सोमवार, 10 मई 2010

आँख से 'आंसू' नहीं शोले निकलने चाहिए

एक बार अपनी गाड़ी के नीचे एक गिलहरी के दब कर मर जाने के बाद नेहरू की प्रतिक्रिया थी कि इस जैसा फुर्तीला जानवर इसलिए मृत्यु को प्राप्त हुआ क्योंकि वह ऐन गाड़ी के सामने आ जाने पर तय ही नहीं कर पाया कि उसको आखिर जाना किधर है। छत्तीसगढ़ के दंतेवाडा जिले के मुकराना के घने जंगलों में केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल की 80 सदस्यीय 62 वीं बटालियन पर नक्सलियों द्वारा किये गए सबसे बड़े हमले में देश को अपने दर्जऩों जवानों से हाथ धोना पड़ा है। तो अपने जांबाजों की शहादत एवं सरकारों की भूमिका पर वही कहानी याद आ रही है। वास्तव में आज के लोकतंत्र के कर्णधार-गण ऐसी ही गिलहरी हो गए हैं जिनको पता ही नहीं है कि आखिर जाना किधर है। निश्चित ही यह अवसर किसी भी तरह के आरोप-प्रत्यारोप का नहीं है, ना ही मामला कांग्रेस और बीजेपी का है। मामला सीधे लोकतंत्र से जुड़ा हुआ है। सीधी सी बात ये है कि इस मामले में देश में कोई तीसरा विकल्प नहीं है। आप चाहें तो लोकतंत्र के पक्ष में दिखें या उसके खिलाफ। और उसके खिलाफ जाने वाले लोगों, संस्थाओं, नेपथ्य से संचालित हो रहे समूहों के साथ आखिर हमें कैसा सलुक करना चाहिए यह अगर हम एक बार तय कर लें तो ये कोई इतनी बड़ी लड़ाई नहीं है जिसमें विजय न पायी जा सके। बिना किसी भी तरह के पूर्वाग्रह रखते हुए भी आप सोचें। क्या आपको ऐसा लग रहा है कि नक्सलियों के खिलाफ सरकारों के पास किसी भी तरह की कोई स्पष्ट नीति है? इतनी बड़ी विभीषिका, देश के अंदर चलने वाले वाले इतनी बड़ी लड़ाई, संगठित गिरोहों द्वारा लोकतंत्र के समक्ष उत्पन्न कर दी गयी इतनी बड़ी चुनौती के बाद भी क्या हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें? मसले का हल बातचीत से हो, गोली से होगी, इलाके का विकास करने के बाद ही नक्सलियों का सफाया सम्भव है या नक्सलियों के सफाए के बाद हम विकास की बात सोचेंगे, इसमें सभी विकल्प या कोई एक विकल्प अपनाना ज़रूरी है? यह आतंकवाद है या विचार धारा की लड़ाई है, यह राज्य का मामला या केंद्र का, क़ानून व्यवस्था का है या राष्ट्रीय चुनौती इनमें से किसी भी बात पर अगर हम कोई सर्वसम्मत रुख नहीं अपना सकें तो फिर कैसे पार पा सकते हैं आप इस चुनौती से? सवाल केवल मज़बूत इच्छा शक्ति और बिना किसी भी तरह के राजनीतिक लाभ-हानि का विचार किये उस पर अमल का है। ऊपर जितने तरह के विरोधाभासों या दुविधा की चर्चा की गयी है, अगर आप केन्द्रीय गृह मंत्री मंत्री के नक्सल मामले में दिए गए आज तक के सभी बयानों पर गौर फरमायें तो लगेगा कि वास्तव में अलग-अलग मौके पर उनके ऐसे बयानों से हमारा सबका वास्ता पड़ता रहा है। तो बात इसी मौका परस्ती की है। अगर आप अपनी राजनीतिक स्थिति एवं सुविधाओं के अनुकूल ही चीज़ों को परिभाषित करने की बात करना चाहेंगे तो कैसे पार पा सकते हैं ऐसी विकराल समस्या से? चीजें आपकी सुविधा अनुसार तो बदलनी है नहीं। आप चिदंबरम जी के लालगढ़ में दिए बयान पर गौर कीजियेÓ वहाँ वो युद्ध के लिए तैयार नक्सलियों को बात-चीत के लिए ही आमंत्रित करने की कोशिश करते दिखे। जबकि इससे पहले किशन जी और उनके साथ फोन-फैक्स नंबर के आदान-प्रदान जैसा बचकाना मामला भी लोगों को देखने को मिला था। इसी तरह जहां मुख्यधारा के सभी विचारक-चिन्तक और राजनीतिक दल भी नक्सलियों को चोर-लुटेरों का गिरोह साबित करने में प्राण-पण से जुटे हो, यहाँ तक कि इस वाद के जन्मदाता कहे जाने वाले कानू सान्याल भी जिसको आतंकवाद कहने लगे थे। और हताश होकर जिन्होंने आत्महत्या तक कर