गुरुवार, 27 मई 2010

विवाह पंजीकरण से बहु-विवाह तक कानून बना तो झुके मुल्ला-मौलवी

इसमें संदेह नहीं है कि समय-समय पर होने वाले सामाजिक परिवर्तनों के लिए पुरानी मान्यताओं को जगह बनानी पड़ती है। समाज की गतिविधियां एक नदी के समान होती हैं, जिस पर कानून बहती धारा की भूमिका अदा करता है। पुराने कानून और परम्पराएं जब समाज के लिए दु:खद स्थिति पैदा कर देती हैं तो फिर उनमें बदलाव आना अनिवार्य हो जाता है। इसी तरह कुछ कट्टर सोच के लोगों के साथ जुड़ा वर्ग जब यह समझने लगता है कि उसके पुराने कायदे-कानून ही उसके लिए अंतिम हैं, तब समाज में विद्रोह पनपता है। समझदार सरकार वह है जो समय रहते उन पुराने कायदे-कानूनों में बदलाव की प्रक्रिया प्रारंभ कर दे। जो कानून समाज को दुखी करने लगते हैं उन्हें कितना ही अपने सीने से चिपकाए रखें, लेकिन समय के साथ उनमें बदलाव करना ही पड़ता है। मुस्लिम समाज निकाह के पंजीकरण के मामले में हमेशा अपना विरोध दर्ज कराता आ रहा था। उसके अगुआ मुल्ला-मौलवी यह कहा करते थे कि "यह तो हमारे समाज की पहचान है, इसे कयामत तक कोई नहीं बदल सकता।" दूसरी ओर, दुनिया में जिन भी देशों में मुस्लिम सरकारें हैं वहां लाख विरोध के बाद भी निकाह का पंजीकरण अनिवार्य कर दिया गया है। जब विदेश यात्रा के समय पति-पत्नी के लिए विवाह पंजीकृत कराने की अनिवार्यता प्रारंभ हुई तो फिर शनै: शनै: यह कहा जाने लगा कि पंजीकरण कराने में कोई हर्ज नहीं है। भारत में अब तक पारिवारिक अदालतों में ऐसे पंजीकरण का काम होता था, लेकिन पिछले दिनों मुम्बई जैसे महानगर में महापालिका ने विवाह पंजीकरण की सुविधा उपलब्ध करवा दी। गत 5 मार्च से मुम्बई महापालिका के अंतर्गत सभी वार्डों में विवाह पंजीकरण आरम्भ हो गया है। विवाहित युगल यदि तीन माह के भीतर विवाह का पंजीकरण कराते हैं तो उसका 250 रुपए शुल्क देना होता है। एक वर्ष के पश्चात् यह शुल्क 350 रुपए हो जाएगा। मुस्लिम युगल को पंजीकरण के अवसर पर अपने साथ निकाहनामा भी लाना पड़ेगा, जिस पर काजी का पंजीकरण क्रमांक और मुहर लगी होनी चाहिए। उन्हें साथ में तीन साक्षी भी लाने होंगे। तीन साक्षियों के चित्र एवं उनके निवास का सबूत भी देना पड़ेगा। पंजीकरण के लिए दूल्हा-दुल्हन का चित्र भी साथ में होना अनिवार्य है। यह व्यवस्था आरम्भ होने के बाद से मुस्लिम समाज के लोग भी नियमानुसार अपना पंजीकरण करवा रहे हैं। इस पंजीकरण से फर्जी विवाहों पर प्रभावी लगाम भी लगेगी। कल तक कट्टर मुल्ला-मौलवी निकाह पंजीकरण को गैर इस्लामी और "मुस्लिम पर्सनल लॉ" विरोधी कहते थे, लेकिन अब सभी को यह नियम स्वीकार करना पड़ा है। मतदाता पहचान पत्र पर महिलाओं के फोटो सम्बंधी एक घटना पिछले दिनों निर्वाचन आयोग के समक्ष भी आई थी। तब निर्वाचन आयोग ने सख्ती के साथ यह आदेश जारी किया कि महिला मतदाता का चेहरा फोटो में दिखना चाहिए। पर्दे के भीतर चेहरे वाले फोटो का कार्ड मान्य नहीं होगा। मुस्लिम नेताओं और मौलानाओं ने इस पर भी आपत्ति जताई। उनका कहना था कि पर्दा इस्लामी शरीयत का अनिवार्य अंग है। इसलिए मुस्लिम महिला अपना चेहरा खुला रख कर तस्वीर नहीं खिंचवाएगी। यह मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा। न्यायालय ने निर्वाचन आयोग की दलील मान्य की। उसने अपने फैसले में कहा कि हर महिला मतदाता का मतदाता पहचान पत्र पर चेहरा साफ दिखना जरूरी है। मुस्लिम नेताओं और मौलानाओं को घुटने टेक देने पड़े और बिना पर्दे के चेहरा दर्शाते हुए खींचे गए फोटो के नियम को स्वीकार कर लिया गया। इस अवसर पर भी "मुस्लिम पर्सनल लॉ" की दुहाई दी गई, लेकिन कट्टरवादियों को तकनीकी आवश्यकताओं और कानून के सामने अपनी इस अकड़ और कट्टरता को त्यागना पड़ा। इसलिए अब यह लगता है कि भारत में वह दिन दूर नहीं है जब संसद में समान नागरिक कानून का विधेयक पारित हो जाएगा। भारतीय संविधान में इसकी व्यवस्था है, लेकिन एक वर्ग विशेष को मजहब के नाम पर खुश करने के लिए लगभग सभी सरकारों ने इस सम्बंध में पहल नहीं की थी। लेकिन अब हालात बता रहे हैं कि "मुस्लिम पर्सनल लॉ" के कारण जो कठिनाई आती है और अन्याय होता है उसे समाज और सरकार बहुत दिनों तक बर्दाश्त नहीं कर सकती।

