत कर सरसों व नारियल आदि का तेल निकालना होता था। इसके अलावा उन्हें जेल के साथ लगे व बाहर के जंगलों को साफ कर दलदली भूमी व पहाड़ी क्षेत्र को समतल भी करना होता था। रुकने पर उनको कड़ी सजा व बेंत व कोड़ों से पिटाई भी की जाती थीं। इतने पर भी उन्हें भरपेट खाना भी नहीं दिया जाता था। सावरकर 4 जुलाई, 1911 से 21 मई, 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे।
स्वतंत्रता संग्राम
1921 में मुक्त होने पर वे स्वदेश लौटे और फिर 3 साल जेल भोगी। जेल में इन्होंने हिंदुत्व पर शोध ग्रंथ लिखा। इस बीच 7 जनवरी, 1925 को इनकी पुत्री, प्रभात का जन्म हुआ। मार्च, 1925 को इनकी भेंट राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक, डॉ. हेडगेवार से हुई। 17 मार्च, 1928 को इनके बेटे विश्वास का जन्म हुआ। फरवरी, 1931 को इनके प्रयासों से बंबई में पतितपावन मंदिर की स्थापना हुई, जो सभी हिन्दुओं के लिए समान रूप से खुला था। 25 फरवरी, 1931 को सावरकर ने बंबई प्रेसिडेंसी अस्पृश्यता उन्मूलन सम्मेलन की अध्यक्षता की। 1937 में वे अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के कर्णावती (अहमदाबाद) में हुए 19वें सत्र में अध्यक्ष चुने गए, जिसके बाद वे पुन: सात वर्षों के लिए अध्यक्ष चुने गए। 15 अप्रैल, 1938 को इन्हें मराठी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष भी चुना गया। 13 दिसंबर, 1937 को नागपुर की एक जनसभा में उन्होंने अलग पाकिस्तान के लिए चल रहे प्रयासों असफल करने की प्रेरणा दी थी। । 22 जून, 1941 को इनकी भेंट नेताजी सुभाष चंद्र बोस से हुई। 9 अक्तूबर 1942 को भारत की स्वतंत्रता के निवेदन सहित उन्होंने चर्चिल को तार भेज कर सूचित किया। सावरकर जीवन भर जीवन अखंड भारत के पक्ष में रहे। स्वतंत्रता प्राप्ति के माध्यमों के बारे में गांधी और सावरकर का एकदम अलग दृष्टिकोण था। 1943 के बाद दादर, बंबई में रहे। 16 मार्च, 1945 को इनके भ्राता बाबूराव का देहान्त हुआ। 19 अप्रैल, 1945 को इन्होंने अखिल भारतीय रजवाड़ा हिन्दू सभा सम्मेलन की अध्यक्षता की। इसी वर्ष 8 मई इनकी पुत्री प्रभात का विवाह संपन्न हुआ। अप्रैल 1946 में बंबई सरकार ने सावरकर के लिखे साहित्य पर से निषेध हटा लिया।
स्वतंत्रता उपरांत जीवन
15 अगस्त, 1945 को इन्होंने सावरकर सदान्तो में भारतीय तिरंगा एवं भगवा, दोनो ध्वजारोहण किए। इस अवसर पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने पत्रकारों से कहा कि मुझे स्वराज्य प्राप्ति की खुशी है, परंतु वह खंडित है, इसका दु:ख है। उन्होंने यह भी कहा कि राज्य की सीमाएं नदी तथा पहाड़ों से या संधि पत्रों से निर्धारित नहीं होती हैं, वे देश के नवयुवकों के शौर्य, धैर्य, त्याग एवं पराक्रम से निर्धारित होती हैं। 5 फरवरी, 1948 को गांधीजी की हत्या के उपरांत इन्हें प्रिवेन्टिव डिटेन्शन एक्ट धारा के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया। 19 अक्तूबर, 1949 को इनके अनुज नारायणराव का देहान्त हो गया। 4 अप्रैल, 1950 को पाकिस्तानी प्रधान मंत्री लियाक़त अली ख़ान के दिल्ली आगमन की पूर्व संध्या पर इन्हें सावधानीवश बेलगाम जेल में रोक कर रखा गया। मई, 1952 में पुणे में एक विशाल सभा में अभिनव भारत संगठन को उसके उद्देश्य, भारतीय स्वतंत्रता प्राप्ति होने पर भंग किया गया। 10 नवंबर, 1957 को नई दिल्ली में आयोजित हुए, 1987 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शाताब्दी समारोह में ये मुख्य वक्ता रहे। 8 अक्तूबर, 1959 को इन्हें पुणे विश्वविद्यालय ने डी.लिट्ट की मानद उपाधि से अलंकृत किया। 8 नवंबर, 1963 को इनकी पत्नी यमुनाबाई चल बसीं। सितंबर, 1966 से इन्हें तेज ज्वर ने आ घेरा, जिसके बाद इनका स्वास्थ्य गिरने लगा। 1 फरवरी, 1966 को इन्होंने मृत्युपर्यन्त उपवास लिया। 26 फरवरी 1966 को बंबई में भारतीय समयानुसार प्रात: 10 बजे इन्होंने पार्थिव शरीर छोड़कर परमधाम को प्रस्थान किया।

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