ली हो वहाँ पर छत्तीसगढ़ का पुलिस अधिकारी किसी अन्य राज्य में जा कर नक्सलवाद को विचारधारा साबित करने पर तुल जाए, क्या अर्थ है इन बेतुकी बातों का? जिन-जिन लोगों को यह लगता हो कि आतंकवाद का खात्मा बन्दूक से नहीं हो सकता उनके लिए हालिया श्रीलंका का या उससे पहले पंजाब के उदाहरण पर गौर करना चाहिए। अगर लिट्टे के खिलाफ श्रीलंका की सरकार भी बात-चीत का राग ही अलापती रहती तो पीढिय़ों तक ऐसे ही असुरक्षित रहता वह देश भी। या अगर इंदिरा गांधी ने स्वर्ण-मंदिर में सेना न भेजी होती, पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री बेअंत सिंह अपनी जान की कीमत पर भी अगर आतंकियों को कुचलने हेतु दृढ़ प्रतिज्ञ नहीं होते तो शायद वह सरहदी राज्य आज भारत का हिस्सा ही नहीं रह गया होता। तो अब यह समय आ गया है कि देश नक्सल मामले को लोकतंत्र के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती के रूप में देखें। बिना किसी भी तरह के दवाव में आये इसको कुचलने और केवल कुचलने की नीति पर ही कायम रहें। प्रजातंत्र के इस महाभारत में शिखंडी की भूमिका निभाने वाले कुछ कलमकारों, विदेशी दलाल / दलालियों की जम कर उपेक्षा और अगर ज़रूरत हो तो उनके हाथ तोड़ देने से भी बाज़ ना आने की इच्छा शक्ति दिखलाये। ऐसे लोगों के लिए जन-सुरक्षा कानून का इस्तेमाल और बाकियों के लिए गोली, इस नीति पर चलें तो यह ऐसी बड़ी समस्या नहीं है जिससे पार ना पाया जा सके। अगर रणनीतिक तौर पर सोचा जाय तो इस मामले के लिए अनुकूलतम् स्थिति भी है। यह काफी सालों के बाद पहला मौका है जब नक्सलियों के मौसेरे भाई वाम-पंथियों की केंद्र में कोई हैसियत नहीं रह गयी है। साथ ही बचे खुचे कम्युनिस्ट खुद भी अब इन गिरोहों से मुक्ति चाहते हैं। तो इस मौके का इस्तेमाल कर लोकतंत्र की यमुना में नाग की तरह फन काढे इन लुटेरों को कुचलने में जी-जान से जुट जाए। निश्चित ही अपने जवानों की शहादत पर खून के आंसू रोने का दिल कर रहा है। किसी भी देशभक्त के लिए इस मौके पर चुप रहना संभव नहीं। लेकिन यह शहादत और गौरव की बात होती अगर हमारे 75 जवानों के बदले 750 राक्षसों का सर कलम करने में हमें सफलता मिली होती। आइये हम इसको नक्सलियों की कायराना हरकत नहीं कहें। उन्होंने तो अपने तरीके से बड़ी सफलता हासिल की है। बस इस शहादत का सबसे बड़ा सम्मान यही हो सकता है कि सभी सरकारें मिल-जुल कर यह घोषित करें कि नक्सल मामले में सभी कंधे से कंधे मिला कर चलेंगे। भविष्य में इनसे किसी भी तरह से बातचीत की बात करके अपने जवानों की शहादत को कलंकित नहीं करेंगे। जवानों से दस गुना संख्या में नक्सलियों का सर प्राप्त किये बिना चैन से नहीं बैठेंगे। लोकतंत्र के विरुद्ध दुष्प्रचार करने वाले हाथ को भी तोड़ कर दम लेंगे। इन गिरोहों को कभी 'अपने लोगÓ का संबोधन देने का पाप नहीं करेंगे। सीधे तौर पर नक्सलियों को अपना दुश्मन समझेंगे। अगर अमृतसर की तरह से सेना का भी इस्तेमाल करना पड़े तो भी पीछे नहीं हटेंगे। लोकतंत्र पर आये इस संकट का पूरे दमदारी से सामना करने को तैयार रहेंगे चाहे इंदिरा-राजीव गाँधी की तरह बम से उड़ जाना पड़े या मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की तरह चीथड़े उड़ जाए। शहीद जवानों की एक मात्र श्रद्धांजलि देश के चप्पे-चप्पे पर लोकतंत्र की वापसी करके ही दी जा सकती है। आजादी के दीवाने सेनानियों की तरह ही दंतेवाडा में शहीद हुए जांबाजों को सदियों तक देश याद रखेगा। अमर रहे ये सेनानी और कायम रहे उनका गुणगान करने को ये कायनात और लोकतंत्र।

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