"मुस्लिम पर्सनल लॉ" की धज्जियां उड़ा देने वाली एक घटना राजस्थान में घटी। शरीयत भले ही किसी मुस्लिम पुरुष को चार पत्नियां रखने का अधिकार दे, लेकिन राजस्थान लोक सेवा (1971) के कानून के अनुसार, कोई मुस्लिम पुरुष एक पत्नी के रहते हुए दूसरा निकाह नहीं कर सकता है। वहां 22 वर्ष पूर्व लियाकत अली ने दूसरा निकाह किया था, जबकि उसकी पहली पत्नी जीवित थी। लियाकत ने उसे तलाक भी नहीं दिया था। दूसरा निकाह करने की वजह से उसे अपनी पुलिस की नौकरी गंवा देनी पड़ी। उसे पुलिस सेवा से बर्खास्त कर दिया गया, क्योंकि पहली पत्नी होने के बावजूद उसने दूसरा निकाह कर लिया था। लियाकत को लगता था कि मुस्लिम होने के नाते उसे शरीयत कानून एक से अधिक पत्नी रखने की आज्ञा देता है। किन्तु अदालत ने उसकी इस दलील को मान्य नहीं किया। लियाकत का कहना था कि भारत का संविधान "मुस्लिम पर्सनल लॉ" को मान्यता देता है, ऐसी स्थिति में दूसरा निकाह उसका अधिकार है। 22 वर्ष की लम्बी अवधि के पश्चात मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा। सर्वोच्च न्यायालय ने उसकी याचिका को ठुकरा दिया और अपने फैसले में यह कहा कि राजस्थान लोक सेवा नियम के अनुसार, लियाकत ऐसा नहीं कर सकता है। अब इस मामले को लेकर राजस्थान में "मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड" आन्दोलन चला रहा है। इसका परिणाम तो जो आना था, वह आ गया। लेकिन इससे एक बात सिद्ध हो गई कि लोक सेवा के कानून "मुस्लिम पर्सनल लॉ" से अधिक वजन रखते हैं। जिस बहु-विवाह के अधिकार पर मुस्लिम आग्रह करता है और उसे अपनी पहचान मानता है उसे सर्वोच्च न्यायालय मान्यता नहीं देता। पिछले दिनों सऊदी अरब की एक महिला नदीन ने इजिप्ट में यह सवाल उठाया कि यदि एक पति चार पत्नियां रख सकता है, तो एक पत्नी चार पति क्यों नहीं? (देखें, पाञ्चजन्य 14 फरवरी, 2010) इससे मिलता-जुलता मामला केरल उच्च न्यायालय में सामने आया। सामान्य धारणा यह है कि इस्लाम में तलाक देने का विशेषाधिकार पुरुषों के लिए सुरक्षित है। लेकिन केरल उच्च न्यायालय की एक खण्डपीठ ने "मुस्लिम पर्सनल लॉ" के मजहबी रुाोत कुरान शरीफ को आधार बनाते हुए फैसला सुनाया कि जिस तरह यह मजहबी ग्रंथ एक निकाह की स्थिति में मुस्लिम पुरुषों को अपने विवेक के आधार पर अपनी पत्नी को तलाक देने का अधिकार देता है वैसा ही अधिकार बहु-विवाह की स्थिति में पति के विरुद्ध उसकी पत्नी को भी देता है। बहु-विवाह का अधिकार देते समय यह कहा गया कि "एक पति अपनी सभी पत्नियों के साथ एक जैसा व्यवहार करे। यदि ऐसा नहीं कर सकते हो तो फिर तुम्हें एक से अधिक निकाह करने का अधिकार नहीं हो सकता।" बहुविवाह की स्थिति में यदि किसी पत्नी को ऐसा लगता है कि उसका पति उसके साथ न्याय और बराबरी के साथ पेश नहीं आ रहा है तो यह किसी के सामने सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। इस्लाम में पुरुषों के तलाक के अधिकार की तरह महिलाओं को भी "खुला" लेने का अधिकार दिया गया है। चूंकि महिला अधिक भावुक होती है, इसलिए उसे अदालत को सबूतों के साथ यह बताना पड़ता है कि अब उसके लिए अपने पति के साथ रहना असम्भव हो गया है। विवेक के मामले में महिला को पुरुषों की तुलना में कमतर आंकना कहां तक ठीक है, यह बहस मुसलमानों में तीव्रता से चल रही है। मौजूदा समय में "खुला" लेने की छूट इसलिए नहीं दी जा सकती है कि इससे एक पति और एक पत्नी के बीच भी यह शुरुआत होने का खतरा है। केरल उच्च न्यायालय ने उक्त फैसला बहु-विवाह के सम्बंध में दिया है। इसलिए लगता है, फिलहाल तो एक पति और एक पत्नी के बीच यह शुरुआत नहीं होगी। लेकिन इससे एक बात साफ है कि "खुला" का दायरा और उसका महत्व बढ़ा है। अब तक मुस्लिम महिला लाचार थी, लेकिन अब उसे यह अधिकार दे दिया गया है।

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